पढ़ाना—कीमत और खतरे
पढ़ाना—कीमत और खतरे
“आम जनता, पढ़ानेवालों से उम्मीद तो बहुत करती है, मगर हमारे स्कूलों में जी-जान लगाकर पढ़ानेवाले टीचरों की . . . मेहनत के लिए खुलकर उनकी सराहना नहीं करती।”—केन एलटिस, सिडनी विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पढ़ाने के इस काम में जिसे “बेहद ज़रूरी पेशा” कहा गया है, टीचरों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। एक तो तनख्वाह कम, ऊपर से क्लासरूम में अच्छे माहौल की कमी; कागज़ों पर ढेर सारा काम और बच्चों से खचाखच भरी क्लासें; बच्चों की बदतमीज़ी और मार-पीट के साथ-साथ उनके माता-पिता का विरोध। इन चुनौतियों का कुछ टीचर कैसे सामना करते हैं?
इज़्ज़त न देना
हमने न्यू यॉर्क शहर के चार टीचरों से पूछा कि उनकी राय में सबसे बड़ी समस्याएँ क्या हैं। उन सबका एक ही जवाब था: “हमारी इज़्ज़त नहीं की जाती।”
केन्या के रहनेवाले विलियम के मुताबिक, टीचरों को इज़्ज़त देने के मामले में अफ्रीका का माहौल भी बदल गया है। उसने कहा: “बच्चों में अनुशासन कम होता जा रहा है। जब मैं बड़ा हो रहा था [उसकी उम्र अब 40 साल से ऊपर है], तब अफ्रीका में टीचर, उन लोगों में गिने जाते थे जिनकी समाज में सबसे ज़्यादा इज़्ज़त की जाती थी। छोटे-बड़े सभी, टीचर को आदर्श मानते थे। लेकिन आज उनके लिए आदर की यह भावना कम होती जा रही है। जवानों पर धीरे-धीरे पश्चिमी सभ्यता असर कर रही है, यहाँ तक कि अफ्रीका के ग्रामीण इलाकों में रहनेवाले जवानों पर भी। फिल्मों, वीडियो और किताबों-पत्रिकाओं में, अधिकार के पद पर बैठे लोगों का अनादर करना, ऐसे दिखाया जाता है मानो वह कोई बहादुरी का काम हो।”
जूलियानो, जो इटली में टीचर है, दुःख के साथ कहता है: “बगावत करने, किसी के अधीन न रहने और कानून तोड़ने का जो रवैया आज समाज में फैल गया है, उसका असर बच्चों पर भी पड़ रहा है।”
ड्रग्स और हिंसा
बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि ड्रग्स स्कूलों की एक समस्या बन चुकी है। और यह समस्या इतनी बड़ी है कि अमरीका की एक टीचर और लेखिका, लूएन जॉनसन लिखती है: “नशीली दवाओं से बचने की शिक्षा, किंडरगार्टन से लेकर स्कूल के हर पाठ्यक्रम में है। [तिरछे टाइप हमारे।] बड़ों से ज़्यादा . . . बच्चों को नशीली दवाओं के बारे में जानकारी होती है।” वह आगे लिखती है: “जिन विद्यार्थियों में आत्म-विश्वास की कमी होती है या जो सोचते हैं कि उन्हें कोई प्यार नहीं करता, जो बिलकुल अकेला महसूस करते हैं, बोर हो जाते हैं या कुछ डरा-डरा-सा महसूस करते हैं उनके लिए ड्रग्स आज़माने की संभावना ज़्यादा रहती है।”—दो भाग पाठ्यपुस्तक, एक भाग प्यार (अँग्रेज़ी)।
ऑस्ट्रेलिया के एक टीचर, कॆन ने पूछा: “नौ साल के जिस बच्चे को खुद उसके माँ-बाप ने ड्रग्स लेना सिखाया है और जिसे अब उनकी लत पड़ चुकी है, उसे टीचर भला कैसे पढ़ा सकते हैं?” मिकाएल, जो 30 की उम्र पार कर चुका है, जर्मनी के एक ऐसे स्कूल में टीचर है, जहाँ बच्चों को कई विषय पढ़ाए जाते हैं। वह लिखता है: “जहाँ तक ड्रग्स लेने और इन्हें बेचने की बात है, हम अच्छी तरह जानते हैं कि यह स्कूल में बहुत आम है; लेकिन जो इसमें शामिल हैं वे पकड़ में नहीं आते।” इसके अलावा, वह स्कूल में अनुशासन की कमी के बारे में कहता है कि यह “इस बात से झलकती है कि विद्यार्थियों में तोड़-फोड़ करने का रवैया आम है। टेबलों और दीवारों पर कुछ-न-कुछ चिपका दिया जाता है और फर्नीचर को नुकसान पहुँचाया जाता है। मेरे कुछ विद्यार्थियों को दुकानों से चोरी करने और ऐसे दूसरे अपराधों के इलज़ाम में पुलिस ने गिरफ्तार किया है या उनसे पूछताछ की है। ताज्जुब नहीं कि स्कूल में भी आए दिन चोरियाँ होती हैं!”
