इस जानकारी को छोड़ दें

विषय-सूची को छोड़ दें

विश्‍व-दर्शन

विश्‍व-दर्शन

विश्‍व-दर्शन

टालमटोल का सेहत से नाता

वैनकूवर सन अखबार में छपे एक अध्ययन में कहा गया, “टालमटोल का आपकी सेहत पर बहुत बुरा असर हो सकता है।” अमरीका की मनोवैज्ञानिक सोसाइटी ने टोरान्टो, कनाडा में एक सम्मेलन आयोजित किया और उसमें, कनाडा विश्‍वविद्यालय के 200 विद्यार्थियों पर किए गए अध्ययन का नतीजा पेश किया गया। इस अध्ययन में “पाया गया कि टालमटोल करनेवालों को काम में देरी करने की वजह से इतना ज़्यादा तनाव होता है कि उन्हें इस वजह से दूसरों से कहीं ज़्यादा बीमारियाँ होती हैं। . . . जैसे-जैसे इम्तहान की तारीख नज़दीक आयी, पढ़ाई को टालनेवालों में तनाव बहुत ज़्यादा बढ़ गया। उनकी लापरवाही की जगह, बार-बार उठनेवाले सिर दर्द, पीठ दर्द, सर्दी-ज़ुकाम, नींद न आने और एलर्जी जैसी तकलीफों ने ले ली। उन्हें दूसरों से ज़्यादा साँस की तकलीफ, संक्रमण और माइग्रेन जैसी परेशानियाँ उठानी पड़ती हैं।”(g02 4/8)

आर्कटिक चेतावनी

कनाडा का अखबार द ग्लोब एण्ड मेल रिपोर्ट करता है: “अगर औद्योगिक विकास कम नहीं हुआ तो पृथ्वी ग्रह के इस नाज़ुक आर्कटिक इलाके के 80 प्रतिशत हिस्से को इस सदी के मध्य तक बहुत भारी नुकसान पहुँच चुका होगा।” संयुक्‍त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की रिपोर्ट में बताया गया कि पूरे आर्कटिक इलाके पर मानव विकास कार्यक्रमों का बुरा असर कैसे बढ़ता जा रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक, अगर औद्योगिक विकास उतनी तेज़ी से होता रहा जितना 1940-1990 के बीच हुआ है तो इसका अंजाम बहुत बुरा होगा। कहा गया है कि इसका असर दूसरे इलाकों पर भी हो सकता है, क्योंकि आर्कटिक इलाके के बहुत-से जानवर प्रवास करते हैं। अखबार कहता है कि “फिलहाल, दुनिया के आर्कटिक इलाके का 10 से 15 प्रतिशत इलाका औद्योगिक विकास की चपेट में [बुरी तरह] आ चुका है।”(g02 3/22)

‘धर्म ज़्यादा महत्त्व नहीं रखता’

हाल ही में ब्राज़ील के शहरों के गरीब आदमियों का सर्वे किया गया जिसमें पता चला कि वहाँ 67 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे कैथोलिक धर्म को मानते हैं। मगर सिर्फ 35 प्रतिशत लोगों को यीशु, मरियम, और चर्च की शिक्षाओं में विश्‍वास है। और उनसे भी कम लोग, यानी सिर्फ 30 प्रतिशत लोग, हर हफ्ते चर्च की सभाओं में भाग लेते हैं। ब्राज़ील के बिशप के राष्ट्रीय सम्मेलन ने यह सर्वे करवाया जिसमें यह बात सामने आयी कि कैथोलिक चर्च कई विषयों पर जो सिखाता है उससे ज़्यादातर लोग सहमत नहीं हैं। जैसे शादी से पहले लैंगिक संबंध (44 प्रतिशत लोग), तलाक (59 प्रतिशत), दोबारा शादी (63 प्रतिशत) और गर्भनिरोधक का इस्तेमाल (73 प्रतिशत)। धर्मविज्ञानी, सिवेरीनो वीसेंटा के मुताबिक, चर्च डगमगा रहा है क्योंकि इसमें पादरियों की संख्या कम हो रही है और ब्राज़ील शिक्षा व्यवस्था पर इसकी पकड़ ढीली होती जा रही है और यह सिर्फ सरसरी तौर पर अच्छी बातें सिखाता है। उसने कहा: “कैथोलिकों की नयी पीढ़ी को सिखाया गया है कि जो उनको ठीक लगे वही सच है और उनके लिए धर्म बहुत ज़्यादा महत्त्व नहीं रखता।”(g02 3/8)

