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जीवन कहानी

यहोवा की सेवा में मिली ढेरों आशीषें

यहोवा की सेवा में मिली ढेरों आशीषें

1951 की बात है। मैं कनाडा के क्युबेक प्रांत के एक छोटे-से शहर, रूअन में अभी-अभी पहुँचा था। मेरे पास एक घर का पता था। मैं वहाँ गया और मैंने दरवाज़ा खटखटाया। भाई मारसेल फिलटो a ने दरवाज़ा खोला। वे गिलियड स्कूल गए थे और एक मिशनरी थे। वे 23 साल के थे और काफी लंबे थे। और मैं बस 16 साल का और कद में उनसे काफी छोटा था। मैंने उन्हें एक चिट्ठी दी जिसमें लिखा था कि मुझे वहाँ पायनियर सेवा करने के लिए भेजा गया है। चिट्ठी पढ़कर उन्होंने मेरी तरफ देखा और पूछा, “तुम्हारी मम्मी को पता है तुम यहाँ आए हो?”

मम्मी साक्षी थीं, पापा नहीं

मेरा जन्म 1934 में हुआ था। मेरे मम्मी-पापा स्विट्‌ज़रलैंड से कनाडा के ऑन्टेरीयो प्रांत आकर बस गए थे। हम लोग टिमिंस नाम के एक छोटे-से शहर में रहते थे जो सोने की खदानों के लिए मशहूर था। 1939 के आस-पास मम्मी प्रहरीदुर्ग पत्रिका पढ़ने लगीं और यहोवा के साक्षियों की सभाओं में जाने लगीं। वे मुझे और मेरे छ: और भाई बहनों को सभाओं के लिए ले जाती थीं। कुछ ही समय बाद वे यहोवा की साक्षी बन गयीं।

मम्मी के इस फैसले से पापा खुश नहीं थे। लेकिन मम्मी को सच्चाई से बहुत प्यार था और उन्होंने सोच लिया था कि चाहे जो हो जाए, वे यहोवा को नहीं छोड़ेंगी। 1940 की शुरूआत में जब कनाडा में यहोवा के साक्षियों के काम पर रोक लगी थी, तब भी मम्मी यहोवा की सेवा में लगी रहीं। पापा उन्हें बहुत बुरा-भला कहते थे, लेकिन वे हमेशा उनकी इज़्ज़त करती थीं और प्यार से पेश आती थीं। इन सब बातों का हम बच्चों पर बहुत अच्छा असर हुआ और हमने फैसला कर लिया कि हम भी यहोवा की सेवा करेंगे। धीरे-धीरे पापा का स्वभाव बदल गया और वे हम सब के साथ अच्छे-से पेश आने लगे।

पूरे समय की सेवा शुरू की

अगस्त 1950 में मैं ‘ईश्‍वरशासित प्रगति सम्मेलन’ में गया जो अमरीका के न्यू यॉर्क सिटी में रखा गया था। वहाँ अलग-अलग देशों से भाई-बहन आए थे। उन सब से मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा। और जिन भाई-बहनों ने गिलियड स्कूल किया था, जब मैंने उनके अनुभव सुने, तो मेरे अंदर भी यहोवा की सेवा करने का जोश भर आया। मैंने सोच लिया कि मैं भी पूरे समय की सेवा करूँगा! घर पहुँचते ही मैंने पायनियर सेवा की अर्ज़ी भर दी। तब कनाडा के शाखा दफ्तर से मुझे एक चिट्ठी आयी और उन्होंने कहा कि मैं पहले बपतिस्मा लूँ। उसी साल 1 अक्टूबर को मैंने बपतिस्मा ले लिया। इसके एक महीने बाद मैंने पायनियर सेवा शुरू कर दी और मुझे कापसकेसिंग नाम की जगह भेजा गया। यह शहर हमारे घर से कई किलोमीटर दूर था।

