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विश्‍व-दर्शन

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अमरीकी जेलों में बढ़ते कैदी

दी इकॉनमिस्ट मैगज़ीन कहती है, “अमरीकी जेलों में अपराधियों की संख्या इतनी तेज़ी से बढ़ती जा रही है कि इसकी तुलना किसी भी दूसरे लोकतांत्रिक देश से नहीं की जा सकती। इतना ही नहीं यह संख्या तानाशाह देशों से भी बढ़कर है। पिछले साल अमरीका में प्रति 150 नागरिकों में (इनमें बच्चे भी शामिल हैं) से एक नागरिक सलाखों के पीछे था।” जिस रफ्तार से अमरीका में कैदियों की संख्या बढ़ रही है वह तो जापान से 20 गुना, कनाडा से 6 गुना, और यूरोप के पश्‍चिमी देशों से 5 से 10 गुना ज़्यादा है। अमरीका में 1980 से कैदियों की तादाद में चार गुना बढ़ौतरी हुई है। और 1988 से ड्रग्स इस्तेमाल करनेवालों की संख्या में अब तक कोई कमी नहीं आई है। आज अमरीका में ड्रग्स से संबंधित जुर्म की वज़ह से 4,00,000 से ज़्यादा लोग जेलों में हैं। दी इकॉनमिस्ट कहती हैं, “अपराध रोकने के लिए जेल की सज़ा असरदार हो या न हो, अगर इसी रफ्तार से अमरीका में कैदियों की संख्या बढ़ती रही तो कैदियों को रखने के लिए और भी जेल बनवाने होंगे। अब सवाल यह पैदा होता है कि अमरीकी सरकार इन सबका खर्चा कब तक उठा पाएगी?”

अरमगिदोन पर बाज़ी लगाना

द गार्डियन अखबार कहता है कि ब्रिटेन में हर हफ्ते “अरमगिदोन पर बाज़ी” लगानेवालों की संख्या बढ़ती जा रही है। दुनिया के विनाश के बारे में करीब 1,001 लोगों का इंटरव्यू लिया गया। इस सर्वे से पता चला है कि 33 प्रतिशत लोगों का मानना है कि एक और विश्‍व-युद्ध होगा जिसमें दुनिया का अंत हो जायेगा, और 26 प्रतिशत लोगों का मानना है कि पृथ्वी के बढ़ते तापमान से पृथ्वी जलकर राख हो जाएगी। कुछ लोग हिसाब लगाकर कहते हैं कि एक ग्रह पृथ्वी से टकराएगा और दुनिया को तहस-नहस कर देगा। द गार्डियन आगे कहता है, दरअसल सर्वे किए गए इन 59 प्रतिशत लोगों का यह “मानना है कि दुनिया का अंत देखने की संभावना, राष्ट्रीय लाटरी जीतने की संभावना से कहीं ज़्यादा है।” लेकिन अरमगिदोन के बारे में लोगों के विचार ऐसे क्यों हैं? अखबार का कहना है कि लोगों पर शायद इस बात का असर है कि “एक नए मिलेनियम की शुरुआत होगी और पृथ्वी के विनाश के दरवाज़े खुल जाएँगे।”

“बाबुल का गुम्मट”

इंटरनैशनल हैरल्ड ट्रिब्यून पैरिस का यह अखबार कहता है कि यूरोपियन यूनियन (EU) संगठन में 11 सरकारी भाषाएँ इस्तेमाल की जाती हैं और शायद इनमें 10 और भाषाएँ भी जोड़ दी जाएँगी। जबकि संयुक्‍त राष्ट्र के मुख्यालय में सिर्फ 5 सरकारी भाषा हैं। इसका मतलब है कि EU के कामकाज को सँभालनेवाली समिति, यूरोपियन कमीशन ने संयुक्‍त राष्ट्र से चार गुना से भी ज़्यादा अनुवादकों को नियुक्‍त किया हुआ है। एक तरफ यह कोशिश की जा रही है कि पूरे यूरोप को एक किया जाए और EU के कामों को आसान किया जाए। लेकिन जब भाषाओं की बात आती है तो इसका उलटा ही हो रहा है क्योंकि EU का हर सदस्य अपने देश की भाषा की रक्षा करने में लगा हुआ है। इसलिए अखबार यह कहता है, “बाबुल के गुम्मट की छाया आज भी नज़र आती है।” कमीशन को एक और समस्या का सामना करना पड़ रहा है, यह है “यूरोबोली” (संगठन की भाषा) जो ऐसे शब्दों से भरी हुई है जिसे समझने में बहुत मुश्‍किल होती है। एक अनुवादक के मुताबिक राजनेताओं की बातों को अनुवाद करना एक बड़ी चुनौती है, यह खासकर तब और भी बड़ी चुनौती बन जाती है जब “नेता घुमा-फिरा कर बात करते हैं जिससे लोग उनकी बात न समझें।”

