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भारतीय रेल—पूरे देश में फैला एक विशालकाय जाल

भारतीय रेल—पूरे देश में फैला एक विशालकाय जाल

भारतीय रेल—पूरे देश में फैला एक विशालकाय जाल

भारत में सजग होइए! लेखक द्वारा

चार हज़ार साल से भी पहले की बात है, जब उत्तर भारत में मज़दूर ईंट बना रहे थे। उस वक्‍त उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि इन्हीं ईंटों का इस्तेमाल, पूरे भारत में रेलमार्ग का एक बड़ा जाल बिछाने के लिए किया जाएगा।

भारतीय रेल प्रणाली बहुत ही विशाल है! भारत की एक अरब से भी ज़्यादा आबादी के लिए इसकी रेलगाड़ियाँ यातायात का मुख्य साधन हैं। रोज़मर्रा की ज़िंदगी में, लोग आम तौर पर रेलगाड़ी से सफर करते हैं। इसके अलावा अपने रिश्‍तेदारों से दूर रहनेवाले करोड़ों लोग भी इन्हीं रेलगाड़ियों से सफर करते हुए अपनी परंपरा के अनुसार खास मौकों पर जैसे बच्चे के जन्म, किसी की मौत, त्योहार, शादी या किसी के बीमार होने पर अकसर रिश्‍तेदारों से मिलने जाते हैं।

रोज़ाना औसतन, 8,350 से भी ज़्यादा रेलगाड़ियाँ, करीब 80,000 किलोमीटर लंबी पटरी पर दौड़ती हुईं 1.25 करोड़ से भी ज़्यादा यात्रियों का भार उठाती हैं। इसके अलावा, मालगाड़ियाँ भी हर रोज़ 13 लाख टन से ज़्यादा सामान ढोती हैं। धरती से चंद्रमा के बीच जितना फासला है, उसका साढ़े तीन गुना फासला ये दोनों रेलगाड़ियाँ हर दिन तय करती हैं!

ज़रा सोचिए जहाँ 6,867 स्टेशन हों, 7,500 रेल इंजन हों, यात्रियों और मालगाड़ियों के 2,80,000 से भी ज़्यादा डिब्बे हों और 1,07,969 किलोमीटर लंबी रेल की पटरियों के साथ-साथ बगल से जानेवाली छोटी पटरियाँ हों, वहाँ आप समझ सकते हैं कि क्यों भारतीय रेल 16 लाख से भी ज़्यादा कर्मचारियों को काम पर रखे हुए है। संसार की किसी भी कंपनी में इतनी बड़ी तादाद में कर्मचारी नहीं पाए जाते, जितने कि इस काम में। तो है न, यह भारतीय रेल का एक विशालकाय जाल!

विशालकाय जाल की शुरूआत कैसे हुई?

आइए देखें, भारत में किस वजह से रेलवे बनाने का काम शुरू हुआ? यह बड़ा काम, हाथ में कब लिया गया? और उन 4,000 साल पुरानी ईंटों का कैसे इस्तेमाल किया गया?—ऊपर दिया गया बक्स देखिए।

उन्‍नीसवीं सदी के दरमियान, भारत में बड़े पैमाने पर कपास की उपज हुई जिसे निर्यात किया जाता था, और बंदरगाह तक लाने के लिए रास्तों का इस्तेमाल होता था। मगर अँग्रेज़ों की कपड़ा-मिलों को कपास पहुँचानेवाला भारत ही मुख्य देश नहीं था, अँग्रेज़ों को ज़्यादातर कपास उत्तर अमरीका के दीप साउथ यानी दक्षिण-पूर्वी राज्यों से मिलता था। लेकिन सन्‌ 1846 में अमरीका में कपास की फसल खराब हो गयी और उसके बाद वहाँ सन्‌ 1861 से लेकर सन्‌ 1865 तक गृह युद्ध चलता रहा। तो अँग्रेज़ों के लिए यह ज़रूरी हो गया कि वह कहीं और से माल मँगवाए। और भारत ही उनकी ज़रूरत पूरी कर सकता था। लेकिन इंग्लैंड की लैंकशायर मील बंद न हो, इसके लिए वहाँ माल जल्द-से-जल्द पहुँचाना बेहद ज़रूरी था। सो ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी (सन्‌ 1845) और ग्रेट इंडियन पेनिन्सुला रेलवे (सन्‌ 1849) की स्थापना की गयी। अँग्रेज़ों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ भी करार-नामा बाँधा जो भारत में बड़े पैमाने पर कारोबार चलाती थी। काम तेज़ी से शुरू हुआ और अप्रैल 16,1853 में भारत में पहली ट्रेन चलती नज़र आयी। यह ट्रेन बंबई (अब मुंबई) के डॉक इलाके जिसे बोरी बंदर कहा जाता है, वहाँ से छूटी और 34 किलोमीटर का फासला तय करते हुए थाणे के एक शहर तक आयी।

