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कुदरत में पाई जानेवाली रचनाओं से सीखना

कुदरत में पाई जानेवाली रचनाओं से सीखना

कुदरत में पाई जानेवाली रचनाओं से सीखना

“सर्वश्रेष्ठ आविष्कारों में से बहुत-से ऐसे हैं जो कुदरत में पाए जानेवाले जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों की नकल करके किए गए हैं।”—फिल गेट्‌स, वाइल्ड टॆकनॉलजी।

जैसे कि हमने पिछले लेख में देखा कि बायोमिमेटिक्स विज्ञान का मकसद कुदरत में पाई जानेवाली जीवित चीज़ों की नकल करके बेहतरीन यंत्र और सामान बनाना है। मगर कुदरत में जो चीज़ें बनी हैं उनसे कहीं-भी प्रदूषण नहीं होता। इसके अलावा वे चीज़ें हलकी, लचीली और बहुत मज़बूत होती हैं।

उदाहरण के लिए, एक हड्डी और उतने ही वज़न के स्टील की तुलना करने पर, हम हड्डी को ज़्यादा मज़बूत पाते है। इसकी मज़बूती का राज़ क्या है? कुछ हद तक इसकी वज़ह, इसका आकार है। लेकिन सबसे बड़ी वज़ह है इसमें पाए जानेवाले अणु। गॆट्‌स समझाता है कि “हर जीवित वस्तु का जीवन एक छोटी-सी चीज़ और उसकी रचना पर निर्भर करता है। और वह छोटी-सी चीज़ है अणु।” अणुओं का अध्ययन करने पर वैज्ञानिकों को ऐसे पदार्थों का पता लगा है जो बहुत-सी चीज़ों को हड्डी जैसी मज़बूती और रेशम जैसा हलकापन देते हैं। अब वैज्ञानिक अपने यंत्रों में यही मज़बूती और हलकापन लाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं। वैज्ञानिकों को यह भी पता लगा है कि ये पदार्थ कुदरत में पाए जानेवाले अलग-अलग यौगिक हैं।

यौगिकों का चमत्कार

यौगिक वह होता है जो दो या दो से ज़्यादा पदार्थों से मिलकर बना होता है। इसके गुण पहले पदार्थों से कहीं बेहतर होते हैं, और साथ ही ये बड़े मज़बूत भी होते हैं। इस बात को और अच्छी तरह समझने के लिए फाइबरग्लास के कृत्रिम यौगिक को ही ले लीजिए। आम-तौर पर फाइबरग्लास * का इस्तेमाल जहाज़ के नीचे का भाग, मछली पकड़ने की छड़, तीर-कमान और खेल-कूद का अलग-अलग समान बनाने में किया जाता है। कांच-तंतुओं को प्लास्टिक के तरल या ठोस पदार्थ (इसे पॉलिमर कहा जाता है) में मिलाया जाता है। जब पॉलिमर जम जाता है तो एक ऐसा यौगिक तैयार होता है जो बहुत ही हलका और मज़बूत होने के साथ-साथ लचीला भी होता है। अगर अलग-अलग तंतुओं को ठोस पदार्थ में मिलाया जाता है तो इससे तरह-तरह का समान तैयार किया जा सकता है। जो यौगिक कुदरतन इंसान, जानवर और वनस्पति में पाए जाते हैं उनकी तुलना में इंसान के हाथों बने यौगिक कुछ भी नहीं हैं।

इंसान और जानवरों के शरीर में कांच के पतले धागे या कार्बन नहीं पाए जाते, बल्कि कॉलॆजन नामक रेशेदार प्रोटीन पाया जाता है। यह प्रोटीन ऐसे यौगिकों को तैयार करने के लिए ज़रूरी है जो त्वचा, आँतों, कार्टिलेज (उपास्थि), टेण्डन्स (कंडरा), हड्डियों और (इनैमल को छोड़कर) दाँतों को मज़बूती देते हैं। * एक किताब का कहना है कि कॉलॆजन प्रोटीन से बने “यौगिकों में इतनी तरक्की हुई है कि इन्होंने दूसरे यौगिकों को पीछे छोड़ दिया है।”

