इस जानकारी को छोड़ दें

विषय-सूची को छोड़ दें

क्या हमारी सदी हद-से-ज़्यादा बुरी है?

क्या हमारी सदी हद-से-ज़्यादा बुरी है?

क्या हमारी सदी हद-से-ज़्यादा बुरी है?

“क्या पिछली पीढ़ियों के लोग हमारे ज़माने के मुकाबले वाकई ऊँचे आदर्शों पर चलते थे?” अगर इतिहासकारों से यह सवाल पूछा जाए तो वे कहेंगे ‘हर युग का एक अपना ही स्तर था। उनके आदर्शों और चालचलन को सही या गलत बताने से पहले उस युग के हालातों को ध्यान में रखना बहुत ज़रूरी है।’

मिसाल के तौर पर, ज़रा 16वीं सदी पर ध्यान दीजिए। इस सदी की शुरूआत में यूरोप में हिंसा और अपराध की वारदातें बहुत आम थीं। लोग अकसर कानून अपने हाथ में ले लिया करते थे। कत्ल और खानदानी दुश्‍मनी की वज़ह से खून-खराबा रोज़ की बात थी।

मगर धीरे-धीरे हालात सुधरने लगे। इतिहासकार आरना यारिक और योहान सोडरबेर की किताब “आदर और अधिकार” के मुताबिक सन्‌ 1600 से लेकर 1850 के बीच की पीढ़ियों में लोग “ज़्यादा सभ्य होने लगे थे।” दूसरे इतिहासकार भी यही कहते हैं कि आज के मुकाबले में 16वीं सदी में डकैती और अपराध की घटनाएँ बहुत कम होती थीं। उस वक्‍त हमारे ज़माने की तरह माफिया, या दूसरे गिरोहों के बारे में बहुत कम सुनने को मिलता था।

सच है कि इसी दौरान यूरोप में गुलामों का व्यापार भी किया जाता था। व्यापारी लोग, अफ्रीका से लाखों लोगों का अपहरण करके दूसरे देशों में बेच देते थे और इन गुलामों के साथ जानवरों जैसा सलूक किया जाता था। मगर कुल मिलाकर कहा जाए तो पिछली सदियों में कुछ बुराइयाँ ज़रूर थीं लेकिन बहुत सी अच्छाइयाँ भी थीं। मगर चाहे जो भी हो, 20वीं सदी में कुछ ऐसे ज़बरदस्त और गंभीर बदलाव आए हैं जैसे पहले कभी किसी भी ज़माने में नहीं देखे गए।

बीसवीं सदी—आदर्शों की बलि

इतिहासकार यारिक और सोडरबेर के मुताबिक: “1930 के बाद से कत्ल की वारदातें एक बार फिर तेज़ी से बढ़ने लगीं और आज तो आसमान छूने लगी हैं।”

इतना ही नहीं, कुछ विद्वानों का कहना है कि 20वीं सदी के दौरान लोगों का चालचलन बद से बदतर हो गया है। आचरण के बारे में एक लेख कहता है: “30 से 40 साल पहले समाज यह तय करता था कि चालचलन और मर्यादा की हदें क्या हैं। लेकिन आज हर कोई वही कर रहा है जो उसे ठीक लगता है।”

इसका नतीजा हम एक उदाहरण से देख सकते हैं। वही लेख कहता है, सन्‌ 1960 में अमरीका में पैदा हुए बच्चों में से 5.3 प्रतिशत नाजायज़ संबंधों से जन्मे थे। लेकिन सन्‌ 1990 में ऐसे संबंधों से पैदा होनेवाले बच्चों की गिनती बढ़कर 28 प्रतिशत हो गई।

एक अमरीकी सीनेट-सदस्य, जे. लीबर्मॆन के मुताबिक हमारे ज़माने में आदर्शों के नाम पर समाज “खोखला है . . . पहले जिन ऊँचे आदर्शों का पालन किया जाता था आज वे देखने को भी नहीं मिलते।” लीबर्मॆन के मुताबिक “खासकर बीसवीं सदी में समाज के आदर्शों में भारी गिरावट आई है।”

धर्म की लीक से हटकर चलना

बीसवीं सदी में आदर्शों में ऐसी भारी गिरावट की वज़ह क्या है? आदर और अधिकार किताब कहती है, “इसकी सबसे बड़ी वज़ह यह है कि पिछली दो सदियों से समाज ने धर्म को ताक पर रख दिया है। यह खासकर तब से हुआ जब 18वीं सदी के कुछ विद्वानों ने बाइबल की शिक्षाओं को ठुकराना शुरू कर दिया।” इन विद्वानों ने सिखाया कि सही-गलत का फैसला अब धर्म नहीं बल्कि “लोग अपनी मरज़ी के मुताबिक करेंगे।” नतीजा यह हुआ कि आज लोगों के दिल में धार्मिक शिक्षाओं के लिए वह श्रद्धा नहीं है जो पहले कभी थी।

