‘सबसे अनोखे बदलाव’
‘सबसे अनोखे बदलाव’
“मानवजाति के इतिहास में बीसवीं सदी ऐसी सदी रही है जिसमें दुनिया के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक सबसे अनोखे बदलाव हुए हैं।”—द टाइम्स एटलस ऑफ द ट्वेन्टियथ सेंचुरी.
बीसवीं सदी के बारे में टाइम मैगज़ीन का संपादक वॉल्टर आइज़ैकसन कहता है, “दूसरी सदियों के मुकाबले, बीसवीं सदी में हमेशा ही सनसनीखेज़ घटनाएँ होती रहीं। ये घटनाएँ एकदम अनोखी होती थीं, हौसला बढ़ानेवाली होती थीं यहाँ तक की, कभी-कभी दिल दहलानेवाली भी होती थीं।” बेशक इस बात से कोई इंकार भी नहीं कर सकता।
नॉरवे की भूतपूर्व प्रधान-मंत्री, ग्रू हार्लम ब्रुंटलेंट का भी कुछ ऐसा ही विचार है। वह कहती है यह “ऐसी सदी थी, जो हर हद को पार कर चुकी है . . . क्योंकि इस सदी में ऐसे घिनौने काम किए गए हैं जो एक आम इंसान कभी सोच भी नहीं सकता।” वह आगे कहती है, “इस सदी में इंसान ने शानदार आर्थिक तरक्की की है और [कुछ देशों ने तो] कामयाबी का आसमान छू लिया।” लेकिन जहाँ तक गरीब देशों का सवाल है, वहाँ आशा की कोई किरण नज़र नहीं आ रही क्योंकि वहाँ की “जनसंख्या तेज़ रफ्तार से बढ़ रही है, और गरीबी और गंदे वातावरण की वज़ह से बीमारियाँ बढ़ रही हैं।”
राजनीति में काया-पलट
बीसवीं सदी की शुरुआत में दुनिया के कई देश, चीन के मान्छू राजवंश, ऑटोमन साम्राज्य और यूरोप के कई साम्राज्यों के गुलाम थे। और दुनिया का एक-चौथाई हिस्सा तो ब्रिटिश साम्राज्य के कब्ज़े में था यानी दुनिया के 25 प्रतिशत लोगों पर अँग्रेज़ शासन करते थे। मगर इस सदी के खत्म होने के सालों पहले ही इन सभी साम्राज्यों का नामो-निशान मिट गया और आज इनके बारे में सिर्फ इतिहास के पन्नों में ही पढ़ा जा सकता है। द टाइम्स एटलस ऑफ द ट्वेन्टियथ सेंचुरी इसके बारे में कहती है, “1945 में साम्राज्यवाद बस एक इतिहास की बात बनकर रह गई थी।”
साम्राज्यवाद के मिटने के बाद देश-भक्ति की भावना ने जन्म लिया। 17वीं और 19वीं सदी के दौरान पूरे यूरोप में देश-भक्ति की लहर उठी और धीरे-धीरे दुनिया के दूसरे देशों में फैल गई। फिर इसके बाद जो हुआ उसके बारे में द न्यू एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका कहती है, “दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप के देशों में देश-भक्ति की लहर थम गई . . . लेकिन एशिया और अफ्रीका के देशों में देश-भक्ति में और
तेज़ी आ गई। उनमें देश प्रेम खासकर इसलिए बढ़ गया क्योंकि वे साम्राज्यवाद के ज़ुल्मों से गुज़र रहे थे।” द कोलिन्स एटलस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री के मुताबिक आखिर में, “एशिया और अफ्रीका के वे देश जो तरक्की करने में बहुत पीछे थे, अब धीरे-धीरे उभरने लगे। पाँच सदियों से यूरोप के देशों का जो दबदबा चल रहा था अब वह खत्म हो गया।”जैसे-जैसे साम्राज्यवाद टूटने लगा, ज़्यादा से ज़्यादा देश आज़ाद हो गए और अपने लोकतंत्रीय सरकारों को लेकर उभरने लगे। लेकिन इन लोकतंत्रीय सरकारों को अकसर तानाशाह हुकूमतों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। मिसाल के लिए, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान यूरोप और एशिया के ताकतवर तानाशाह सरकारों ने पूरी दुनिया पर कब्ज़ा करने की कोशिश की। इसलिए जो लोकतंत्रीय देश उनके गुलाम थे उन पर कई पाबंदियाँ लगा दी, उनकी अर्थ-व्यवस्था पर कब्ज़ा कर लिया और मीडिया और सैन्य-शक्ति अपने हाथ में ले ली। मगर बाद में चलकर लोकतंत्रीय देशों ने तानाशाह सरकारों की कोशिशों पर रोक लगा दी जिससे पूरी दुनिया पर कब्ज़ा करने का उनका सपना टूट गया। लेकिन तब तक लोकतंत्रीय देशों को जान-माल का भारी नुकसान भुगतना पड़ा था।