एक झपकी कितनी ज़रूरी

लफबरो विश्‍वविद्यालय में, ब्रिटिश निद्रा विशेषज्ञ प्रोफेसर जिम हॉर्न के मुताबिक, दोपहर की सुस्ती का सबसे बढ़िया इलाज है “दस मिनट की झपकी लेना,” द टाइम्स ऑफ लंडन रिपोर्ट करता है। हॉर्न दावा करते हैं: “यह किसी भी इलाज की तरह है जो ऐन तकलीफ के वक्‍त किए जाने पर ज़्यादा असरदार होता है।” अमरीका की कुछ कंपनियों ने झपकी लेने के लिए अलग कमरे बनाए हैं जिनमें बिस्तर, कंबल, तकिए और कर्मचारियों को सुकून पहुँचानेवाली धीमी आवाज़ों के साथ-साथ अलार्म-घड़ियाँ हैं जो हर 20 मिनट में बजती हैं। लेकिन प्रोफसर हॉर्न खबरदार करते हैं कि अगर आप ज़्यादा देर तक सोते हैं, जैसे 25 मिनट या उससे ज़्यादा तो आप पहले से भी ज़्यादा सुस्त महसूस करेंगे। “एक बार जब शरीर को दस मिनट से ज़्यादा आराम मिल जाता है तो यह सोचने लगता है कि यह रात का वक्‍त है और शरीर में पूरी नींद लेने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।”(g02 3/8)

पुरुषों को मछली खाने का बढ़ावा

स्टॉकहोम में कारोलिनस्का इंस्टिट्यूट के खोजकर्ताओं का कहना है कि जो पुरुष चर्बीदार मछलियाँ जैसे सामन, हिलसा, और बाँगड़ा खाते हैं उनके मुकाबले, बहुत कम मछली खानेवाले पुरुषों को प्रोस्टेट कैंसर होने का खतरा दो से तीन गुना ज़्यादा होता है। तीस साल तक 6,272 पुरुषों का अध्ययन किया गया और इसमें धूम्रपान जैसे खतरों पर भी ध्यान दिया गया। खोजकर्ताओं ने पता लगाया कि “ओमेगा-3 नाम का चर्बीदार एसिड [जो ज़्यादातर तैलीय मछलियों में पाया जाता है] प्रोस्टेट कैंसर को बढ़ने से रोकता है।” रिपोर्ट कहती है कि यही चर्बीदार एसिड “दिल के दौरे का खतरा भी कम करता है।” इसलिए विशेषज्ञ, लोगों को सलाह देते हैं कि “हफ्ते में एक या दो बार” मछली ज़रूर खाएँ। (g02 4/8)