भिखारी होने का ढोंग

यह बात सच है कि कई भिखारी गरीब और लाचार होते हैं। लेकिन भारत में प्रकाशित द वीक नामक मैगज़ीन बताती है कि कुछ भिखारी सिर्फ बाहर से लँगड़े, अंधे नज़र आते हैं मगर वे ऐसे होते नहीं हैं। भारत के एक राज्य, महाराष्ट्र में एक भिखारी बैसाखी के सहारे ट्रैफिक-सिग्नल पर भीख माँग रहा था। उसने जब एक कार के ड्राइवर से भीख माँगी तो ड्राइवर ने उसे नज़रअंदाज़ किया और अपनी गर्ल-फ्रैंड से बातें करता रहा। मगर अब भिखारी चिल्ला-चिल्लाकर भीख माँगने लगा। तंग आकर ड्राइवर ने अपनी खिड़की का शीशा नीचे किया और भिखारी को धकेल दिया। इससे उसके कटोरे का पैसा गिर गया। भिखारी को गुस्सा आ गया और उसने अपनी बैसाखी से कार के आगे का शीशा तोड़ना शुरू कर दिया। इससे सब लोगों को पता चल गया कि भिखारी “लँगड़ा” नहीं है। द वीक मैगज़ीन आगे कहती है, “थोड़ी देर में उस ढोंगी लँगड़े के दूसरे साथी भी वहाँ पहुँच गए जो ‘अंधे’, ‘लँगड़े’ और ‘अपाहिज’ होने का नाटक करके आस-पास भीख माँग रहे थे।” फिर उन सब ने कार पर पत्थर फेंकना शुरू कर दिया और लाठी और बैसाखियों से कार को पीटने लगे। आखिर में उन्होंने ड्राइवर को कार से खींचकर बाहर निकाला मगर तभी पुलिस आ गई और सब भिखारी दुम दबाकर भाग गए।

बहुत कम काम जहाँ, तंदुरुस्ती को नुकसान वहाँ

जर्मनी में 50,000 काम करनेवाले लोगों पर किए गये अध्ययन से पता चला है कि ज़्यादा काम करनेवालों की तुलना में बहुत कम काम करनेवालों की तंदुरुस्ती को ज़्यादा खतरा रहता है। औग्सबर्गर आल्गिमिना अखबार कहता है, “जो लोग एक काम को पकड़कर बस बैठे रहते हैं और उसे खत्म करने की कोशिश नहीं करते, उनके बीमार पड़ने की संभावना उन लोगों से दो गुना से ज़्यादा होती है जो ज़्यादा काम करते हैं।” काम से भागने से तंदुरुस्ती को जितना नुकसान होता है उतना किसी काम में आनेवाली परेशानियों से नहीं होता। रिपोर्ट के मुताबिक जो बहुत कम काम करते हैं उन्हें अकसर “हाई ब्लड प्रेशर, पेट का रोग और आँतों की खराबी, कमर और जोड़ों में दर्द” जैसी बीमारियों का शिकार होना पड़ता है।

कोई फायदा नहीं

यूनिवर्सिटी ऑफ कॆलिफोर्निया बर्किली वॆलनेस लेट्टर पैम्फलेट कहता है कि “मोटापा घटाने में सिगरॆट से कोई मदद नहीं मिलती है।” “बहुत-सी जवान लड़कियाँ खासकर इसलिए सिगरॆट पीती हैं क्योंकि उनका मानना है कि ऐसा करने से वे हमेशा दुबली रहेंगी।” लेकिन 18 से 30 उम्र के बीच लगभग 4,000 लोगों के टेस्टों से पता चला है कि “इस उम्र के दौरान चाहे कोई सिगरॆट पीए या न पीए, सात साल तक उनका वज़न बढ़ता ही है (हर साल औसतन आधा किलो से भी ज़्यादा वज़न बढ़ता है)।” इस लेख के अंत में कहा गया था, “सिगरॆट पीने से मोटापा कम नहीं होता। दरअसल, सिगरॆट पीने से कोई फायदा नहीं होता।”

