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जीवन कहानी

यहोवा ने मुझे उम्मीदों से बढ़कर आशीषें दीं

यहोवा ने मुझे उम्मीदों से बढ़कर आशीषें दीं

‘मुझे पता है कि मुझे पायनियर सेवा करनी चाहिए। पर क्या वाकई मुझे इसमें मज़ा आएगा?’ यह बात मेरे मन में काफी समय से चल रही थी। मुझे अपनी नौकरी बहुत पसंद थी। मैं जर्मनी में निर्यात का काम करता था यानी खाने की चीज़ें अफ्रीका की कई जगहों पर भेजता था जैसे, दार-अस-सलाम, एलिज़बेथविल और अस्मारा। उस वक्‍त मैंने सोचा भी नहीं था कि एक दिन मैं उन्हीं जगहों में और अफ्रीका की दूसरी जगहों में पूरे समय की सेवा करूँगा!

मेरे मन में जितनी भी शंकाएँ थीं, उन्हें मैंने दूर किया और पायनियर सेवा शुरू की। इससे मेरे सामने मौके का ऐसा दरवाज़ा खुला जिसकी मैंने उम्मीद नहीं की थी, मगर जिससे मेरी ज़िंदगी ही बदल गयी। (इफि. 3:20) आप शायद सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या हुआ। चलिए मैं आपको अपनी कहानी शुरू से बताता हूँ।

मेरा जन्म 1939 में जर्मनी के बर्लिन शहर में हुआ। कुछ महीने बाद दूसरा विश्‍व युद्ध शुरू हो गया। फिर 1945 में जब युद्ध खत्म होने पर था, तो दुश्‍मनों ने हवाई जहाज़ के ज़रिए बर्लिन में भारी बमबारी की। ऐसी ही एक बमबारी में हमारे आस-पास भयानक आग लग गयी और मेरे परिवार को दूसरी जगह पनाह लेनी पड़ी। बाद में हम खतरों से बचने के लिए एरफुर्ट शहर चले गए जहाँ मेरी माँ पैदा हुई थीं।

सन्‌ 1950 में जर्मनी में अपने माता-पिता और बहन के साथ

माँ काफी समय से सच्चाई की तलाश कर रही थीं। उन्होंने कई दार्शनिकों की किताबें पढ़ीं और अलग-अलग धर्मों की जाँच की, लेकिन उन्हें कहीं सच्चाई नहीं मिली। फिर एक दिन करीब 1948 में दो साक्षी बहनें हमारे घर आयीं। माँ ने उन्हें अंदर बुलाया और उनसे कई सवाल किए। उन्हें आए एक घंटा भी नहीं हुआ था कि माँ ने मुझे और मेरी छोटी बहन से कहा, “मुझे सच्चाई मिल गयी है!” इसके तुरंत बाद मैं, मेरी बहन और माँ सभाओं में जाने लगे।

सन्‌ 1950 में हम वापस बर्लिन आए, जहाँ हम बर्लिन-क्रॉइट्‌सबार्क मंडली के साथ संगति करने लगे। फिर हम बर्लिन में ही एक दूसरी जगह जाकर बस गए और वहाँ हम बर्लिन-टेम्पलहॉफ मंडली में जाने लगे। कुछ समय बाद माँ ने बपतिस्मा ले लिया, लेकिन मैं यह कदम उठाने से झिझक रहा था। आखिर इसकी वजह क्या थी?

शर्मीले स्वभाव के बावजूद मैं सेवा में आगे बढ़ा

मैं स्वभाव से बहुत शर्मीला था, इसलिए यहोवा की सेवा में आगे बढ़ना मेरे लिए आसान नहीं था। मैं दो साल से प्रचार में जा रहा था, लेकिन मैंने एक बार भी किसी को गवाही नहीं दी। फिर मैं उन भाई-बहनों के साथ वक्‍त बिताने लगा, जिन्होंने हिम्मत और वफादारी से यहोवा की सेवा की थी। इनमें से कुछ तो नात्ज़ियों के यातना शिविरों या पूर्वी जर्मनी की जेलों में सज़ा काट चुके थे। दूसरे ऐसे थे जो हमारी किताबें-पत्रिकाएँ चोरी-छिपे पूर्वी जर्मनी ले जाते थे, जबकि उन्हें पता था कि पकड़े जाने पर जेल हो सकती है। इन भाई-बहनों की मिसाल ने मेरे दिल पर गहरी छाप छोड़ी। मैंने सोचा, ‘अगर ये लोग यहोवा और भाइयों की खातिर अपनी जान और आज़ादी दाँव पर लगा सकते हैं, तो मैं अपने शर्मीलेपन पर काबू क्यों नहीं पा सकता?’

