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अनदेखी चीज़ों को देखकर हम क्या सीख सकते हैं?

अनदेखी चीज़ों को देखकर हम क्या सीख सकते हैं?

अनदेखी चीज़ों को देखकर हम क्या सीख सकते हैं?

अनदेखी चीज़ों को देखने से हमें क्या फायदा हुआ है? इससे हमें उन चीज़ों के बारे में ज़्यादा और पक्की जानकारी मिली है, जिनके बारे में पहले हम नहीं जानते थे।—नीचे दिया गया बॉक्स देखिए।

पहले यह माना जाता था कि सभी ग्रह और तारे हमारी पृथ्वी के चारों ओर चक्कर काटते हैं। मगर दूरबीनों की मदद से इस गलतफहमी को दूर किया गया, और देखा गया कि दरअसल हमारी पृथ्वी और दूसरे सभी ग्रह सूरज का चक्कर काटते हैं। हाल ही में पावरफुल माइक्रोस्कोप ईजाद किया गया, जिसकी मदद से इंसान ने यह देखा है कि एक मूल-तत्व का ऎटम दूसरे मूल-तत्व के ऎटम से मिलकर कैसे एक मॉलिक्यूल (अणु) बनता है।

आइए जीवन के लिए सबसे ज़रूरी चीज़, पानी के बारे में देखें। पानी की एक बूँद में करोड़ों मॉलिक्यूल होते हैं! हर मॉलिक्यूल एक ऑक्सीजन ऎटम से और दो हाइड्रोजन ऎटमों से मिलकर बनता है। पानी के मॉलिक्यूल की रचना से और उसकी खासियत से हम क्या सीख सकते हैं?

पानी—एक करिश्‍मा

पानी की रचना दरअसल बहुत ही पेचीदा होती है। लंदन के इंपॆरियल कॉलॆज के डॉ. जॉन एम्सली कहते हैं कि “अब तक सबसे ज़्यादा रिसर्च पानी पर की गयी है, मगर फिर भी इसके बारे में हम बहुत कम जान पाए हैं।” न्यू साइंटिस्ट मैगज़ीन कहती है: “पानी धरती पर पायी जानेवाली सबसे आम चीज़ होने के बावजूद सबसे रहस्यमय है।”

डॉक्टर एम्सली कहते हैं कि पानी की रचना जितनी पेचीदा होती है, “इसकी क्रियाएँ भी उतनी ही पेचीदा होती हैं।” मिसाल के तौर पर, पानी यानी ‘H2O को दरअसल गैस होना चाहिए, मगर ये तरल पदार्थ है। साथ ही, पानी जब जमकर बर्फ बन जाता है, तो बर्फ को पानी में डूब जाना चाहिए, मगर बर्फ डूबने के बजाय तैरती रहती है।’ पानी की इस अजीब क्रिया के बारे में अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस के भूतपूर्व अध्यक्ष, डॉ. क्लॉपस्टेग कहते हैं:

“बर्फ पानी के ऊपर तैरती है, इसी वजह से पानी के जीव-जंतु ज़िंदा रह पाते हैं। अगर ऐसा न होता, या पूरी झील जमकर बर्फ बन जाती, तो झील की सभी मछलियाँ और जीव-जंतु मर जाते।” डॉ. क्लॉपस्टेग कहते हैं कि “पानी की इस विचित्र क्रिया के पीछे ज़रूर कोई ऐसा है जो बहुत ही बुद्धिमान है।”

न्यू साइंटिस्ट पत्रिका कहती है कि वैज्ञानिकों को अब इस अजीब क्रिया का राज़ पता चल गया है। वे कहते हैं, “राज़ यह है कि जब पानी बर्फ बनता है तब ऑक्सीजन के ‘ऎटम’ की पोज़िशन बदल जाती है।”

कितनी अजीब बात है! हमारे शरीर में ज़्यादातर भाग पानी का है, और इसका साधारण-सा मॉलिक्यूल अब तक वैज्ञानिकों की समझ से परे है! क्या आपको पानी की रचना पर आश्‍चर्य नहीं होता? क्या आपको नहीं लगता कि इसके “पीछे ज़रूर कोई ऐसा है जो बहुत ही बुद्धिमान है”? पानी के मॉलिक्यूल के अलावा और भी ऐसे मॉलिक्यूल पाए जाते हैं जो इससे भी ज़्यादा पेचीदा होते हैं।