लेकिन जो विचार 18वीं सदी में शुरू हुए थे उनका इतना भारी असर आज हमारे ज़माने में क्यों हो रहा है? आदर और अधिकार किताब इसका जवाब देती है, ‘ऐसे विचारों को पनपने में काफी वक्‍त लगा। क्योंकि लोगों के मन में धर्म के लिए जो श्रद्धा थी उसे कम होने में करीब 200 साल लगे।’

अठाहरवीं सदी में धर्म के लिए लोगों में जो श्रद्धा थी वह 20वीं सदी में ना के बराबर रह गयी। धर्म की वज़ह से लोगों में जो त्याग की भावना, सच्चाई और ईमानदारी थी वह धीरे-धीरे खत्म होने लगी। खासकर पिछले तीस-चालीस सालों से लोगों के आदर्शों में हद-से-ज़्यादा गिरावट आयी है। इतनी भारी गिरावट की वज़ह क्या है, आइए देखें।

स्वार्थ और लालच

इस 20वीं सदी में आदर्शों में आयी गिरावट की एक बहुत बड़ी वज़ह है, टेकनॉलजी और बिज़नेस में हुई ज़बरदस्त तरक्की। जर्मनी के अखबार डी ज़ाइट का एक लेख कहता है कि “हम ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ तेज़ी से बदलाव आ रहा है, जबकि पिछली सदियाँ ऐसी नहीं थीं।” यह लेख आगे कहता है ऐसी तरक्की और बदलाव की वज़ह से आज लोग हर हाल में कामयाब होना चाहते हैं, वे दूसरों का गला काटकर खुद आगे बढ़ने की होड़ में लग गए हैं।

यह लेख आगे कहता है, “इस स्वार्थ और लालच को कोई नहीं रोक सकता। इसकी वज़ह से आम लोगों से लेकर सरकारी अफसर तक भ्रष्ट हो गए हैं। लोग सिर्फ अपने ही बारे में सोचते हैं और जहाँ तक हो सके अपनी इच्छाओं को पूरा करने की कोशिश करते हैं।”

मिसाल के तौर पर, अमरीका में एक सर्वे से यह पता चला कि आज अमरीका के लोगों में, पिछली पीढ़ी के मुकाबले पैसे का लोभ कहीं ज़्यादा बढ़ गया है। इसी सर्वे के मुताबिक, “बहुत-से अमरीकियों को इस बात की चिंता खाए जा रही है कि आज समाज में एक-दूसरे की इज़्ज़त करना, ईमानदारी से काम करना और समाज-सेवा जैसे आदर्शों को कोई नहीं मानता।”

कंपनियों के बड़े-बड़े अफसरों को ही लीजिए। वे अपने नीचे काम करनेवालों की माँगों को पूरा करने में तो आनाकानी करते हैं, मगर खुद मोटी तनख्वाह लेते हैं। इतना ही नहीं वे रिटायर होने के बाद भी कंपनी से अच्छा-खासा भत्ता हासिल करने का पूरा इंतज़ाम कर लेते हैं। स्वीडन के एक प्रोफेसर, कॆल उवा निल्सॉन ने कहा, “मुश्‍किल तो यह है कि इन अफसरों के रवैए को देखकर आम कर्मचारी भी उन्हीं की तरह लालची हो जाता है। और फिर उनके लिए मर्यादा की हदें पार करना आसान हो जाता है। इसकी वज़ह से, सारे समाज के आदर्शों में गिरावट आ रही है।”

मनोरंजन की दुनिया का ज़बरदस्त असर

बीसवीं सदी में आदर्शों में आयी गिरावट की एक और वज़ह है, मनोरंजन की दुनिया। सीनेट-सदस्य लीबर्मॆन ने कहा, “टीवी कार्यक्रमों और फिल्मों के निर्माता, फैशन एड्‌वर्टाइज़र्स्‌, रैप और हैवी-मेटल गानेवालों का लोगों की ज़िंदगी पर ज़बरदस्त असर हो रहा है। हमारा पूरा समाज इनकी जकड़ में है, खासकर हमारे बच्चे। और ताज्जुब की बात है कि इन लोगों का दिल इन्हें ज़रा भी नहीं कचोटता कि इनकी वज़ह से समाज के आदर्शों में इतनी गिरावट आ रही है।”

लीबर्मॆन ने एक गाने के एलबम की मिसाल दी, जिसे कॆनिबल कॉर्प्स (आदमखोरी) नामक हैवी-मॆटल ग्रूप ने तैयार किया था। उसमें गायक पूरे विस्तार से यह बताता है कि किस तरह छुरे की नोक पर एक औरत के साथ बलात्कार किया जाता है। लीबर्मॆन और उसके साथी ने इस एलबम को रोकने की भरपूर कोशिश की, उसने कैसेट बनानेवाली कंपनी से बहुत मिन्‍नतें भी कीं लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ।

