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विश्‍व-दर्शन

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आध्यात्मिक रोशनी की तलाश में

द टाइम्स अखबार कहता है: “आजकल ब्रिटॆन में परमेश्‍वर के बारे में और तंत्र-मंत्र की किताबों की माँग चढ़ गई है। इससे यही पता चलता है कि जैसे-जैसे बीसवीं सदी खत्म होने जा रही है, वैसे-वैसे अँग्रेज़ परमेश्‍वर में ज़्यादा दिलचस्पी लेने लगे हैं।” कल्चरल ट्रॆन्ड्‌स पत्रिका में बताया गया है कि एक अध्ययन के मुताबिक पिछले पाँच सालों में धार्मिक किताबों की छपाई 83 प्रतिशत और तंत्र-मंत्र और ‘न्यू एज’ जैसे विषयों पर किताबों की छपाई 75 प्रतिशत बढ़ गई। मगर दूसरी तरफ देखा गया है कि वैज्ञानिक किताबों की छपाई कम हो गई है, मसलन कॆमिस्ट्री और फिज़िक्स की किताबों की छपाई 27 प्रतिशत कम हो रही है। इस रिपोर्ट की संपादिका, सैरा सेलवुड ने इन आँकड़ों पर अपनी राय बताते हुए कहा कि “इस सदी के ढलते-ढलते हम ऐसे लोगों को देख रहे हैं जो अपने धार्मिक विश्‍वास और सोच-विचार की जाँच करके जीवन के कई सवालों का जवाब ढूँढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।” मगर दूसरी तरफ, भूगोल की किताबों और एटलस की छपाई 185 प्रतिशत क्यों बढ़ गई है? वही संपादिका कहती है: “इसकी वजह शायद यह हो सकती है कि लोग किसी ऐसी जगह की तलाश कर रहे हैं, जहाँ वे मुसीबतों से पीछा छुड़ा सकें और जीवन के बारे में गहराई से सोच सकें।”

यूरोप में धार्मिक आज़ादी का अपमान

कैथोलिक इंटरनैशनल पत्रिका में यह खबर छपी कि दी इंटरनैशनल हॆलसिन्की फॆडरेशन ने “यूरोप के 19 देशों पर यह आरोप लगाया है कि उन्होंने अपने नागरिकों की धार्मिक आज़ादी का अपमान किया है।” कैसे? इस फॆडरेशन के मुताबिक यहाँ छोटे-छोटे धर्मों के साथ नाइंसाफी की जा रही है और ऐसा खासकर यूरोप के पूर्वी देशों में हो रहा है जहाँ के ज़्यादातर लोग ऑर्थोडॉक्स धर्म के माननेवाले हैं। पत्रिका में आगे बताया गया कि यूरोपियन यूनियन के कई सदस्य देश भी “ऐसे कानून बना रहे हैं जिससे [यहोवा के साक्षियों] जैसे छोटे-छोटे धार्मिक समूहों पर पाबंदी लग जाए जबकि वहाँ के बड़े-बड़े धर्मों की ख्याति बरकरार रहे।” फॆडरेशन के डायरॆक्टर ऐरन रोड्‌स्‌ ने कहा: “यूरोप के ये देश इसलिए ऐसे कानून बना रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि अगर ऐसी रोक न लगाई गई तो उनके समाज में ये छोटे-छोटे धार्मिक पंथ ज़्यादा लोकप्रिय हो जाएँगे। इसलिए वे इन्हें पनपने से रोकने की जी-जान से कोशिश कर रहे हैं। अगर आगे भी ऐसा ही चलता रहा तो धीरे-धीरे हालात और भी बिगड़ सकते हैं। और इनके सुधरने की गुंजाइश तभी हो सकती है जब आम जनता को यह एहसास हो जाए कि धर्म के मामले में फैसला करने का सबको बराबर का हक है।”