युद्धों से भरी सदी
दरअसल 20वीं सदी की सबसे बड़ी खासियत तो युद्ध है। पहले विश्व युद्ध के बारे में जर्मन इतिहासकार गीडो कनॉप लिखता है: “किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि अगस्त 1, 1914 वो दिन होगा जब यूरोप में 19वीं सदी से चली आ रही शांति का युग अचानक खत्म हो जाएगा। और किसी को कानों-कान खबर तक नहीं हुई थी कि उसी दिन 20वीं सदी की खौफनाक शुरुआत भी हो गई थी। इस सदी की शुरुआत ही युद्धों से हुई और युद्धों का यह सिलसिला आगे तीस सालों तक चलता रहा जिससे यह साबित हुआ कि इंसान एक-दूसरे पर ज़ुल्म ढाने में किस हद तक गिर सकते हैं।”
इतिहास के प्रॉफेसर, ह्यू ब्रोगन ने 1998 में कहा “युद्ध की वज़ह से अमरीका को ऐसा भयानक सदमा पहुँचा कि उसका असर आज भी दिखाई देता है।” हार्वार्ड
यूनिवर्सिटी के इतिहास के प्रोफेसर, आकीरा इरीए ने कहा, “कई बातों में पहले विश्व युद्ध ने, पूर्वी एशिया और अमरीका का इतिहास ही बदलकर रख दिया।”इसीलिए द न्यू एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका कहती है कि पहला और दूसरा विश्व युद्ध “20वीं सदी के पूरे राजनैतिक इतिहास में भयानक मोड़ थे।” वह बताती है कि “पहले विश्व युद्ध के अंजाम थे, चार महान साम्राज्यों का पतन, . . . रूस में बॉलशविक क्रांति और . . . दूसरे विश्व युद्ध का रास्ता तैयार होना।” वह यह भी कहती है कि इन दोनों विश्व युद्धों में हुए “हत्याकांड, खून-खराबा और विनाश हदें पार कर गई थीं।” उसी तरह गीडो कनॉप का भी कहना है, “यकीन ही नहीं होता कि इंसान इतनी हद तक क्रूरता और बेरहमी कर सकता है। इन महायुद्धों . . . ने एक ऐसे युग की शुरुआत की जिसमें इंसान के साथ ऐसा बर्ताव किया जाने लगा मानो वो कोई बेकार की चीज़ है।”
ऐसे घमासान युद्ध और न हों इसके लिए 8182 में राष्ट्र-संघ बनाया गया था। लेकिन पूरी दुनिया में शांति कायम करने में राष्ट्र-संघ बुरी तरह असफल रहा। इसलिए 1946 में उसकी जगह संयुक्त राष्ट्र को स्थापित किया गया। यह सच है कि संयुक्त राष्ट्र तीसरा विश्व युद्ध होने से रोकने में कामयाब रहा है, मगर वह दशकों तक हुए शीत युद्ध को खत्म नहीं कर पाया जिसकी वज़ह से हमेशा परमाणु युद्ध छिड़ने का खतरा बना रहा। ना ही यह दुनिया-भर में हो रही छोटी-मोटी लड़ाइयों को रोक पाया है, जैसे कि बॉल्कन में हो रही लड़ाइयाँ।
जैसे-जैसे देशों की संख्या बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे इन देशों की आपसी समस्याएँ भी बढ़ रही हैं। प्रथम विश्व युद्ध से पहले के नक्शे की तुलना आज के नक्शे से करें तो पता चलता है कि आज के लगभग 51 अफ्रीकी देश और 44 एशियाई देश, 20वीं सदी की शुरुआत में नहीं थे। जब 1945 में संयुक्त राष्ट्र की नींव डाली गई थी तब उसके 185 सदस्य राष्ट्रों में से 116 देश ऐसे थे जिनकी उस समय तक कोई अलग पहचान नहीं थी।
“एक बहुत ही हैरतंगेज़ घटना”