बंबई से उन भीतरी प्रदेशों में जाने के लिए जहाँ कपास उगती थी, पश्‍चिम घाटियों के ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों को पार करना पड़ता था। ब्रिटेन के इंजीनियरों और मज़दूरों के साथ-साथ हज़ारों भारतीय मज़दूरों ने आधुनिक टेकनॉलजी की सहायता के बिना ही इस काम को अंजाम देने के लिए जी-तोड़ मेहनत की। कभी-कभी तो 30,000 लोग एक-साथ काम किया करते थे। दुनिया में पहली बार पहाड़ों की चढ़ाई के लिए आड़ी-तिरछी किस्म की पटरी बनायी गयी। चौबीस किलोमीटर लंबी पटरी की मदद से 555 मीटर की ऊँचाई तय की गयी। उन्होंने 25 सुरंगें खोदीं जो कुल मिलाकर 3,658 मीटर लंबी थीं। इस तरह डेक्कन का पठार तैयार हुआ और रेलवे का काम शुरू हुआ। अँग्रेज़ खासकर व्यापार बढ़ाने के मकसद से और लोगों पर अपना दबदबा बनाए रखने के लिए सैन्य दलों और अधिकारियों को एक जगह से दूसरी जगह भेजा करते थे, इसी वजह से रेलवे का काम पूरे देश में ज़ोरों से फैलाने लगा।

जिन गिने-चुने लोगों की हैसियत थी, उनके लिए 19वीं सदी में फर्स्ट क्लास से सफर करना मुमकिन हुआ। इस सफर से गर्मी और धूल-मिट्टी से थोड़ी राहत मिलती थी। इस बोगी में आरामदायक बिस्तर थे, शौचालय और गुसलखाना था, सुबह की चाय से लेकर रात के खाने का इंतज़ाम करने के लिए कर्मचारियों का इंतज़ाम था। कमरा ठंडा करने के लिए बर्फ से भरा एक टब होता था, जिस पर एक पंखा होता था। एक नाई होता था। रेलवे की पुस्तकालय में लेखक व्हीलर के लिखे साहित्य थे, इसके अलावा, भारत में जन्मे रुडियार्ड किपलिंग के नए उपन्यास भी शामिल थे। लुई रूसले जिन्होंने 1860 के दशक में यात्रा की थी, उनका कहना था कि वे “बिना ज़्यादा थकावट के ही इतना लंबा सफर तय कर सके।”

विशालकाय जाल और विशाल हुआ

सन्‌ 1900 तक दुनिया की रेलवे प्रणाली में भारतीय रेल की गिनती पाँचवें नंबर पर थी। भाप से, डीज़ल से और बिजली से चलनेवाले इंजन या पटरी पर चलनेवाली गाड़ियाँ जैसे सवारी गाड़ियाँ जो पहले दूसरे देश से लायी जाती थीं, अब भारत में ही उनका निर्माण होने लगा। कुछ इंजन तो वाकई विशाल थे, जिनका वज़न 230 टन था, और बिजली से चलनेवाले इंजन 6,000 हॉर्स पावर के थे और 123 टन के डीज़ल इंजन 3,100 हॉर्स पावर के थे। सन्‌ 1862 में दुनिया की सबसे पहली दुमंज़िली ट्रेन शुरू हुई। भारत को इसका नाज़ है कि दुनिया का सबसे लंबा रेलवे प्लेटफॉर्म, पश्‍चिम बंगाल के खड़गपुर स्टेशन का है जो कि 833 मीटर लंबा है। इसके अलावा, कोलकाता में शीआलदा के प्लेटफार्म की सभी छतें 300 मीटर लंबी हैं और ये भी दुनिया में कहीं नहीं पायी जाती।