मैं अपनी कमज़ोरी पर काबू पाने के लिए कदम उठाने लगा। मैंने 1955 में एक खास प्रचार अभियान में हिस्सा लिया। उस अभियान के बारे में भाई नेथन नॉर ने एक खत लिखा, जो सूचक  * में प्रकाशित किया गया था। उन्होंने बताया कि यह संगठन द्वारा आयोजित अब तक का सबसे बड़ा अभियान है। उन्होंने कहा कि अगर सभी प्रचारक इसमें हिस्सा लें, “तो यह गवाही देने का सबसे बढ़िया महीना होगा।” और ऐसा ही हुआ! फिर कुछ ही समय बाद मैंने यहोवा को अपना समर्पण किया और 1956 में मैंने, पिताजी और मेरी बहन ने बपतिस्मा ले लिया। लेकिन जल्द ही मुझे एक बड़ा फैसला लेना था।

मैं जानता था कि पायनियर सेवा करना ही सबसे अच्छा रहेगा, लेकिन सालों तक मैं इसे टालता रहा। पहले मैंने सोचा कि मैं आयात-निर्यात के काम में बर्लिन में ट्रेनिंग लूँगा। फिर जब ट्रेनिंग पूरी हुई, तो मैं अपने काम में थोड़ा तजुरबा हासिल करना चाहता था, इसलिए 1961 में मैं हैमबर्ग शहर में नौकरी करने लगा। हैमबर्ग में जर्मनी का सबसे बड़ा बंदरगाह था। मुझे अपना काम इतना पसंद आने लगा कि मैं पूरे समय की सेवा करने का मन नहीं बना पा रहा था। अब मैं क्या करता?

मेरे बहुत-से दोस्त पायनियर सेवा करने लगे थे और वे मेरे लिए अच्छी मिसाल थे। इसके अलावा भाई एरिक मुंड ने, जो यातना शिविर में रह चुके थे, मुझे यहोवा पर भरोसा रखने का बढ़ावा दिया। उनका कहना था कि यातना शिविर में जिन भाइयों ने खुद पर भरोसा किया, उनका विश्‍वास कमज़ोर पड़ गया। मगर जिन्होंने यहोवा पर पूरा भरोसा रखा, वे वफादार रहे और संगठन के बहुत काम आए। इन भाइयों की मदद से मैं समझ पाया कि मुझे किन बातों को पहली जगह देनी है और इसके लिए मैं यहोवा का बहुत एहसानमंद हूँ।

सन्‌ 1963 में, जब मैं पायनियर सेवा करने लगा

भाई मार्टिन पोट्‌ज़िंगर, जो आगे चलकर शासी निकाय के सदस्य बने, हमेशा भाइयों की हिम्मत बँधाते थे। वे कहते थे, “साहस हमारा सबसे बड़ा खज़ाना है!” इन बातों पर गहराई से सोचने के बाद आखिरकार मैंने नौकरी छोड़ दी और जून 1963 में पायनियर सेवा शुरू कर दी। यह मेरी ज़िंदगी का सबसे अच्छा फैसला था! फिर दो महीने बाद मैं अपना गुज़ारा चलाने के लिए कोई नौकरी ढूँढ़ने की सोच ही रहा था कि तभी मुझे खास पायनियर बनने का सम्मान मिला। कुछ सालों बाद यहोवा ने मुझे एक और आशीष दी, जिसके बारे में मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। मुझे गिलियड स्कूल की 44वीं क्लास में हाज़िर होने के लिए बुलाया गया।