मैक्सिको के ग्वानावातो राज्य की एक टीचर, अमीरा यह कबूल करती है: “परिवार में होनेवाले लड़ाई-झगड़ों और ड्रग्स लेने का बच्चों पर सीधा असर होता है, और इनसे पैदा होनेवाली समस्याओं का सामना हम टीचरों को करना पड़ता है। बच्चे ऐसे माहौल से घिरे होते हैं, जिसमें वे गंदी भाषा बोलना और दूसरी
बुराइयाँ सीखते हैं। दूसरी बड़ी समस्या है, गरीबी। कहने को तो यहाँ मुफ्त में पढ़ाया जाता है, मगर माँ-बाप को नोटबुक, पेन और पढ़ाई के लिए दूसरी चीज़ें खरीदनी पड़ती हैं। लेकिन इससे ज़्यादा ज़रूरी है, परिवार का पेट भरना।”स्कूल में बंदूकें?
अमरीका के स्कूलों में, हाल ही में हुई गोली-बारी से यह बात सामने आयी कि उस देश में बच्चों के हाथों बंदूकों से होनेवाली हिंसा की वारदातें बहुत बड़ी समस्या बन गयी हैं। एक रिपोर्ट बताती है: “यह अनुमान लगाया गया है कि अमरीका के 87,125 सरकारी स्कूलों में हर दिन 1,35,000 बंदूकें लायी जाती हैं। बंदूकों की संख्या कम करने के लिए, स्कूल के अधिकारी मेटल डिटेक्टर इस्तेमाल करते हैं, कैमरों से विद्यार्थियों पर नज़र रखी जाती है और ऐसे कुत्तों का इस्तेमाल किया जाता है, जिन्हें सूँघकर बंदूकों का पता लगाने की खास ट्रेनिंग दी गयी हो। साथ ही, बच्चों के लॉकर की तलाशी ली जाती है, उनके पहचान-पत्र देखे जाते हैं और किताबों को बैग में लाने पर मनाही कर दी गयी है।” (अमरीका में पढ़ाना, अँग्रेज़ी) सुरक्षा के ऐसे कड़े इंतज़ामों के बारे में सुनकर शायद कोई पूछे, हम स्कूल की बात कर रहे हैं या जेलखाने की? रिपोर्ट यह भी बताती है कि स्कूल में बंदूकें लाने की वजह से 6,000 से ज़्यादा विद्यार्थियों को स्कूल से निकाल दिया गया है!