शुरू-शुरू में रेलगाड़ियाँ चौड़ी पटरियों पर दौड़ती थीं। लेकिन बाद में बचत के उद्देश्‍य से एक मीटर चौड़ी पटरियाँ और पहाड़ों के लिए कम चौड़ाईवाली पटरियाँ बनायी जाने लगीं। फिर सन्‌ 1992 में सभी पटरियों की चौड़ाई एक-समान बनाने के लिए ‘प्रोजेक्ट यूनीगेज’ शुरू किया गया। अब तक तकरीबन 7,800 किलोमीटर की पटरियों को चौड़ा बना दिया गया है, जो पहले एक मीटर चौड़ी और कम चौड़ी हुआ करती थीं।

मुंबई की उपनगरीय ट्रेनें, लाखों यात्रियों को अपनी मंज़िल तक पहुँचाती हैं और हमेशा खचाखच भरी रहती हैं। कोलकाता की अंडरग्राउँड मेट्रो ट्रेन हर रोज़ 17 लाख सवारियों को जगह-जगह ले जा सकती हैं। चेन्‍नई (पहले मद्रास) भारत का वह पहला शहर है, जहाँ रेलवे लाइन सड़क से ऊँचाई पर बनायी गयी। हाल ही में कंप्यूटर से टिकट बुकिंग करना शुरू हो गया है और तरह-तरह की जानकारियाँ पाने के लिए बूथ खोले गए हैं। यह ऐसी रेल व्यवस्था है जो बहुत ही व्यस्त है और तेज़ी से बढ़ती जा रही है।

दिल खुश करनेवाली “टॉय ट्रेन”

गर्मी से राहत पाने के लिए भारत में रह रहे अँग्रेज़ों को पहाड़ों पर जाना बेहद पसंद था। और वहाँ जल्दी पहुँचने के उद्देश्‍य से ही पहाड़ी रेलगाड़ी यानी “टॉय ट्रेन” की शुरूआत हुई। और तब से पहाड़ियों पर घोड़ों या पालकियों के मुकाबले इस ट्रेन से कम समय में जाना मुमकिन हुआ। उदाहरण के लिए दक्षिण भारत में यह “टॉय ट्रेन” निलगिरी पहाड़ी या नीले पर्वत पर अपने यात्रियों को ले जाती है, जिसकी रफ्तार औसतन 10.4 किलोमीटर प्रति घंटे है। जी हाँ, भारत में दूसरी रेलगाड़ियों के मुकाबले शायद यह सबसे धीमी चलनेवाली गाड़ी है, मगर इसमें सफर करने की बात ही कुछ और है। पहाड़ों में चाय और कॉफी के बागानों से होते हुए 1,712 मीटर ऊँचे कूनूर तक जाना, वाह क्या कहने! इस रेलगाड़ी को 19वीं सदी के आखिर में बनाया गया था, जिसकी पटरी हर 12 मीटर की लंबाई के साथ एक 1 मीटर की ऊँचाई तय करती थी, और जिसमें 208 घुमाव और 13 सुरंगें हैं। इसे दंतुर दंड-चक्र (आप्ट रैक-पिनियन) प्रणाली के हिसाब से बनाया गया था। पटरियाँ के बीच एक दाँतेदार पट्टा बिछा होता है जो इंजन के लिए सीढ़ियों का काम करता है। इस वजह से इंजन ट्रेन को पीछे से ढकेलने में कामयाब हो पाता है। यह पटरी संसार की सबसे पुरानी और सबसे खड़ी पटरी है, जिसमें जुड़ाव और दाँतेदार टेकनॉलजी का इस्तेमाल किया गया।

दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे सिर्फ 610 मिलीमीटर चौड़ी पटरी से होते हुए घूम स्टेशन पहुँचती है। यहाँ की पटरी हर 22.5 मीटर की लंबाई के साथ 1 मीटर की ऊँचाई तय करती है। घूम, भारत का सबसे ऊँचाई पर स्थित रेलवे स्टेशन है जो समुद्रतल से 2,258 मीटर ऊँचा है। यह पटरी तीन दफे गोलाकार चक्कर काटती है और छः दफे आड़ा-तिरछा घूमते हुए ऊपर जाती है। यहाँ का सबसे मशहूर हिस्सा, बतासिआ लूप है, जहाँ सवारी अपने आपको रोक नहीं पाते और गाड़ी से कूदकर हरी-भरी ढलान चढ़ने लगते हैं। फिर जब ट्रेन चक्कर काटकर ऊपर आती है, तब वे ट्रेन में वापस चढ़ जाते हैं। इस यात्रा का सबसे रोमांचक समय तब आता है जब कंचनजंगा पर्वत का नज़ारा देखने को मिलता है। यह पर्वत संसार का तीसरा, सबसे ऊँचा पर्वत है। इस रेलवे को सन्‌ 1999 में यूनेस्को द्वारा संसार का धरोहर घोषित किया गया, जिससे इसका भविष्य और भी सुरक्षित हो गया।