बहुत ही पेचीदा मॉलिक्यूल

कुछ मॉलिक्यूल हज़ारों ‘ऎटम’ से बने होते हैं। जैसे, जीवित सॆल (कोशिका) में पाए जानेवाले DNA (Deoxyribonucleic Acid) के एक मॉलिक्यूल में कई मूल-तत्वों के लाखों ‘ऎटम’ होते हैं!

हालाँकि DNA का मॉलिक्यूल बहुत ही पेचीदा होता है, फिर भी इसका आकार 1 मिलीमीटर के 4 लाखवें हिस्से के जितना होता है। इसे सिर्फ पावरफुल माइक्रोस्कोप में ही देखा जा सकता है। वैज्ञानिकों को 1944 में पता चला कि बच्चे को अपने माँ-बाप से कौन से गुण मिलेंगे यह DNA ही तय करता है। तभी से कई वैज्ञानिक इस पेचीदा मॉलिक्यूल के बारे में ज़्यादा जानकारी हासिल करने में जी-जान से जुटे हुए हैं।

DNA और पानी के मॉलिक्यूल तो सिर्फ दो मिसाल हैं। मगर कुछ ऐसे खास मॉलिक्यूल होते हैं जो जीवित चीज़ों में भी पाए जाते हैं और निर्जीव चीज़ों में भी। क्या इसका मतलब यह है कि जीवित चीज़ें, निर्जीव चीज़ों से पैदा हुई हैं?

कई सालों से वैज्ञानिकों का यही मानना था। माइक्रोबायोलॉजिस्ट माइकल डॆंटन ने कहा, “1920 से करीब 1940 तक कई वैज्ञानिक इस उम्मीद मैं बैठे थे कि जैसे-जैसे बायो-केमिस्ट्री का ज्ञान बढ़ेगा, वैसे-वैसे यह साबित हो जाएगा कि कैसे जीवित चीज़ें, निर्जीव चीज़ों से पैदा हुई हैं।” मगर क्या वे इसे साबित कर सके?

जीवन कमाल का है

डॆंटन कहते हैं कि 1950 के बाद मॉलिक्यूल पर की गई हैरतअंगेज़ खोज़ों से यह साबित हो गया कि जीवित और निर्जीव चीज़ों के बीच कोई संबंध नहीं है। डॆंटन आगे कहते हैं: “इन दोनों के बीच दरअसल ज़मीन-आसमान का फर्क है। सारी निर्जीव चीज़ों में हिम-कण (snowflake) के मॉलिक्यूल की रचना सबसे जटिल होती है। मगर एक जीवित सॆल के आगे वह कुछ भी नहीं है।”

क्या इसका मतलब यह है कि एक निर्जीव चीज़ का मॉलिक्यूल बनाना आसान है? पुस्तक मॉलिक्यूल्स टू लिविंग सॆल्स कहती है कि “निर्जीव चीज़ों के मॉलिक्यूल इतने पेचीदा होते हैं कि उन्हें बनाना बहुत-बहुत मुश्‍किल है, या यूँ कहो कि नामुमकिन है। अगर निर्जीव चीज़ों के मॉलिक्यूल को बनाना इतना मुश्‍किल है, तो एक जीवित सॆल को बनाने का तो सवाल ही नहीं उठता।”

बैक्टीरिया जैसे जीव सिर्फ एक सॆल के बने होते हैं, मगर दूसरे जीव कई सॆल से मिलकर बने होते हैं, जैसे इंसान का शरीर। ये सॆल इतने छोटे होते हैं कि एक छोटे-से बिंदु में करीब 500 सॆल समा सकते हैं। माइक्रोस्कोप में इंसान का सॆल कैसा दिखता है?

सॆल—इसे बनाया गया या ये अपने-आप बन गया?