न्यू यॉर्क शहर की एक टीचर, आइरिस ने सजग होइए! को बताया: “विद्यार्थी, स्कूल में चोरी-छिपे हथियार लाते हैं। इसलिए मेटल डिटेक्टरों की मदद से उन पर रोक लगाना मुमकिन नहीं है। तोड़-फोड़ करना, स्कूलों में एक और बड़ी समस्या है।”
अफरा-तफरी के इस माहौल में अपनी ज़िम्मेदारी समझनेवाले टीचर, बच्चों को पढ़ाने और उन्हें अच्छे आदर्श सिखाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। इसलिए ताज्जुब नहीं कि बहुत-से टीचर हताशा की भावनाओं से जूझ रहे हैं और काम के बोझ से पस्त हो रहे हैं। थुरिंगिया, जर्मनी में टीचर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष, रॉल्फ बुश ने कहा: “जर्मनी के दस लाख टीचरों में से लगभग एक-तिहाई जन, तनाव की वजह से बीमार हो जाते हैं। काम करते-करते उनका बुरा हाल हो जाता है।”
बच्चों के बच्चे
एक और गंभीर समस्या है, किशोरावस्था में लैंगिक संबंध रखना। अमरीका में पढ़ाना किताब के लेखक जॉर्ज एस. मॉरिसन, उस देश के बारे में कहते हैं: “हर साल करीब 10 लाख लड़कियाँ (जिनमें 11 प्रतिशत की उम्र 15 से 19 साल के बीच है) गर्भवती होती हैं।” सभी विकसित देशों में अमरीका में गर्भवती किशोरियों की दर सबसे ज़्यादा है।
इस बात का सबूत देते हुए, आइरिस ने कहा: “किशोरों में बातचीत का सबसे खास विषय है, लैंगिक संबंध और पार्टियाँ। उन पर इसका भूत सवार है। और अब तो स्कूल के कंप्यूटरों पर भी इंटरनेट मौजूद है! इसका मतलब है चैट ग्रूप और पोर्नोग्राफी के लिए उन्हें ज़्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं।” मॆड्रिड, स्पेन के आंकाल ने कहा: “सारी हदें पार करके बदचलनी करना, विद्यार्थियों के लिए एक आम बात बन गयी है। हमारे स्कूल में ऐसे मामले देखने में आए हैं जिनमें बहुत छोटी लड़कियाँ गर्भवती हुई हैं।”
“इज़्ज़तदार आयाएँ”
कुछ टीचरों की एक और शिकायत यह है कि बहुत-से माता-पिता, बच्चों को घर पर सिखाने की ज़िम्मेदारी नहीं निभाते। टीचर मानते हैं कि माता-पिता को ही सबसे पहले अपने बच्चों को सिखाना चाहिए। अच्छी आदतों और अदब-कायदे की शिक्षा घर से शुरू होनी चाहिए। इसलिए, अमेरिकन फॆडरेशन ऑफ टीचर्स की अध्यक्षा, सैन्ड्रा फेल्डमैन की इस बात से हमें ताज्जुब नहीं होता कि “टीचरों . . . के साथ दूसरे पेशेवर लोगों जैसा सलूक किया जाना चाहिए, न कि इज़्ज़तदार आयाओं की तरह।”
बच्चों को स्कूल में जो अनुशासन दिया जाता है, उसमें माँ-बाप अकसर सहयोग नहीं देते। पिछले लेख में बतायी गयी लीमारीस ने सजग होइए! को बताया: “अगर आप बदमाश बच्चों के बारे में प्रिंसिपल से शिकायत करते हैं, तो अगला कदम यही होगा कि माता-पिता आप पर बरस पड़ेंगे!” बुश, जिसका पहले ज़िक्र किया गया है, वह समस्या पैदा करनेवाले बच्चों के बारे में कहता है: “बच्चों को घर पर अच्छी तालीम देने का चलन अब खत्म होता जा रहा है। अब आप यह मानकर नहीं चल सकते कि ज़्यादातर बच्चे ऐसे परिवारों से हैं, जिनमें बच्चों की परवरिश सही तरीके से की जाती है।” मेन्डोज़ा, अर्जेंटाइना की एस्टेला कहती है: “हम टीचर, बच्चों से डरने लगे
हैं। अगर हम उन्हें कम नंबर दें, तो वे हमें पत्थरों से मारते हैं या हम पर हमला करते हैं। अगर हमारी कोई गाड़ी हो तो उसे नुकसान पहुँचाते हैं।”इसलिए क्या इसमें ताज्जुब करने की बात है कि कई देशों में टीचरों की कमी है? कार्नेगी कॉर्पोरेशन ऑफ न्यू यॉर्क के अध्यक्ष, वारतन ग्रेगोरियन ने चिताया: “अगले दशक में हमारे [अमरीका के] स्कूलों में करीब 25 लाख नए टीचरों की ज़रूरत पड़ेगी।” बड़े-बड़े शहर, “भारत, वॆस्ट इंडीज़, दक्षिण अफ्रीका, यूरोप और ऐसी किसी भी जगह से टीचरों को मँगाने की खूब कोशिश कर रहे हैं, जहाँ से वे मिल सकते हैं।” इसका मतलब यह है कि जिन जगहों से टीचरों को मँगाया जाएगा, वहाँ टीचरों की गिनती में कमी आएगी।
टीचरों की कमी क्यों है?
