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बेहतर ज़िंदगी की तलाश में

बेहतर ज़िंदगी की तलाश में

बेहतर ज़िंदगी की तलाश में

“जैसे-जैसे बीसवीं सदी आगे बढ़ती गई, विज्ञान और टॆक्नॉलजी ने तरक्की की और ज़्यादातर लोगों की ज़िंदगी . . . का रुख बदल डाला।”—दी ऑक्सफर्ड हिस्ट्री ऑफ द ट्‌वेंटियथ सेंचुरी।

इस युग का एक सबसे बड़ा बदलाव जनसंख्या से ताल्लुक रखता है। किसी भी सदी में इतनी तेज़ी से दुनिया की आबादी नहीं बढ़ी थी जितनी इस सदी में बढ़ी है। 1800 के शुरुआती सालों में जनसंख्या करीब एक अरब थी और 1900 तक करीबन 1.6 अरब थी। लेकिन साल 1999 तक जनसंख्या बढ़कर 6 अरब हो गई! इस बढ़ती हुई संख्या में ज़्यादातर लोगों ने हमेशा एक ऐसी ज़िंदगी की तमन्‍ना की है जो उनकी नज़रों में खुशियों से भरी हो।

जनसंख्या के इस तरह बढ़ने की वज़ह यह है कि चिकित्सा में काफी तरक्की हुई और लोगों के अच्छे स्वास्थ्य के लिए काफी सहूलियतें दी गई हैं। सदी के शुरुआत में ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, जापान और अमरीका जैसे देशों में आम आदमी का औसतन जीवनकाल 50 से भी कम साल होते थे, मगर आज ये बढ़कर 70 से भी ज़्यादा साल हो गए हैं। लेकिन ऐसे भी कुछ देश हैं जहाँ इस तरह की तरक्की नहीं हो पाई। आज कम से कम ऐसे 25 देश हैं जहाँ लोग सिर्फ 50 या उससे कम साल तक जीते हैं।

‘उनकी ज़िंदगी कैसी रही होगी . . . ?’

आजकल के नौजवान कभी-कभी हैरानी में पड़ जाते हैं कि आखिर उनके परदादाओं ने हवाई-जहाज़, कंप्यूटर, टॆलिविज़न जैसी सहूलियतों के बिना ज़िंदगी कैसे गुज़ारी होगी। क्योंकि आज ऐसी सहूलियतें होना एक आम बात हो गई है और अमीर देशों के लोग तो इन्हें ज़िंदगी की बुनियादी ज़रूरत मानते हैं। अब इस बात पर गौर कीजिए कि किस तरह गाड़ियों ने हमारी ज़िंदगी ही बदलकर रख दी है। इनका आविष्कार उन्‍नीसवीं सदी के आखिर में हुआ था, मगर टाइम मैगज़ीन यह कहती है कि “गाड़ियाँ पूरी 20वीं सदी की एक खासियत रही हैं।”

सन्‌ 1975 में यह अंदाज़ा लगाया गया था कि अगर गाड़ियों का बनना अचानक बन्द हो जाए तो यूरोप के दस प्रतिशत मज़दूर बेरोज़गार हो जाएँगे। इससे गाड़ी बनानेवाली कंपनियों पर तो असर पड़ेगा ही, साथ ही ऐसे सभी बिज़नॆस ठप्प हो जाएँगे जो गाड़ीवाले ग्राहक पर निर्भर होते हैं, जैसे बैंक, शॉपिंग सॆंटर, रेस्तराँ जिनके अंदर आप गाड़ी लेकर जा सकते है, वगैरह, वगैरह। किसानों को अपना माल बाज़ार तक पहुँचाने के लिए कोई साधन नहीं होगा जिसकी वज़ह से खाने-पीने की चीज़ें आम जनता तक पहुँचाना बंद हो जाएगा। शहर के बाहर रहनेवाले कर्मचारी अपनी नौकरी की जगह तक नहीं पहुँच पायेंगे और बड़े-बड़े राजमार्ग किसी काम के नहीं होंगे।

