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अकेलापन—क्या आप इससे लड़ने और जीतने के लिए दृढ़संकल्प हैं?

अकेलापन—क्या आप इससे लड़ने और जीतने के लिए दृढ़संकल्प हैं?

अकेलापन—क्या आप इससे लड़ने और जीतने के लिए दृढ़संकल्प हैं?

क्या आप अकेले हैं? जीवन में कई अवसर आते हैं जब अकेला महसूस करना स्वाभाविक है, चाहे आप विवाहित हैं या अविवाहित, पुरुष हैं या स्त्री, बूढ़े हैं या जवान। यह भी स्वीकार कीजिए कि यह ज़रूरी नहीं कि अकेला होना अकेलापन उत्पन्‍न करता है। अपने अनुसंधान में डूबा हुआ एक अकेला विद्वान अकेलापन नहीं महसूस करता। चित्रकारी करते हुए एक अकेले कलाकार के पास अकेलापन महसूस करने का मौक़ा ही नहीं है। वे एक एकांत क्षण का स्वागत करते हैं, और फिर एकांत उनका सबसे प्यारा मित्र बन जाता है।

असली अकेलेपन की भावना बाहर से विकसित होने के बजाय हमारे अन्दर से विकसित होती है। अकेलापन किसी दुःखद घटना के कारण शुरू हो सकता है—मृत्यु, तलाक़, बेरोज़गार हो जाना, कोई त्रासदी। जब हम अपने आपको अन्दर से रोशन करते हैं, तो वह अकेलापन कम किया जा सकता है, शायद समय के बीतने पर वह पूरी तरह जा सकता है, और जिस कमी ने हमें पीड़ित किया था वह दूर की जा सकती है, भरी जा सकती है।

भावनाएँ आपके विचारों से उठती हैं। कमी के भर जाने के बाद और जो भावनाएँ उसने उत्पन्‍न की थीं उनके पीछे हट जाने के बाद, अब समय है प्रोत्साहक विचारों को प्राथमिकता देने का जो आपको एक सक्रिय जीवन बनाए रखने में मदद करेंगे।

अपने आपको काम में लगाइए। अपने आप पर काबू पाइए। बहुत सी सकारात्मक चीज़ें करने को हैं। इसलिए दोस्ताना बनिए। किसी को फ़ोन कीजिए। पत्र लिखिए। पुस्तक पढ़िए। अपने घर लोगों को बुलाइए। विचारों का आदान-प्रदान कीजिए। यदि आप मित्र चाहते हैं तो आपको ख़ुद मैत्रीपूर्ण होना पड़ेगा। अपने अन्दर झाँक के देखिए ताकि आप लोगों से मित्रता कर सकें। कृपा के छोटे-छोटे काम कीजिए। दूसरों के साथ छोटी-छोटी सांत्वनादायक आध्यात्मिक बातें बाँटिए। आप यीशु के शब्दों को सच्चा पाएँगे: “लेने से देना धन्य है।” आपको एक और सूक्‍ति की सत्यता पता चलेगी: “जो औरों की खेती सींचता है, उसकी भी सींची जाएगी।”—प्रेरितों २०:३५; नीतिवचन ११:२५.

यह आपकी ज़िम्मेदारी है

मुश्‍किल है? करने से कहना आसान होता है? हर लाभकर चीज़ को कहना उसे करने से आसान होता है। वही बात तो उस काम को करना आपके लिए संतोषदायी बनाती है। आपको ख़ास कोशिश करनी पड़ती है। आपका एक हिस्सा देने में लग जाता है, और आपकी संतुष्टि और आनन्द पहले से ज़्यादा बढ़ जाते हैं। यह आपकी ज़िम्मेदारी है कि जो अकेलापन आपके ऊपर अधिकार जमाना चाहता है उसे कोशिश करके दूर करें। ‘आधुनिक परिपक्वता’ (Modern Maturity) पत्रिका में एक लेखक ने कहा: “आपके अकेलेपन के लिए कोई दूसरा व्यक्‍ति ज़िम्मेदार नहीं है, लेकिन आप इसके बारे में कुछ कर सकते हैं। आप एक मित्रता के साथ अपना जीवन विस्तृत कर सकते हैं। आपको लगता है कि किसी ने आपको चोट पहुँचाई है तो आप उसे क्षमा कर सकते हैं। आप पत्र लिख सकते हैं। फ़ोन कर सकते हैं। सिर्फ़ आप ही अपना जीवन बदल सकते हैं। कोई दूसरा व्यक्‍ति आपके लिए यह नहीं कर सकता।” उसने एक पत्र को उद्धृत किया जो उसे मिला था और जो “तीर ठीक निशाने पर मारता है: ‘मैं लोगों से कहता हूँ कि यह उनकी ज़िम्मेदारी है कि वे अपने जीवन को अकेला या अधूरा होने से बचाएँ। सतर्क रहिए, कुछ कीजिए!’”