उदाहरण के लिए टेण्डन्स को ही लीजिए जो मांसपेशी और हड्डी को जोड़े रखता है। टेण्डन्स में अनोखे गुण हैं सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि इसमें तंतुओं से बना कॉलॆजन मज़बूती देता है मगर इसलिए कि ये तंतु जिस तरीके से बुने होते हैं वह बहुत ही कुशल कारीगरी का सबूत देते हैं। जनीन बीनयस अपनी किताब बायोमिमिक्री में लिखती है कि जब टेण्डन्स के बारे में गहराई से अध्ययन किया जाता है तो “विश्‍वास नहीं होता कि यह इतनी बारीकी से बना होगा। आपके हाथ (यानी कलाई से लेकर कोहनी तक) का टेण्डन तो सस्पेंशन पुल के तारों की तरह है क्योंकि टेण्डन में भी लिपटे हुए तारों का समूह पाया जाता है। हर एक तार में लिपटे हुए पतले-पतले तारों का समूह होता है। और इन पतले तारों में लिपटे हुए अणुओं का समूह पाया जाता है। ये अणु लिपटे हुए सर्पिले परमाणुओं के समूह से बने होते हैं। ये इतनी खूबसूरती से बने होते हैं कि इसके बारे में हम जितनी गहराई से जाँच करते हैं हमें उतनी ज़्यादा नई-नई बातें पता चलती हैं।” इसके बारे में वह आगे कहती है कि यह एक “शानदार इंजीनियरी” का सबूत है। और इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि कुदरत में पाई जानेवाली रचनाओं से प्रभावित होकर वैज्ञानिकों ने उनकी नकल की है।—अय्यूब 40:15, 17 से तुलना कीजिए।

जैसे पहले बताया गया था कि कुदरत से बनी चीज़ों के सामने, इंसान द्वारा बनाई गई चीज़ें फीकी पड़ जाती हैं। लेकिन फिर भी ये चीज़ें अपने आप में काफी अनोखी हैं। देखा जाए तो पिछले 25 सालों में दस सबसे बड़ी सफलताओं में से एक सफलता यह है कि कुदरत में पाई जानेवाली चीज़ों की नकल करके वस्तुएँ बनायी गई हैं। उदाहरण के लिए, ग्रैफाइट और कार्बन के तंतुओं से बने यौगिकों की वज़ह से हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ वायुयान और अंतरिक्षयान के पुरज़े, खेल-कूद का समान, फॉर्मूला वान रेसिंग कारें, प्रतियोगिता के लिए इस्तेमाल होनेवाले पानी के जहाज़ और हल्के कृत्रिम अंग उपलब्ध हैं। इनके अलावा और भी बहुत-सी चीज़ें तरक्की की वज़ह से बन सकी हैं।

चमत्कारी ब्लब्बर के काम अनेक

व्हेल और डॉल्फिन को पता भी नहीं कि उनका शरीर ब्लब्बर नामक एक चमत्कारी ऊतक से ढका होता है जो एक किस्म की चर्बी है। बायोमिमेटिक्स: डिज़ाइन एण्ड प्रोसॆसिंग ऑफ मटिरियल्स की किताब कहती है: “व्हेल की चर्बी (ब्लब्बर) एक बहुत ही काम की चीज़ है।” यह किताब आगे कहती है कि व्हेल में पाई जानेवाली चर्बी इन्हें तैरने में मदद करती है जिससे वे पानी के ऊपर आकर साँस ले सकें। यह चर्बी समुद्री जल-जंतुओं को ठंड से भी बचाती है। जब व्हेल बिना कुछ खाए हज़ारों मीलों का सफर तय करती हैं तो यही चर्बी उन्हें ताकत देती है। और दिलचस्पी की बात तो यह है कि प्रोटीन और शर्करा मिलकर जितनी ताकत देते हैं उससे दो या तीन गुना ज़्यादा ताकत तो उन्हें यह चर्बी दे देती है।

ऊपर बताई गई किताब के मुताबिक “ब्लब्बर लचीला और रबर जैसा होता है। हमारे सबसे अच्छे अध्ययन के मुताबिक जब व्हेल अपनी पूँछ को दाएँ या बाएँ मोड़ती है तो हर बार उसके लचीले ब्लब्बर के पलट जाने से उसकी गति पर असर पड़ता है। साथ ही जब वह बिना रुके लंबे समय तक तैरती रहती है तो जितनी ताकत उसे लगानी होती है उसमें से 20 प्रतिशत ताकत वह बचा पाती है।”

