दर्द जो नहीं रहेगा
दर्द जो नहीं रहेगा
बाइबल की प्रतिज्ञा की पूर्ति में निकाल दिया जानेवाला दर्द वह दर्द होगा जिसका अनुभव पहले मानव की अपरिपूर्णता के परिणामस्वरूप किया जाता है। इस दर्द में वह दर्द भी सम्मिलित है जिसका विवरण जीर्ण दर्द के तौर पर किया जा सकता है।
रोग या चोट लगने की चेतावनी व्यवस्था होने के बजाय, जीर्ण दर्द की समानता “ख़तरे की झूठी घंटी” से की गयी है, जो बंद ही नहीं होती। यही वह दर्द है जिसके कारण पीड़ित व्यक्ति हर वर्ष राहत की खोज में करोड़ों डालर ख़र्च करते हैं, और यही दर्द लाखों लोगों के जीवन बरबाद करता है।
दर्द विशेषज्ञ डॉ. रिचर्ड ए. स्टर्नबाक ने लिखा: “तीव्र दर्द से भिन्न, जीर्ण दर्द एक लक्षण नहीं है; जीर्ण दर्द एक चेतावनी संकेत नहीं है।” आपाती चिकित्सा (अंग्रेज़ी) ने ज़ोर दिया: “जीर्ण दर्द का कोई उद्देश्य नहीं है।”
अतः, हाल ही के वर्षों में अनेक डॉक्टर ऐसे दर्द को अपने आप में एक वास्तविक वेदना समझते हैं। “तीव्र दर्द में दर्द किसी रोग या चोट का लक्षण होता है,” डॉ. जॉन जे. बॉनिका, दर्द पर आज के मानक लेख, दर्द का नियंत्रण (अंग्रेज़ी) में बताता है। “जीर्ण दर्द में स्वयं दर्द ही रोग है।”
दर्द को समझने के प्रयास
दर्द को अब भी पूर्ण रूप से समझा नहीं गया है। अमरीकी स्वास्थ्य (अंग्रेज़ी) पत्रिका ने कहा कि, “दर्द क्या है, इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयास करने के अन्तहीन आकर्षण में वैज्ञानिक उत्साही रूप से कार्य कर रहे हैं।” कुछ दशकों पहले, उन्होंने मान लिया कि दृष्टि, श्रवण और स्पर्श की तरह दर्द एक प्रकार की संवेदना है। इसका एहसास त्वचा में विशेष तंतु सिरों द्वारा किया जाता है और विशेष तंत्रिका-तंतुओं के द्वारा इन्हें मस्तिष्क तक प्रसारित किया जाता है। लेकिन दर्द की यह अतिसरल धारणा ग़लत पायी गयी। कैसे?
इस नयी अंतर्दृष्टि को प्राप्त करने में एक तत्त्व उस युवती का अध्ययन था जिसे दर्द की कोई संवेदना नहीं थी। वर्ष १९५५ में उसकी मृत्यु के बाद उसके मस्तिष्क और स्नायु-तंत्र का परीक्षण, दर्द के कारण की संपूर्णतया नयी धारणा की ओर ले गया। डॉक्टर “तंतु सिरों को ढूँढ रहे थे,” जुलाई ३०, १९६० की द स्टार वीकली मैग़ज़ीन ने बताया। “यदि [उसमें] कोई तंतु सिरे न होते, तो यह उस युवती की संवेदनशून्यता का कारण होता। लेकिन वे मौजूद थे और स्पष्टतया ठीक-ठाक थे।
“उसके बाद, डॉक्टरों ने तंत्रिका-तंतुओं का परीक्षण किया, जो समझा जाता है कि तंतु सिरों को मस्तिष्क से जोड़ते हैं। यहाँ, निश्चय ही ख़राबी मिल जाती। लेकिन नहीं मिली। चोट लगने के कारण बिगड़े हुए तंतुओं को छोड़, जहाँ तक देखा जा सकता था सभी तंतु ठीक-ठाक थे।
“आख़िरकार, युवती के मस्तिष्क के परीक्षण किए गए और एक बार फिर किसी भी प्रकार की ख़राबी साबित नहीं की जा सकी। तमाम मौजूदा जानकारी और सिद्धान्त के अनुसार, इस लड़की को सामान्य रूप से दर्द का एहसास होना चाहिए था, लेकिन वह गुदगुदाहट को भी महसूस नहीं कर पाती थी।” लेकिन जब उसकी त्वचा को दबाया जाता तो उसके प्रति वह संवेदनशील थी और सुई के ऊपरी हिस्से और सुई की नोक के स्पर्श के बीच फ़र्क बता सकती थी, यद्यपि सुई का चुभना उसे तकलीफ़ नहीं देता था।