जापान की एक स्कूल टीचर, योशीनोरी जिसे 32 साल का तजुर्बा है, कहती है कि “पढ़ाना, बहुत ही गौरवपूर्ण काम है, जिसे नेक इरादे से किया जाता है। जापानी समाज में टीचरों की बहुत इज़्ज़त की जाती है।” लेकिन दुःख की बात है कि हर संस्कृति में टीचरों का इस तरह सम्मान नहीं किया जाता। ग्रेगोरियन भी, जिसका हवाला पहले दिया गया है, कहता है कि टीचरों को “ऐसी इज़्ज़त, ऐसी मान्यता और ऐसा मुआवज़ा नहीं दिया जाता, जैसे पेशेवरों को दिया जाना चाहिए। . . . [अमरीका] के ज़्यादातर राज्यों में बैचलर या मास्टर की डिग्रीवाली बाकी सभी नौकरियों की तुलना में टीचरों को सबसे कम तनख्वाह मिलती है।”
शुरूआत में ज़िक्र किए गए केन एलटिस ने लिखा: “जब टीचरों को पता चलता है कि ऐसी बहुत-सी नौकरियों में, जिनमें टीचर से कम योग्यताओं की ज़रूरत होती है, ज़्यादा तनख्वाह मिलती है, तब क्या होता है? या जिन विद्यार्थियों को उन्होंने सिर्फ बारह महीने पहले ही पढ़ाया था, . . . वे उनकी मौजूदा कमाई से या आनेवाले पाँच सालों में वे जितना कमाएँगे, उससे कहीं ज़्यादा कमाते हैं, तो टीचर कैसा महसूस करते हैं? इस हकीकत से टीचरों के अंदर हीन-भावना पनपने लगती है।”
विलियम एयर्स ने लिखा: “टीचरों को बहुत कम तनख्वाह मिलती है। . . . हमारी औसत कमाई, वकीलों की तनख्वाह की एक चौथाई है, अकाउन्टंट की कमाई से आधी, और ट्रक ड्राइवरों और बंदरगाह के मज़दूरों से भी कम है। . . . कोई और पेशा ऐसा नहीं जिसमें काम इतना लिया जाता हो और आमदनी इतनी कम होती हो। (पढ़ाना—एक टीचर का सफर) इसी विषय पर, अमरीका के भूतपूर्व अटॉर्नी जनरल, जॆनट रेनो ने नवंबर 2000 में कहा: “हम लोगों को चाँद पर भेज सकते हैं। . . . खिलाड़ियों को अच्छी तनख्वाहें दे सकते हैं। फिर हम टीचरों को अच्छी तनख्वाह क्यों नहीं दे सकते?”
लीमारीस ने कहा: “आमतौर पर टीचरों को बहुत कम तनख्वाह मिलती है। इतने सालों तक शिक्षा हासिल करने के बाद भी, मुझे इस न्यू यॉर्क शहर में सालाना तनख्वाह बहुत कम मिलती है। ऊपर से इस बड़े शहर की ज़िंदगी, हमेशा तनाव और मुश्किलों से भरी होती है।” रूस में सेंट पीटर्सबर्ग की टीचर, वालेनटीना ने कहा: “जहाँ तक आमदनी की बात है, टीचर के काम के लिए कोई कदरदानी नहीं दिखायी जाती। टीचरों को हमेशा कम-से-कम ठहरायी गयी तनख्वाह से भी कम तनख्वाह मिलती है।” चबूट, अर्जेंटाइना की मार्लीन भी ऐसा ही महसूस करती है: “कम तनख्वाह की वजह से हमें दो-तीन जगहों पर काम करना पड़ता है, हमेशा यहाँ से वहाँ भागना पड़ता है। इसलिए हम ढंग से काम नहीं कर पाते।” नैरोबी, केन्या के एक टीचर, आर्थर ने सजग होइए! को बताया: “अर्थ-व्यवस्था में आयी गिरावट की वजह से, टीचर के तौर पर मेरी ज़िंदगी बहुत मुश्किल रही है। मेरे साथ काम करनेवाले बहुत-से टीचर इस बात से सहमत होंगे कि हमेशा से ही लोग टीचर की नौकरी करने से इसलिए कतराते रहे हैं क्योंकि इसमें तनख्वाह बहुत कम है।”
न्यू यॉर्क शहर की एक टीचर, डायना ने शिकायत की कि टीचरों को कागज़ों पर इतना सारा काम रहता है कि उसी में घंटों निकल जाते हैं। एक और टीचर ने लिखा: “टीचर दिन में बार-बार वही काम करते हैं और लगातार वही करते रहते हैं।” टीचरों की एक आम शिकायत यह थी: “सुबह से शाम तक बैठकर, बेकार के ये फॉर्म भरते रहना।”
टीचर कम, बच्चे ज़्यादा
जर्मनी के ड्यूरेन शहर के बर्टोल्ड ने एक और बात कही जो टीचरों की आम शिकायत है: “कक्षाएँ बच्चों से खचाखच भरी पड़ी हैं! यहाँ की कुछ कक्षाओं में बच्चों की संख्या 34 तक है। इसलिए हम एक-एक बच्चे की समस्याओं पर ध्यान नहीं दे पाते। उन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। उनकी निजी ज़रूरतें पूरी नहीं की जातीं।”
लीमारीस, जिसका ज़िक्र पहले किया गया है, बताती है: “पिछले साल, लापरवाह माँ-बाप के अलावा मेरी सबसे बड़ी समस्या यह थी कि मेरी क्लास में 35 बच्चे थे। कल्पना कीजिए, छः साल की उम्र के 35 बच्चों को पढ़ाना कितना मुश्किल रहा होगा!”
