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जीवन कहानी

मैं अपने हाथ ढीले नहीं पड़ने दूँगा

मैं अपने हाथ ढीले नहीं पड़ने दूँगा

बेथेल में जवान भाई-बहन अकसर मुझे प्यार से “डैडी,” “पापा” या “अंकल” बुलाते हैं। और क्यों न बुलाएँ, आखिर मैं 89 साल का जो हो गया हूँ। मुझे यह सुनना अच्छा भी लगता है। उनका इस तरह पुकारना मेरे लिए किसी आशीष से कम नहीं। मुझे पूरे समय की सेवा करते 72 साल हो गए हैं। इसी तजुरबे की वजह से मैं पूरे यकीन से नौजवानों से कह पाता हूँ, ‘अगर तुम अपने हाथ ढीले न पड़ने दो, तो तुम्हें अपने काम का ज़रूर इनाम मिलेगा।’​—2 इति. 15:7, फु.

मेरा परिवार

मेरे माता-पिता यूक्रेन से आकर कनाडा में बस गए थे। वे मैनिटोबा प्रांत के एक कसबे रॉसबर्न में रहते थे। हमारे परिवार में 16 बच्चे थे, 8 लड़के और 8 लड़कियाँ। तेरह बच्चों के बाद मैं पैदा हुआ। पिताजी को बाइबल से बहुत लगाव था। हर रविवार सुबह वे हमें बाइबल पढ़कर सुनाते थे। मगर उन्हें धर्म बिलकुल पसंद नहीं था, क्योंकि उन्हें लगता था कि धर्म के अगुवे लोगों की मदद करने से ज़्यादा उनसे पैसा ऐंठते हैं। पिताजी मज़ाक में कहते थे, “मैं अकसर सोचता हूँ, लोगों को प्रचार करने और सिखाने के लिए यीशु को कौन पैसा देता था?”

कुछ समय बाद मेरे चार भाइयों और चार बहनों ने सच्चाई स्वीकार कर ली। मेरी एक बहन, जिसका नाम रोज़ था, अपनी मौत तक पायनियर सेवा करती रही। अपने आखिरी दिनों में वह हर किसी से कहती थी कि परमेश्‍वर के वचन पर ध्यान दो, क्योंकि मैं आपको नयी दुनिया में देखना चाहती हूँ। मेरे एक बड़े भाई टेड पहले नरक के बारे में सिखाते थे। हर रविवार सुबह वे रेडियो पर ज़ोरदार भाषण देते थे। वे कहते थे कि पापियों को नरक की आग में सदा तड़पाया जाएगा। लेकिन बाद में वे यहोवा के साक्षी बन गए। वे वफादारी और जोश से परमेश्‍वर की सेवा करने लगे।

पूरे समय की सेवा की शुरूआत

जून 1944 की बात है। एक दिन मैं स्कूल से घर आया, तो मैंने खाने की मेज़ पर एक पुस्तिका देखी, जिसका नाम था आनेवाली दुनिया में नया जीवन (अँग्रेज़ी)। * पहला पेज पढ़ने के बाद मुझे वह पुस्तिका इतनी अच्छी लगी कि मैं उसे पढ़ता ही गया। उसे पूरा पढ़ने के बाद मैंने फैसला किया कि यीशु की तरह मैं भी यहोवा की सेवा करूँगा।

लेकिन वह पुस्तिका मेरे घर आयी कैसे? मेरे दूसरे बड़े भाई स्टीव ने बताया कि दो आदमी घर-घर जाकर किताबें और पुस्तिकाएँ बेच रहे थे। भाई ने कहा कि उसने उनसे यह पुस्तिका खरीदी, क्योंकि इसकी कीमत बहुत कम थी। वे दोनों आदमी रविवार को फिर आए। उन्होंने बताया कि वे यहोवा के साक्षी हैं और लोगों के सवालों के जवाब बाइबल से देते हैं। यह बात हमें अच्छी लगी, क्योंकि हमारे माता-पिता ने हमें बचपन से ही परमेश्‍वर के वचन का आदर करना सिखाया था। उन आदमियों ने यह भी बताया कि बहुत जल्द विनिपेग में यहोवा के साक्षियों का अधिवेशन होनेवाला है। उसी शहर में मेरी बहन एलसी रहती थी। मैंने उस अधिवेशन में जाने का मन बना लिया।

