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दोष की भावनाएँ—क्या ये हमेशा बुरी होती हैं?

दोष की भावनाएँ—क्या ये हमेशा बुरी होती हैं?

बाइबल का दृष्टिकोण

दोष की भावनाएँक्या ये हमेशा बुरी होती हैं?

आज बहुत-से लोगों का मानना है कि दोष की भावनाएँ होना ठीक नहीं है। वे जर्मन तत्वज्ञानी, फ्रेडरिक निट्‌ज़शे की तरह सोचते हैं जिसने कहा: “दोष की भावना, आज तक इंसान को पीड़ित करनेवाली सबसे भयानक बीमारी है।”

लेकिन कुछ खोजकर्ता अब एक अलग ही नतीजे पर पहुँचे हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त थॆरपिस्ट और लेखिका, सूज़न फॉरवर्ड कहती हैं: “दोष की भावना एक संवेदनशील और ज़िम्मेदार इंसान की पहचान हैं।” “यह एक तरीका है जिससे हम जान सकते हैं कि हमारा विवेक अभी-भी काम कर रहा है।” तो क्या कहा जा सकता है कि दोष की सभी भावनाएँ गलत होती हैं? क्या कुछ ऐसे हालात भी हैं जिनमें दोष की भावनाएँ मददगार साबित हो सकती हैं?

दोष की भावना क्या है?

दोष की भावना मन में तब पैदा होती है जब हमें एहसास होता है कि हमने अपने किसी अज़ीज़ का दिल दुखाया है या उन स्तरों पर चलने में नाकाम हो गए हैं, जिन पर हमें चलना चाहिए था। एक किताब के मुताबिक दोष की भावना “कर्ज़दार होने की भावना है जो एक इंसान में तब पैदा होती है जब वह किसी काम में नाकाम हो जाता है, किसी को चोट पहुँचाता है, अपराध या पाप कर बैठता है।

बाइबल के इब्रानी शास्त्र की आयतों में परमेश्‍वर के नियमों पर नहीं चलनेवालों को दोषी बताया गया है। ऐसी ज़्यादातर आयतें लैव्यव्यवस्था और गिनती की किताबों में पायी जाती हैं। दिलचस्पी की बात है कि यूनानी शास्त्र में शब्द दोष का बहुत ही कम ज़िक्र है। और जिन इक्का-दुक्का आयतों में यह शब्द है, वह भी परमेश्‍वर के खिलाफ किए जानेवाले गंभीर पापों के संबंध में हैं।—मरकुस 3:29; 1 कुरिन्थियों 11:27.

अफसोस की बात है कि हम कभी-कभी बिना कोई गलती किए भी, खुद को दोषी महसूस करने लगते हैं! मिसाल के लिए, ऐसे इंसान को लीजिए जिसमें हर काम बिना किसी खोट के करने का जुनून रहता है और वह खुद से हद-से-ज़्यादा की उम्मीद करता है। हर बार जब वह कोई कमी देखता है तो बेवजह खुद को बहुत ज़्यादा दोषी मानने लगता है। (सभोपदेशक 7:16) या हो सकता है, हम बहुत पहले की अपनी किसी गलती पर मन में आनेवाली खेद की भावना को इतना बढ़ जाने दें कि हम शर्मिंदा महसूस करने लगें और खुद को बेवजह सज़ा देने लगें। तो क्या दोष की भावनाओं से कोई फायदा हो सकता है?

दोष की भावनाएँ फायदेमंद भी हो सकती हैं

दोष की भावनाओं से कम-से-कम तीन फायदे होते हैं। पहला, यह दिखाता है कि हमें उन स्तरों पर चलने का एहसास है जो सही हैं। इससे ज़ाहिर होता है कि हमारा विवेक अभी-भी काम कर रहा है। (रोमियों 2:15) अमरीकन साइकियाट्रिक असोसियेशन ने एक किताब प्रकाशित की जिसमें बताया गया है कि दोष की भावना का ना होना समाज के लिए खतरा हो सकता है। जो अपना ज़मीर बेच देते हैं या जिनका ज़मीर मर चुका है वे सही-गलत के बीच फर्क नहीं कर सकते और इसका अंजाम बहुत खतरनाक हो सकता है।—तीतुस 1:15,16.

दूसरी बात यह है कि जब हमारा विवेक हमें कचोटता है, तो हम बुरे कामों से दूर रहेंगे। जिस तरह हमारे शरीर में होनेवाला दर्द हमें अपने अंदर पैदा होनेवाली किसी बीमारी से सावधान करता है, उसी तरह दोष की भावना से होनेवाला दुःख हमें अपने अंदर पनपनेवाली नैतिक या आध्यात्मिक समस्या से सावधान करता है। जब हमें अपनी कमज़ोरी का एहसास हो जाएगा, तो हम फिर कभी ऐसा कोई काम करने से बचेंगे जिससे हमें, हमारे अज़ीज़ों और दूसरों को ठेस पहुँच सकती है।—मत्ती 7:12.