रॉनल्ड मेलज़क, जिसने १९६० के दशक में दर्द को समझाने के लिए एक लोकप्रिय नए सिद्धान्त की सह-रचना की, इसकी जटिलता का एक और उदाहरण प्रस्तुत करता है। वह कहता है: “श्रीमती हल अपने पाँव की ओर इशारा करती रहीं जो वहाँ नहीं था [उसे काट दिया गया था], और जलन-सहित दर्द का वर्णन करतीं, मानो एक ज्वलंत सलाई उसके पैर की उंगलियों में घुसेड़ दी जा रही हो।” मेलज़क ने १९८९ में मैक्लीन्स (अंग्रेज़ी) पत्रिका को कहा कि वह “अब भी उस दर्द के स्पष्टीकरण को ढूँढ रहा है जिसे वह ‘आभासी’ दर्द कहता है।” इसके अतिरिक्त, ऐसा दर्द है जिसे निर्दिष्ट दर्द कहा जाता है, जिसमें व्यक्ति के शरीर के एक भाग में ख़राबी हो सकती है लेकिन दर्द का एहसास किसी और भाग में हो सकता है।
मन और शरीर दोनों सम्मिलित
दर्द को अब “मन और शरीर के अत्यधिक जटिल पारस्परिक प्रभाव” के तौर पर पहचाना जाता है। वर्ष १९९२ की अपनी पुस्तक अमरीका में दर्द (अंग्रेज़ी) में, मेरी एस. शेरिडन कहती है कि “दर्द का अनुभव इतना अधिक मनोवैज्ञानिक है कि मन कभी-कभी उसके अस्तित्व का इनकार कर सकता है और कभी-कभी तीव्र घाव भर जाने के काफ़ी समय बाद, दर्द को उत्पन्न कर सकता और बनाए रख सकता है।”
एक व्यक्ति दर्द के प्रति कैसी प्रतिक्रिया दिखाता है, इसमें उस व्यक्ति का मिज़ाज, एकाग्रता, व्यक्तित्व, सुझाव के प्रति उसकी संवेदनशीलता और अन्य तत्त्व अति महत्त्वपूर्ण हैं। “अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतिक्रिया का कारण भय और चिन्ता हैं,” दर्द पर एक अधिकारी डॉ. बॉनिका ने कहा। इस प्रकार, एक व्यक्ति दर्द का एहसास करना सीख सकता है। डॉ. विलबर्ट फोरडाइस, मनोविज्ञान का एक प्रोफ़ेसर जो दर्द की समस्याओं का विशेषज्ञ है, समझाता है:
“सवाल यह नहीं कि दर्द वास्तविक है कि नहीं। निश्चय ही, यह वास्तविक है। सवाल है कि कौन-से निर्णायक तत्त्व हैं जो इसे प्रभावित करते हैं। भोजन से पहले यदि मैं आपके साथ हैम सैंडविच की बात करूं, तो आपके मुँह में पानी आएगा। यह वास्तविक है। लेकिन यह अनुकूलन की वजह से होता है। वहाँ कोई हैम सैंडविच नहीं होता। मनुष्य अनुकूलन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। यह समाज में हमारे आचरण, मुँह में पानी आना, रक्तचाप, भोजन को हज़म करने की गति, दर्द, ऐसी तमाम बातों को प्रभावित करता है।”
जिस तरह आपकी भावनाएँ और मनःस्थिति दर्द को तेज़ कर सकती हैं, उसी तरह वे उसे दबा या धुंधला भी सकती हैं। एक उदाहरण पर विचार कीजिए: एक तंत्रिका-शल्यचिकित्सक ने कहा कि जब वह युवा था वह एक बार एक लड़की के साथ एक बर्फ़ीली दीवार पर बैठते समय उससे इतना मोहित हुआ, कि उसने अपने नितंबों में अत्यधिक ठंड या दर्द की कोई भी संवेदना का एहसास नहीं किया। “मैं क़रीब-क़रीब शीताहत हो चुका था,” उसने कहा। “हम वहाँ ४५ मिनट बैठे रहे होंगे और मुझे कुछ भी एहसास नहीं हुआ।”