जीवित चीज़ों के सॆल इतने पेचीदा होते हैं कि उन्हें देखकर इंसान दाँतों तले उँगली दबा ले। विज्ञान का एक लेखक कहता है: “सॆल के बढ़ने के लिए यह ज़रूरी है कि उसके अंदर सही मात्रा में और सही समय में हज़ारों केमिकल रिएक्शन हों।” फिर वह पूछता है: “एक छोटे-से सॆल में एक-साथ 20,000 केमिकल रिएक्शनों को कौन कंट्रोल करता है?”

माइकल डॆंटन ने एक सॆल की तुलना “बहुत ही छोटी फैक्ट्री से की, जिसमें हज़ारों नाज़ुक मशीनें एक-साथ चलती रहती हैं। यह सॆल करीब एक खरब ऎटम से बना होता है। यह इंसानों द्वारा बनायी गयी किसी भी मशीन से बहुत ही पेचीदा है और यकीनन बेजोड़ है।”

वैज्ञानिक भी सॆल के काम करने के तरीके को पूरी तरह से नहीं समझ पाए हैं। फरवरी 15,2000 की द न्यू यॉर्क टाइम्स मैगज़ीन कहती है: “बायोलॉजिस्ट, सॆल के और उसकी सभी क्रियाओं के बारे में बहुत ही कम जानते हैं। इंसान के शरीर का सॆल इतना छोटा है कि वह दिखाई नहीं देता, मगर उसमें 1,00,000 जीन्स होते हैं, जिनमें से लगभग 30,000 जीन्स हर वक्‍त काम करते रहते हैं।”

टाइम्स मैगज़ीन पूछती है कि “इतनी छोटी-सी और इतनी पेचीदा मशीन को हम कैसे समझ पाएँगे? और मान लो की हमने खूब मेहनत करके एक सॆल को पूरी तरह अगर समझ भी लिया, तो शरीर के बाकी 200 अलग-अलग किस्म के सॆलों का क्या?”

नेचर मैगज़ीन में एक लेख छपा था: “कुदरत की सबसे बेहतरीन मोटर।” इस लेख में बताया गया था कि शरीर के हर सॆल में छोटी-छोटी मोटर होती हैं। जब ये मोटर घूमती हैं, तो इनसे एक रसायन (adenosine triphosphate) तैयार होता है, जो सॆल को ऊर्जा देता है। एक वैज्ञानिक कहता है: “हमें सबसे ज़्यादा खुशी तब होगी जब हम सॆल की मोटरों को बनाना सीख लेंगे।”

सॆल की एक और खूबी है कि यह दूसरे सॆल को जन्म भी देता है! जब एक सॆल दूसरे सॆल को जन्म देता है, तो जो जानकारी उसके DNA में होती है, बिलकुल वही जानकारी वह नए सॆल के DNA में डाल देता है। हमारे शरीर में लगभग एक हज़ार खरब सॆल होते हैं, और अगर हम एक सॆल के DNA में रखी जानकारी को लिख दें, तो करीब दस लाख पन्‍ने भर जाएँगें! हमारे शरीर के सॆलों में इतनी सारी जानकारी कहाँ से आयी? अपने आप आयी या इसे एक ऐसे रचनाकार ने रचा है जो बहुत ही बुद्धिमान है?

शायद आपका जवाब भी वही होगा जो जीव-विज्ञानी रस्सल चार्ल्स आर्टिस्ट का था, उसने कहा: “हमें यह कबूल करना ही होगा कि जीवित सॆल को बनाने में और उन्हें चलाने में ज़रूर एक बुद्धिमान हस्ती का हाथ है। वरना हम इसी उलझन में पड़े रहेंगे कि सॆल की शुरुआत कैसे हुई। और यह समझना न सिर्फ बेहद मुश्‍किल है, बल्कि नामुमकिन है।”

