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जीवन कहानी

जब चिंताएँ मुझ पर हावी थीं, तब मुझे दिलासा मिला

जब चिंताएँ मुझ पर हावी थीं, तब मुझे दिलासा मिला

सिंधु नदी के पश्‍चिमी किनारे पर एक प्राचीन शहर है, सुक्कुर। (यह इलाका आज पाकिस्तान में है।) इसी शहर में 9 नवंबर, 1929 में मेरा जन्म हुआ था। उसी दौरान मेरे माता-पिता ने एक अँग्रेज़ मिशनरी से बाइबल पर आधारित रंग-बिरंगी किताबों का एक सेट लिया। इनका मेरी ज़िंदगी पर गहरा असर हुआ और बड़ा होकर मैं यहोवा का साक्षी बना।

ये किताबें इंद्रधनुषवाली किताबें (रेनबो सेट) कही जाती थीं। इनमें दी खूबसूरत तसवीरों का मुझ पर गहरा असर हुआ। इस तरह बचपन से ही मेरे अंदर बाइबल के बारे में और जानने की इच्छा पैदा हो गयी।

जब दूसरे विश्‍व युद्ध में भारत शामिल होनेवाला था, तब मेरी ज़िंदगी में भी तूफान उठ रहा था। मेरे माता-पिता अलग हो गए और फिर उनका तलाक हो गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि जिनसे मैं इतना प्यार करता हूँ, वे एक-दूसरे से अलग कैसे हो सकते हैं। मैं अंदर से टूट गया था और मुझे ऐसा लगा कि मेरा कोई नहीं है। मैं इकलौता था, मुझे दिलासा और सहारा देनेवाला कोई नहीं था।

उस वक्‍त मैं मम्मी के साथ कराची में रहता था, जो सिंधु प्रांत की राजधानी थी। एक दिन एक बुज़ुर्ग डॉक्टर फ्रैड हार्डेकर हमारे घर आए। वे यहोवा के साक्षी थे। जो अँग्रेज़ मिशनरी हमारे घर आकर वे किताबें दे गए थे, वे भी यहोवा के साक्षी थे। भाई हार्डेकर ने मेरी माँ से पूछा कि क्या वे बाइबल के बारे में जानना चाहेंगी। मेरी माँ ने कहा, ‘मैं तो नहीं, मगर शायद मेरा बेटा सीखना चाहे।’ अगले हफ्ते से ही मैं बाइबल के बारे में सीखने लगा।

कुछ हफ्तों बाद मैं मसीही सभाओं में जाने लगा, जो भाई हार्डेकर के दवाखाने में होती थीं। वहाँ करीब 12 बुज़ुर्ग साक्षी उपासना के लिए इकट्ठा होते थे। उन्होंने मुझे बहुत दिलासा दिया और अपने बेटे की तरह मेरी देखभाल की। आज भी मुझे याद है कि वे मेरे पास इस तरह आकर बैठते थे, ताकि हम आमने-सामने बात कर सकें। उस वक्‍त मुझे ऐसे ही सच्चे दोस्तों की ज़रूरत थी।

कुछ ही समय बाद भाई हार्डेकर ने मुझे अपने साथ प्रचार में चलने के लिए कहा। उन्होंने मुझे ग्रामोफोन (फोनोग्राफ) चलाना सिखाया, जिसके ज़रिए हम बाइबल पर आधारित छोटे-छोटे भाषण लोगों को सुनाते थे। कुछ भाषण सुनकर लोग नाराज़ हो जाते थे, क्योंकि उन्हें उन भाषणों का संदेश पसंद नहीं आता था। फिर भी मुझे लोगों को गवाही देने में बहुत मज़ा आता था। बाइबल की सच्चाइयों ने मेरे अंदर जोश भर दिया और इनके बारे में दूसरों को बताना मुझे बहुत अच्छा लगता था।

जब जापान की सेना भारत की तरफ बढ़ने लगी, तो अँग्रेज़ सरकार यहोवा के साक्षियों पर बहुत दबाव डालने लगी। जुलाई 1943 में मुझ पर भी इस दबाव का असर हुआ। मेरे स्कूल का प्रिंसिपल ऐंग्लिकन चर्च का पादरी था। उसने मुझे स्कूल से निकाल दिया और मेरी माँ से कहा कि मैं यहोवा के साक्षियों के साथ संगति कर रहा हूँ, इसलिए मैं दूसरे विद्यार्थियों के लिए एक बुरी मिसाल हूँ। यह सुनकर मेरी माँ चौंक गयी। उन्होंने मुझे साक्षियों से मिलने से मना कर दिया। बाद में उन्होंने मुझे पिताजी के पास पेशावर भेज दिया। यह नगर कराची से करीब 1,370 कि.मी. (850 मील) दूर उत्तर में है। वहाँ मेरे पास न तो बाइबल से जुड़ी कोई किताब थी और न कोई साक्षी था। देखते-ही-देखते यहोवा के साथ मेरा रिश्‍ता कमज़ोर पड़ गया।