गिलियड में सीखा एक अनमोल सबक

गिलियड स्कूल में मैंने कई अनमोल सबक सीखे। इनमें से एक सबक मैंने भाई नेथन नॉर और भाई लाइमन स्विंगल से सीखा। वे कहा करते थे, “कभी-भी जल्दबाज़ी में अपनी सेवा न छोड़ना।” उन्होंने हमेशा बढ़ावा दिया कि मुश्‍किलों के बावजूद हम अपनी सेवा में लगे रहें। भाई नॉर कहते थे, “आप किन बातों पर ध्यान देंगे? धूल-मिट्टी, कीड़े-मकोड़ों और गरीबी पर? या फूलों, पेड़ों और लोगों के मुस्कुराते चेहरों पर? लोगों से प्यार करना सीखिए!” एक दिन भाई स्विंगल हमें समझा रहे थे कि कुछ भाई क्यों जल्दी हार मान लेते हैं और अपनी सेवा छोड़ देते हैं। उनकी आँखें भर आयीं और वे अपनी बात भी पूरी नहीं कर पाए। फिर उन्होंने अपने आपको सँभाला और कुछ देर बाद अपनी बात जारी रखी। इस घटना का मुझ पर गहरा असर हुआ। मैंने ठान लिया कि मैं न तो यीशु को और न ही उसके भाइयों को कभी निराश करूँगा।​—मत्ती 25:40.

सन्‌ 1967 में मिशनरी सेवा के लिए कांगो के लुबुम्बाशी में मैं, क्लॉड और हाइनरिक

कुछ समय बाद हमें पता चला कि गिलियड स्कूल के बाद हम कहाँ सेवा करेंगे। बेथेल के कुछ भाई हमसे इस बारे में पूछने लगे। जब कुछ विद्यार्थियों ने उन्हें बताया कि वे कहाँ जाएँगे, तो उन्होंने अपनी बातों से उनकी हिम्मत बढ़ायी। लेकिन जब मैंने कहा कि मैं कांगो (किन्शासा) जा रहा हूँ, तो थोड़ी देर के लिए वे चुप हो गए। उनके मुँह से सिर्फ इतना निकला, “कांगो जा रहे हो! यहोवा आपके साथ रहे!” दरअसल उन दिनों कांगो (किन्शासा) के बारे में यही सुनने को मिलता था कि वहाँ युद्ध हो रहे हैं और बहुत खून-खराबा है। लेकिन मैंने अपना ध्यान उन बातों पर लगाए रखा, जो मैंने गिलियड में सीखी थीं। सितंबर 1967 में हमारी क्लास ग्रैजुएट हुई। कुछ ही समय बाद मैं और दो और भाई हाइनरिक डेनबोज़टेल और क्लॉड लिंज़ी, कांगो की राजधानी किन्शासा के लिए रवाना हुए।

मिशनरी सेवा में बहुत कुछ सीखा

किन्शासा पहुँचने पर हमने तीन महीने तक फ्रेंच भाषा सीखी। फिर हम हवाई जहाज़ से लुबुम्बाशी शहर गए। इसे पहले एलिज़बेथविल कहा जाता था। यह कांगो के एकदम दक्षिणी छोर पर बसा हुआ है और इसके पास ही ज़ाम्बिया की सरहद है। हम शहर में ही एक मिशनरी घर में रहने लगे।

लुबुम्बाशी के ज़्यादातर हिस्सों में पहले कभी प्रचार नहीं हुआ था, इसलिए हमें वहाँ के लोगों को खुशखबरी सुनाने में बेहद खुशी हुई। देखते-ही-देखते हमारे पास इतने सारे बाइबल अध्ययन हो गए कि हम सभी को नहीं पढ़ा पाते थे। हमें सरकारी अधिकारियों और पुलिसवालों को भी गवाही देने का मौका मिला। कई लोग परमेश्‍वर के वचन का और प्रचार काम का बहुत आदर करते थे। यहाँ ज़्यादातर लोग स्वाहिली बोलते हैं, इसलिए मैंने और क्लॉड लिंज़ी ने स्वाहिली भी सीखी। कुछ ही समय बाद हमें स्वाहिली भाषा बोलनेवाली मंडली में भेज दिया गया।

हमें बहुत सारे बढ़िया अनुभव तो मिले, पर कुछ मुश्‍किलों का भी सामना करना पड़ा। कई बार नशे में धुत्त और बंदूक लिए सैनिक या फिर खूँखार पुलिसवाले आकर हमें डराते-धमकाते और हम पर झूठे इलज़ाम लगाते। एक बार की बात है। मिशनरी घर में मंडली की सभा चल रही थी। तभी अचानक कई सारे पुलिसवाले हथियार लिए हुए सभा में घुस आए और हमें पुलिस स्टेशन ले गए। उन्होंने हमें ज़मीन पर बैठने को कहा और रात के दस बजे तक वहीं बिठाए रखा। उसके बाद ही उन्होंने हमें जाने दिया।