आपके मददगार मित्रों को मनुष्यों तक ही सीमित होने की ज़रूरत नहीं। एक पशु चिकित्सक ने कहा: “बुज्प्तार्ग लोगों के सामने सबसे बड़ी समस्याएँ शारीरिक बीमारियाँ नहीं हैं, बल्कि जिस अकेलेपन और अस्वीकृति का वे अनुभव करते हैं, वे हैं। . . . मित्रता देने के द्वारा पालतू जानवर (जिनमें कुत्ते सम्मिलित हैं) उस समय उद्देश्‍य और अर्थ देते हैं जब बुज्प्तार्ग अकसर समाज से कटे हुए होते हैं।” ‘बेहतर घर और बगीचे’ (Better Homes and Gardens) पत्रिका ने कहा: “पालतू जानवर भावात्मक रूप से परेशान लोगों का इलाज करने में मदद करते हैं; शारीरिक रूप से बीमार, विकलांग, और अपंग लोगों को प्रेरित करते हैं; और अकेले और बुज्प्तार्ग लोगों में दोबारा जान डाल देते हैं।” जो लोग पालतू जानवरों में नई-नई दिलचस्पी विकसित कर रहे हैं उनके बारे में एक और पत्रिका के लेख ने कहा: “रोगियों की चिंताएँ कम हो गईं और वे ठुकराए जाने के डर के बिना अपने पालतू जानवरों को प्यार दिखा सकते थे। बाद में उन्होंने लोगों से बात करना शुरू कर दिया, पहले-पहल अपने पालतू जानवरों की देखरेख के बारे में बात की। उन्होंने एक ज़िम्मेदारी को महसूस करना शुरू कर दिया। उन्हें लगने लगा कि किसी को उनकी ज़रूरत है, कोई चीज़ उन पर निर्भर है।”

अकेलेपन से पीड़ित व्यक्‍ति अकसर ख़ुद अपनी मदद करने, अपने आपको अपनी हताशा की गहराइयों से निकालने के लिए जल्दी नहीं करेगा। उस हद तक यत्न करने के लिए एक जड़त्व होता है, एक अनिच्छुकता होती है, लेकिन यदि उसे अपने अकेलेपन का असली कारण समझना है तो ऐसा करना ही पड़ेगा। ऐसी सलाह जिसे लोग स्वीकार करना मुश्‍किल पाते हैं, उसके प्रति लोगों के विरोध के बारे में डॉ. जेम्स्‌ लिंच ने लिखा: “मानव स्थिति ऐसी है कि हम उन बातों को सुनना या कम से कम अपने व्यवहार में नहीं अपनाना चाहते जो हमें पसन्द नहीं होतीं।” एक व्यक्‍ति शायद अपने अकेलेपन से बचना चाहता हो, लेकिन वह ऐसा करने के लिए ज़रूरी संकल्प-शक्‍ति जुटाने के लिए शायद राज़ी न हो।

जैसा आप महसूस करना चाहते हैं वैसा ही व्यवहार कीजिए

गहरी हताशा से निकलने के लिए एक व्यक्‍ति को सच्ची प्रसन्‍नता और कृपालुता के कामों में निरन्तर लगा रहना चाहिए। (प्रेरितों २०:३५ से तुलना कीजिए.) ऐसा करने के लिए अकेलेपन की शामक निष्क्रियता के एकदम विपरीत व्यवहार करने के द्वारा अकेलेपन के गहरे मूड से निकलने की ज़रूरत है। ख्प्ताश रहिए, नाचिए, मस्त गीत गाइए। ऐसे काम कीजिए जिनसे ख्प्ताशी झलकती हो। बढ़ा-चढ़ा कर कीजिए, ज़रूरत से ज़्यादा कीजिए, ख्प्ताशी के विचारों से उदास मूड को पीछे हटा दीजिए। जैसे कि?