आला दर्ज़े की व्यवस्था

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में जिऑलॉजी के प्रॉफॆसर रह चुके कर्टली एफ. मेथर ने कहा था: “इस ब्रह्‍मांड को बनानेवाले के दिमाग की हमें दाद देनी चाहिए, क्योंकि सारे ब्रह्‍मांड में हम आला दर्ज़े की व्यवस्था देखते हैं। कुदरत में ऐसी व्यवस्था की एक बेहतरीन मिसाल है पिरियॉडिक टेबल, जो दिखाता है कि पृथ्वी पर पाए जानेवाले हर मूल-तत्व के ‘ऎटम’ में एक सुंदर ऑर्डर है, और हर मूल-तत्व के ऎटम का एक ऎटॉमिक नंबर है।” यह ऑर्डर या व्यवस्था यही साबित करती है कि यह ब्रह्‍मांड अपने-आप नहीं आया।

अब आइए ज़रा हम “पिरियॉडिक टेबल” पर एक नज़र डालें। पुराने ज़माने में लोगों को सिर्फ कुछ ही मूल-तत्वों * की जानकारी थी, जैसे सोना, चाँदी, ताँबा, टिन और लोहा। मध्य युग में आर्सनिक, बिसमथ और ऐंटिमनी जैसे मूल-तत्वों का पता चला, और 1700 के दौरान और कई मूल-तत्वों का पता लगाया गया। 1863 में एक मशीन की मदद से 63वाँ मूल-तत्व, इंडियम का पता लगाया गया।

रूस के रसायन-शास्त्री दिमित्री इवानोविच मैंडेलिफ ने पहला पिरियॉडिक टेबल बनाया और कहा कि इन मूल-तत्वों को यूँ ही नहीं बनाया गया, बल्कि इन्हें एक व्यवस्था में बनाया गया है। उन्होंने मार्च 18,1869 में रशियन कॆमिकल सोसाइटी को अपनी एक रिपोर्ट दी जिसका विषय था ‘मूल-तत्वों की व्यवस्था।’ इस रिपोर्ट में उन्होंने कहा: ‘इन मूल-तत्वों को जिस व्यवस्था में बनाया गया है, और इनके पीछे जो नियम हैं, उन्हीं के आधार पर मैं एक टेबल बनाना चाहता हूँ।’

अपने पिरियॉडिक टेबल के आधार पर उन्होंने दावा किया: “भविष्य में कई नए मूल-तत्वों की खोज की जाएगी। ये मूल-तत्व ऐल्यूमिनियम और सिलिकॉन की तरह होंगे और उनका ऎटॉमिक नंबर 65 और 75 के बीच होगा।” मैंडेलिफ ने अपने टेबल में 16 नए मूल-तत्वों के लिए खाली जगह छोड़ी। जब उनसे इस दावे का सबूत माँगा गया, तो उन्होंने जवाब दिया: ‘हमें किसी सबूत की ज़रूरत नहीं है। कुदरत के नियम कभी नहीं बदलते।’ उन्होंने आगे कहा: “जब नए मूल-तत्वों की खोज हो जाएगी, तब लोगों को मेरी बात पर यकीन हो जाएगा।”

और ऐसा ही हुआ! एन्सायक्लोपीडिया अमेरिकाना कहती है “अगले 15 सालों में गैलियम, स्कैंडियम और जर्मेनियम की खोज हुई। ये मूल-तत्व ऐल्यूमिनियम और सिलिकॉन की तरह थे और उनके ऎटॉमिक नंबर मैंडेलिफ द्वारा बताई गई संख्या से बहुत मिलते-जुलते थे। इन खोजों ने मैंडेलिफ के पिरियॉडिक टेबल को सही साबित किया और मैंडेलिफ का नाम भी रोशन किया।” 20वीं सदी की शुरूआत तक सभी मूल-तत्वों की खोज कर ली गई।

क्या यह व्यवस्था अपने आप हुई? रिसर्च कॆमिस्ट एल्मर मॉरर कहते हैं, “इन मूल-तत्वों की सुंदर व्यवस्था के पीछे ज़रूर किसी का हाथ है।” रसायन-शास्त्र के प्रॉफॆसर जॉन क्लीवलैंड कॉथ्रैन कहते हैं कि “मैंडेलिफ ने जिन नए मूल-तत्वों के बारे में बताया था उनकी खोज ज़रूर हुई। इससे पता चलता है कि मूल-तत्वों की व्यवस्था अपने-आप नहीं हुई, बल्कि यह व्यवस्था नियमों पर आधारित है। इसीलिए यह पिरियॉडिक लॉ, या नियम कहलाता है।”