भारत में अँग्रेज़ों के शासनकाल के दौरान, शिमला को गर्मियों की राजधानी कहा जाता था। शिमला 2,200 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। वहाँ पहुँचने के लिए हालाँकि ट्रेन सिर्फ 95 किलोमीटर का रास्ता तय करती है, मगर इस दौरान ट्रेन 102 सुरंगों से गुज़रती है, 869 पुलें पार करती है और 919 घुमावदार चक्कर काटती है! सफर में ट्रेन की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से और फाइबरग्लास के बने छत से ऐसे शानदार नज़ारे दिखते हैं जिनका कोई जवाब नहीं! जी हाँ, “टॉय ट्रेन” में सफर करना वाकई मज़ेदार है। चूँकि इन ट्रेनों का किराया काफी कम रखा गया है, इससे पहाड़ी रेल को काफी घाटा हो रहा है। मगर रेलवे प्रेमियों को पूरी उम्मीद है कि दिल खुश करनेवाली इन ट्रेनों की रक्षा के लिए कोई-न-कोई हल ज़रूर निकाला जाएगा।

लंबा सफर

कहा जाता है कि भारत में, रेलवे की शुरूआत ने “एक युग का अंत करके दूसरे युग की शुरूआत की,” और “भारत देश में एकता लाने के लिए जितना हाथ रेलवे का रहा, उतना और कोई भी तरीका एकता लाने में कामयाब नहीं हुआ।” यह कितना सच है! अगर आप चाहें तो हिमालय पर्वत के नीचे बसे, जम्मु से ट्रेन पकड़कर भारत के बिलकुल दक्षिण प्रदेश कन्याकुमारी तक आ सकते हैं; जहाँ अरब सागर, हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी का संगम होता है। इस दौरान आप 3,751 किलोमीटर का लंबा सफर तय कर चुके होंगे जिसमें आप 66 घंटे में 12 राज्य घूम लेंगे। और टिकट खर्च, शायद 600 रुपए से भी कम लगे जो कि स्लीपर बर्थ के साथ होगा। आपको कई संस्कृति के बातूनी और मिलनसार लोगों से जान-पहचान बढ़ाने का मौका मिलेगा और आप इस देश के कई दिलचस्प नज़ारे देख पाएँगे। तो अपनी टिकट बुक करवाइए और सफर का आनंद उठाइए!(g02 7/8)

[पेज 14 पर बक्स]

वे पुरानी ईंटें

भारत में अँग्रेज़ों के राज के दौरान (सन्‌ 1757-1947) सेनाओं की टुकड़ियों की दूर-दूर की यात्रा के लिए रेलवे ही बेहतरीन साधन थी। भारत की पहली ट्रेन शुरू होने के तीन साल के अंदर ही इंजीनियरों ने कराची और लाहौर के बीच, जो आज पाकिस्तान में है, रेल की पटरी बिठाना शुरू कर दिया। पटरियाँ स्थिर करने की खातिर कंकड़ बनाने के लिए पत्थर नहीं थे, लेकिन हड़प्पा गाँव के पास मज़दूरों को भट्ठी की सेंकी हुई ईंटें मिलीं। स्कॉटलैंड के इंजीनियर, जॉन और विलियम ब्रन्टन ने सोचा कि पत्थर की जगह इनका इस्तेमाल हो सकता है और सस्ता भी पड़ेगा। जब मज़दूर ज़मीन खोदकर बड़ी तादाद में ईंटे निकाल रहे थे, तब उन्हें मिट्टी की छोटी-छोटी मूर्तियाँ और ऐसी मुहरें मिलीं जिन पर एक अनजानी भाषा में कुछ लिखा था। लेकिन इससे उनका रेलमार्ग बनाने के सबसे ज़रूरी काम में कोई रुकावट नहीं आयी। हड़प्पा की इन ईंटों की मदद से एक सौ साठ किलोमीटर लंबी पटरी बनायी गयी। पैंसठ सालों बाद पुरातत्वविज्ञानियों ने सुव्यवस्थित तरीके से हड़प्पा में खुदाई शुरू की और सिंधु घाटी की अनोखी सभ्यता को ढूँढ़ निकाला जो 4000 सालों से भी पुरानी सभ्यता थी, ठीक मेसोपोटामिया के समय की!