मैं करीब 320 कि.मी. साइकिल चलाकर विनिपेग गया। बीच में मैं कैलवुड कसबे में रुका, जहाँ वे दो साक्षी रहते थे, जो हमारे घर आए थे। वहाँ मैं साक्षियों की एक सभा में भी गया और पहली बार एक मंडली देखी। मैंने यह भी सीखा कि हर किसी को यीशु की तरह शिक्षक होना चाहिए और घर-घर जाकर प्रचार करना चाहिए, फिर चाहे वह आदमी हो या औरत, बुज़ुर्ग हो या जवान।

विनिपेग पहुँचने पर मैं अपने एक और बड़े भाई जैक से मिला। वे भी उत्तरी ऑन्टेरीयो से अधिवेशन के लिए आए हुए थे। अधिवेशन के पहले दिन एक भाई ने घोषणा की कि बपतिस्मा होगा। मैंने और मेरे भाई जैक ने बपतिस्मा लेने का फैसला किया। हमने यह भी ठान लिया कि बपतिस्मे के बाद जितनी जल्दी हो सके, हम पायनियर सेवा शुरू करेंगे। मेरे भाई जैक ने अधिवेशन के फौरन बाद पायनियर सेवा शुरू कर दी। मगर मैं 16 साल का था, इसलिए मुझे स्कूल की पढ़ाई पूरी करनी पड़ी। लेकिन अगले साल मैंने भी पायनियर सेवा शुरू कर दी।

कई अनमोल सबक

मैंने मैनिटोबा प्रांत के सुरस कसबे में पायनियर सेवा शुरू की। मेरा साथी स्टैन निकलसन था। मैं कुछ ही दिनों में समझ गया कि पायनियर सेवा इतनी आसान नहीं होती। कई बार हमारे पैसे खत्म हो जाते थे, फिर भी हम प्रचार करना नहीं छोड़ते थे। एक बार पूरा दिन प्रचार करने के बाद जब हम घर लौट रहे थे, तो हमें बहुत भूख लगी थी, मगर हमारे पास एक पैसा भी नहीं था। घर पहुँचने पर हमने देखा कि दरवाज़े पर खाने-पीने की चीज़ों से भरा एक बोरा रखा है। हम हैरान रह गए! आज तक हमें नहीं पता कि वह बोरा किसने रखा था। उस शाम हमने जी-भरकर खाया। अपने हाथ ढीले न पड़ने देने का हमें क्या ही बढ़िया इनाम मिला! यही नहीं, महीने के आखिर में मैंने देखा कि मेरा वज़न इतना बढ़ गया है, जितना पहले कभी नहीं हुआ था।

कुछ महीनों बाद हमें सुरस से करीब 240 कि.मी. दूर उत्तर में गिलबर्ट प्लेन्स नाम के कसबे में भेजा गया। उन दिनों हर मंडली स्टेज पर एक बड़ा-सा चार्ट लगाती थी। उस चार्ट पर हर महीने की प्रचार सेवा की रिपोर्ट लिखी होती थी। जब किसी महीने की रिपोर्ट के आँकड़े कम हो जाते थे, तो मैं मंडली में भाषण देता था कि भाई-बहनों को और भी मेहनत करनी चाहिए। एक बार जब मैंने ऐसा किया, तो सभा के बाद एक बुज़ुर्ग पायनियर बहन मेरे पास आयी। उसका पति सच्चाई में नहीं था। उस बहन की आँखों में आँसू थे और उसने कहा, “मैंने कोशिश की थी, मगर मैं ज़्यादा नहीं कर पायी।” यह सुनकर मेरी भी आँखें भर आयीं और मैंने उससे माफी माँगी।

जो गलती मुझसे हुई, वैसी गलती अकसर जवान और जोशीले भाइयों से हो जाती है और फिर वे निराश हो जाते हैं। लेकिन मैंने सीखा है कि ऐसे में हमें अपने हाथ ढीले नहीं पड़ने देना चाहिए। इसके बजाय हमें अपनी गलतियों से सबक सीखकर आगे बढ़ना चाहिए। अगर हम वफादारी से सेवा करते रहें, तो इसका इनाम हमें ज़रूर मिलेगा।