जैसे कि जो फिलिप्पियों ४:८ में बताए गए हैं: “निदान, हे भाइयो, जो जो बातें सत्य हैं, और जो जो बातें आदरनीय हैं, और जो जो बातें उचित हैं, और जो जो बातें पवित्र हैं, और जो जो बातें सुहावनी हैं, और जो जो बातें मनभावनी हैं, निदान, जो जो सद्‌गुण और प्रशंसा की बातें हैं उन्हीं पर ध्यान लगाया करो।”

आपको अपने जीवन में कुछ अर्थ डालने की ज़रूरत है। यदि आप महसूस करते हैं कि आपके जीवन में कोई अर्थ है, तो आपको कार्यशक्‍ति मिलेगी कि आप उसके प्रति प्रतिक्रिया दिखाने और उसे पूरा करने की कोशिश करें। आप संभवतः निराशाजनक अकेलेपन की भावना में नहीं डूबेंगे। यह विक्टर फ्रैंकल की पुस्तक ‘अर्थ के लिए मनुष्य की खोज’ (Man’s Search for Meaning) में रुचिपूर्ण रूप से दिखाया गया है। वह इसकी चर्चा हिटलर के नज़रबन्दी शिविरों में बन्दियों की तुलना में करता है। जिनके जीवन में कोई अर्थ नहीं था वे अकेलेपन के शिकार हो गए और उनमें जीने की इच्छा नहीं रही। लेकिन “अपने भीतरी मूल्य की चेतना उच्च, ज़्यादा आध्यात्मिक बातों से जुड़ी होती है, और शिविर के जीवन से नहीं हिलाई जा सकती।” उसने आगे कहा: “दुःख किसी तरीक़े से दुःख नहीं रहता जिस क्षण उसे एक अर्थ मिल जाता है, जैसे कि बलिदान का अर्थ। . . . मनुष्य की मुख्य चिन्ता सुख प्राप्त करना या दर्द से दूर रहना नहीं है, बल्कि इसके बजाय उसके जीवन में अर्थ देखना है। इसीलिए मनुष्य दुःख सहने के लिए भी तैयार रहता है, बशर्ते वह निश्‍चित है कि उसके दुःख उठाने में कोई अर्थ है।”

वह परम सम्बन्ध जिसकी आपको ज़रूरत है

परमेश्‍वर और उसके वचन, बाइबल को पूरी सिपुर्दगी करना एक सच्चा आध्यात्मिक दृष्टिकोण प्राप्त करने का तरीक़ा है। परमेश्‍वर में विश्‍वास और मन लगाकर उससे प्रार्थना करना हमारे जीवन को अर्थ दे सकता है। फिर, चाहे मानवी रिश्‍ते टूट भी जाएँ, तो भी हम अकेले नहीं होते, अकेलेपन में नहीं डूबते। जैसे फ्रैंकल ने कहा, अर्थ के साथ दुःख उठाना सहनीय होता है, यहाँ तक कि यह आनन्द का स्रोत है। मानव स्वभाव के एक प्रेषक ने कहा: “सूली पर लटके एक शहीद के पास ऐसी ख़ुशी हो सकती है जिससे कि सिंहासन पर बैठे राजा को ईर्ष्या हो।”

मसीह के प्रेरितों को जब मनुष्यों द्वारा सताया गया तो उन्हें यहोवा की ओर से आनन्द महसूस हुआ; ऐसा दुःख उठाना उनके लिए बहुत अर्थ रखता था। “धन्य हैं वे, जो धर्म के कारण सताए जाते हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। धन्य हो तुम, जब मनुष्य मेरे कारण तुम्हारी निन्दा करें, और सताएं और झूठ बोल बोलकर तुम्हारे विरोध में सब प्रकार की बुरी बात कहें। आनन्दित और मगन होना क्योंकि तुम्हारे लिये स्वर्ग में बड़ा फल है इसलिये कि उन्हों ने उन भविष्यद्वक्‍ताओं को जो तुम से पहिले थे इसी रीति से सताया था।” (मत्ती ५:१०-१२) इसी प्रकार की प्रतिक्रिया प्रेरितों के काम ५:४०, ४१ में भी लेखबद्ध है: “प्रेरितों को बुलाकर पिटवाया; और यह आज्ञा देकर छोड़ दिया, कि यीशु के नाम से फिर बातें न करना। वे इस बात से आनन्दित होकर महासभा के साम्हने से चले गए, कि हम उसके नाम के लिये निरादर होने के योग्य तो ठहरे।”