सन्‌ 1969 में मुझे सफरी काम करने के लिए कहा गया। सर्किट की कुछ मंडलियों तक पहुँचने के लिए मुझे दूर-दूर तक पैदल चलना होता था और कई बार तो कीचड़ और ऊँची-ऊँची घास से होकर जाना होता था। अफ्रीका में यह बहुत आम नज़ारा था। एक गाँव में मेरे बिस्तर के नीचे एक मुर्गी रात को अपने चूज़ों के साथ सोती थी। फिर सुबह उजाला होने से पहले ही वह कुकड़ूँ कूँ करने लगती थी। उसका इस तरह मुझे जगाना मैं कभी नहीं भूलूँगा! अकसर शाम को हम सभी भाई-बहन आग के चारों तरफ बैठकर बाइबल की सच्चाइयों के बारे में बात करते थे। उस वक्‍त की मीठी यादें आज भी मेरे दिल के करीब हैं।

वहाँ हमें एक बहुत बड़ी समस्या का सामना करना पड़ा। कुछ कपटी लोग मंडली में घुस आए थे। वे दरअसल कीटावाला समूह के सदस्य थे। * इनमें से कुछ लोगों ने बपतिस्मा ले लिया और कुछ तो प्राचीन भी बन गए थे। भले ही वे लोग मंडली में “छिपी चट्टानों जैसे” थे, लेकिन वफादार भाई-बहन उनके झाँसे में नहीं आए। (यहू. 12) समय आने पर यहोवा ने उन लोगों को मंडलियों से निकाल दिया। इसके बाद कई नेकदिल लोग सच्चाई में आने लगे।

सन्‌ 1971 में मुझे किन्शासा के शाखा दफ्तर में सेवा करने के लिए भेजा गया। वहाँ मुझे लेखन पत्राचार, साहित्य की गुज़ारिश और सेवा विभाग से जुड़े काम देखने होते थे। बेथेल में मैंने सीखा कि अगर एक बड़े देश में ज़रूरी सुविधाएँ न हों, तब भी वहाँ हमारा काम कैसे व्यवस्थित तरीके से किया जा सकता है। मंडलियों को हवाई जहाज़ से जो चिट्ठियाँ और साहित्य वगैरह भेजे जाते थे, उन्हें पहुँचने में कभी-कभी महीनों लग जाते थे। हवाई जहाज़ से सामान उतारकर नाव से भेजा जाता था, लेकिन पानी में जलकुंभी की वजह से कई बार नाव एक ही जगह पर हफ्तों फँसी रहती थी। इस तरह की परेशानियों के बावजूद हमारा काम नहीं रुका।

वहाँ के भाइयों के पास ज़्यादा पैसे नहीं होते थे, फिर भी वे बड़े-बड़े अधिवेशनों का इंतज़ाम करते थे। वे यह कैसे कर पाते थे? वे दीमक की पहाड़ियों से मंच तैयार करते थे, लंबी-लंबी हाथी घास से दीवारें खड़ी करते थे और उसी घास को मोड़कर छोटे-छोटे गद्दे जैसे बनाते थे, जो बैठने के काम आते थे। वे बाँस के खंभे गाड़ते थे और सरकंडों से बनी चटाइयाँ छत पर डालने या मेज़ पर बिछाने के लिए इस्तेमाल करते थे। पेड़ की छाल को वे पतले-पतले टुकड़ों में काटकर कील की तरह इस्तेमाल करते थे। इस तरह भाई-बहन मुश्‍किलों का सामना करने के लिए नायाब तरीके ढूँढ़ निकालते थे। यह सब देखकर मैं हैरान रह जाता था! मुझे उन भाई-बहनों से बहुत लगाव हो गया था। इस वजह से जब मुझे दूसरी जगह सेवा करने के लिए भेजा गया, तो मुझे उनकी कमी बहुत खली।

केन्या में हमारी सेवा

सन्‌ 1974 में मुझे केन्या के नाइरोबी शाखा दफ्तर में भेजा गया। यहाँ हमारे पास बहुत काम था, क्योंकि यह शाखा दफ्तर आस-पास के दस देशों के प्रचार काम की निगरानी करता था। इनमें से कुछ देशों में हमारे काम पर रोक लगी थी। मुझे अकसर इन देशों का दौरा करने के लिए भेजा जाता था, खासकर इथियोपिया का। वहाँ के भाइयों पर बहुत ज़ुल्म ढाए जाते थे और उन्हें कठिन परीक्षाओं का सामना करना पड़ता था। बहुतों को बेरहमी से सताया जाता था या जेल में डाल दिया जाता था। कुछ भाइयों को तो जान से मार डाला गया। मगर उन भाई-बहनों का यहोवा और एक-दूसरे के साथ रिश्‍ता बहुत मज़बूत था, इसीलिए वे इस मुश्‍किल दौर में वफादार रह पाए।