फिर से यहोवा के करीब

सन्‌ 1947 में मैं काम की तलाश में वापस कराची आया। वहाँ मैं डॉक्टर हार्डेकर से मिलने उनके दवाखाने गया। उन्होंने प्यार से मेरा स्वागत किया।

उन्होंने सोचा कि मैं इलाज के लिए उनके पास आया हूँ। उन्होंने मुझसे पूछा, “बताओ, क्या समस्या है?”

मैंने कहा, “डॉक्टर साहब, मैं बीमार नहीं हूँ। मैं तो बाइबल के बारे में जानने आपके पास आया हूँ।”

उन्होंने पूछा, “कब शुरू करना चाहोगे?”

मैंने कहा, “अगर हो सके तो अभी।”

उस दिन शाम को हमने बाइबल अध्ययन किया और हमें बहुत अच्छा लगा। यहोवा के साक्षियों से दोबारा संगति करके मुझे बहुत सुकून मिला। मेरी माँ ने मुझे रोकने की बहुत कोशिश की, मगर इस बार मैंने फैसला कर लिया था कि मैं यहोवा की सेवा करूँगा। मैंने अपना जीवन यहोवा को समर्पित कर दिया और 31 अगस्त, 1947 को बपतिस्मा लिया। मैंने 17 साल की उम्र में ही पायनियर सेवा शुरू कर दी।

पायनियर सेवा से मिलनेवाली खुशी

जब मैं पायनियर बना, तो सबसे पहले मुझे क्वेटा भेजा गया, जहाँ पहले अँग्रेज़ों की फौज की चौकी थी। सन्‌ 1947 में भारत दो देशों में बँट गया, भारत और पाकिस्तान। * इस दौरान हर कहीं धर्म के नाम पर दंगे होने लगे। इतिहास में पहली बार बड़ी तादाद में लोगों को एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ा। करीब 1 करोड़ 40 लाख लोग शरणार्थी बन गए। भारत में रहनेवाले इस्लाम धर्म के लोग पाकिस्तान चले गए, जबकि पाकिस्तान में रहनेवाले हिंदू और सिख लोग भारत आ गए। इसी भगदड़ में मैंने कराची से क्वेटा जानेवाली एक ट्रेन पकड़ी, जो लोगों से खचाखच भरी थी। मैंने दरवाज़े का सिर्फ हैंडल पकड़ा था और लगभग पूरे सफर मैं ऐसे ही लटकते हुए गया।

मैं 1948 में भारत में एक सर्किट सम्मेलन में गया

मैं क्वेटा में एक खास पायनियर जॉर्ज सिंह से मिला, जो करीब 25 साल का था। उसने मुझे एक पुरानी साइकिल दी, ताकि मैं उस पर बैठकर (या धक्के लगाकर) वहाँ के पहाड़ी इलाके में प्रचार के लिए जा सकूँ। ज़्यादातर समय मैं अकेला ही प्रचार करता था। छ: महीनों के अंदर मैं 17 लोगों को बाइबल के बारे में सिखाने लगा। उनमें से कुछ साक्षी बन गए। एक का नाम सादिक मसीह था, जो पहले एक सैनिक अफसर था। उसने बाइबल पर आधारित किताबों-पत्रिकाओं का उर्दू में अनुवाद करने में मेरी और जॉर्ज की मदद की। उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्र-भाषा है। कुछ समय बाद सादिक खुशखबरी का जोश से प्रचार करने लगा।

गिलियड स्कूल जाने के लिए क्वीन एलिज़बेथ नाम के जहाज़ पर सवार होने से पहले

बाद में मैं कराची लौट गया। वहाँ मैंने हैनरी फिंच और हैरी फोरस्ट के साथ मिलकर सेवा की। ये दोनों मिशनरी हाल ही में गिलियड स्कूल गए थे। इन भाइयों से मैंने प्रचार के बारे में बहुत कुछ सीखा! एक बार मैं भाई फिंच के साथ प्रचार के लिए उत्तरी पाकिस्तान गया। ऊँची-ऊँची पर्वतमालाओं के नीचे बसे गाँवों में हमें कई उर्दू बोलनेवाले लोग मिले। वे नम्र स्वभाव के थे और बाइबल की सच्चाई जानने के लिए तरस रहे थे। दो साल बाद मुझे गिलियड स्कूल जाने का मौका मिला! उसके बाद जब मुझे वापस पाकिस्तान भेजा गया, तो मैं समय-समय पर सर्किट निगरान के तौर पर सेवा करता था। मैं लाहौर में मिशनरी घर में रहता था, जहाँ तीन और मिशनरी भाई रहते थे।