आइरिस ने कहा: “यहाँ, न्यू यॉर्क में टीचरों की कमी है, खास तौर पर गणित और विज्ञान के लिए। लोगों को कहीं और इससे अच्छी नौकरी मिल सकती है। इसलिए इस शहर ने दूसरे देशों से टीचरों को मँगाया है।”
इसमें शक नहीं कि पढ़ाना एक ऐसा पेशा है जिसमें बहुत मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन फिर भी, क्या बात टीचरों को यह काम करते रहने की प्रेरणा देती है? वे इस काम में क्यों हिम्मत नहीं हारते? हमारे आखिरी लेख में इन सवालों का जवाब दिया जाएगा। (g02 3/8)
[पेज 9 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
अनुमान लगाया गया है कि अमरीका के स्कूलों में हर दिन 1,35,000 बंदूकें लायी जाती हैं
[पेज 10 पर बक्स/तसवीर]
एक सफल टीचर होने का राज़ क्या है?
आप किसे एक सफल टीचर कहेंगे? उस व्यक्ति को जो बच्चों की याददाश्त बढ़ाता है ताकि वह सीखी गयी बातों को दोहरा सकें और इम्तहान में पास हो जाएँ? या उसे जो बच्चों को सवाल पूछना, सोचना और तर्क करना सिखाता है? या जो बच्चों को अच्छे नागरिक बनने में मदद देता है?
“जब हम टीचर इस बात को समझ लेते हैं कि ज़िंदगी के लंबे और मुश्किल सफर में हम विद्यार्थियों के साथी हैं और उनके साथ आदर और इज़्ज़त से व्यवहार करते हैं, जिसके वे इंसान होने के नाते हकदार हैं, तो समझिए हम कामयाब टीचर बनने की राह पर निकल पड़े हैं। यह हकीकत समझना आसान भी है और मुश्किल भी।”—पढ़ाना—एक टीचर का सफर।
एक अच्छा टीचर जानता है कि हरेक विद्यार्थी की सीखने की क्षमता कितनी है और उसे कैसे निखरने और बढ़ने में मदद दी जा सकती है। विलियम एयर्स ने कहा: “हमें सिखाने का एक बेहतर तरीका ढूँढ़ना होगा, ऐसा तरीका जिससे बच्चों की खूबियों, उनके तजुर्बे, उनके हुनर और उनकी काबिलीयतों को बढ़ाया जा सके। . . . मुझे एक अमरीकी आदिवासी स्त्री की याद आती है, जिसके पाँच साल के बेटे के बारे में लोग कहते थे कि वह ‘सीखने में बहुत धीमा’ है। उस माँ ने मुझसे यह बिनती की: ‘विंड-वॉल्फ को 40 से ज़्यादा पक्षियों के नाम और उनके एक जगह से दूसरी जगह जाकर बसने की आदतों की जानकारी है। वह जानता है कि सही संतुलन बनाए रखनेवाले उकाब की पूँछ पर तेरह पर होते हैं। मेरे बेटे को ज़रूरत है तो बस ऐसे टीचर की जो उसकी काबिलीयत को समझ सके।’”
अपनी काबिलीयतों को बढ़ाने में हर बच्चे की मदद करने के लिए टीचर को यह जानने की ज़रूरत है कि उसे किस बात में रुचि है या उत्साह है और उसके फलाना ढंग से सोचने और व्यवहार करने के पीछे वजह क्या है। और अपने काम में समर्पित टीचर, बच्चों से प्यार करता है।
[चित्र का श्रेय]
United Nations/Photo by Saw Lwin
[पेज 11 पर बक्स]
क्या पढ़ने में हमेशा मज़ा आना ही चाहिए?