गुस्सा उतारना

कनाडा का नैशनल पोस्ट अखबार कहता है कि तनावमुक्‍त इलाज जिसमें “गुस्सा उतारने के लिए, किसी भी निर्जीव चीज़ पर गुस्सा निकालना जैसे कि तकिये को पीटना या बॉक्सिंग-बैग पर घूँसे मारना शामिल है, गुस्से को उतारने के बजाए इंसान को और भी मार-धाड़ करनेवाला बना देता है।” आइओवा स्टेट यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान का प्रोफैसर, डॉ. ब्रैड जे. बुशमन कहता है, “बड़े-बड़े मीडिया तनावमुक्‍त इलाज को बहुत बढ़ावा दे रहे हैं। लेकिन ऐसा बढ़ावा रिसर्च-ब्रोशर नहीं दे पा रहे हैं।” पोस्ट अखबार आगे कहता है कि रिसर्च से यह पता चला है कि “जो किताबें और लेख गुस्सा उतारने के लिए ‘तनावमुक्‍त इलाज’ को बहुत अच्छा बताती हैं, वे दरअसल झगड़ालू होने के गुण को बढ़ावा दे रही हैं। क्योंकि लोग इन किताबों पर निर्भर होने लगते हैं और आत्मसंयम का इस्तेमाल करना छोड़ देते हैं।”

दफनाने के बढ़ते दाम

आजकल दफनाने के बढ़ते दामों को गिराने के लिए बड़ी तादाद में लोग दाहसंस्कार का तरीका अपना रहे हैं। राष्ट्रीय फ्यूनरल विभाग के निर्देशकों के मुताबिक 1996 में आम-तौर पर अमरीका में दफनाने का दाम 4,600 डॉलर था। अगर आप दफनाने के लिए कब्रिस्तान में जगह खरीदना चाहते हैं और साथ में समाधि पत्थर लगाना चाहते हैं तो आपको दाम का 40 प्रतिशत और देना होगा। लेकिन दाहसंस्कार में ज़मीन के किसी टुकड़े की ज़रूरत नहीं होती और न ही समाधि पत्थर की। इसके अलावा एक अखबार शिकागो सन-टाइम्स कहता है, “दाहसंस्कार में चाहे जो बॉक्स चुनें और राख के लिए चाहे जो कलश चुनें कुल मिलाकर खर्च सिर्फ 500 से 2,000 डॉलर के बीच आता है।” साथ ही अखबार आगे कहता है कि अमरीका में, 1997 में मरनेवालों में से 23.6 प्रतिशत लोगों को जला दिया गया था और लगता है कि अगले दस सालों में यह संख्या बढ़कर 42 प्रतिशत हो जाएगी।

मुँह के कैंसर की महामारी

दी इंडियन ऎक्सप्रॆस अखबार कहता है, कॆलिफोर्निया के लॉस एन्जिलस में मुँह के कैंसर की गिरफ्त में जितने लोग हैं उनके मुकाबले चार गुना ज़्यादा भारत की राजधानी दिल्ली में हैं। दिल्ली में, हाल ही में जो आदमी कैंसर से पीड़ित हुए हैं, उनमें से 18.1 प्रतिशत लोगों को मुँह का कैंसर था। जबकि 1995 में मुँह के कैंसर के रोगियों की संख्या सिर्फ 10 प्रतिशत थी। इसकी खास वज़ह है तंबाकू चबाना, बीड़ी पीना, पान मसाला खाना, और पान (जिसमें सुपारी, तंबाकू और दूसरी कुछ चीज़ें मिली होती हैं) चबाना। अखबार आगे बताता है कि सबसे चौकन्‍ना कर देनेवाली बात तो यह है कि पान मसाला खानेवाले ज़्यादातर स्कूल के बच्चे हैं। एक विशेषज्ञ चेतावनी देता है कि पूरा भारत “मुँह के कैंसर की महामारी का शिकार बननेवाला है।”