क्युबेक में प्रचार करते हुए

1951 में शाखा दफ्तर से एक खत आया। उस खत में लिखा था कि जो भाई-बहन फ्रेंच बोलते हैं, वे क्युबेक में सेवा करने के बारे में सोच सकते हैं जहाँ फ्रेंच बोलनेवाले काफी लोग हैं। मुझे बचपन से अँग्रेज़ी और फ्रेंच आती थी, इसलिए मैं क्युबेक जाने को तैयार हो गया। तब शाखा दफ्तर ने मुझे रूअन शहर भेजा। मैं वहाँ किसी को नहीं जानता था। मुझे शाखा दफ्तर से बस एक पता मिला था जहाँ मुझे जाना था। इस कहानी की शुरूआत मैंने इसी बारे में बताया था। मैं और भाई मारसेल अच्छे दोस्त बन गए। और अगले चार साल मैंने क्युबेक में बहुत अच्छे-से सेवा की। मैंने खास पायनियर सेवा भी वहीं शुरू की थी।

मैं गिलियड गया, पर उम्मीदें पूरी होने में वक्‍त लगा

जब मैं क्युबेक में सेवा कर रहा था, तब मुझे गिलियड स्कूल की 26वीं क्लास के लिए बुलाया गया। यह क्लास न्यू यॉर्क में साउथ लैंसिंग शहर में रखी गयी थी। मैं बता नहीं सकता कि मैं कितना खुश था! 12 फरवरी, 1956 में मैं गिलियड स्कूल से ग्रैजुएट हुआ और मुझे पश्‍चिम अफ्रीका के घाना b देश भेजा गया। घाना जाने से पहले मुझे “कुछ हफ्तों” के लिए कनाडा जाना था, ताकि सफर के लिए सारे कागज़ात तैयार हो सकें।

लेकिन ये कागज़ात तैयार करने के लिए मुझे कुछ हफ्ते नहीं, बल्कि सात महीने टोरंटो में रहना पड़ा। इस दौरान मैं भाई क्रिप्स के यहाँ रुका हुआ था। उनकी बेटी का नाम था शीला। मैं और शीला एक-दूसरे को पसंद करने लगे। मैं उसे बताने ही वाला था कि मैं उससे शादी करना चाहता हूँ कि तभी मुझे खबर मिली कि मेरे कागज़ात तैयार हो गए हैं और मुझे घाना जाने के लिए वीज़ा मिल गया है। मैंने और शीला ने इस बारे में प्रार्थना की और तय किया कि मैं घाना जाऊँगा। पर हमने सोचा कि हम एक-दूसरे को चिट्ठी लिखते रहेंगे और आगे चलकर शादी के बारे में सोचेंगे। यह आसान नहीं था, लेकिन बाद में जाकर हमें एहसास हुआ कि हमने सही फैसला लिया था।

एक महीने तक मैंने ट्रेन, माल ले जानेवाले समुद्री जहाज़ और हवाई जहाज़ से सफर किया। तब जाकर मैं घाना के आक्रा शहर पहुँचा। वहाँ मुझे ज़िला निगरान की ज़िम्मेदारी दी गयी। इस काम के लिए मुझे घाना के अलावा आस-पास के देशों में भी जाना पड़ता था, जैसे आइवरी कोस्ट (जो अब कोटे डी आइवरी के नाम से जाना जाता है) और टोगोलैंड (जो अब टोगो के नाम से जाना जाता है)। शाखा दफ्तर ने मुझे एक गाड़ी (जीप) दे रखी थी। मैं उसी से सफर करता था। अलग-अलग जगह के भाई-बहनों से मिलना मुझे बहुत अच्छा लगता था!

शनिवार और रविवार को मैं सर्किट सम्मेलनों में व्यस्त रहता था। हमारे पास सम्मेलन भवन नहीं थे, इसलिए भाई बाँस के डंडों से एक ढाँचा खड़ा करते थे। फिर वे खजूर की डालियों से छत तैयार करते थे ताकि भाई-बहन चिलचिलाती धूप से बच सकें। उस वक्‍त हमारे पास फ्रिज नहीं थे, इसलिए हम जानवर रखते थे ताकि सम्मेलन में आनेवाले भाई-बहनों के लिए इन्हें काटकर पका सकें।

इन सम्मेलनों में कई बार बड़े मज़ेदार किस्से होते थे। एक किस्सा बताता हूँ। एक बार भाई हर्ब जनिंग्ज़ c जो एक मिशनरी थे, एक भाषण दे रहे थे। तब एक बछड़ा छूट गया और स्टेज के सामने यहाँ-वहाँ भागने लगा। भाई हर्ब भाषण देते-देते रुक गए और उस बछड़े को भी समझ नहीं आ रहा था कि कहाँ जाए। तब चार हट्टे-कट्टे भाई आए और उसे पकड़कर जैसे-तैसे बाहर ले गए। यह देखकर सभी लोग खुशी से तालियाँ बजाने लगे।