टीचर, विलियम एयर्स ने पढ़ाने के बारे में दस गलतफहमियों की एक लिस्ट बनायी। उनमें से एक है: “अच्छा टीचर इस तरह पढ़ाता है कि बच्चों को सीखने में मज़ा आए।” वह आगे कहता है: “मज़ाकिया ढंग से पढ़ाने पर बच्चों का ध्यान भटकता है, सिर्फ उनका मन बहलाया जाता है। मसखरे हँसाने के लिए होते हैं। चुटकुले सुनने पर हँसी आती है। लेकिन स्कूल की पढ़ाई में पूरी तरह ध्यान लगाना होता है, लीन हो जाना पड़ता है। पढ़ाई करते वक्त हम कभी हैरत में पड़ जाते हैं तो कभी उलझन में, कभी पढ़ाई में पूरी तरह डूब जाते हैं तो कभी हमें इससे दिली खुशी मिलती है। अगर सीखने में मज़ा आए तो अच्छी बात है। लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि सीखने में मज़ा आए ही।” वह आगे कहता है: “सिखाने के लिए बेहिसाब ज्ञान, काबिलीयत, हुनर, परख-शक्ति और समझ का होना ज़रूरी है। और सबसे बढ़कर एक ऐसा टीचर होने की ज़रूरत है, जो समझदार और परवाह करनेवाला इंसान हो।”—पढ़ाना—एक टीचर का सफर।
सूमियो को, जो जापान के नगोया शहर में टीचर है, अपने विद्यार्थियों को पढ़ाते वक्त इस समस्या का सामना करना पड़ता है: “हाईस्कूल के ज़्यादातर बच्चों को किसी भी चीज़ में दिलचस्पी नहीं होती, वो बस मज़ा करना चाहते हैं और ऐसा काम करना चाहते हैं जिसमें कोई मेहनत न लगे।”
न्यू यॉर्क, ब्रुकलिन में विद्यार्थियों की एक सलाहकार, रोसा ने कहा: “आम तौर पर बच्चों का रवैया होता है कि पढ़ना-लिखना बहुत बोरिंग है। टीचर बोर है। वे सोचते हैं कि हर काम में मज़ा आना चाहिए। वे यह नहीं समझ पाते कि पढ़ाई में आप जितनी मेहनत करेंगे आपको उतना ही फायदा होगा।”
मौज-मस्ती की चाहत में जवानों को पढ़ाई के लिए मेहनत और त्याग करना बहुत मुश्किल लगता है। सूमियो, जिसका ज़िक्र ऊपर किया गया है, ने कहा: “खास मुद्दा यह है कि वे अपने आनेवाले कल के बारे में नहीं सोचते। हाई-स्कूल में ऐसे विद्यार्थी बहुत कम मिलेंगे, जो यह सोचते हों कि आज खूब मेहनत करने से उसका फल भविष्य में ज़रूर मिलेगा।”
[पेज 7 पर तसवीर]
डाएना, अमरीका
[पेज 8 पर तसवीर]
‘ड्रग्स का लेन-देन हो रहा है, मगर पकड़ में नहीं आता।’—मिकाएल, जर्मनी
[पेज 8 पर तसवीर]
“परिवार में लड़ाई-झगड़ों और ड्रग्स लेने से पैदा होनेवाली समस्याओं का सामना हमें करना पड़ता है।”—अमीरा, मेक्सिको
[पेज 9 पर तसवीर]
“टीचरों . . . के साथ दूसरे पेशेवर लोगों जैसा सलूक किया जाना चाहिए, न कि इज़्ज़तदार आयाओं की तरह।”—सैन्ड्रा फेल्डमैन, अमेरिकन फॆडरेशन ऑफ टीचर्स की अध्यक्षा