लोग ब्लब्बर का इस्तेमाल सदियों से करते आ रहे हैं मगर हाल ही में उन्हें पता चला है कि ब्लब्बर की आधी मात्रा कॉलॆजन तंतुओं के कारण है जो कि हर जानवर के शरीर में होते हैं। वैज्ञानिक अभी-भी यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि चर्बी का यह यौगिक किस तरह से काम करता है। उन्हें विश्‍वास है कि उनके पास एक और ऐसी चमत्कारी चीज़ है जिसकी नकल करके अगर वे कुछ नयी चीज़ें बनाएँगे तो बहुत फायदे होंगे।

आठ पैरवाली इंजीनियर का कमाल

हाल ही में मकड़ी पर वैज्ञानिकों ने काफी खोजबीन की है। वे यह जानना चाहते हैं कि मकड़ी अपना रेशम किस तरह तैयार करती है। वे ये भी बताते हैं कि यह रेशम एक यौगिक है। यह सच है कि ऐसे बहुत-से कीड़े हैं जो रेशम बनाते हैं मगर मकड़ी के रेशम की बात ही कुछ और है। यह रेशम दुनिया के सबसे मज़बूत पदार्थों में से एक है। एक विज्ञान का लेखक कहता है: “यह एक बेमिसाल और कमाल का पदार्थ है।” अगर हम मकड़ी के रेशम की दूसरी खासियतों के बारे में जानेंगे तो चकरा ही जाएँगे।

जब वैज्ञानिक मकड़ी के रेशम के बारे में बात करते हैं तो वे तारीफों के पुल क्यों बाँध देते हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि रेशम में ऐसे संयोजन होते हैं जो बहुत कम पदार्थों में पाए जाते हैं। स्टील से पाँच गुना ज़्यादा मज़बूत होने के साथ-साथ ये बहुत लचीले होते हैं। मकड़ी के रेशम को सबसे लचीले नाइलॉन की तुलना में 30 प्रतिशत से भी ज़्यादा खींचा जा सकता है। फिर भी यह ढीले-ढाले जाल की तरह नहीं होता जैसा सर्कस में होता है। इसके विपरीत मकड़ी के जाल में फँसा हुआ शिकार हवा में उछलता नहीं रहता। सांइस न्यूज़ पत्रिका बताती है: “अगर इंसान मकड़ी की तरह मज़बूत जाल बनाए जो मछली के जाल जितना बड़ा हो तो यह एक हवाई जहाज़ को आगे बढ़ने नहीं देगा।”

कहा जाता है कि मकड़ियों की दो जाति ऐसी हैं जो सात किस्म के रेशम तैयार करती हैं। वे रेशम बनाने में बड़ी कुशलता से जिस रसायन का इस्तेमाल करती हैं अगर वैज्ञानिक उनकी नकल करें तो सोचिए इससे कितने फायदे होंगे। इसका इस्तेमाल और भी बेहतरीन सीट बॆल्ट्‌स, ऑपरेशन में काम आनेवाले सिलाई के धागे, शरीर की कृत्रिम पेशियाँ, हलकी चीज़ें जैसे धागे और रस्सियाँ, केबल के तार और बुलॆटप्रूफ फैब्रिक बनाने में हो सकेगा। ये तो कुछ भी नहीं। वैज्ञानिक यह भी पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि मकड़ी बिना किसी ज़हरीले रसायन के अपना रेशम इतने अच्छे तरीके से कैसे बना लेती है।

कुदरत में पाए जानेवाले गियर बक्स और जेट इंजन

आज लोग दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक सफर कर सकते हैं और यह सब गियर बक्स और जेट इंजन की बदौलत हो सका है। लेकिन क्या आपको मालूम है कि इन दोनों चीज़ों के बनने से भी पहले ऐसी चीज़ें कुदरत में मौजूद थीं? गियर बक्स को ही लीजिए। आपकी गाड़ी के गियर बक्स में कई गियर्स होते हैं, जिन्हें बदलकर आप अपनी गाड़ी को अच्छी तरह चला सकते हैं। कुदरत में भी कुछ ऐसा ही गियर बक्स पाया जाता है। मगर यह गियर बक्स इंजन और पहिए के बीच नहीं होता बल्कि दो पंखों के बीच होता है। हम किन पंखों की बात कर रहे हैं? हम घरेलू मक्खियों के पंखों की बात कर रहे हैं। इनके पंखों से तीन गियर जुड़े होते हैं और उड़ान भरते समय ये गियर के सहारे अपनी गति को बदल लेती हैं।