सम्मेलनवाले हफ्ते के बाकी दिन मैं आस-पास के गाँवों में जाकर द न्यू वर्ल्ड सोसाइटी इन एक्शन नाम की फिल्म दिखाता था। मैं दो डंडों या पेड़ों के बीच एक मोटी-सी सफेद चादर बाँध देता था और उस पर प्रोजेक्टर से फिल्म चलाता था। गाँववालों को फिल्म देखकर बहुत अच्छा लगता था! कुछ लोग तो पहली बार कोई फिल्म देख रहे थे। जब फिल्म में बपतिस्मेवाला सीन आता था, तो लोग बहुत खुश हो जाते थे और ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजाते थे। जो भी यह फिल्म देखता था, वह समझ जाता था कि यहोवा का संगठन दुनिया-भर में फैला हुआ है और उसके लोगों के बीच बहुत एकता है।

1959 में घाना में हमारी शादी हुई

1958 में न्यू यॉर्क सिटी में एक अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन रखा गया। अफ्रीका में करीब दो साल सेवा करने के बाद मैं वहाँ जाने के लिए बहुत बेताब था। उस वक्‍त शीला क्युबेक में खास पायनियर सेवा कर रही थी और वह भी इस अधिवेशन के लिए आनेवाली थी। अब तक हम एक-दूसरे को चिट्ठियाँ लिख रहे थे, लेकिन उससे आमने-सामने मिलकर मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने उससे पूछा, ‘मुझसे शादी करोगी?’ और वह मान गयी। मैंने भाई नॉर d को चिट्ठी लिखी और उनसे पूछा कि क्या शीला गिलियड स्कूल जा सकती है ताकि मेरे साथ अफ्रीका में सेवा कर सके। वे राज़ी हो गए। कुछ समय बाद शीला घाना आ गयी। फिर 3 अक्टूबर, 1959 को हमने आक्रा में शादी कर ली। हमें ऐसा लगा कि यहोवा को पहली जगह देने की वजह से हमें यह आशीष मिली है।

कैमरून में साथ मिलकर सेवा की

कैमरून शाखा दफ्तर में काम करते हुए

1961 में हमें कैमरून देश भेजा गया। संगठन वहाँ एक नया शाखा दफ्तर शुरू करना चाहता था। मुझे वहाँ शाखा सेवक की ज़िम्मेदारी दी गयी। काम तो बहुत था, लेकिन इस दौरान मैंने काफी कुछ सीखा। फिर 1965 में हमें पता चला कि शीला माँ बननेवाली है। सच कहूँ तो हमें शुरू-शुरू में समझ नहीं आ रहा था कि हम यह ज़िम्मेदारी कैसे सँभालेंगे। पर फिर कुछ समय बाद हम यह सोचकर बहुत खुश हुए कि हम माँ-बाप बननेवाले हैं। हम वापस कनाडा जाने की तैयारियाँ करने लगे। लेकिन फिर हमें एक बुरी खबर मिली जिसे सुनकर हम दोनों अंदर से टूट गए।

पैदा होने से पहले ही हमने अपने बच्चे को खो दिया। डॉक्टरों ने बताया कि हमें लड़का होनेवाला था। इस बात को 50 से भी ज़्यादा साल हो गए हैं, लेकिन हम इस हादसे को कभी नहीं भूले। हम बहुत दुखी थे। लेकिन हम कैमरून के भाई-बहनों से बहुत प्यार करते थे, इसलिए हम वहीं सेवा करते रहे।