जहाँ आप फूल लगाते हैं वहाँ ऊँटकटारे नहीं उग सकते

अपने मन की मिट्टी को सुन्दरता और सकारात्मक उद्देश्‍य के बीजों से भर दीजिए; नकारात्मक हताशा और निराशाजनक अकेलेपन के बीजों के लिए कोई जगह न छोड़िए। (कुलुस्सियों ३:२; ४:२ से तुलना कीजिए.) करना मुश्‍किल है? कुछ परिस्थितियों में असम्भव प्रतीत होता है। एक कवि ने लिखा: “जहाँ आप फूल लगाते हैं, . . . वहाँ ऊँटकटारे नहीं उग सकते,” जिसके लिए फिर सकारात्मक प्रयास और दृढ़ संकल्प-शक्‍ति की ज़रूरत होती है। लेकिन यह किया जा सकता है और किया जा रहा है।

लॉरेल निसबेट के उदाहरण पर विचार कीजिए। उसे पोलियो हो गया और ३६ साल की उम्र में उसे ‘आयर्न लंग’ में रख दिया गया जिसमें वह अपने पीठ के बल ३७ साल तक पड़ी रही। उसे गर्दन से नीचे पूरी तरह लकवा मार गया था, वह सिर्फ़ अपना सिर हिला सकती थी। पहले-पहल तो वह एकदम निराश हो गई। फिर, अपने ऊपर क़रीब एक दिन तक तरस खाने के बाद, उसने फ़ैसला किया, ‘बहुत हो गया!’ उसे दो बच्चों को पालना था और पति की देखरेख करनी थी। उसने अपने जीवन को दोबारा बनाना शुरू किया; उसने उस आयर्न लंग में पड़े हुए ही अपने घर को चलाना सीखा।

लॉरेल बहुत कम सोती थी। वह रात का लम्बा समय कैसे बिताती थी? अकेलेपन के आगे झुक जाती थी? जी नहीं। वह अपने स्वर्गीय पिता यहोवा से प्रार्थना करती थी। अपने लिए शक्‍ति के लिए प्रार्थना करती थी, अपने मसीही भाई-बहनों के लिए प्रार्थना करती थी, और दूसरों को परमेश्‍वर के राज्य के बारे में गवाही देने के अवसरों के लिए प्रार्थना करती थी। उसने प्रचार करने के लिए तरीक़े ढूँढे और यहोवा के नाम के लिए अपनी गवाही से बहुतों को प्रभावित किया। उसने अकेलेपन के किसी ऊँटकटारे को नहीं उगने दिया; वह फूलों की देखभाल करने में ही बहुत व्यस्त थी।

वॉच टावर मिशनरी, हैरल्ड किंग ने भी ऐसा ही किया। एक चीनी जेल में उसे पाँच साल के लिए एकांत क़ैद की सज़ा मिली, बहुत संभावना थी कि उस पर गहरा अकेलापन छा जाए। लेकिन उसने उस नकारात्मक दृष्टिकोण को ठुकरा दिया, और जानबूझकर संकल्प-शक्‍ति का प्रयोग करने के द्वारा अपने मन को एक अलग रास्ते पर लगाया। बाद में उसने उसका वर्णन ऐसे किया:

“मैं ने ‘प्रचार’ कार्य का एक कार्यक्रम आयोजित किया। लेकिन एक व्यक्‍ति जब एकांत क़ैद में हो तो किसे प्रचार करे? मैंने फ़ैसला किया कि जो बातें मुझे याद थीं उनसे मैं कुछ उपयुक्‍त बाइबल उपदेश तैयार करूँगा और फिर काल्पनिक पात्रों को प्रचार करूँगा। फिर मैंने मानो प्रचार कार्य शुरू किया, एक काल्पनिक दरवाज़े को खटखटाया और एक काल्पनिक गृहस्वामी को गवाही दी, सुबह कई घरों में भेंट की। कुछ समय बाद मुझे एक काल्पनिक श्रीमती कार्टर मिली, जिसने कुछ दिलचस्पी दिखाई, और कई पुनःभेंटों के बाद हमने एक नियमित बाइबल अध्ययन करने का प्रबन्ध किया। इस अध्ययन के दौरान हमने पुस्तक ‘लेट गॉड बी ट्‌रू’ (Let God Be True) के मुख्य विषयों को पूरा किया, क्योंकि वे मुझे याद थे। यह सब मैंने ऊँचे स्वर में किया ताकि इन बातों की आवाज़ इन्हें मेरे मन में ज़्यादा अच्छी तरह बैठा दे।”

