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जो हमारी आँखें देख नहीं सकतीं

जो हमारी आँखें देख नहीं सकतीं

जो हमारी आँखें देख नहीं सकतीं

हवा में छोटे-छोटे कण उड़ते रहते हैं, जिन्हें हम देख नहीं पाते। मगर खिड़की से आनेवाली धूप में हम उन कणों को साफ-साफ देख पाते हैं।

सूरज की रोशनी या कोई भी प्रकाश हमें सफेद या बेरंगा नज़र आता है। मगर यह दरअसल सात रंगों से मिलकर बना होता है। इसीलिए जब सूरज की रोशनी हवा में उड़ती पानी की छोटी-छोटी बूँदों से होकर गुज़रती है, तो उसके सातों रंग हमें इंद्रधनुष के रूप में दिखायी देते हैं!

दरअसल, किसी वस्तु का रंग इस बात पर निर्भर करता है कि वस्तु पर प्रकाश पड़ने के बाद वह वस्तु किस रंग को रिफ्लैक्ट करती है। घास हमें इसलिए हरी दिखती है क्योंकि घास प्रकाश के बाकी सभी रंगों को छोड़ सिर्फ हरे रंग को रिफ्लैक्ट करती है।

नयी-नयी खोजों से मिली मदद

नए-नए अविष्कारों की बदौलत आज इंसान ऐसी चीज़ें देख पाता है, जिन्हें उसने पहले कभी नहीं देखा था। पानी की एक बूँद यूँ तो निर्जीव दिखाई देती है, मगर माइक्रोस्कोप से देखने पर उसमें हज़ारों कीटाणु घुमते नज़र आएँगे। और हमारे बाल जो छूने पर बहुत ही कोमल लगते हैं, मगर माइक्रोस्कोप में एकदम रूखे और खुरदरे नज़र आएँगे। आप एक पावरफुल माइक्रोस्कोप में किसी-भी चीज़ को उसके असली आकार से दस लाख गुना बड़ा करके देख सकते हैं, यानी एक डाक-टिकट को दिल्ली से सात गुना बड़ा करके देखा जा सकता है! आज तो इससे भी ज़्यादा पावरफुल माइक्रोस्कोप बने हैं, जिनसे आप किसी भी चीज़ के छोटे-से-छोटे कण, यानी ऎटम (परमाणु) को देख सकते हैं।

अब आइए हम दूरबीनों या टॆलिस्कोप की बात करें, जिनका अविष्कार करीब 400 साल पहले हुआ था। रात में हम अपनी आँखों से ज़्यादा-से-ज़्यादा चार-पाँच हज़ार तारे देख सकते हैं, मगर दूरबीनें तो अंतरिक्ष के अरबों-खरबों तारों को हमारे सामने लाकर खड़ा कर देती हैं। 1920 के बाद से अमरीका में लगी एक दूरबीन से देखा गया कि हमारी गैलॆक्सी (मंदाकिनी) के अलावा अंतरिक्ष में और भी कई गैलॆक्सियाँ हैं, और हर गैलॆक्सी में अरबों तारे हैं। आज बेहतरीन दूरबीनों की बदौलत वैज्ञानिक कहते हैं कि अंतरिक्ष में दस अरब से ज़्यादा गैलॆक्सियाँ हैं, जिनमें से कई गैलॆक्सियों में सौ अरब से ज़्यादा तारे हैं!

हमारा सौर-मंडल जिस गैलॆक्सी का भाग है, उसका नाम है ‘द मिल्की वे’ या आकाश-गंगा। दरअसल अंतरिक्ष में यह टिमटिमाते तारों की एक दूधिया नदी-सी दिखायी देती है, जिसमें खरबों तारे एकदम पास-पास नज़र आते हैं। मगर दूरबीनों से देखने पर पता चलता है कि हर तारे के बीच इतना ज़्यादा फासला है कि हम सोच भी नहीं सकते। उसी तरह, पावरफुल माइक्रोस्कोप में देखने पर पता चलता है कि कोई भी वस्तु अनगिनत ‘ऎटम’ से बनी होती है, और हर ऎटम में ‘बेहिसाब खाली जगह’ होती है।