स्क्विड हो, ऑक्टोपस हो या नॉटिलस, इन सबमें एक तरह का जेट प्रौपल्शन होता है जो इन्हें समुद्र के नीचे तैरने और आगे बढ़ने में मदद करता है। इस जेट को देखकर वैज्ञानिक सोचते हैं कि काश उनके पास भी ऐसी कोई तरकीब हो जिससे वे भी ऐसा जेट बना सकें। ऐसा वे क्यों सोचते हैं? क्योंकि इन जल-जंतुओं में यह जेट इंजन नरम अंगों से बना होता है जो टूटते नहीं हैं और बिना आवाज़ किए अपना काम करते रहते हैं। वाइल्ड टॆक्नॉलजी किताब कहती है कि जब एक स्क्विड अपनेशिकारियों से पीछा छुड़ाने की कोशिश करता है तो वह अपने जेट इंजन की मदद से 32 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से तैर सकता है और इस दौरान वह “कभी-कभी पानी के बाहर उछलकर जहाज़ के डेक पर भी आ जाता है।”

जी हाँ, अगर हम कुछ समय निकालकर कुदरत में पाई जानेवाली चीज़ों पर गौर करें तो उनके लिए हमारी इज़्ज़त और कदर और भी बढ़ती है। कुदरत सचमुच एक जीती-जागती पहेली है जो इंसान के मन में एक-के-बाद-एक सवाल खड़े करती रहती है। उदाहरण के लिए जुगनू और शैवल को देखिए जो शानदार रोशनी पैदा करते हैं, किन चमत्कारी रसायनों की वज़ह से ऐसा हो पाता है? सर्दियों के मौसम में आर्कटिक इलाकों में कई किस्म की मछलियाँ और मेंढ़क ठंड में जमकर बर्फ बन जाते हैं। और फिर बर्फ के पिघलने पर वे कैसे दोबारा ज़िंदा होकर तैरने लगते हैं? व्हेल और सील समुद्र की गहराई में काफी देर तक बिना साँस लिए कैसे रह सकती हैं? और उन्हें बॆन्ड्‌स बीमारी क्यों नहीं होती जोकि आम-तौर पर समुद्र की गहराई में जाने पर पानी के दबाव की वज़ह से नसों को हानि पहुँचने और साँस लेने में तकलीफ होने से होती है? गिरगिट और कट्टलफिश आस-पास के रंगों में घुल-मिल जाने के लिए अपना रंग कैसे बदल लेते हैं? हमिंगबड्‌र्स तीन ग्राम से भी कम चर्बी के ईंधन से मॆक्सिको की खाड़ी को कैसे पार कर लेता है? ऐसा लगता है कि इस तरह के सवालों की बौछार का कोई अंत नहीं होगा।

सचमुच, इंसान इन चीज़ों को देखकर हैरान रह जाता है। बायोमिमिक्री किताब कहती है कि जब वैज्ञानिक कुदरत के जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों के बारे में अध्ययन करते हैं तो उनके मन में “इज़्ज़त पैदा होने लगती है।”

रचना करनेवाला—एक रचनाकार!

जीव-रसायन के एक सहयोगी प्रोफॆसर माइकल बीही का कहना है कि हाल ही में जीवित कोशिका पर किए जानेवाले अध्ययन से यह “पता चला है कि कोशिका की ‘रचना’ की गई है!” वह आगे कहता है कि इस अध्ययन का नतीजा इतना “साफ और महत्त्पूर्ण है कि इसे विज्ञान के इतिहास में बड़ी से बड़ी कामयाबियों में से एक माना जा सकता है।”

लेकिन जो लोग मानते हैं कि हर चीज़ का विकास हुआ है वे यह नहीं समझा पाते कि हर जीवित चीज़ में, खासकर उनमें पाई जानेवाली कोशिकाओं और अणुओं की अद्‌भुत ढंग से रचना कैसे हुई। अब जब यह साबित हो गया है कि एक रचनाकार है तो हम समझ सकते हैं कि इन लोगों की बोलती क्यों बंद हो जाती है। बीही कहता है कि “जीवन के बारे में डार्विन की शिक्षा हमेशा हमारी समझ के बाहर ही रहेगी और ऐसा मानने के लिए हमारे पास काफी सबूत हैं।”