हिटलर के नज़रबन्दी शिविरों में क़ैद हज़ारों यहोवा के गवाहों को आज़ादी मिल जाती यदि वे सिर्फ़ अपने विश्‍वास का इन्कार कर देते। बहुत थोड़ों ने ऐसा किया। हज़ारों वफ़ादार रहकर ही मरे—कुछ को फांसी दे दी गई और कुछ बीमारी और कुपोषण से मर गए। योज़फ़ नाम के एक क़ैदी गवाह के दो बड़े भाई दूसरे शिविरों में थे। एक को ज़बरदस्ती अपना मुँह ऊपर करके लेटने को कहा गया कि उस छुरे को अपने ऊपर गिरते देखे जिससे उसका सिर कट गया। योज़फ़ ने बताया: “जब शिविर में दूसरों ने इसके बारे में सुना तो उन्होंने मुझे बधाई दी। उनके सकारात्मक दृष्टिकोण ने मुझे गहराई तक छू लिया। हमारे लिए वफ़ादार बने रहने का अर्थ बचने से ज़्यादा था।”

उसके दूसरे भाई को फायरिंङ्‌ग दल के सामने खड़ा किया गया और उससे पूछा गया कि क्या वह कुछ कहना चाहता है। उसने प्रार्थना करने की अनुमति माँगी, और उसे अनुमति दे दी गई। वह छू देनेवाली करुणता और हार्दिक आनन्द से इतनी भरी हुई थी कि जब गोली चलाने की आज्ञा दी गई तो दल के किसी भी व्यक्‍ति ने आज्ञा का पालन नहीं किया। आज्ञा दोहरायी गई, तब जाकर एक गोली चलाई गई, जो उसके शरीर पर लगी। इस पर क्रोधित होकर कमान अफसर ने ख़ुद अपनी पिस्तौल निकाली और काम तमाम कर दिया।

क्या बात जीवन को सचमुच अर्थपूर्ण बना सकती है

इन सब मामलों में परमेश्‍वर पर दृढ़ विश्‍वास शामिल था। जब हर दूसरी चीज़ आज़मायी जा चुकी हो और असफल रही हो, तो यह हमेशा अकेलेपन पर विजय प्राप्त करने के लिए और ऐसे जीवन को अर्थ से भरने के लिए मौजूद है जो कभी ख़ाली था। अनेक जीवन जो सांसारिक दृष्टि से अर्थपूर्ण समझे जाते हैं वास्तव में अर्थहीन हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि अन्तिम परिणाम मृत्यु है, वे मिट्टी में मिल जाते हैं, गुमनाम हो जाते हैं, मानवता के सागर में लहरों का कोई निशान नहीं छोड़ते, समय की रेत पर कोई पदचिह्न नहीं छोड़ते। यह ऐसा ही है जैसे सभोपदेशक ९:५ कहता है: “क्योंकि जीवते तो इतना जानते हैं कि वे मरेंगे, परन्तु मरे हुए कुछ भी नहीं जानते, और न उनको कुछ बदला मिल सकता है, क्योंकि उनका स्मरण मिट गया है।” यहोवा के उद्देश्‍यों से हटकर व्यतीत किए हुए जीवन को कोई अर्थ देना ख़ाली व्यर्थता है।

तारों भरे आसमान को देखिए, ऊपर इस अंधेरे मेहराब की विशालता को महसूस कीजिए, और आप बहुत ही तुच्छ महसूस करते हैं। आप भजनहार दाऊद की भावनाओं को समझते हैं जब उसने लिखा: “जब मैं आकाश को, जो तेरे हाथों का कार्य है, और चंद्रमा और तारागण को जो तू ने नियुक्‍त किए हैं, देखता हूं; तो फिर मनुष्य क्या है कि तू उसका स्मरण रखे, और आदमी क्या है कि तू उसकी सुधि ले?” दाऊद के पुत्र सुलैमान ने मनुष्यों के कार्यों को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि “सब कुछ व्यर्थ है,” और निष्कर्ष निकाला: “सब कुछ सुना गया; अन्त की बात यह है कि परमेश्‍वर का भय मान और उसकी आज्ञाओं का पालन कर; क्योंकि मनुष्य का सम्पूर्ण कर्त्तव्य यही है।”—भजन ८:३, ४; सभोपदेशक १२:८, १३.