ऐसे अनेक उदाहरण हैं। खेल में गहन रूप से अंतर्ग्रस्त फुटबाल खिलाड़ी या युद्ध की तीव्रता में सैनिक बुरी तरह से ज़ख्मी हो सकते हैं, लेकिन फिर भी उस समय उन्हें थोड़ा या कुछ भी दर्द का एहसास नहीं होता है। मशहूर अफ्रीकी अन्वेषक डेविड लिविंगस्टोन ने एक शेर द्वारा हमला किए जाने के बारे में कहा जिसने उसे ऐसे झकझोर दिया “जैसे एक कुत्ता एक चूहे को झकझोर देता है। उस सदमे ने . . . एक प्रकार की काल्पनिकता उत्पन्न की जिसमें दर्द की कोई संवेदना नहीं थी।”
यह उल्लेखनीय है कि यहोवा परमेश्वर के सेवकों को भी, जो निश्चिंत होकर संपूर्ण भरोसे और विश्वास से उसकी ओर देखते हैं, कभी-कभी अपने दर्द के दब जाने का अनुभव हुआ है। एक मसीही ने, जिसे पीटा गया, रिपोर्ट किया, “यह शायद अजीबो-ग़रीब प्रतीत हो, पहले कुछ प्रहारों के बाद, मैं वास्तव में उनको महसूस नहीं कर रहा था। इसके बजाय, यह ऐसा था कि मानो मैं सिर्फ़ उन्हें सुन सकता था, जैसे दूर कहीं एक ढोल बज रहा हो।”—फरवरी २२, १९९४, अवेक!, पृष्ठ २१.
दर्द की संवेदनाएँ कैसे परिवर्तित होती हैं
दर्द के कुछ रहस्यमयी पहलुओं को समझाने का एक प्रयास करने में, १९६५ में मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर, रॉनल्ड मेलज़क और शरीररचना-विज्ञान के प्रोफ़ेसर पैट्रिक वॉल ने दर्द के बारे में व्यापक रूप से स्वीकृत द्वार-नियंत्रण सिद्धान्त की अभिकल्पना की। दर्द के बारे में डॉ. बॉनिका की किताब के १९९० के संस्करण ने कहा कि यह सिद्धान्त “दर्द के अनुसंधान और चिकित्सा के क्षेत्र में सबसे महत्त्वपूर्ण विकासों में से एक” है।
सिद्धान्त के अनुसार, मेरुदण्ड (spinal cord) में एक सैद्धान्तिक द्वार का खुलना और बंद होना, मस्तिष्क की ओर दर्द के संकेतों को या तो जाने देता है या फिर उनका रास्ता रोक देता है। यदि दर्द के सिवाय कोई और संवेदनाएँ द्वार पर इकट्ठी हो जाती हैं, तो मस्तिष्क तक पहुँचने वाले दर्द के संकेत कम हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, थोड़ी-सी जली हुई उंगली को रगड़ने से या हिलाने से दर्द कम हो जाता है, क्योंकि इस तरह दर्द के बजाय दूसरे संकेतों को मेरुदण्ड में भेजा जाता है ताकि वे दर्द के संकेतों का रास्ता रोक दें।
हमारे शरीर स्वयं अपनी एनडॉरफिन्स् (endorphins) नामक मारफ़ीन-समान वस्तुओं को उत्पन्न करते हैं, वर्ष १९७५ के इस शोध ने दर्द के रहस्यमयी पहलुओं को समझने की इस खोज में और भी सहायता प्रदान की। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को दर्द की थोड़ी या कोई भी संवेदना शायद न हो क्योंकि वे एनडॉरफिन्स् ज़्यादा मात्रा में उत्पन्न करते हैं। एनडॉरफिन्स् शायद इस रहस्य को भी समझा सकें कि एक्यूपंक्चर (सूईदाब चिकित्सा) द्वारा दर्द क्यों कम हो जाता या मिट भी जाता है। एक्यूपंक्चर एक ऐसी चिकित्सीय प्रक्रिया है जिसमें बालों जितनी पतली सुइयों को शरीर में निविष्ट किया जाता है। चश्मदीद गवाहों की रिपोर्ट के अनुसार, मात्र एक्यूपंक्चर को दर्द-निवारक के तौर पर इस्तेमाल करते हुए ओपन-हार्ट सर्जरी की गयी, जबकि मरीज़ जागा हुआ, सतर्क और तनाव-मुक्त था! दर्द का एहसास क्यों नहीं हुआ?