एक मुश्‍किल दौर पार किया

अफसोस की बात है कि 1954 में लाहौर के मिशनरियों में झगड़ा हो गया, जिस वजह से शाखा दफ्तर ने कुछ मिशनरियों को अलग-अलग जगह भेज दिया। इस झगड़े में मैंने पक्ष लेने की गलती की, इसलिए मुझे सख्ती से सुधारा गया। मुझे बहुत बुरा लगा। मैं सोचने लगा कि मैं अपनी ज़िम्मेदारी निभाने से चूक गया। मैं वापस कराची आया और फिर एक नयी शुरूआत करने के इरादे से इंग्लैंड के लंदन शहर चला गया।

लंदन में मैं जिस मंडली में था, उसमें लंदन बेथेल परिवार के कई सदस्य भी थे। उनमें से एक भाई प्राइस ह्‍यूज़ थे, जो शाखा सेवक थे। वे एक प्यारे भाई थे, जिन्होंने मुझे बहुत-कुछ सिखाया। एक दिन उन्होंने मुझे बताया कि एक बार भाई जोसेफ एफ. रदरफर्ड ने, जो पहले दुनिया में हो रहे प्रचार काम की निगरानी करते थे, उन्हें कड़ी सलाह दी। जब भाई ह्‍यूज़ ने खुद की सफाई देने की कोशिश की, तब भाई रदरफर्ड ने उन्हें फटकारा। हैरानी की बात है कि यह वाकया बताते वक्‍त भाई ह्‍यूज़ के चेहरे पर मुस्कान थी। उन्होंने कहा कि पहले तो मुझे बुरा लगा, लेकिन बाद में मुझे एहसास हुआ कि मुझे ऐसी ही सलाह की ज़रूरत थी और यह भी कि यहोवा मुझसे प्यार करता है। (इब्रा. 12:6) उनका यह अनुभव मेरे दिल को छू गया। मैं फिर से खुशी-खुशी यहोवा की सेवा करने लगा।

उसी समय के दौरान मेरी माँ लंदन आकर रहने लगीं। वे भाई जॉन ई. बार से बाइबल के बारे में सीखने के लिए राज़ी हो गयीं। बाद में भाई बार शासी निकाय के एक सदस्य बने। मेरी माँ सच्चाई में तरक्की करने लगीं और उन्होंने 1957 में बपतिस्मा ले लिया। बाद में मुझे पता चला कि मेरे पिताजी भी अपनी मौत से पहले यहोवा के साक्षियों से बाइबल के बारे में सीखते थे।

सन्‌ 1958 में मैंने लीने से शादी की, जो डेनमार्क से लंदन आकर रहने लगी थी। हमारे पाँच बच्चे हुए। सन्‌ 1959 में हमारी बड़ी बेटी जेन पैदा हुई। उसी साल मुझे फुलम मंडली में सेवा के कई मौके मिले। कुछ समय बाद लीने की तबियत खराब रहने लगी, जिस वजह से हमें गरम इलाके में जाना पड़ा। सन्‌ 1967 में हम ऑस्ट्रेलिया के ऐडिलेड शहर चले गए।

एक गहरा सदमा

ऐडिलेड में हमारी मंडली में 12 बुज़ुर्ग अभिषिक्‍त मसीही थे। वे बड़े जोशीले थे और प्रचार काम में हमेशा आगे रहते थे। जल्द ही हम फिर से सभाओं और प्रचार में जाने लगे।