1965 में शीला के साथ कैमरून में

राजनैतिक मामलों में निष्पक्ष बने रहने की वजह से कैमरून के भाई-बहनों को कई ज़ुल्म सहने पड़ते थे। और जब राष्ट्रपति के लिए चुनाव होते थे, तो उनकी मुश्‍किलें और भी बढ़ जाती थीं। फिर कुछ ऐसा हुआ जिसका हमें डर था। 13 मई, 1970 को कैमरून में हमारे काम पर सरकार ने रोक लगा दी। हमारे शाखा दफ्तर को तैयार हुए पाँच ही महीने हुए थे, लेकिन सरकार ने उसे ज़ब्त कर लिया। एक ही हफ्ते के अंदर सारे मिशनरियों को देश से निकाल दिया गया, शीला और मुझे भी। कैमरून के भाई-बहनों को छोड़कर जाना हमारे लिए आसान नहीं था। हम उनसे बहुत प्यार करते थे और हमें यह सोचकर चिंता हो रही थी कि अब उनका क्या होगा।

अगले छ: महीने तक हम फ्रांस के शाखा दफ्तर में रहे। मैं वहीं से कैमरून के भाई-बहनों के लिए काम करता था। फिर नाइजीरिया शाखा दफ्तर कैमरून में होनेवाले काम की देखरेख करने लगा। और दिसंबर 1970 में हम दोनों को नाइजीरिया भेजा गया। वहाँ के भाई-बहनों ने बहुत प्यार से हमारा स्वागत किया और हमने कई साल वहाँ खुशी-खुशी सेवा की।

ज़िंदगी का सबसे मुश्‍किल फैसला

1973 में हमें एक बहुत मुश्‍किल फैसला लेना पड़ा। शीला को सेहत से जुड़ी एक तकलीफ थी जिसे वह काफी समय से सह रही थी। जब हम न्यू यॉर्क में एक अधिवेशन के लिए गए हुए थे, तो वह बेचारी रो पड़ी और उसने मुझसे कहा, “मैं जब देखो बीमार रहती हूँ। मैं थक गयी हूँ। मुझसे और नहीं होगा।” शीला 14 सालों से पश्‍चिम अफ्रीका में मेरे साथ सेवा कर रही थी। इतने उतार-चढ़ाव आए, लेकिन उसने कभी यहोवा की सेवा छोड़ने की नहीं सोची। लेकिन अब हमें कुछ बदलाव करने थे। हमने इस बारे में एक-दूसरे से काफी बात की और कई बार गिड़गिड़ाकर यहोवा से प्रार्थना की। फिर हमने फैसला किया कि हम वापस कनाडा चले जाएँगे ताकि शीला को बेहतर इलाज मिल सके और उसकी सेहत सुधर सके। मिशनरी सेवा के साथ-साथ पूरे समय की सेवा छोड़ना, हमारी ज़िंदगी का सबसे दर्द-भरा फैसला था।

कनाडा पहुँचने के बाद मैं अपने एक पुराने दोस्त के साथ काम करने लगा। टोरंटो के पास उसका कार बेचने का बिज़नेस था। हमने किराए पर एक फ्लैट लिया और कुछ पुराना फर्नीचर भी खरीदा। इन चीज़ों के लिए हमने कोई कर्ज़ा नहीं लिया। हम अपनी ज़िंदगी सादी रखना चाहते थे, क्योंकि हमारी यही इच्छा थी कि एक दिन हम दोबारा पूरे समय की सेवा करें। लेकिन हमने सोचा नहीं था कि हमारी यह इच्छा इतनी जल्दी पूरी हो जाएगी।

ऑन्टेरीयो के नॉर्वल शहर में एक सम्मेलन भवन बनाया जा रहा था। मैं हर शनिवार को वहाँ हाथ बँटाने के लिए जाने लगा। कुछ समय बाद मुझे ‘सम्मेलन भवन निगरान’ नियुक्‍त किया गया। शीला की तबियत ठीक होने लगी थी, इसलिए हमें लगा कि हम यह नयी ज़िम्मेदारी सँभाल सकते हैं। जून 1974 में हम सम्मेलन भवन के एक फ्लैट में रहने लगे। हम बहुत खुश थे कि हम दोबारा पूरे समय की सेवा शुरू कर पा रहे हैं!