इस सदी की शुरुआत में असेमब्ली लाइन तकनीक शुरू की गई थी ताकि कम खर्च में ही गाड़ियों का उत्पादन बढ़ाया जा सके। यह तकनीक आजकल कई फैक्ट्रियों में मशहूर है। (असेमब्ली लाइन्स की वज़ह से रसोई के सामान जैसी कई और चीज़ों का उत्पादन भी काफी बढ़ गया है।) सदी की शुरुआत में जब घोड़े के बिना चलनेवाली गाड़ियाँ बनने लगीं तो ये सिर्फ कुछ देशों के अमीर लोगों के पास थीं और वे भी इन्हें ऐसे खिलौने समझते थे जो बस मन बहलाने के लिए हैं। मगर आज ये गाड़ियाँ कई देशों में आम लोगों के आने-जाने का एक साधन बन गई हैं। इसीलिए एक लेखक ने कहा: “20वीं सदी के अंत में गाड़ी के बिना ज़िंदगी कैसी होगी यह हम सोच भी नहीं सकते।”

सुख-विलास की तलाश में

पुराने ज़माने में सफर करने का मतलब था, ऐसी जगह जाना जहाँ जाना आपके लिए ज़रूरी है। लेकिन 20वीं सदी में तो बात कुछ और बन गई, खासकर उन देशों में जहाँ लोगों ने तरक्की का आसमान चूम लिया है। वहाँ, लोगों को अच्छी-खासी नौकरियाँ मिल गईं और साथ ही हफ्ते-भर काम करने के समय को घटाकर 40 या उससे भी कम घंटे कर दिए गए, इसलिए अब उनके पास घूमने के लिए पैसे भी हैं और समय भी। इसलिए आज सफर करने का मतलब है ऐसी जगह जाना जहाँ आप जाना चाहते हैं। कारों, बसों और हवाई-जहाज़ों ने दूर-दूर के जगहों का मज़ा उठाना आसान कर दिया है। नतीजा यह हुआ कि आज ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग देश-विदेश घूमने निकल पड़ते हैं और पर्यटन एक बहुत बड़ा व्यापार बन गया है।

द टाइम्स एटलस ऑफ द ट्‌वेंटियथ सेंचुरी के मुताबिक पर्यटन का “दो तरह के देशों पर ज़बरदस्त असर पड़ा है। ऐसे देश पर जहाँ पर्यटक जाते हैं और ऐसे देश पर भी जहाँ से पर्यटक आते हैं।” मगर इसके कुछ बुरे नतीजे भी हुए हैं। अकसर पर्यटक जिन खूबसूरत जगहों को देखने के लिए इतने दूर से आते हैं उन्हीं जगहों को वे बरबाद कर देते हैं।

आज लोगों के पास खेल-कूद के लिए भी बहुत समय है। कई लोग खेल-कूद में हिस्सा लेते हैं तो कई लोग अपनी पसंदीदा टीम या खिलाड़ी के इतने दीवाने बन गए हैं कि वे कभी-कभी उनकी खातिर मार-पीट पर भी उतारू हो जाते हैं। अब टॆलिविज़न के आने से करीबन हर किसी को खेल देखने का मौका मिल रहा है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खेलों को देखने के लिए लाखों लोग टॆलिविज़न से चिपके रहते हैं।

द टाइम्स एटलस ऑफ द ट्‌वेंटियथ सेंचुरी कहता है, “खेलों और फिल्मों ने मनोरंजन के व्यवसाय में अपनी एक खास जगह बना ली है। दुनिया में यह एक ऐसा व्यवसाय है जिससे सबसे ज़्यादा पैसा कमाया जाता है और जिसमें सबसे ज़्यादा लोगों को नौकरी मिलती है।” हर साल लोग अरबों-खरबों रुपए मनोरंजन में उड़ा देते हैं जिनमें ज़्यादातर लोगों का मनपसंद खेल जुआ होता है। 1991 में एक अध्ययन से यह पता चला कि यूरोप के बड़े-बड़े व्यवसायों में 12वाँ सबसे बड़ा व्यवसाय जुआ खेलना है और इसके सालभर की कमाई लगभग 57 अरब डॉलर है।