क्युबेक में कानूनी लड़ाई

जब मैं 21 साल का हुआ, तब मुझे गिलियड स्कूल की 14वीं क्लास में जाने का सम्मान मिला। हमारी क्लास का ग्रैजुएशन फरवरी 1950 में हुआ था। उस क्लास के करीब एक-चौथाई भाई-बहनों को कनाडा के क्युबेक प्रांत में भेजा गया, जहाँ फ्रांसीसी भाषा बोली जाती थी। वहाँ के साक्षियों पर बुरी तरह ज़ुल्म ढाए जा रहे थे। मुझे प्रचार के लिए वाल-डोर कसबे में भेजा गया, जहाँ सोने की खान थी। एक दिन हमारा समूह पास के एक गाँव वाल-सैनविल में प्रचार करने गया। वहाँ के पादरी ने हमें धमकी दी कि अगर हम फौरन वहाँ से नहीं निकले, तो हमारी खैर नहीं। मैंने उसके खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया। अदालत में मुकदमे की सुनवाई होने पर उस पादरी पर जुरमाना लगाया गया। *

यह घटना और ऐसी कई और घटनाएँ “क्युबेक में कानूनी लड़ाई” का किस्सा बन गयीं। क्युबेक प्रांत पर रोमन कैथोलिक चर्च का 300 से भी ज़्यादा सालों तक दबदबा रहा था। वहाँ के पादरियों और सरकारी अधिकारियों की आपस में साठ-गाँठ थी। इस वजह से उन्होंने मिलकर यहोवा के साक्षियों पर ज़ुल्म ढाए। यह हमारे लिए बहुत मुश्‍किल दौर था और हम गिनती में भी कम थे, फिर भी हमने अपने हाथ ढीले नहीं पड़ने दिए। क्युबेक के नेकदिल लोगों ने हमारा संदेश स्वीकार किया। जिन लोगों के साथ मैंने बाइबल अध्ययन किया, उनमें से कई सच्चाई में आए। एक परिवार में तो दस लोग थे। वह पूरा परिवार सच्चाई में आया। उनकी हिम्मत देखकर और भी कई लोगों ने चर्च छोड़ दिया। हम प्रचार करते रहे और आखिरकार कानूनी लड़ाई जीत गए!

भाइयों को उनकी अपनी भाषा में प्रशिक्षण दिया गया

सन्‌ 1956 में मुझे हैती भेजा गया। वहाँ हाल ही में आए ज़्यादातर मिशनरियों को फ्रांसीसी भाषा सीखने में बहुत मुश्‍किल हो रही थी। भले ही वे प्रचार करते वक्‍त टूटी-फूटी फ्रांसीसी में बात करते थे, फिर भी लोग उनकी सुनते थे। एक मिशनरी भाई स्टैनली बोगस ने कहा, “हैरानी की बात है कि जब हम लोगों को संदेश सुनाते थे, तो वे ही समझाते थे कि हमें अपनी बात उनकी भाषा में कैसे कहनी है।” पहले तो मुझे लगा कि मेरे लिए यह कोई समस्या नहीं, क्योंकि मैंने क्युबेक में रहते वक्‍त फ्रांसीसी सीख ली थी। मगर जल्द ही मुझे एहसास हुआ कि हैती के ज़्यादातर भाई हेतीन क्रियोल भाषा बोलते हैं। हम मिशनरी समझ गए कि अगर हम अपनी सेवा अच्छी तरह करना चाहते हैं, तो हमें वहाँ की भाषा सीखनी होगी। हमने वही किया और हमें अपनी मेहनत का फल मिला।