जंगली पौधों से फायदा

इंडिया टुडे के मुताबिक, “वॉटर हायसिन्थ, लैन्टाना और पारथेनियम जैसे जंगली पौधों ने ज़मीन को रहने लायक बनानेवालों की नाक में दम कर रखा है, क्योंकि इन पौधों में किसी भी वातावरण में फलने-फूलने की शक्‍ति है।” लैन्टाना कामारा को 1941 में अंग्रेज़, भारत लाए थे। वे इसे बाड़े के रूप में इस्तेमाल करना चाहते थे। यह पौधा 2,00,000 से ज़्यादा एकड़ ज़मीन पर फैल चुका है और इसे रोकने के लिए कई तरीके आज़माए गए, जैसे इसे जड़ से उखाड़ने की कोशिश की गयी, उस पर रासायनों का छिड़काव किया गया और जैविक तरीका अपनाया गया। मगर हर तरीका नाकाम रहा। इस जंगली पौधे के फैलने से इसका ज़हरीला असर दूसरे पौधों को बढ़ने से रोकता है और नौबत यहाँ तक आ गयी है कि इसके प्रकोप के बाद कुछ लोगों को पूरा-का-पूरा गाँव ही छोड़कर जाना पड़ा। लेकिन लच्छीवाला गाँव के लोगों के लिए यह पौधा फायदेमंद साबित हो गया है। लैन्टाना को मिट्टी में मिलाकर घर बनाने और मुर्गीघर बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इस पौधे में कीट और दीमक नहीं लगते, इसलिए इसकी छाल निकालकर इससे बढ़िया फर्नीचर और टोकरियाँ बनायी जाती हैं। लैन्टाना की पत्तियों को मच्छर भगाने और अगर-बत्तियाँ बनाने के काम में लाया जाता है। इस पौधे की जड़ को पीसकर चूरा बनाया जाता है जो दाँतों का संक्रमण रोकने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। (g02 4/22)

सबसे सही समय बतानेवाली घड़ी

लंदन का अखबार द टाइम्स रिपोर्ट करता है कि अमरीका के वैज्ञानिकों के एक दल ने एक ऐसी मर्करी-आयन घड़ी तैयार की है जो “फेम्टोसैकंड (सैकंड के एक अरबवें हिस्से का दस लाखवें भाग) तक का समय बता सकती है, जो विज्ञान में इस्तेमाल होनेवाले समय का सबसे छोटा हिस्सा है।” कहा गया है कि “दुनिया को जिस स्तर के मुताबिक समय बताया जाता है, यानी कोओर्डिनेटॆड यूनिवर्सल टाइम (UTC) बतानेवाली परमाणु घड़ियों के मुकाबले यह 1,000 गुना ज़्यादा सही समय बताती है।” भौतिकविज्ञानी, स्कॉट डिडम्स बताते हैं: “इसका सबसे पहला प्रयोग भौतिकविज्ञान के क्षेत्र में होगा, जिससे कि विश्‍व की बारीकियों को अच्छी तरह समझा जा सके।” समय आने पर इससे टेलीफोन नॆटवर्क और दिशा दिखानेवाले सैटलाइटों को भी बहुत फायदा होगा। डिडम्स दावा करते हैं कि हालाँकि यह समय बतानेवाला उपकरण, “दुनिया की सबसे सही समय बतानेवाली घड़ी है,” मगर इससे भी अच्छी घड़ियाँ बनाना संभव है।(g02 4/22)

जवानों में डायटिंग

ग्लोब एण्ड मेल अखबार के मुताबिक, हाल ही में कनाडा की 12 से लेकर 18 उम्र की 1,739 लड़कियों के सर्वे में पाया गया कि 27 प्रतिशत लड़कियाँ ईटिंग डिसॉर्डर (खाने-पीने का विकार) से पीड़ित हैं। इस सर्वे में भाग लेनेवाली शहरों, उपनगरों और गाँवों की लड़कियों ने अपने खाने के तौर-तरीकों और शरीर के डील-डौल के बारे में एक प्रश्‍नावली भरी। जो आँकड़े मिले उनसे पता चला है कि 12 साल की उम्र की लड़कियाँ भी खूब खाती हैं और फिर पेट साफ करती (जानबूझकर उलटी करती) हैं। या दुबली होने के लिए गोलियाँ लेती हैं, दस्त लगने या ज़्यादा पेशाब जाने की दवाइयाँ लेती हैं। टोरान्टो यूनिवर्सिटी हैल्थ नॆटवर्क की वैज्ञानिक खोजकर्ता डॉ. जॆनीफर जोन्स के मुताबिक, खासकर लड़कियों को “खाने और व्यायाम करने के बारे में एक अच्छा नज़रिया रखने की ज़रूरत है। उन्हें अपने शरीर को और अच्छी तरह जानने की ज़रूरत है। और उन्हें समझना चाहिए कि जिन लोगों के शरीर वे विज्ञापनों, पत्रिकाओं और रॉक संगीत के वीडियो में देखती हैं वे असल में सामान्य शरीर नहीं हैं।” ग्लोब आगे कहता है कि “बहुत-सी किशोर लड़कियों को यह नहीं मालूम कि जब वे जवानी की दहलीज़ पर कदम रखती हैं तो उनके शरीर में वसा का बढ़ना आम बात है और शरीर के सामान्य विकास के लिए यह बहुत ज़रूरी है।”(g02 4/22)