तीसरा फायदा यह है कि, दोष की भावनाएँ ज़ाहिर करने से ना सिर्फ दोषी व्यक्‍ति को बल्कि उसने जिसे ठेस पहुँचायी है, उसे भी फायदा हो सकता है। उदाहरण के लिए, राजा दाऊद को दोष की भावनाओं की वजह से मन में गहरी वेदना होने लगी थी। उसने लिखा: “जब मैं चुप रहा तब दिन भर कहरते कहरते मेरी हड्डियां पिघल गईं।” मगर आखिर में, उसने परमेश्‍वर के सामने अपने पाप को कबूल करते हुए खुशी से यह गीत गाया: “तू मुझे चारों ओर से छुटकारे के गीतों से घेर लेगा।” (भजन 32:3,7) जब दोषी व्यक्‍ति अपनी गलती मान लेता है, तो जिसे उसने दुःख दिया, वह भी अच्छा महसूस करेगा क्योंकि उसे यकीन होगा कि वह व्यक्‍ति उससे इतना प्यार करता है कि वह उसे ठेस पहुँचाने की वजह से मन में बहुत दुःखी है।—2 शमूएल 11:2-15.

दोष की भावनाओं के बारे में एक सही नज़रिया

दोष की भावना के बारे में सही नज़रिया जानने के लिए ध्यान दीजिए कि पापियों और पाप के बारे में यीशु और फरीसियों के नज़रिए में कितना बड़ा फर्क था। लूका 7:36-50 में हम एक बदचलन स्त्री के बारे में पढ़ते हैं जो एक फरीसी के घर में आयी थी, जहाँ यीशु दावत पर आया हुआ था। उसने यीशु के पास जाकर अपने आँसुओं से उसके पैर धोए और उन पर एक कीमती इत्र लगाया।

धार्मिक होने का ढोंग करनेवाले फरीसी ने उस स्त्री को नीच समझा और सोचा कि उस औरत पर ध्यान देना उसकी शान के खिलाफ है और वक्‍त बरबाद करना है। उसने खुद से कहा: “यह [यीशु] भविष्यद्वक्‍ता होता तो जान जाता, कि यह जो उसे छू रही है, वह कौन और कैसी स्त्री है? क्योंकि वह तो पापिनी है।” (लूका 7:39) यीशु ने तुरंत उसकी सोच को दुरुस्त किया। उसने कहा: “तू ने मेरे सिर पर तेल नहीं मला; पर इस ने मेरे पांवों पर इत्र मला है। इसलिये मैं तुझ से कहता हूं; कि इस के पाप जो बहुत थे, क्षमा हुए; क्योंकि इस ने बहुत प्रेम किया।” इसमें शक नहीं कि यीशु के ऐसी तसल्ली देनेवाली बातों से उस स्त्री का हौसला मज़बूत हुआ और उसके मन का बोझ हलका हुआ।—लूका 7:46,47.

इसका मतलब यह नहीं कि यीशु अनैतिकता को जायज़ ठहराने की कोशिश कर रहा था। इसके बजाए, वह उस घमंडी फरीसी को यह सबक सिखा रहा था कि परमेश्‍वर की सेवा करने के लिए प्यार से बढ़कर कोई और प्रेरणा नहीं हो सकती। (मत्ती 22:36-40) बेशक उस स्त्री के लिए अपने पिछले पापों की वजह से दोषी महसूस करना सही था। ज़ाहिर है कि उसने पश्‍चाताप किया था, क्योंकि वह रोयी और उसने अपने बुरे चालचलन को सही ठहराने की कभी कोशिश नहीं की और उसने सबके सामने यीशु का आदर करने के लिए सही कदम उठाया। यह देखकर यीशु ने उससे कहा: “तेरे विश्‍वास ने तुझे बचा लिया है, कुशल से चली जा।”—लूका 7:50.

दूसरी तरफ, फरीसी उस स्त्री को पापी जानकर उसे नीच समझता रहा। शायद वह उस स्त्री को परमेश्‍वर के सामने उसकी जवाबदेही का पूरा-पूरा एहसास दिलाना चाहता था और उसे बुरी तरह दोषी महसूस कराना चाहता था। लेकिन जब दूसरे हमारी पसंद के मुताबिक काम नहीं करते हैं, तो उन्हें बार-बार दोषी महसूस कराना गलत होगा और बाद में चलकर उसका नतीजा बहुत बुरा होगा। (2 कुरिन्थियों 9:7) एक व्यक्‍ति को हम सबसे ज़्यादा फायदा तब पहुँचा सकते हैं जब हम यीशु का अनुकरण करेंगे, यानी उनके लिए सही आदर्श रखेंगे, सच्चे दिल से उनकी तारीफ करेंगे और कभी-कभी उन्हें ताड़ना और सलाह देते वक्‍त भी हम भरोसा ज़ाहिर करेंगे कि वे सुधार कर सकते हैं।—मत्ती 11:28-30; रोमियों 12:10; इफिसियों 4:29.

तो फिर, कुछ गलती कर देने पर दोष की भावना होना अच्छा हो सकता है, यहाँ तक कि ज़रूरी भी हो सकता है। नीतिवचन 14:9 कहती है: “मूढ़ लोग दोषी होने को ठट्ठा जानते हैं।” हमारे ज़मीर को हमें अपनी गलती कबूल करने और पश्‍चाताप दिखाने के लिए सही कदम उठाने के लिए उकसाना चाहिए। लेकिन यहोवा की सेवा करने का सबसे ज़रूरी कारण दोष की भावना नहीं बल्कि उसके लिए प्यार होना चाहिए। (अय्यूब 1:9-11; 2:4,5) बाइबल हमें भरोसा दिलाती है कि जब इस बात को ध्यान में रखते हुए नेक दिल के लोगों को सही काम करने के लिए उकसाया जाए और उनके दिल को विश्राम दिया जाए, तो वे अपने अंदर सुधार करने के लिए हर मुमिकिन कोशिश करेंगे। और सबसे बढ़कर वे इसे करने में खुशी पाएँगे।—मत्ती 11:28-30.

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