कुछ लोग मानते हैं कि सुइयाँ शायद एनडॉरफिन्स् के उत्पादन को उत्तेजित करती हैं, जो तात्कालिक रूप से दर्द को मिटा देते हैं। एक और संभावना है कि एक्यूपंक्चर दर्द को मिटाता है क्योंकि सुइयाँ तंत्रिका-तंतुओं को उत्तेजित करती हैं जो दर्द के बजाय दूसरे संकेतों को भेजते हैं। मेरुदण्ड में द्वार पर ये संकेत भीड़ लगा देते हैं। यह भीड़ दर्द के संकेतों को घुसकर मस्तिष्क तक पहुँचने से रोकती है, जहाँ दर्द का संवेदन होता है।
द्वार-नियंत्रण सिद्धान्त, और यह तथ्य कि शरीर स्वयं अपने दर्द-निवारकों को उत्पन्न करता है, शायद यह भी समझाए कि क्यों एक व्यक्ति का मिज़ाज, विचार और भावनाएँ महसूस किए गए दर्द की मात्रा को प्रभावित करते हैं। अतः, शेर द्वारा आकस्मिक हमले के सदमे ने शायद लिविंगस्टोन के एनडॉरफिन्स् के उत्पादन को उत्तेजित किया होगा, साथ ही उसकी मेरुदण्ड को दर्द के बजाय दूसरे संकेतों से भर दिया होगा। परिणामस्वरूप, उसको कम दर्द महसूस होने लगा।
फिर भी, जैसा पहले नोट किया गया, एक व्यक्ति की मनःस्थिति और भावनाएँ एक विपरीत प्रभाव डाल सकती हैं। सामान्य आधुनिक जीवन के रोज़मर्रा तनाव की अत्यधिक मात्रा एक व्यक्ति की दर्द के प्रति संवेदना को चिन्ता, तनाव, और पेशियों में सिकुड़न के द्वारा बढ़ा सकती है।
लेकिन, ख्प्ताशी की बात है कि दर्द से पीड़ित लोगों को सकारात्मक होने का कारण है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अनेक मरीज़ अब उपचार के संशोधित तरीक़ों से लाभ प्राप्त कर रहे हैं। ऐसे संशोधन इस भयप्रद वेदना की बेहतर समझ का परिणाम हैं। डॉ. श्रीधर वासुदेवन, अमेरिकन अकैडमी ऑफ पेन मेडिसिन के अध्यक्ष ने बताया: “दर्द कभी-कभी अपने आप में एक रोग हो सकता है, इस विचार ने १९८० के दशक में उपचार की काया पलट कर दी।”
दर्द के उपचार की काया पलट कैसे हुई है? कौन-से उपचार प्रभावकारी साबित हो रहे हैं?
[पेज 7 पर तसवीरें]
किस तरह एक्यूपंक्चर दर्द को कम करता या मिटाता है?
[चित्र का श्रेय]
H. Armstrong Roberts