इसी दौरान मेरी ज़िंदगी में एक नया मोड़ आया, जिससे मेरी खुशी दुगनी हो गयी। मेरी गिलियड क्लास में एक बहन थी, गेल मैथसन। वह कनाडा की रहनेवाली थी और क्लास के बाद उसे बोलिविया में मिशनरी सेवा करने के लिए भेजा गया था। हम एक-दूसरे को खत लिखा करते थे। बारह साल बाद हम एक बार फिर न्यू यॉर्क में मिले। कुछ समय बाद 1980 में केन्या में हम दोनों ने शादी कर ली। मुझे गेल में सबसे अच्छी बात यह लगती है कि वह हर मामले को यहोवा की नज़र से देखने की कोशिश करती है और उसके पास जो है, वह उसी में खुश रहना जानती है। वह आज भी मेरा बहुत साथ देती है और मेरी सबसे अच्छी दोस्त है।

सन्‌ 1986 में मुझे सफरी काम करने के साथ-साथ केन्या की शाखा-समिति में सेवा करने के लिए भी कहा गया। इस शाखा दफ्तर की निगरानी में कई देश आते थे, इसलिए हमें सफरी काम में उन देशों का भी दौरा करना था।

सन्‌ 1992 में अस्मारा में एक अधिवेशन में भाषण देते हुए

मुझे एक घटना याद है जो आज भी मेरे दिल को छू जाती है। सन्‌ 1992 में हम (एरिट्रिया के) अस्मारा शहर में अधिवेशन की तैयारी कर रहे थे। उन दिनों उस इलाके में हमारे काम पर रोक नहीं लगी थी। लेकिन दुख की बात है कि अधिवेशन के लिए हमें सिर्फ अनाज का गोदाम मिला। उसकी हालत बाहर से तो खराब थी ही, पर अंदर और भी बुरा हाल था। मगर अधिवेशन के दिन मुझे अपनी आँखों पर विश्‍वास नहीं हो रहा था। भाइयों ने गोदाम की कायापलट कर दी! बहुत-से परिवारों ने सुंदर-सुंदर चादरों से गोदाम की उन जगहों को ढक दिया, जो दिखने में खराब लग रही थीं। अब हम इस जगह यहोवा की उपासना कर सकते थे। हमने अधिवेशन का मज़ा लिया और 1,279 लोग हाज़िर हुए।

सफरी काम हमारे लिए आसान नहीं था क्योंकि हर हफ्ते हम अलग-अलग घरों में रहते थे। एक बार हम समुंदर के पास एक आलीशान बँगले में रहे, तो दूसरे मौके पर टीन से बने एक सादे घर में रहे, जहाँ शौचालय भी नहीं था। वह तो घर से 300 फुट की दूरी पर था। लेकिन हमें मुश्‍किलों से ज़्यादा प्रचार में जोशीले पायनियरों और प्रचारकों के साथ बिताए पल याद आते हैं और वे यादें आज भी हमें खुशी से भर देती हैं। इन भाई-बहनों से हमारी गहरी दोस्ती हो गयी थी, इसलिए जब हम दूसरी जगह सेवा करने के लिए जा रहे थे, तो उनसे विदा लेते हुए हमें बहुत दुख हुआ।

इथियोपिया में आशीषें मिलीं

सन्‌ 1987 और 1992 के सालों के दौरान ऐसे कई देशों में हमारे काम को कानूनी मान्यता मिली, जो केन्या के शाखा दफ्तर की निगरानी में आते थे। इस वजह से उन देशों में अलग से शाखा दफ्तर या देश-समिति दफ्तर स्थापित किए गए। सन्‌ 1993 में हमें इथियोपिया के अदिस अबाबा शाखा दफ्तर में सेवा करने के लिए कहा गया। यहाँ सालों तक हमारा काम छिप-छिपकर किया जाता था, लेकिन अब इसे कानूनी मान्यता मिल गयी है।