भाइयों की और भी मदद करने के लिए हमने शासी निकाय से इजाज़त माँगी कि क्या हम प्रहरीदुर्ग और दूसरे प्रकाशनों का अनुवाद हेतीन क्रियोल में कर सकते हैं। शासी निकाय ने मंज़ूरी दे दी। जब हेतीन क्रियोल में प्रकाशन छापे गए, तो पूरे देश में सभाओं की हाज़िरी तेज़ी से बढ़ गयी। सन्‌ 1950 में हैती में सिर्फ 99 प्रचारक थे, लेकिन 1960 तक उनकी गिनती बढ़कर 800 से भी ज़्यादा हो गयी! उसी दौरान मुझे बेथेल में सेवा करने के लिए भेजा गया। सन्‌ 1961 में मुझे राज-सेवा स्कूल चलाने का सम्मान मिला। हमने 40 भाइयों को प्रशिक्षण दिया, जो प्राचीन या खास पायनियर थे। फिर जनवरी 1962 के अधिवेशन में हमने काबिल भाइयों से कहा कि वे यहोवा की सेवा और ज़्यादा करें। कुछ भाइयों को हमने खास पायनियर भी नियुक्‍त किया। यह सब करना एकदम सही साबित हुआ, क्योंकि कुछ ही समय बाद साक्षियों पर ज़ुल्म होने लगा।

अधिवेशन के फौरन बाद यानी 23 जनवरी, 1962 को अधिकारियों ने मिशनरी भाई ऐन्ड्रू डेमीको को और मुझे शाखा दफ्तर से गिरफ्तार कर लिया। उन्होंने 8 जनवरी, 1962 की सजग होइए! की सारी कॉपियाँ भी ज़ब्त कर लीं, जो फ्रांसीसी में थीं। उस सजग होइए! के एक लेख में यह रिपोर्ट छपी थी कि हैती में जादू-टोना किया जाता है। यह रिपोर्ट फ्रांसीसी अखबारों से ली गयी थी। कुछ लोगों को यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने कहा कि यह लेख हमारे शाखा दफ्तर में ही लिखा गया है। कुछ हफ्तों बाद मिशनरियों को देश से निकाल दिया गया। * लेकिन वहाँ के जिन भाइयों को प्रशिक्षण मिला था, उन्होंने बहुत बढ़िया तरीके से काम जारी रखा। जिस तरह उन्होंने धीरज रखा और अपना विश्‍वास मज़बूत किया, उससे वे बहुत खुश हैं और मुझे भी बेहद खुशी होती है। अब तो उनके पास हेतीन क्रियोल में पवित्र शास्त्र का नयी दुनिया अनुवाद भी है। उस वक्‍त हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि हेतीन क्रियोल में यह बाइबल होगी।

मध्य अफ्रीकी गणराज्य में निर्माण काम

हैती के बाद मुझे मध्य अफ्रीकी गणराज्य में मिशनरी सेवा के लिए भेजा गया। बाद में वहाँ मुझे सफरी निगरान के तौर पर और फिर शाखा निगरान के तौर पर सेवा करने का सम्मान मिला।

उन दिनों साक्षियों के राज-घर बहुत साधारण होते थे। मैंने घास-फूस इकट्ठा करना और छप्पर डालना सीखा। यह काम मेरे लिए आसान नहीं था। जब मैं यह काम करता था, तो मेरा हाल देखते बनता था। आते-जाते लोग मुझे देखने के लिए रुक जाते थे। मुझे यह काम करते देख भाइयों को बढ़ावा मिला कि वे अपना राज-घर बनाने और उन्हें अच्छी हालत में रखने के लिए मेहनत करें। चर्च के अगुवे हमारा मज़ाक उड़ाते थे, क्योंकि उनके चर्च की छत टिन की होती थी, जबकि हमारे राज-घर की छत घास-फूस की होती थी। हमने इसकी कोई परवाह नहीं की। हम अपने साधारण-से राज-घरों में सभाओं के लिए इकट्ठा होते रहे। फिर जब एक भयानक तूफान ने वहाँ की राजधानी बांगुई को अपनी चपेट में ले लिया, तो चर्चवालों का हम पर हँसना बंद हो गया। जानते हैं क्यों? उस तूफान में एक चर्च की टिन की छत उड़कर मुख्य सड़क पर जा गिरी, लेकिन हमारे राज-घरों की घास-फूस की छतें टिकी रहीं। मध्य अफ्रीकी गणराज्य में राज के कामों की अच्छी तरह निगरानी करने के लिए हमने एक नए शाखा दफ्तर और मिशनरी घर का निर्माण किया। यह काम हमने सिर्फ पाँच महीनों के अंदर पूरा कर दिया। *