शीला की तबियत अब पहले से काफी सुधर चुकी थी। इसलिए दो साल बाद जब हमें सर्किट काम करने के लिए कहा गया, तो हम राज़ी हो गए। हमें सर्किट काम के लिए मैनिटोबा प्रांत भेजा गया जहाँ कड़ाके की ठंड होती है और खूब बर्फ पड़ती है। लेकिन वहाँ के भाई-बहन इतने अच्छे थे कि हमें ठंड से फर्क ही नहीं पड़ा। हमने सीखा कि यह बात मायने नहीं रखती कि हम कहाँ सेवा करते हैं, बल्कि यह मायने रखता है कि हम जहाँ भी रहें, यहोवा की सेवा करते रहें।

एक ज़रूरी सबक सीखा

कई सालों तक सर्किट काम करने के बाद हमें 1978 में कनाडा बेथेल बुलाया गया। इसके कुछ ही समय बाद मैंने एक बहुत ही ज़रूरी सबक सीखा। मोंट्रियाल में एक खास सभा रखी गयी थी जहाँ मुझे फ्रेंच में डेढ़ घंटे का एक भाषण देना था। लेकिन मेरा भाषण इतना अच्छा नहीं था और मैं लोगों का ध्यान बाँधे नहीं रख पाया। तब सेवा विभाग के एक भाई ने मुझे इस बारे में सलाह दी। लेकिन मुझे उस भाई की बात अच्छी नहीं लगी। उसने मेरी कोई तारीफ नहीं की, बस मेरे भाषण में गलतियाँ निकालने लगा। मुझे समझ जाना चाहिए था कि मैं इतना अच्छा वक्‍ता नहीं हूँ, मुझे सुधार करना है। पर अपनी गलती मानने के बजाय मैं उस भाई में गलतियाँ ढूँढ़ने लगा और सोचने लगा कि सलाह देने का उसका तरीका सही नहीं था।

फ्रेंच भाषा में भाषण देने के बाद मैंने एक ज़रूरी सबक सीखा

कुछ दिनों बाद शाखा-समिति के एक भाई ने मुझसे इस बारे में बात की। मैंने उनसे कहा कि मुझे बुरा लग रहा है कि मैंने उस भाई से इस तरह बात की, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। फिर मैंने जाकर उस भाई से माफी माँगी जिसने मुझे सलाह दी थी। उसने मुझे माफ कर दिया। इससे मैंने एक अहम सबक सीखा जो मैं कभी नहीं भूलूँगा। वह यह कि हमें हमेशा नम्र रहना चाहिए। (नीति. 16:18) मैंने इस बारे में यहोवा से कई बार प्रार्थना की है और सोच लिया है कि जब भी कोई मुझे सलाह देगा, तो मैं उसमें नुक्स नहीं निकालूँगा।

मैं पिछले 40 साल से कनाडा बेथेल में सेवा कर रहा हूँ और 1985 से शाखा-समिति का सदस्य हूँ। फरवरी 2021 में मेरी प्यारी पत्नी शीला गुज़र गयी। उसे खोने का गम मुझे बहुत सताता है। अब मेरी तबियत भी इतनी ठीक नहीं रहती। लेकिन मैं यहोवा की सेवा में व्यस्त रहता हूँ, दिन कैसे बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता। (सभो. 5:20) मेरी ज़िंदगी में कई मुश्‍किलें आयी हैं, लेकिन मुझे जो खुशियाँ मिली हैं, वे उनसे कहीं ज़्यादा हैं। मैंने हमेशा यहोवा को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह दी है। मुझे पूरे समय की सेवा करते हुए 70 साल हो गए हैं। मेरी यही दुआ है कि हमारे जवान भाई-बहन भी यहोवा को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह दें। मुझे यकीन है कि ऐसा करने से उन्हें भी ढेरों आशीषें मिलेंगी। और वे ऐसी ज़िंदगी का मज़ा ले पाएँगे जो सिर्फ यहोवा की सेवा करने से मिलती है!

a 1 फरवरी, 2000 की प्रहरीदुर्ग में आयी भाई मारसेल फिलटो की जीवन-कहानी, “यहोवा मेरा शरणस्थान और बल है” पढ़ें।

b 1957 तक अफ्रीका के इस इलाके पर अँग्रेज़ों की हुकूमत थी और यह गोल्ड कोस्ट के नाम से जाना जाता था।

c 1 दिसंबर, 2000 की प्रहरीदुर्ग में आयी भाई हर्बर्ट जनिंग्ज़ की जीवन-कहानी, ‘तुम नहीं जानते कि कल तुम्हारे जीवन का क्या होगा’ पढ़ें।

d उस वक्‍त भाई नेथन एच. नॉर संगठन के काम की अगुवाई कर रहे थे।