सन्‌ 1996 में इथियोपिया के गाँव-देहातों में सफरी काम करते हुए

यहोवा ने इथियोपिया में प्रचार काम पर सच में आशीष दी है। बहुत-से भाई-बहन पायनियर सेवा करने लगे। सन्‌ 2012 से प्रचारकों की कुल गिनती में से हर साल 20 प्रतिशत से ज़्यादा भाई-बहन पायनियर सेवा कर रहे हैं। इसके अलावा संगठन के स्कूलों से भाई-बहनों को ज़रूरी प्रशिक्षण मिला है और 120 से भी ज़्यादा राज-घर बनाए गए हैं। सन्‌ 2004 में बेथेल परिवार एक नयी जगह में रहने लगा और उसी जगह एक सम्मेलन भवन भी तैयार किया गया, जो भाइयों के लिए आशीष साबित हुआ।

इथियोपिया में रहते वक्‍त मैंने और गेल ने कई अच्छे दोस्त बनाए। उनका प्यार और उनकी परवाह हमारे दिल को छू जाती है। पिछले कुछ सालों से हमारी सेहत ठीक नहीं है। इस वजह से हमें मध्य यूरोप के शाखा दफ्तर में भेजा गया। यहाँ हमारी बहुत अच्छे से देखभाल की जाती है, लेकिन हमें इथियोपिया में अपने प्यारे दोस्तों की बहुत याद आती है।

यहोवा ने बढ़ाया है

हमने खुद अपनी आँखों से देखा है कि यहोवा कैसे अपने काम को आगे बढ़ा सकता है। (1 कुरिं. 3:6, 9) उदाहरण के लिए, जब मैंने कांगो में तांबे की खोज में आए रवांडा के लोगों को पहली बार गवाही दी, तो उस वक्‍त रवांडा में एक भी प्रचारक नहीं था। लेकिन अब उस देश में 30,000 से भी ज़्यादा भाई-बहन हैं। सन्‌ 1967 में कांगो (किन्शासा) में करीब 6,000 प्रचारक थे। मगर अब वहाँ करीब 2,30,000 प्रचारक हैं और 2018 में दस लाख से भी अधिक लोग स्मारक में हाज़िर हुए। केन्या का शाखा दफ्तर पहले जिन देशों का काम सँभालता था, अब उन देशों में प्रचारकों की कुल गिनती 1,00,000 से भी ज़्यादा हो गयी है।

करीब 50 साल पहले यहोवा ने अलग-अलग भाइयों के ज़रिए मेरी मदद की, जिस वजह से मैं पूरे समय की सेवा शुरू कर पाया। अपने शर्मीले स्वभाव की वजह से मैं आज भी कई बार कमज़ोर महसूस करता हूँ, लेकिन मैंने यहोवा पर भरोसा रखना सीखा है। अफ्रीका में अपनी सेवा के दौरान मैंने सब्र रखना और हर हाल में संतुष्ट रहना सीखा है। मैं और गेल उन भाई-बहनों की बहुत कदर करते हैं जो दिल खोलकर मेहमान-नवाज़ी करते हैं, बड़ी-बड़ी मुश्‍किलों में भी धीरज रखते हैं और यहोवा पर भरोसा करते हैं। मैं यहोवा की महा-कृपा के लिए उसका दिल से धन्यवाद करता हूँ। सच में, यहोवा ने मुझे उम्मीदों से बढ़कर आशीषें दी हैं।​—भज. 37:4.

^ पैरा. 11 यह परचा बाद में हमारी राज-सेवा  कहलाया और अब इसकी जगह हमारी मसीही ज़िंदगी और सेवा​—सभा पुस्तिका  इस्तेमाल होती है।

^ पैरा. 23 शब्द “कीटावाला” एक स्वाहिली शब्द से निकला है, जिसका मतलब है, “धौंस जमाना, निर्देश या आदेश देना।” इस समूह का लक्ष्य था, कांगो को बेल्जियम से आज़ादी दिलाना और खुद अपनी सरकार चलाना। इस समूह के लोग साक्षियों के प्रकाशनों का अध्ययन करते थे और उन्हें बाँटते भी थे। लेकिन वे अपने राजनैतिक विचारों, अंधविश्‍वास से भरे रीति-रिवाज़ों और अनैतिक चालचलन को सही ठहराने के लिए बाइबल की शिक्षाओं को तोड़-मरोड़कर पेश करते थे।