शादी के बाद जीवन

हमारी शादी का दिन

सन्‌ 1976 में मध्य अफ्रीकी गणराज्य में साक्षियों के काम पर पाबंदी लगा दी गयी। इस वजह से मुझे पास के एक देश चाड की राजधानी एन जामेना भेज दिया गया। हालाँकि मैं थोड़ा दुखी था, मगर एक खुशी की बात यह थी कि वहाँ मैं अपने जीवन-साथी से मिला। उसका नाम हैपी था और वह एक जोशीली खास पायनियर थी। वह दरअसल कैमरून से थी। एक अप्रैल, 1978 को हमारी शादी हुई। उसी महीने वहाँ गृह-युद्ध छिड़ गया। कई लोगों की तरह हमें भी देश के दक्षिणी इलाके में भागना पड़ा। जब युद्ध खत्म हुआ, तो हम अपने घर वापस आए। लेकिन हमने देखा कि वहाँ हथियारबंद लोगों का एक समूह डेरा जमाए हुए है। हमारी सारी किताबें-पत्रिकाएँ गायब थीं। हैपी के शादी के कपड़े और हमारे सारे तोहफे भी गायब थे। फिर भी हमने अपने हाथ ढीले नहीं पड़ने दिए। हम दोनों सही-सलामत थे, इसलिए हमने सोचा कि हम अपना प्रचार काम जारी रखेंगे।

करीब दो साल बाद मध्य अफ्रीकी गणराज्य में साक्षियों के काम पर से पाबंदी हटा दी गयी। हम वापस उस देश में गए और मैं सफरी निगरान के तौर पर सेवा करने लगा। घर के नाम पर हमारे पास एक वैन थी। उसमें एक ऐसा बिस्तर था, जिसे ऊपर उठाया जा सकता था। उसमें 200 लीटर का एक ड्रम था, एक छोटा-सा फ्रिज और एक गैस स्टोव था। उन दिनों सफर करना काफी मुश्‍किल था। एक सफर में तो हमें 117 नाकों पर रोका गया।

वहाँ एक और समस्या थी, भयंकर गरमी। वहाँ का तापमान अकसर 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता था। ऐसे में जब सम्मेलन रखे जाते थे, तो कभी-कभी बपतिस्मे के लिए पानी मिलना मुश्‍किल हो जाता था। इस वजह से भाई सूखी नदी में गड्ढा खोदते थे और उसमें धीरे-धीरे जो पानी इकट्ठा होता था, उसे एक ड्रम में भर लेते थे। अकसर ड्रम में ही बपतिस्मा दिया जाता था।

अफ्रीका के दूसरे देशों में सेवा

सन्‌ 1980 में हमें नाइजीरिया भेज दिया गया। वहाँ ढाई साल तक हमने नए शाखा दफ्तर के निर्माण की तैयारी करने में मदद की। भाइयों ने एक दो-मंज़िला गोदाम खरीदा था। उसे खोलकर उस ज़मीन पर लगाना था, जो हमने खरीदी थी। एक सुबह मैं गोदाम की बहुत ऊँचाई पर चढ़ गया, ताकि उसे खोलने में मदद करूँ। दोपहर को मैं उसी रास्ते से नीचे उतरने लगा, जिस रास्ते से चढ़ा था। मगर बीच का हिस्सा खोल दिया गया था और मैंने वह देखा नहीं, इसलिए मैं सीधा नीचे जा गिरा। मेरी हालत बहुत गंभीर लग रही थी। मगर एक्सरे लेने और जाँच करने के बाद डॉक्टर ने हैपी से कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है, वे एक-दो हफ्ते में ठीक हो जाएँगे।

एक सम्मेलन के लिए जीप से सफर करते हुए, जो वहाँ यातायात का आम साधन है

सन्‌ 1986 में हम कोटे डी आइवरी देश गए, जहाँ मैंने सफरी निगरान के तौर पर सेवा की। इसके बाद हमें पड़ोस के देश बुर्किना फासो भेजा गया। वहाँ भी मैंने सफरी निगरान के तौर पर सेवा की। उस वक्‍त मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि सालों बाद कुछ समय के लिए यहीं हमारा घर होगा।