उन्नीसवीं सदी के खत्म होते होते रूस दुनिया का सबसे बड़ा और ताकतवर साम्राज्य था। मगर जल्द ही एक-के-बाद-एक देश इसका साथ छोड़ने लगे। इसकी वज़ह बताते हुए लेखक जॆफ्री पौंटन ने कहा कि लोगों ने सोचा कि हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि “छोटे-मोटे सुधार से काम नहीं चलेगा इसलिए एक क्रांति लाना ज़रूरी है।” वह कहता है, “मगर यह क्रांति भड़काने के लिए एक महायुद्ध शुरू करना पड़ा, जो पूरे विश्व पैमाने पर लड़ा गया पहला युद्ध था, और उसके बाद मुसीबतों के सिलसिले से गुज़रना पड़ा।”
उस वक्त पूरे रूस पर बॉल्शविक पार्टी ने जो कब्ज़ा कर लिया था उससे एक नये राज्य की बुनियाद डाली गई और वह राज्य था, साम्यवाद जिसके उभरने के पीछे सोवियत संघ का हाथ था। हालाँकि साम्यवाद विश्व युद्ध के दरमियान उभर रहा था मगर फिर भी गोलियों की बौछार से बच निकला। लेकिन डाउन विथ बिग ब्रदर के लेखक माइकल डॉब्स का दावा है कि 1970 के आखिर तक “दूर-दूर तक फैल चुका सोवियत संघ अब इस तरह डूबने लगा कि उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी।”
फिर भी, उसका गिरना अचानक हुआ। यूरोप—अ हिस्ट्री किताब का लेखक नॉर्मन डेवीस कहता है, “यह राज्य जिस तरह एकाएक ही गिरा, वह यूरोप के इतिहास में बड़े-से-बड़े राज्यों के पतन से भी बढ़कर था। उसके गिरने की कोई खास वज़ह नहीं थी।” इसलिए पौंटन कहता है, “सोवियत संघ का उभर आना, आगे बढ़ना और फिर मिट जाना, यह 20वीं सदी की एक बहुत ही हैरतंगेज़ घटना थी।”
असल में सोवियत संघ का गिरना तो बस एक छोटी-सी
मिसाल है। 20वीं सदी में एक-के-बाद-एक इतने सारे बड़े-बड़े बदलाव हुए कि उनका कोई हिसाब नहीं। वैसे भी राजनीति में उतार-चढ़ाव होना कोई नई बात नहीं क्योंकि यह तो हज़ारों सालों से चलता आया है।लेकिन सरकार के मामले में 20वीं सदी में एक ऐसा बदलाव भी आया जो वाकई बेमिसाल था। यह बदलाव क्या था और इसका आप पर कैसा असर पड़ता है, इसके बारे में हम बाद में देखेंगे।
पर आइये, अब हम देखें कि इस 20वीं सदी में विज्ञान ने क्या-क्या करिश्मे किए हैं। इस बारे में प्रॉफेसर माइकल हार्वर्ड कहता है, “जब 20वीं सदी शुरू हुई तो पश्चिमी यूरोप और उत्तर अमरीका के लोग यह उम्मीद लगाए थे कि 20वीं सदी मानवजाति के इतिहास में ज़रूर एक नये और खुशियों भरे युग की शुरुआत करेगी। उनके ऐसी उम्मीद की साफ वज़हें भी थीं।” लेकिन क्या विज्ञान में हुई तरक्की से लोगों को एक बेहतर ज़िंदगी मिली है?
[पेज 2,3 पर चार्ट/तसवीरें]
(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)
1901
चौंसठ साल के राज के बाद महारानी विक्टोरिया की मौत होती है
दुनिया की जनसंख्या, 1.6 अरब
1914
ऑस्ट्रिया के राजकुमार फर्डिनंड़ की हत्या होती है। पहला विश्व युद्ध भड़क उठता है
रूस का आखिरी सम्राट, निकोलस II और उसका परिवार
1917
लेनिन रूस में क्रांति शुरू करता है
1919
राष्ट्र-संघ की स्थापना
1929
अमरीकी शेयर-बाज़ार के गिरने से महा-मंदी होना
भारत की आज़ादी के लिए गांधी का संघर्ष ज़ोरों पर
1939
पोलैंड पर एडॉल्फ हिटलर का कब्ज़ा और दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत
विंस्टन चर्चिल 1940 में ग्रेट ब्रिटेन का प्रधान मंत्री बनता है
नात्सी यातना-शिविर
1941
पर्ल हार्बर पर जापान बम गिराता है
1945
हिरोशिमा और नागासाकी पर अमरीका परमाणु बम गिराता है। दूसरे विश्व युद्ध का अंत
1946
संयुक्त राष्ट्र की बैठक
1949
माओ त्से तुंग, पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का ऐलान करता है
1960
सत्रह नये अफ्रीकी देशों का बनना
1975
वियतनाम युद्ध का अंत
1989
साम्यवाद का डूबना और बर्लिन वॉल का टूटना
1991
सोवियत संघ का बिखरना