जब लोगों की जिंदगी में मनोरंजन एक आम बात बन गयी तो वे नयी-नयी रोमांचक बातों के पीछे भागने लगे। इनमें से एक है ड्रग्स आज़माना। ड्रग्स लेना इतना आम हो गया था कि 1995 के आस-पास के सालों में ड्रग्स के धंधे की हर साल की कमाई लगभग 20 करोड़ खरब रुपए थी, जबकि यह व्यापार गैर-कानूनी है। एक किताब कहता है, “इस धंधे में इतना फायदा हुआ है कि दुनिया का कोई और व्यवसाय इसका मुकाबला नहीं कर पाया।”

“हद से ज़्यादा मनोरंजन”

टॆक्नॉलजी ने पूरी दुनिया ही समेट ली है। इसलिए आज अगर दुनिया के किसी भी कोने में जब राजनीति, अर्थ-व्यवस्था और संस्कृति में कोई बदलाव होता है तो पलक झपकते ही पूरी दुनिया के लोगों पर असर हो जाता है। 1970 के फ्यूचर शॉक के लेखक प्रॉफेसर एलवन टॉफ्लर ने कहा, “पुराने ज़माने में भी कई सनसनीखेज़ घटनाएँ हुआ करती थीं मगर उनसे सिर्फ किसी एक या कुछ समाजों पर ही असर होता था। और उनका असर दूर-दूर तक फैलने में कई पीढ़ियाँ यहाँ तक कि कई सदियाँ भी लग जाती थीं . . . लेकिन आज तो दुनिया के सभी समाज एक-दूसरे से इतने बंधे हुए हैं कि कहीं भी कुछ बात हो जाए तो पल-भर में ही उसका असर सारी दुनिया पर हो जाता है।” इस तरह की तबदीलियाँ लाने में सैटेलाइट टॆलिविज़न और इंटरनॆट का बहुत बड़ा हाथ रहा है।

कुछ लोगों का कहना है कि 20वीं सदी में लोगों पर टॆलिविज़न का जितना असर हुआ, उतना किसी और चीज़ का नहीं हुआ। एक लेखिका कहती है, “यह सच है कि कुछ लोग टीवी के कार्यक्रमों में नुक्स निकालते हैं, मगर कोई भी इस बात को नहीं नकारता कि टीवी में लोगों को बदलने की ताकत है।” यह भी सच है कि टॆलिविज़न में दिखाये जानेवाले कुछ कार्यक्रम उतने ही बुरे होते हैं जितना कि उनके बनानेवाले। टीवी कार्यक्रमों से काफी अच्छी जानकारी मिलती है लेकिन इसके साथ-साथ कुछ ऐसे कार्यक्रम भी हैं जो बुरे कामों को बढ़ावा देते हैं। इसलिए टीवी कार्यक्रमों के न सिर्फ फायदे हैं बल्कि उनसे बुराई करने की प्रेरणा भी मिलती है। टीवी में ऐसे बेमतलब के कार्यक्रम होते हैं जिनमें मार-धाड़ और अश्‍लीलता बखूबी दिखाए जाते हैं और उन्हें कुछ लोग देखना पसंद करते हैं। लेकिन सच तो यह है कि इन कार्यक्रमों से कुछ फायदा नहीं होता बल्कि इंसानी रिश्‍ता और भी बिगड़ जाता है।

नील पोस्टमन अपनी किताब अम्यूज़िंग आर्सेल्व्स टू डैथ में टीवी का एक और खतरा बताता है, “अब समस्या यह नहीं कि टीवी में मनोरंजक विषयों पर कार्यक्रम दिखाए जाते हैं, पर समस्या यह है कि हर विषय चाहे अच्छा हो या बुरा, उसे लोगों के दिलचस्पी के लिए पेश किया जाता है . . . कार्यक्रम चाहे किसी भी विषय पर हो या उसे जिस मकसद से भी दिखाया जाता हो, ज़्यादातर लोगों का यह मानना है कि टीवी का हर कार्यक्रम हमारे मन-बहलाव के लिए होता है।”