मच्छर को मारने की चाल

सिंगापुर की एक कंपनी ऐसा उपकरण बना रही है जो कीटनाशक इस्तेमाल किए बिना मच्छरों का काम तमाम कर सकता है। लंदन की दि इकॉनमिस्ट पत्रिका की रिपोर्ट के मुताबिक, यह एक 38 सेंटीमीटर का प्लास्टिक का काला बक्स है जिससे “इसमें गर्मी और कार्बन डाइऑक्साइड वैसे ही निकलती है जैसे मनुष्य के शरीर से निकलती है।” मच्छर अपने शिकार के बदन की गर्मी और साँस की कार्बन डाइऑक्साइड को ताड़कर उस पर सीधा हमला करते हैं। इसलिए इस उपकरण से “मच्छर झाँसे में आ जाते हैं और उन्हें लगता है कि शिकार मिलनेवाला है।” इस बक्से को बिजली से गरम किया जाता है और एक छोटी-सी नली के ज़रिए इसमें से कार्बन डाइऑक्साइड गैस निकलती है। रोशनी की चमक से मच्छर इस बक्स की खुली जगह से अंदर घुस जाते हैं। फिर एक पंखे की तेज़ हवा मच्छर को नीचे रखे पानी में गिरा देती है जिसमें डूबकर वह मर जाता है। यह उपकरण एक रात में 1,200 मच्छर मार सकता है और इस उपकरण में फेर-बदल करके इससे रात में उड़नेवाले एनोफैलीज़ मच्छर को भी निशाना बनाया जा सकता है जो मलेरिया फैलाता है। या इससे दिन में उड़नेवाले एडीस मच्छर भी मारे जा सकते हैं जो पीत ज्वर और डेंगू बीमारियाँ फैलाते हैं। इस उपकरण का एक और फायदा यह है कि हमें नुकसान न पहुँचानेवाले कीट जैसे तितलियाँ इससे नहीं मरतीं। (g02 4/8)

धान की भूसी से पेड़ों का बचाव

पेरू का अखबार एल कोमरस्यो रिपोर्ट करता है कि उत्तरी पेरू की ईंट बनानेवाली फैक्ट्रियों में ईंधन के लिए धान की भूसी जलाने से, कैरोब पेड़ों को बचाया जा सकता है जिसकी लकड़ी जलाने के काम लायी जाती थी। धान की भूसी को कचरा मानकर फेंक दिया जाता था, लेकिन ईंट बनानेवाले 21 लोगों ने इसे इस्तेमाल करना शुरू किया है और इससे निकलनेवाली कार्बन डाइऑक्साइड गैस में भी कमी आयी है। इसके अलावा, भट्ठी के अंदर की दीवारों पर रेत, चिकनी मिट्टी और शीरे का लेप करने से भट्ठी, पहले से 15 प्रतिशत ज़्यादा गरम होती है और इसकी गर्मी काफी हद तक अंदर ही रहती है। ईंटों की मज़बूती बढ़ाने के लिए भूसी की राख को ईंट के चूरे में मिलाए जाने के भी परीक्षण किए जा रहे हैं। एल कोमरस्यो कहता है: “भूसी के इस इस्तेमाल से प्रदूषण कम होता है और इसके अवशेषों को जमा करने की भी चिंता नहीं करनी पड़ती।”(g02 4/8)