केंब्रिज यूनिवर्सिटी के फिज़िसिस्ट पी. ए. एम. डिरैक ने इन मूल-तत्वों की व्यवस्था की बहुत ही बारीकी से स्टडी की है। इसके बारे में वे कहते हैं: “परमेश्‍वर व्यवस्था करने में बहुत ही महान है और उसने ब्रह्‍मांड की हर चीज़ को आला दर्ज़े की व्यवस्था के साथ बनाया है।”

मॉलिक्यूल, ऎटम और सॆल जैसी छोटी-से-छोटी चीज़ों को देखकर, या अरबों-खरबों तारों से भरी हमारी गैलॆक्सी को देखकर वाकई हम हैरान रह जाते हैं! इनके बारे में हमें जितनी ज़्यादा जानकारी मिलती है, हमें उतना ही ज़्यादा एहसास होता है कि हम कितना कम जानते हैं! इन्हें देखकर आपको क्या लगता है? क्या आपको इन सब में एक बुद्धिमान सृजनहार की झलक दिखती है? क्या आप वो देख सकते हैं जो आपकी आँखें नहीं देख सकतीं?

[फुटनोट]

^ कुदरत में सिर्फ 88 ऐसे मूल-तत्व पाए जाते हैं जिनमें सिर्फ एक ही किस्म के ‘ऎटम’ होते हैं।

[पेज 5 पर बक्स/तसवीरें]

घोड़े की तेज़ रफ्तार

घोड़े की रफ्तार बहुत ही तेज़ होती है। इसलिए 19वीं सदी में इस बात पर लोगों में बहुत वाद-विवाद हुआ करता था कि जब घोड़ा दौड़ता है, तब क्या कभी ऐसा होता है कि उसके चारों पैर ज़मीन से ऊपर रहते हों। 1872 में एडवर्ड माइब्रिज ने फोटो खींचने की नयी तकनीक अपनायी, जिसे आगे चलकर फिल्में बनाने के लिए भी इस्तेमाल किया गया। उसने जो फोटो खींचे, उससे यह विवाद खत्म हो गया।

माइब्रिज ने घोड़े के ट्रैक के पास, थोड़ी-थोड़ी दूरी पर 24 कैमरे लगाए। उसने हर कैमरे के बटन पर एक डोरी बाँधी, और उनके दूसरे सिरे को ट्रैक के पार बाँध दिया। जैसे-जैसे घोड़ा दौड़ता और हर डोरी से उसका पैर टकराता, वैसे-वैसे फोटो खिंचते चले जाते। इस तरह एक-के-बाद-एक 24 फोटो खींचे गए, जिन्हें देखने पर साफ पता चला कि कभी-कभी घोड़े के चारों पैर हवा में होते हैं।

[चित्र का श्रेय]

Courtesy George Eastman House

[पेज 7 पर तसवीर]

बर्फ पानी पर तैरती क्यों है, डूबती क्यों नहीं?

[पेज 7 पर तसवीर]

डी एन ए के मॉलिक्यूल का आकार 1 मिलीमीटर के 4 लाखवें हिस्से के जितना होता है। मगर उसमें दर्ज जानकारी से दस लाख पन्‍ने भर सकते हैं

[चित्र का श्रेय]

डी एन ए के मॉलिक्यूल का कंप्यूटर मॉडॆल: Donald Struthers/Tony Stone Images

[पेज 8 पर तसवीर]

हमारे शरीर में एक हज़ार खरब सॆल होते हैं, और हर सॆल के अंदर सही मात्रा में और सही समय में दसियों हज़ार कॆमिकल रिएक्शन होते हैं

[चित्र का श्रेय]

Copyright Dennis Kunkel, University of Hawaii

[पेज 9 पर तसवीरें]

रूस के रसायन-शास्त्री मैंडेलिफ ने कहा कि सभी मूल-तत्वों को यूँ ही नहीं बनाया गया, बल्कि इन्हें एक व्यवस्था में बनाया गया है

[चित्र का श्रेय]

Courtesy National Library of Medicine