जब लोग मनोरंजन को पहला स्थान देने लगे तो परमेश्‍वर में उनका विश्‍वास कम होता गया और उनका चाल-चलन भी बिगड़ता गया। द टाइम्स एटलस ऑफ द ट्‌वेंटियथ सेंचुरी कहता है, “20वीं सदी में देखा गया कि दुनिया के बड़े-बड़े धर्मों को माननेवालों की गिनती कम हो गई थी।” जब धर्म में लोगों की दिलचस्पी कम होने लगी तो धर्म की जगह उनकी ज़िंदगी में मनोरंजन ने पहला स्थान ले लिया।”

“हर चमकती चीज़ . . . .”

बीसवीं सदी में बहुत-से अच्छे बदलाव भी हुए हैं लेकिन जैसे कि एक कहावत है, “हर चमकती चीज सोना नहीं होती।” यह सच है कि 20वीं सदी में लोगों ने लंबी उम्र पाई है, पर साथ ही जनसंख्या में हुई बढ़ौतरी की वज़ह से कई बड़ी-बड़ी और नई समस्याएँ भी उठ खड़ी हुई। हाल ही के नैशनल जियोग्राफिक पत्रिका ने कहा: “नए मिलेनियम में जाते ही हमारी सबसे बड़ी समस्या होगी, बढ़ती हुई आबादी।”

मोटर-गाड़ियाँ बहुत ही फायदेमंद और आरामदायक तो ज़रूर हैं, पर साथ ही ये कुछ कम खतरनाक भी नहीं क्योंकि हर साल सड़क-दुर्घटनाओं की वज़ह से दुनिया-भर में करीबन 2.5 लाख लोगों की जानें चली जाती हैं। प्रदूषण फैलाने में कार का सबसे बड़ा हाथ रहा है। 5000 डेज़ टू सेव द प्लॆनट के लेखकों का कहना है कि प्रदूषण “आज चारों तरफ फैल गई है जिससे दुनिया के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक पूरा वातावरण ही खराब हो गया है।” वे कहते हैं, “वातावरण इतनी हद तक खराब हो चुका है कि पृथ्वी पर इंसानों और जानवरों के लिए जीना दुश्‍वार हो गया है।”

प्रदूषण इस 20वीं सदी में इतनी बड़ी समस्या बन जाएगी, इसके बारे में तो पिछले सदियों में किसी ने सोचा तक नहीं था। नैशनल जियोग्राफिक कहता है, “कुछ ही समय पहले हमने देखा कि इंसान अपने कामों से इस पूरी पृथ्वी को बुरी तरह बरबाद कर रहा है। अब कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि इतिहास में पहली बार ऐसे बदलाव हो रहे हैं।” वह पत्रिका चेतावनी देती है: “दुनिया-भर में इंसान अगर ऐसी बरबादी करते रहें तो एक ही पीढ़ी के अंदर पृथ्वी के सभी प्राणियों का सफाया हो जाएगा।”

जी हाँ, 20वीं सदी वाकई अपने आप में अनोखी रही है। इस सदी में इंसान ने अपनी ज़िंदगी बेहतर बनाने के लिए क्या कुछ नहीं किया मगर आखिरकार उन्होंने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी दे मारी!

[पेज 8, 9 पर चार्ट/तसवीरें]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

1901

मारकोनी पहली बार अटलांटिक महासागर के पार रेडियो सिगनल भेजता है

1905

आइंस्टाइन सापेक्षता के अपने खास सिद्धांतो पर लेख प्रकाशित करता है

1913

फोर्ड, मॉडल-टी कार के लिए असेमब्ली लाइन शुरू करता है

1941

टॆलिविज़न का आविष्कार

1969

आदमी चाँद पर कदम रखता है

देश-विदेश में सफर करना बड़ा व्यापार बनता है

इंटरनॆट मशहूर होता है

1999

जनसंख्या छ: अरब तक पहुँचती है