[पेज 16 पर बक्स/तसवीर]

कोंकण रेल—आज के ज़माने का अजूबा

भारत के पश्‍चिमी तट पर अरब सागर और साइयाद्री पहाड़ों के बीच बसी कोंकण एक सकरी ज़मीन है जिसकी चौड़ाई बस 75 किलोमीटर है। कोंकण रेल, भारत के व्यापारिक केंद्र, मुंबई के दक्षिणी भाग से शुरू होते हुए मैंग्लोर तक जाती है जहाँ एक प्रमुख बंदरगाह है। इसलिए यह रेल कारोबार की दृष्टि से बहुत ही फायदेमंद है। सदियों से तटीय बंदरगाहों का भारत देश और दूसरे देशों के साथ कारोबार करने में बहुत बड़ा हाथ रहा है। मगर समस्या यह थी कि समुद्री यात्रा बहुत खतरनाक होती थी और खासकर बरसात के मौसम में अगर नदियाँ पार करना मुश्‍किल हो जाता है तो समुद्र का तो सवाल ही नहीं उठता। दूसरी तरफ सड़क और रेल मार्ग में प्राकृतिक बाधाएँ हालाँकि कम होती थीं, मगर ये देश के अंदरूनी हिस्सों से घूम-फिरकर समुद्री तटों तक जाती थीं। इसलिए इस इलाके के लोग अरसे से एक ऐसे रास्ते की आस देख रहे थे जो उन्हें सीधे समुद्री तट तक ले जाता ताकि बड़े बाज़ारों में माल जल्द-से-जल्द पहुँचाया जा सके, खासकर ऐसा माल जिसके खराब होने का डर होता है। इसका क्या हल निकाला गया?

बीसवीं सदी के दौरान इस देश में कोंकण रेल का निर्माण-काम हाथ में लिया गया जो भारत में सबसे बड़ी रेल योजना थी। इसके लिए क्या-क्या किया गया? एक 760 किलोमीटर लंबी पटरी बिछाने के लिए कुछ जगहों पर 25 मीटर ऊँचे खंभे बनाए गए। सपाट पटरी बिठायी जा सके इसके लिए कुछ जगहों पर करीब 28 मीटर गहरी खाइयाँ खोदी गयीं। और 2,000 से भी ज़्यादा पुल बनाए गए। इनमें से एक 64 मीटर ऊँचा पनवेल नदी का पुल है। यह एशिया का सबसे ऊँचा पुल है जो 500 मीटर चौड़ी घाटी के साथ-साथ 2,065 किलोमीटर लंबी शरावती नदी पर बने पुल को पार करता है। इसके अलावा, पहाड़ों को भी खोदा गया ताकि पटरी को जितना हो सके उतना सीधा बनाया जा सके। इसके लिए 92 सुरंगे बनायी गयीं जिनमें से 6 सुरंगे 3.2 किलोमीटर से भी लंबी हैं। दरअसल इन्हीं में से करबुदे सुरंग भारत की सबसे लंबी सुरंग है जिसकी लंबाई 6.5 किलोमीटर है।

कोंकण रेल को बनाने के लिए बहुत-सी मुश्‍किलों का सामना करना पड़ा जैसे मूसलाधार बारिश, भू-स्खलन और कीचड़-स्खलन। इसके अलावा, मज़बूत चट्टानों से सुरंगें बनाना था और सबसे बड़ी परेशानी की बात थी तेलीय चिकनी मिट्टी खोदना जिसके बारे में कहा जाता है कि वह टूथपेस्ट की तरह लसीली होती है। इंजीनियरों की कुशलता और तकनीक के बल पर ही इन सभी प्राकृतिक अड़चनों से निपटना था। सुरक्षा की बातों को ध्यान में रखते हुए सुरंगों में वायुसंचार के विभिन्‍न तरीकों का इंतज़ाम करना अपने आप में एक भारी काम था। इसके अलावा, इसमें कानूनी माथा-पच्ची शामिल थी क्योंकि उस ज़मीन के 42,000 मालिक थे।