डार्विन के समय लोगों का यह मानना था कि जहाँ से जीवन शुरू होता है यानी जीवित कोशिका बहुत ही सरल है। उस वक्‍त जीवन के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी थी इसलिए यह धारणा कि हर चीज़ का विकास हुआ है उस युग में फैलती चली गई। मगर आज विज्ञान की बदौलत हम उस युग से बहुत आगे निकल आए हैं। आणविक जीव-विज्ञान और बायोमिमेटिक्स ने सबसे बढ़कर यह साबित कर दिया है कि कोशिका कोई मामूली चीज़ नहीं बल्कि इतने अच्छे तरीके से बनी होती है कि आधुनिक प्रक्रिया से बनी इलेक्ट्रॉनिक चीज़ें और मशीनों के पुरज़े भी इसके सामने कुछ नहीं हैं।

हर चीज़ की इतनी अच्छी तरह से रचना की गई है कि हम बीही की बातों को नकार नहीं सकते। उसने यही नतीजा निकाला कि “किसी बुद्धिमान सिरजनहार ने ही जीवन की रचना की है।” उसके नतीजे के मुताबिक क्या यह मानना सही नहीं होगा कि उस बुद्धिमान सिरजनहार का एक मकसद होगा जो इंसान के लिए भी मायने रखता है? यदि ऐसा है तो वह मकसद क्या है? और क्या इस रचनाकार के बारे में हम और जानकारी हासिल कर सकते हैं? अगला लेख इन ज़रूरी सवालों का जवाब देगा।

[फुटनोट]

^ दरअसल सही तौर पर तो काँच के पतले धागों को ही फाइबरग्लास कहा जाना चाहिए मगर आम-तौर पर लोग इस शब्द का इस्तेमाल प्लास्टिक और फाइबरग्लास से बने यौगिक के लिए करते हैं।

^ वनस्पतियों से बने यौगिक, कॉलॆजन के बजाय सैलूलोज़ पर निर्भर करते हैं। जैसे कि लकड़ी के यौगिक अपने बहुत-से गुणों के लिए सैलूलोज़ पर निर्भर करते हैं। कहा जाता है कि सैलूलोज़ एक ऐसा “तरल पदार्थ है जिसका कोई मुकाबला नहीं।”

[पेज 5 पर बक्स]

मक्खी की बदौलत सोलर पैनल बेहतर बने

न्यू साइंटिस्ट मैगज़ीन यह रिपोर्ट करती है कि एक वैज्ञानिक जब म्यूज़ियम देखने गया तो वहाँ उसने ऐसी मक्खियों को देखा जिनकी नसल खत्म हो चुकी है। मक्खियों की आँखों को गौर से देखने पर उसने देखा कि उनकी आँखों की ऊपरी तरफ जाली जैसा डिज़ाइन है। उसने सोचा शायद इसकी वज़ह से मक्खियों की आँखें ज़्यादा रोशनी खींचती हैं, खासकर जब यह जाली-डिज़ाइन तिरछे कोण में हो। अपने इस शक को सच साबित करने के लिए उसने दूसरे वैज्ञानिकों के साथ कई परीक्षण किए। नतीजा यह हुआ कि उसका शक सही निकला।

इस उम्मीद से कि सोलर पैनलों से और भी उर्जा निकल सकेगी वैज्ञानिकों ने मक्खी की आँखों पर जाली जैसे डिज़ाइन की नकल की। उन्होंने सोलर पैनलों के काँच पर ऐसे ही डिज़ाइन रखने की योजना बना ली। सोलर पैनलों को सूरज की दिशा में रखने के लिए जिस यंत्र का इस्तेमाल किया जाता है वह बहुत ही महँगा पड़ता है। मगर इस नई तकनीक से उस यंत्र की ज़रूरत नहीं होगी। बेहतर सोलर पैनलों के वज़ह से एक और अच्छा काम यह होगा कि प्रदूषण थोड़ा कम हो जाएगा। कैसे? क्योंकि बेहतर सोलर पैनलों से ज़्यादा उर्जा निकलेगी और लोग कोयले और तेल को कम इस्तेमाल करेंगे। सच में, ऐसे आविष्कारों से हमें यही एहसास होता है कि इंसान की हर शानदार रचना के पीछे कुदरत में पाई जानेवाली रचनाओं का हाथ है। और कुदरत को बस यह इंतज़ार रहता है कि कोई आकर उनकी रचनाओं को ढूँढ़े और समझने की कोशिश करे, और हो सके तो उनकी नकल करके बहुत-सी अच्छी-अच्छी चीज़ें बनाए।