सफरी निगरान के तौर पर सेवा करने के दौरान वैन ही हमारा घर था

सन्‌ 1956 में मैंने कनाडा छोड़ा था और 47 साल बाद यानी 2003 में हैपी के साथ वापस आया। हम वहाँ के बेथेल में रहने लगे। हालाँकि कानूनी तौर पर हम कनाडा के नागरिक थे, मगर दिल से हम अफ्रीका के ही थे।

बुर्किना फासो में बाइबल अध्ययन चलाते वक्‍त

सन्‌ 2007 में जब मैं 79 साल का हो गया, तो हमें एक बार फिर अफ्रीका भेजा गया! हम बुर्किना फासो गए और वहाँ मैंने देश-समिति के एक सदस्य के तौर पर सेवा की। देश-समिति के दफ्तर को बाद में आर.टी.ओ. (रिमोट ट्रांस्लेशन ऑफिस) बना दिया गया और इसकी निगरानी बेनिन का शाखा दफ्तर करने लगा। अगस्त 2013 में हमें बेनिन के बेथेल में भेजा गया।

बेनिन के शाखा दफ्तर में हैपी के साथ सेवा करते समय

हालाँकि अब मुझमें पहले जितना दमखम नहीं रहा, मगर आज भी प्रचार काम मुझे बहुत पसंद है। पिछले तीन सालों के दौरान प्रचार करने के मामले में प्राचीनों ने मेरी काफी मदद की और मेरी प्यारी पत्नी ने भी मेरा अच्छा साथ दिया। इस वजह से मुझे अपने दो बाइबल विद्यार्थियों का बपतिस्मा होते देखने की खुशी मिली। उनके नाम हैं, ज़ाडाओन और फ्राजिस। अब वे जोश से यहोवा की सेवा कर रहे हैं।

कुछ समय बाद मेरी सेहत खराब रहने लगी, इसलिए हमें दक्षिण अफ्रीका के शाखा दफ्तर भेजा गया। वहाँ बेथेल परिवार के लोग प्यार से मेरी देखभाल करते हैं। दक्षिण अफ्रीका, अफ्रीका महाद्वीप का सातवाँ देश है, जहाँ मुझे सेवा करने का मौका मिला। फिर अक्टूबर 2017 में हमें एक अनोखी आशीष मिली। हम न्यू यॉर्क के वॉरविक में विश्‍व मुख्यालय के समर्पण कार्यक्रम में हाज़िर हुए। हम दोनों इस मौके को कभी नहीं भूल सकते!

सन्‌ 1994 की सालाना किताब (अँग्रेज़ी) के पेज 255 पर लिखा है, “जो लोग सालों से धीरज रखते हुए प्रचार करते आए हैं, उन सभी को हम बढ़ावा देना चाहते हैं, ‘हिम्मत से काम लो और तुम्हारे हाथ ढीले न पड़ें, क्योंकि तुम्हें अपने काम का इनाम मिलेगा।’ (2 इति. 15:7)” मैंने और हैपी ने ठान लिया है कि हम इस सलाह पर चलेंगे और दूसरों को भी ऐसा करने का बढ़ावा देंगे।

^ पैरा. 9 इसे यहोवा के साक्षियों ने 1944 में प्रकाशित किया था, लेकिन अब इसकी छपाई बंद हो गयी है।

^ पैरा. 18 8 नवंबर, 1953 की (अँग्रेज़ी) सजग होइए! के पेज 3-5 पर दिया यह लेख देखिए, “क्युबेक का पादरी यहोवा के साक्षियों पर हमला करने का दोषी।”

^ पैरा. 23 ज़्यादा जानकारी के लिए 1994 यहोवा के साक्षियों की सालाना किताब (अँग्रेज़ी) के पेज 148-150 देखिए।

^ पैरा. 26 8 मई, 1966 की (अँग्रेज़ी) सजग होइए! के पेज 27 पर यह लेख देखिए, “पक्की नींव पर निर्माण।”