सन्‌ 1979 में हमारा पाँचवाँ बच्चा डैनियल पैदा हुआ। उसे डाउन सिंड्रोम * था और डॉक्टरों ने कहा कि वह ज़्यादा समय तक नहीं जीएगा। यह सुनकर हमें जो सदमा लगा, उसे बयान करने के लिए आज भी हमारे पास शब्द नहीं हैं। उसकी देखभाल करने में हमने कोई कसर नहीं छोड़ी, मगर हमने बाकी बच्चों का भी ध्यान रखा। डैनियल के दिल में दो छेद थे, जिस वजह से वह कभी-कभी साँस नहीं ले पाता था और उसका पूरा शरीर नीला पड़ जाता था। हम फौरन उसे लेकर अस्पताल भागते थे। मगर सेहत खराब होने के बावजूद डैनियल बहुत होशियार था और सबको प्यार करता था। वह यहोवा को भी बहुत प्यार करता था। जब हम खाना खाने से पहले प्रार्थना करते थे, तो वह अपने नन्हे-नन्हे हाथ जोड़ता था और अपना सिर हिलाता था। आखिर में वह ज़ोर से “आमीन” कहता था। उसके बाद ही वह खाना खाता था।

जब डैनियल चार साल का हुआ, तो उसे गंभीर बीमारी ल्यूकीमिया (खून का कैंसर) हो गयी। मैं और लीने न सिर्फ शारीरिक तौर पर बल्कि मानसिक रूप से भी पहले ही पूरी तरह पस्त हो चुके थे। अब यह खबर सुनकर ऐसा लगा कि जैसे मेरी जान ही निकल जाएगी। एक दिन जब हम बहुत ही निराश थे, तो हमारे सर्किट निगरान नैविल ब्रॉमिच हमारे घर आए। उस रात उन्होंने हम दोनों को अपनी बाँहों में भर लिया और हम सब रोए। उन्होंने प्यार से हमसे बात की। उनकी बातों से हमें बहुत दिलासा मिला। वे रात करीब एक बजे हमारे घर से गए। कुछ समय बाद डैनियल की मौत हो गयी। इससे हमें बहुत गहरा सदमा लगा। फिर भी हम इस सदमे से उबर पाए। हमें यकीन था कि कोई भी चीज़ डैनियल को यहोवा के प्यार से अलग नहीं कर सकती, यहाँ तक कि मौत भी नहीं। (रोमि. 8:38, 39) हमें उस दिन का बेसब्री से इंतज़ार है, जब डैनियल को परमेश्‍वर की नयी दुनिया में ज़िंदा किया जाएगा!​—यूह. 5:28, 29.

दूसरों की मदद करने की खुशी

मुझे दो बड़े स्ट्रोक हुए, मगर मैं आज भी मंडली में एक प्राचीन के तौर पर सेवा कर रहा हूँ। जिन हालात से मैं गुज़रा हूँ, उनसे मैंने दूसरों को समझना और उन पर करुणा करना सीखा है। मैंने खासकर उन लोगों का दर्द समझना सीखा है, जो परेशानियों से जूझ रहे हैं। मैं पहले से ही उनके बारे में कोई राय कायम नहीं करता। इसके बजाय मैं खुद से पूछता हूँ, ‘उनके साथ ऐसा क्या हुआ, जो वे ऐसा सोचते और महसूस करते हैं? मैं कैसे दिखा सकता हूँ कि मुझे उनकी परवाह है? मैं उन्हें यहोवा की मरज़ी पूरी करने का बढ़ावा कैसे दे सकता हूँ?’ मुझे रखवाली भेंट के लिए मंडली के भाई-बहनों से मिलना बहुत अच्छा लगता है! वाकई जब मैं दूसरों को बाइबल से दिलासा देता हूँ और उन्हें तरो-ताज़ा करता हूँ, तो ऐसा लगता है कि मैं खुद को दिलासा और ताज़गी दे रहा हूँ।

आज भी मुझे रखवाली भेंट करने से खुशी मिलती है

मैं बाइबल के उस लेखक की तरह महसूस करता हूँ जिसने यह कहा, “जब चिंताएँ मुझ पर हावी हो गयीं, तब [यहोवा ने] मुझे दिलासा दिया, सुकून दिया।” (भज. 94:19) यहोवा ने मुझे भी कई बार सँभाला। जब परिवार में समस्याएँ आयीं, साक्षियों से मिलने से मुझे रोका गया, मैं खुद को नाकाबिल महसूस कर रहा था या फिर जब मैं गहरी निराशा में था, तब इन सारे हालात में यहोवा ने वाकई एक पिता की तरह मेरी देखभाल की!

^ पैरा. 19 पहले पाकिस्तान पश्‍चिमी पाकिस्तान (आज पाकिस्तान) और पूर्वी पाकिस्तान (आज बांग्लादेश) से मिलकर बना था।

^ पैरा. 29 15 अप्रैल, 2010 की प्रहरीदुर्ग में पेज 16-19 पर यह लेख देखें, “मुश्‍किलों से गुज़रते वक्‍त यहोवा पर हमारा भरोसा बढ़ा है!