मगर सिर्फ सात सालों के अंदर यह विशाल निर्माण-योजना पूरा हुआ जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। जनवरी 26,1998 में कोंकण रेल की पहली ट्रेन को झंडा दिखाया गया। मुंबई से मैंग्लोर तक का सफर अब 1,127 किलोमीटर कम हो गया, नहीं तो पहले बहुत घूम-फिर कर जाना पड़ता था और सफर का समय भी 26 घंटे कम हो गया। कोंकण रेल के शुरू होने से यात्रियों को दूर-दूर तक के नए मनमोहक नज़ारे देखने को मिले, पर्यटकों को नयी-नयी जगह घूमने का मौका मिला और लाखों अन्य लोगों को एक सस्ती रेल सेवा मिली।

[नक्शा]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

मुंबई

मैंग्लोर

[तसवीर]

एशिया का सबसे ऊँचा, पनवेल नदी का पुल

[चित्र का श्रेय]

Dipankar Banerjee/STSimages.com

[पेज 16 पर बक्स/तसवीर]

फेयरी क्वीन

संसार का सबसे पुराना भापवाला इंजन फेयरी क्वीन है। इसे सन्‌ 1855 में किटसन, थॉम्पसन और ह्‍यूटसन की इंजीनियरिंग कंपनी ने इंग्लैंड के लीड्‌स शहर में बनाया था। यह इंजन, मालगाड़ी को कोलकाता के हावड़ा स्टेशन से खींचते हुए बंगाल के रानीगंज स्टेशन तक लाया। सन्‌ 1909 में इस इंजन की सेवा बंद कर दी गयी और इसे नयी दिल्ली के राष्ट्रीय रेल संग्रहालय में, रेल के प्रशंसकों को खुश करने के लिए रख दिया गया। लेकिन भारत के 50वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर एक बार फिर इस पुराने भरोसेमंद इंजन को चलाना शुरू किया गया। और सन्‌ 1997 से छुक-छुक करनेवाली यह फेयरी क्वीन एक्सप्रेस 146 किलोमीटर की दूरी तय करती हुई पर्यटकों को दिल्ली से राजस्थान के अलवर शहर तक ले जाती है।

[पेज 17 पर बक्स/तसवीरें]

भारतीय रेल का उपहार—ऐशो-आराम और रफ्तार!

ऐशो-आराम भारत का इतिहास बहुत ही पुराना और शानो-शौकत से भरा है। इस इतिहास की एक झलक देने के लिए भारतीय रेल ने, खासकर कुछ रेल-यात्राओं का इंतज़ाम किया है, हालाँकि ये महँगी तो हैं, मगर उसमें सभी सुख-सुविधाएँ मौजूद हैं। सन्‌ 1982 में भापवाले इंजन से चलनेवाली ट्रेन, पैलेस ऑन व्हील्स शुरू हुई। रेल के उन डिब्बों को, जिन्हें एक ज़माने में राजा-महाराजा और वाइसरॉय इस्तेमाल किया करते थे, ऐशो-आराम की चीज़ों से सजाकर दोबारा चमकाया गया। इससे उनकी पुरानी ठाट-बाट लौट आयी। मोती-सा चमचमाता इसका सफेद बाहरी भाग, बर्मा-सागौन से बनी दीवारें, पारदर्शक काँच के अनेक सुंदर कंदील झाड़ और जरीदार कपड़े, सभी इसकी शान को झलकाती है। सोने के लिए आलीशान कमरे, खाने का कमरा, बैठक, पुस्तकालय, ज़ायकेदार अंतरराष्ट्रीय भोजन के साथ-साथ खास वरदी पहने हुए टहलुओं की सेवाओं से यात्रियों को लगता है, मानो वे ही कहीं के राजा-महाराजा हैं।