अब तक का सबसे ज़्यादा तापमान

साइंस न्यूज़ पत्रिका रिपोर्ट करती है कि 1860 के बाद, 1998 ऐसा साल था जिसमें सबसे ज़्यादा तापमान रिकॉर्ड किया गया। अंदाज़ा लगाया गया है कि पिछले साल पृथ्वी का औसत तापमान 0.58 डिग्री सॆल्सियस था। यह तापमान 1961 से लेकर 1990 तक के औसत तापमान से भी कहीं ज़्यादा है। पत्रिका कहती है: “मौसम का अध्ययन करनेवालों की नज़र में पिछले साल का यह तापमान तो हिमालय पर्वत की तरह ऊँचा था। वे इसलिए ऐसा सोचते हैं क्योंकि पृथ्वी के मौसम में अगर रत्ती-भर भी फर्क आ जाए तो वे यह सोचकर घबरा जाते हैं कि इसका पूरे दुनिया पर बुरा असर हो सकता है।” रिपोर्ट यह भी बताती है कि 1983 के बाद के दस सालों में सबसे ज़्यादा गर्मी रिकॉर्ड की गई और उनमें से सात साल 1990 के बाद के ही साल थे। अमरीका के नैशनल ओशनिक एण्ड एटमौसफॆरिक एडमिनिस्ट्रेशन के जोनाथन ओवरपॆक्क का कहना है कि बीते 1,200 सालों में से पिछले बीस सालों में बहुत गर्मी पड़ी। द वर्ल्ड मिटियोरलोजिकल ऑर्गनाइज़ेशन बताती है कि सिर्फ यूरोप और एशिया के उत्तरी भाग में रहनेवाले इस गर्मी से बच पाए। गर्मी का सबसे ज़्यादा असर दक्षिण अमरीका और रूस में पड़ा। केंद्रीय रूस में तो जून के महीने में ऐसी ज़बरदस्त लू चली कि सौ से भी ज़्यादा लोगों की मौत हो गई और कई जगहों पर आग लग गई।

‘शीत युद्ध’ अब एक नए अंदाज़ में

लीउब्लिएना शहर के अखबार डेलो ने एक मज़ेदार खबर दी: “स्लोवीनिया देश के लोग आइसक्रीम के इतने दीवाने हैं कि आइसक्रीम को देखते ही उस पर टूट पड़ते हैं। इसलिए हर दुकानदार अपने फ्रीज़र को तरह-तरह की आइसक्रीमों से भरकर रखता है।” अखबार कहता है कि वहाँ के लोग दिन-ब-दिन आइसक्रीम के इतने शौकीन होते जा रहे हैं कि आइसक्रीम बनानेवालों की साल भर की बिक्री 22-प्रतिशत बढ़ गई है। यहाँ हर व्यक्‍ति साल भर में औसतन 4.3 लीटर आइसक्रीम खाता है। अगर इसी रफ्तार से यहाँ के लोग आइसक्रीम खाते रहें तो आइसक्रीम खाने के मामले में यह देश जल्द ही पश्‍चिमी यूरोप के देशों को पीछे छोड़ जाएगा। पश्‍चिमी यूरोप में हर व्यक्‍ति साल भर में औसतन 5.5 लीटर आइसक्रीम खाता है। पूरे यूरोप के बारे में देखा जाए तो आइसक्रीम खाने की दौड़ में स्वीडन सबसे आगे है। मार्केट इंटैलिजंस ग्रूप, यूरोमौनिटर के मुताबिक स्वीडन में हर व्यक्‍ति साल भर में औसतन 16 लीटर आइसक्रीम तक खा जाता है। मगर पूरी दुनिया के सभी देशों में अमरीका ही ऐसा देश है जहाँ पर लोग सबसे ज़्यादा आइसक्रीम खाते हैं। वहाँ का हर व्यक्‍ति सालाना कम से कम 20 लीटर आइसक्रीम खाता है।

“बीमारी जो नज़र नहीं आती”

“अनुमान लगाया गया है कि विकासशील देशों में 1.5 से 1.8 करोड़ बच्चों के खून में बड़ी मात्रा में सीसा हैं।” एनवाइरमेंट न्यूज़ सर्विस यह रिपोर्ट देती है। मिसाल के लिए, भारत को ही ले लीजिए। कहा जाता है कि यहाँ के बच्चों की दिमागी काबिलीयत का इस बात से गहरा ताल्लुक है कि उनके शरीर में सीसे की मात्रा कितनी है। दी इंडियन ऎक्सप्रॆस के मुताबिक डॉक्टर एब्रहाम जॉर्ज का कहना है कि “अगर बच्चों को सीसे से दूर नहीं रखा गया तो इसका उनके दिमाग पर बुरा असर पड़ सकता है और धीरे-धीरे वे अपनी दिमागी काबिलीयत भी खो सकते हैं।” भारत के शहरों में रहनेवालों को सीसे के ज़हर से खतरा इसलिए है क्योंकि इन शहरों में अब भी गाड़ियों के लिए पॆट्रोल का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसमें सीसा पाया जाता है। मगर आज गरीबी और भुखमरी इतनी ज़्यादा है कि लोग सीसे के ज़हर से होनेवाली हानि पर इतना ध्यान नहीं देते। इसलिए डॉक्टर जॉर्ज कहते हैं कि यह वह ‘बीमारी है जो नज़र नहीं आती।’