[पेज 6 पर बक्स]

सम्मान उसे दो जो इसका हकदार है

जॉर्ज ड मिस्त्राल एक स्विस इंजीनियर था। सन्‌ 1957 की बात है, उसने देखा कि छोटे-छोटे कँटीले बीज बड़े अजीब तरीके से उसके कपड़ों से चिपके हुए हैं। उसने इन बीजों और उनके काँटो की बहुत जाँच की। उसका दिमाग हमेशा कुछ नया बनाने की कल्पना करता था। इसलिए जाँच के बाद उसे एक तरकीब सूझी। और आठ साल तक वह उन बीजों का कृत्रिम रूप बनाने में लगा रहा। उसके इस आविष्कार ने दुनिया में खलबली मचा दी, और आज यह चीज़ घर-घर में पाई जाती है। यह आविष्कार था, वॆल्क्रो।

ज़रा सोचिए, ड मिस्त्राल को कितना दुख पहुँचता, अगर कोई उससे कहता कि वॆल्क्रो को किसी ने नहीं बनाया बल्कि परीक्षण के दौरान यह अचानक से बन गया। बेशक, निष्पक्षता और न्याय यह माँग करता है कि सम्मान उसे दिया जाना चाहिए जो इसका हकदार है। इसलिए अकसर आविष्कार करनेवाले अपनी पहचान बताने के लिए अपने आविष्कार पर अपने नाम की मोहर लगाते हैं ताकि उनके आविष्कार का सम्मान सिर्फ उन्हें मिले। हालाँकि कुदरत में पाई जानेवाली चीज़ों के मुकाबले अकसर ये आविष्कार कुछ नहीं हैं, मगर फिर भी इन आविष्कारों के लिए इंसान को सम्मान मिलता है और इनाम के तौर पर बड़ी-बड़ी रकम मिलती है। साथ ही उनकी रचना के लिए तारीफों की बौछार भी होती है। हमारे बुद्धिमान सृष्टिकर्ता ने किसी की नकल किए बिना सब कुछ बनाया है जिसमें कोई कमी नहीं। तो क्या परमेश्‍वर को सबसे ज़्यादा सम्मान और तारीफ नहीं मिलनी चाहिए?

[पेज 5 पर तसवीर]

एक हड्डी और उतने ही वज़न के स्टील की तुलना पर, हम हड्डी को ज़्यादा मज़बूत पाते है

[चित्र का श्रेय]

Anatomie du gladiateur combattant...., Paris, 1812, Jean-Galbert Salvage

[पेज 7 पर तसवीर]

व्हेल की चर्बी (ब्लब्बर) उसे तैरने, शरीर को गरम रखने और उसे ताकत देने में मदद करती है

[चित्र का श्रेय]

© Dave B. Fleetham/Visuals Unlimited

[पेज 7 पर तसवीर]

मगरमच्छ और घड़ियाल की खाल की वज़ह से उन पर तीर, भाले और गोलियों का कोई असर नहीं होता

[पेज 7 पर तसवीर]

मकड़ी का रेशम स्टील से पाँच गुना ज़्यादा मज़बूत होने के बावजूद बहुत लचीला होता है

[पेज 8 पर तसवीर]

मज़बूत हड्डी से ढका हुआकठफोड़े का मस्तिष्क एक शॉक एब्ज़ॉरबर की तरह है

[पेज 8 पर तसवीर]

अपने आस-पास के रंगों मेंघुल-मिल जाने के लिएगिरगिट अपना रंग बदलता है

[पेज 8 पर तसवीर]

नॉटिलस के खास कोष्ठ की वज़ह सेवह अपने उत्प्लावन को नियंत्रित कर सकता है

[पेज 9 पर तसवीर]

हमिंगबर्ड के गले का रंग लाल होता है, यह तीन ग्राम से भी कम चर्बी के ईंधन से 1,000 किलोमीटर का सफर तय करता है

[पेज 9 पर तसवीर]

स्क्विड एक तरह का जेट प्रौपल्शन इस्तेमाल करता है

[पेज 9 पर तसवीर]

चमत्कारी रसायन की वज़ह से जुगनू जगमगाती रोशनी पैदा करते हैं

[चित्र का श्रेय]

© Jeff J. Daly/Visuals Unlimited