सन्‌ 1995 में चौड़ी पटरी बनायी जा रही थी, सो पुरानी बोगियों को बदलकर नयी बोगियाँ बनायी गयीं, यानी नया पैलेस बनाया गया। इस नयी आलीशान ट्रेन का नाम रखा गया, द रॉयल ओरियन्ट जो अभी-भी गुजरात और राजस्थान के पश्‍चिम राज्यों में पुरानी मीटरवाली पटरी पर चलती है। यह ट्रेन ज़्यादातर रात को शुरू होती है और दिन के निकलते यह खास-खास जगहों तक पहुँच जाती है ताकि यात्री उनकी सैर कर सकें। इस सफर में यात्री एक बड़े रेगिस्तान, थार से गुज़रते हैं, जहाँ पुराने किले, गढ़ और मंदिर हैं। यात्री चाहें तो वहाँ बालू के टिलों पर ऊँट की सवारी या अंबर किले तक जाने के लिए हाथी की सवारी कर सकते हैं। इसके करीब ही गुलाबी शहर, जयपुर है। यहाँ अनेक ऐतिहासिक घटनाएँ घटी हैं और यह शहर रत्न-मणियों और हस्त-शिल्प के लिए मशहूर है। इसके अलावा, सफर के दौरान आपको बर्ड सैंक्चुअरी, बाघ आरक्षण और ऐसा एकमात्र जंगल देखने मिलेगा, जहाँ एशियाई शेर खुलेआम घूमते हैं। आप उदयपुर की झील महल देख पाएँगे और हाँ, आप ताज महल देखना कैसे भूल सकते हैं? यही नहीं, रेल-यात्रा के दौरान आपको और भी बहुत कुछ देखने को मिलेगा जो आपकी यात्रा को रोमांचक बना देगा।

रफ्तार भारत की रेलगाड़ियाँ, जापान और फ्रांस की तेज़-रफ्तार से चलनेवाली रेलगाडियों का मुकाबला तो नहीं कर सकतीं। लेकिन भारत के शहरों में चलनेवाली ऐसी सुपरफास्ट रेलगाड़ियों की 106 जोड़ियाँ हैं, जिनसे लंबी यात्रा कम समय में और बड़े आराम से तय की जाती है। राजधानी और शताब्दी ट्रेनें प्रति घंटे 160 किलोमीटर की रफ्तार से दौड़ती हैं जो हवाई-सफर का मुकाबला करते हुए वही आराम और सुविधाएँ देती हैं। एयर-कंडीशन बोगियों में बैठने के लिए सीटें या आराम से सोने के लिए बर्थ मौजूद हैं। इन शानदार ट्रेनों में भोजन और अल्पाहार, सोने के लिए चादर, पीने का साफ-सुरक्षित पानी और डॉक्टरी मदद भी टिकट किराए में शामिल हैं।

[नक्शा]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

जयपुर

उदयपुर

[तसवीरें]

हवा महल, जयपुर

ताज महल, आगरा

द रॉयल ओरियन्ट

“पैलेस ऑन व्हील्स” अंदर से

[चित्र का श्रेय]

Hira Punjabi/STSimages.com

[पेज 13 पर नक्शा/तसवीर]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

नयी दिल्ली

[तसवीरें]

रेल की कुछ मुख्य लाइनें

भापवाला इंजन, ज़ावर

भापवाला इंजन, दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे (DHR)

बिजली से चलनेवाला इंजन, आगरा

बिजली से चलनेवाली ट्रेन, मुंबई

डीज़ल इंजन, हैदराबाद

डीज़ल से चलनेवाली ट्रेन, शिमला

[चित्र का श्रेय]

नक्शा: © www.MapsofIndia.com

[पेज 15 पर नक्शा/तसवीर]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

मुंबई

[तसवीर]

चर्चगेट स्टेशन, मुंबई

[चित्र का श्रेय]

Sandeep Ruparel/STSimages.com

[पेज 15 पर नक्शा/तसवीर]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

निलगिरी पहाड़ियाँ

[तसवीर]

निलगिरी “टॉय ट्रेन” को धकेलते हुए भापवाला इंजन

[पेज 18 पर नक्शा/तसवीर]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

दार्जिलिंग

[तसवीरें]

बतासिआ लूप, जहाँ रेल की पटरी के ऊपर से वही पटरी घूमकर जाती है

बतासिआ लूप से कंचनजंगा पर्वत का एक नज़ारा

[पेज 14 पर चित्र का श्रेय]

पेज 2, 13, 15 के बीच की, 16-18 की ट्रेनें: Reproduced by permission of Richard Wallace