फिर अन्तिम विश्‍लेषण में, एक अकेला व्यक्‍ति या कोई दूसरा व्यक्‍ति ही क्यों न हो, किस प्रकार अपने जीवन में अर्थ डाल सकता है? अपना जीवन परमेश्‍वर के भय में बिताने, अर्थात्‌ परमेश्‍वर की आज्ञाओं का पालन करने के द्वारा। सिर्फ़ इस तरह ही वह परमेश्‍वर, इस विशाल विश्‍व-मंडल के सृष्टिकर्ता के उद्देश्‍यों में ठीक बैठ सकता है और उस अनन्तकालीन परमेश्‍वरीय प्रबन्ध का भाग हो सकता है।

यदि परमेश्‍वर आपके साथ है, तो आप कभी अकेले नहीं हैं

एक वफ़ादार अफ्रीकी गवाह ने, भयंकर सताहट सहने और त्यागी गई महसूस करने के बाद कहा कि जबकि उसके मानवी रिश्‍ते टूट भी गए तो भी वह अकेली नहीं थी। उसने भजन २७:१० को उल्लिखित किया: “मेरे माता-पिता ने तो मुझे छोड़ दिया है, परन्तु यहोवा मुझे सम्भाल लेगा।” यीशु ने भी ऐसा ही महसूस किया। “देखो, वह घड़ी आती है बरन आ पहुंची कि तुम सब तित्तर बित्तर होकर अपना अपना मार्ग लोगे, और मुझे अकेला छोड़ दोगे, तौभी मैं अकेला नहीं क्योंकि पिता मेरे साथ है।”—यूहन्‍ना १६:३२.

यीशु को अकेला होने का डर नहीं था। वह अकसर जानबूझकर एकांत चाहता था। जब वह अकेला होता था तब वह अकेलापन नहीं महसूस करता था। वह अपने आपको ऐसी स्थिति में करता था कि परमेश्‍वर की आत्मा प्राप्त करे और जब उसकी सृष्टि से घिरा होता था तो उसके नज़दीक महसूस करता था। कभी-कभी वह लोगों की संगति से दूर रहता था ताकि वह सिर्फ़ परमेश्‍वर की संगति में रह सके। वह ‘परमेश्‍वर के निकट आता था और परमेश्‍वर उसके निकट आता था।’ (याकूब ४:८) निःसंदेह वह परमेश्‍वर का सबसे गहरा मित्र था।

जैसे मित्र का वर्णन शास्त्रवचन करता है वैसा मित्र मूल्यवान होता है। (नीतिवचन १७:१७; १८:२४) क्योंकि इब्राहीम यहोवा परमेश्‍वर में पूर्ण विश्‍वास रखता था और बिना संदेह किए उसकी आज्ञा मानता था “वह परमेश्‍वर का मित्र कहलाया।” (याकूब २:२३) यीशु ने अपने अनुयायियों से कहा: “जो कुछ मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं, यदि उसे करो, तो तुम मेरे मित्र हो। अब से मैं तुम्हें दास न कहूंगा, क्योंकि दास नहीं जानता, कि उसका स्वामी क्या करता है: परन्तु मैं ने तुम्हें मित्र कहा है, क्योंकि मैं ने जो बातें अपने पिता से सुनीं, वे सब तुम्हें बता दीं।”—यूहन्‍ना १५:१४, १५.

जिसके यहोवा परमेश्‍वर और यीशु मसीह जैसे मित्र हों, तो वे जिन्हें विश्‍वास है भला अकेलेपन के विरुद्ध अपनी लड़ाई में कैसे नहीं जीतेंगे?

[पेज 8, 9 पर तसवीरें]

प्रार्थना और दूसरे कार्य आपको अकेलेपन से बचने में मदद कर सकते हैं

[पेज 10 पर तसवीर]

हैरल्ड किंग और नज़रबन्दी शिविरों में अन्य हज़ारों यहोवा के गवाहों के अनुभव प्रदर्शित करते हैं कि परमेश्‍वर पर विश्‍वास बुरी से बुरी परिस्थितियों में भी अकेलेपन पर विजयी हो सकता है

[चित्र का श्रेय]

U.S. National Archives photo