पानी को लेकर और भी चिंताएँ

न्यू साइंटिस्ट पत्रिका कहती है: “अब हमारे पीने के पानी में न सिर्फ कीटनाशक दवाइयाँ बल्कि दूसरी दवाइयाँ भी बड़ी मात्रा में पाई जाती हैं।” ये दवाइयाँ कई जगहों से आकर पानी में मिल जाती हैं। जो दवाइयाँ काम में नहीं आती हैं, उन्हें लोग कभी-कभी टॉयलॆट में फ्लश कर देते हैं। और तो और, ये दवाइयाँ पेशाब में भी मिलती हैं। रॉयल डेनिश स्कूल ऑफ फार्मसी के बॆंट हॆलिंग-स्युइरन्सन का कहना है कि “इंसानों और जानवरों को दी जानेवाली दवाइयों में 30 से लेकर 90 प्रतिशत दवाइयाँ पेशाब में पाई जाती हैं।” किसान तो अपने खेतों के लिए नियमित रूप से जानवरों का पेशाब और खाद इस्तेमाल करते आए हैं। जब ये दवाइयाँ यूँ ही फेंकी जाती हैं, तो ये अपने असली रूप में ही रहती हैं और पर्यावरण में जा मिलती हैं। और अगर इंसानों के इस्तेमाल के बाद ये पर्यावरण में जा मिलती हैं, तो ये और ज़हरीली हो सकती हैं क्योंकि तब ये पानी में और आसानी से घुल जाती हैं। ब्रिटेन ऐन्वाइरंमॆंट एजन्सी के स्टीव किलीन का कहना है कि “पानी में पाई जानेवाली दवाइयाँ कुछ ऐसे रसायनिक पदार्थ हैं जिन्हें हम पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर देते हैं।”

बच्चों के साथ होनेवाली बदसलूकी की जानकारी फैल रही है?

वेनेज़्वेला देश में 1980 के दौरान, हर दस में से एक बच्चे को लैंगिक वासना का शिकार बनाया गया। और आज तो हर दस में से तीन बच्चों के साथ यह ज़ुल्म हो रहा है। यह रिपोर्ट कराकस शहर के एक अखबार एल यूनिवर्सल ने दिया। सन्‌ 1980 में जिन बच्चों पर ये अत्याचार किए गए थे उनकी उम्र लगभग 12 से 14 साल के बीच थी। मगर आज जिन बच्चों के साथ यह अत्याचार हो रहा है, उनमें से ज़्यादातर बच्चों की उम्र तीन साल से भी कम है। ऐसी घिनौनी हरकत करने में कौन लोग शामिल हैं? आम तौर पर लोग यही सोचते हैं कि कुछ अजनबी स्कूलों के आस-पास चक्कर काटते रहते हैं और मौका पाते ही बच्चों को टॉफियाँ देकर उन्हें फुसलाने की कोशिश करते हैं। मगर यह धारणा बिलकुल गलत है क्योंकि एल यूनिवर्सल के मुताबिक ऐसे घिनौने काम करनेवाले 70 प्रतिशत लोग खुद बच्चों के परिवार के सदस्य, रिश्‍तेदार या दोस्त होते हैं। और इन 70 प्रतिशत में, आधे से भी ज़्यादा लोग बच्चों के सौतेले माँ-बाप होते हैं। और बाकी के लोग बच्चों की देखरेख करनेवाले उनके बड़े भाई, रिश्‍तेदार या फिर उनके टीचर होते हैं।

शिक्षा का अकाल

इंग्लैंड न्यूज़ अनलिमिटिड रिपोर्ट देती है: “विकासशील देशों में 12.5 करोड़ बच्चों को पढ़ने-लिखने का मौका ही नहीं मिल रहा है, जिनमें से ज़्यादातर लड़कियाँ हैं। और 15 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो पढ़ना-लिखना सीखने से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं।” फिलहाल तो इन देशों में हर चार बड़ों में से एक व्यक्‍ति यानी 87.2 करोड़ लोग अनपढ़ हैं। इतना ही नहीं, जब ये देश अमीर देशों से उधार लेते हैं तो लोगों की शिक्षा पाने की उम्मीदों पर और भी पानी फिर जाता है। कैसे? जो पैसा लोगों को पढ़ाने-लिखाने के काम आ सके, वह अमीर देशों का उधार चुकाने में ही लग जाता है। इससे फिर वही मुसीबत खड़ी हो जाती है कि पैसे न होने की वजह से लोगों को शिक्षा नहीं मिलती और गरीबी भी कायम रहती है।