ऎटम

किसी-भी वस्तु के सबसे छोटे-से-छोटे कण में भी दस अरब से ज़्यादा ‘ऎटम’ होते हैं। और 1897 में यह पता लगाया गया कि ‘ऎटम’ के अंदर भी कुछ छोटे-छोटे इलॆक्ट्रॉन होते हैं, जो उसमें चक्कर काटते रहते हैं। ‘ऎटम’ के ठीक बीच में न्यूक्लियस (नाभिक) होता है, जो न्यूट्रॉन और प्रोट्रॉन से बना होता है। इस पृथ्वी की हर चीज़ 88 मूल-तत्वों (elements) से बनी होती है। सभी मूल-तत्वों के ‘ऎटम’ का आकार लगभग एक-जैसा होता है, मगर हर मूल-तत्व के ऎटम का वज़न अलग-अलग होता है, क्योंकि किसी मूल-तत्व के ऎटम में कम इलॆक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोट्रॉन होते हैं, तो किसी में ज़्यादा।

इलॆक्ट्रॉन एक सेकंड में अरबों अरब बार न्यूक्लियस का चक्कर काटता है और इस वजह से ऎटम को एक आकार मिलता है और वह ऐसा दिखता है मानो कोई ठोस चीज़ हो। 1,840 इलॆक्ट्रॉन मिलकर एक न्यूट्रॉन या प्रोट्रॉन के आकार के बराबर होते हैं। प्रोट्रॉन और न्यूट्रॉन, दोनों का आकार ‘ऎटम’ से करीब 1 लाख गुणा छोटा होता है!

न्यूक्लियस और इलॆक्ट्रॉन के बीच बहुत खाली जगह होती है। मिसाल के तौर पर हाईड्रोजन के ऎटम को लीजिए। अगर उसका न्यूक्लियस क्रिकेट की गेंद जितना हो, तो उसका इलॆक्ट्रॉन 3 किलोमीटर दूर से उसका चक्कर काटेगा!

इलॆक्ट्रॉन की खोज की सौवीं वर्षगाँठ पर एक रिपोर्ट में कहा गया: “इलॆक्ट्रॉन सिर्फ एक इलॆक्ट्रिक चार्ज है, और लट्टू की तरह घूमता है। उसका न तो निश्‍चित आकार है, ना कोई खास वज़न, और ना ही कोई उसे आँखों से देख सकता है, फिर भी उसके अस्तित्त्व पर कोई शक नहीं करता। इसीलिए हम इसकी वर्षगाँठ मना रहे हैं।”

ऎटम से भी छोटी चीज़ें

आज ऐसी मशीनें बन चुकी हैं जिनके द्वारा ‘ऎटम’ को तोड़कर उसके अंदर के न्यूक्लियस के बारे में ज़्यादा जानकारी हासिल की जा सकती है। इसीलिए अब हमें ऐसी नयी-नयी चीज़ों का पता चल रहा है, जैसे पॉज़िट्रॉन, फोटॉन, मीसॉन, क्वार्क, ग्लूऑन, वगैरह-वगैरह। इन्हें सबसे शक्‍तिशाली माइक्रोस्कोप में भी नहीं देखा जा सकता। मगर ‘क्लाउड चेंबर, बबल चेंबर, और सिंटिलेशन काउँटर’ जैसी आधुनिक मशीनों से इनका पता लगाया गया है।

आज वैज्ञानिक मशीनों की बदौलत वो देख सकते हैं जो आँखों से नहीं देखा जा सकता। रिसर्च करने पर वैज्ञानिकों ने पाया है कि पूरा ब्रह्‍मांड चार खास शक्‍तियों पर चलता है—गुरुत्वाकर्षण, इलॆक्ट्रोमैग्नेटिक फोर्स, वीक न्यूक्लियर फोर्स और स्ट्रौंग न्यूक्लियर फोर्स। आज वैज्ञानिक एक ऐसे फॉर्मूले की तलाश में लगे हुए हैं, जिसके द्वारा वे समझा सकेंगे कि ब्रह्‍मांड की हर चीज़ में ये चारों शक्‍तियाँ कैसे काम करती हैं।

जो चीज़ें हम आँखों से नहीं देख सकते, उन्हें देखकर हम क्या सीख सकते हैं? इनकी स्टडी करनेवाले वैज्ञानिकों का क्या कहना है? इन सवालों के जवाब अगले लेखों में देखिए।

[पेज 3 पर तसवीरें]

निकेल (ऊपर) और प्लैटिनम के ऎटम

[चित्र का श्रेय]

Courtesy IBM Corporation, Research Division, Almaden Research Center