इसलिए आज ज़िम्मेदार माता-पिताओं के लिए मनोरंजन की दुनिया से अपने बच्चों को बचाए रखना एक संघर्ष बन गया है। लेकिन उन बच्चों के बारे में सोचिए जिनके माता-पिता को उनकी ज़रा भी परवाह नहीं। लीबर्मॆन के मुताबिक, “मनोरंजन की दुनिया ही ऐसे बच्चों की माई-बाप बन जाती है। यही उन्हें सिखाती है कि सही क्या है और गलत क्या। टेलीविज़न, फिल्में और सीडी प्लेयर जो कुछ सिखाते हैं बच्चों के लिए वही आदर्श बन जाते हैं।” और जो रही-सही कसर थी भी वह इंटरनॆट पूरी कर रहा है।

“सही-गलत से अनजान”

तो अब तक हमने जिन बुरे प्रभावों को देखा, उन सबका जवानों के दिमाग पर कैसा असर हुआ है? पिछले कुछ सालों में ऐसी बहुत सी खौफनाक वारदातें हुई हैं, जिनमें नौजवान यहाँ तक कि छोटे बच्चे भी अपराधी थे।

सन्‌ 1998 में स्वीडन में एक ऐसी घटना घटी जिसे सुनकर दिल दहल जाता है। दो छोटे लड़कों ने, जिनकी उम्र पाँच और सात साल थी, अपने चार साल के दोस्त का गला दबाकर उसे मार डाला! यह सुनकर बहुत से लोगों ने यह सवाल उठाया: भला बच्चे एक पेशेवर कातिल की तरह कैसे किसी को मार सकते हैं? क्या उनके दिल में कुदरती दया नहीं होती? एक मनोरोगविज्ञानि इसका जवाब देते हैं: “बच्चों में दया अपने आप नहीं आ जाती, ये गुण सीखने पड़ते हैं। वे बड़ों को जैसा करते देखेंगे वैसा ही सीखेंगे।”

यह बात कठोर अपराधियों के बारे में भी सच है। स्वीडन में मनोरोगविज्ञान के प्रोफैसर स्टेन लैवॆंडर के मुताबिक, जेल में कैद 15 से 20 प्रतिशत कैदियों में भी दया की भावना नहीं होती। दरअसल उन्हें मालूम ही नहीं कि सही क्या है और गलत क्या। आज तो यह नौबत आ गई है कि जिन बच्चों को दिमागी तौर पर नॉरमल कहा जाता, उनमें भी अच्छे-बुरे की समझ नहीं है। तत्त्वज्ञान की प्रोफेसर, क्रिस्टीना हॉफ सोमर्स के मुताबिक जब विद्यार्थियों को सही-गलत के बीच फर्क करना होता है तो अकसर परेशान होने लगते हैं। कुछ नौजवान जवाब देते हैं कि सही-गलत जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं। उनका मानना है कि सही-गलत का फैसला करना हर इंसान का निजी मामला है।

इसी प्रोफेसर ने जब अपने कई विद्यार्थियों से पूछा कि अगर आपके पालतू जानवर और किसी अंजान व्यक्‍ति की जान खतरे में हो मगर दोनों में से किसी एक को ही बचाने का मौका हो तो आप किसे बचाएँगे? बहुतों का जवाब था, ‘अपने पालतू जानवर को।’ इंसान की जगह जानवर को बचाने के फैसले से ज़ाहिर होता है कि उन्हें ऊँचे आदर्शों का ज़रा भी ज्ञान नहीं।

प्रोफेसर सोमर्स का कहना है, “ये बात नहीं है कि जवान लोग बुद्धू हैं या भरोसा करने के लायक नहीं हैं या निर्दयी और बेईमान हैं। बल्कि सच तो यह है कि उन्हें यह सिखाया ही नहीं गया कि सही क्या है और गलत क्या।” असल में आज, बहुत-से जवान यह सवाल उठाते हैं, ‘क्या सचमुच आदर्श नाम की कोई चीज़ होती भी है?’ और यही सोच-विचार समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

बेशक, आज की दुनिया में आदर्शों में भारी गिरावट आ गई है। लोगों को डर है कि इसका अंजाम बहुत भयानक हो सकता है। डी ज़ाइट अखबार के मुताबिक “यही गिरावट बहुत जल्द पूरी व्यवस्था और समाज को ले डूबेगी।”

लेकिन यह सब क्यों हो रहा है? इस बीसवीं सदी में आदर्शों में इतनी भारी गिरावट होने का क्या कुछ खास मतलब है? आखिर भविष्य में क्या होनेवाला है?

[पेज 6, 7 पर तसवीरें]

“टीवी कार्यक्रमों और फिल्मों के निर्माता, फैशन एड्‌वर्टाइज़र्स्‌, रैप और हैवी-मेटल गानेवालों का लोगों की ज़िंदगी पर ज़बरदस्त असर हो रहा है”