क्या एड्स का प्रकोप कभी खत्म होगा? अगर हाँ, तो कैसे?
क्या एड्स का प्रकोप कभी खत्म होगा? अगर हाँ, तो कैसे?
काफी समय तक अफ्रीका के कई देशों में, लोग यह मानने को भी तैयार नहीं थे कि वहाँ एड्स की महामारी है। कुछ लोग इस विषय पर बात करना भी पसंद नहीं करते थे। मगर हाल के सालों में, खासकर नौजवानों को इसके बारे में जानकारी देने की कोशिश की गयी और उन्हें इस बारे में खुलकर बात करने के लिए उकसाया गया। मगर इन कोशिशों से कुछ खास सफलता नहीं मिली है। लोगों के रीति-रिवाज़ उनकी ज़िंदगी का अटूट हिस्सा हैं और उनके जीने का तरीका भी ऐसा है कि उनके लिए बदलाव करना मुश्किल हो जाता है।
चिकित्सा-क्षेत्र में तरक्की
चिकित्सा-क्षेत्र में वैज्ञानिकों ने एच.आई.वी. के बारे में काफी जानकारी हासिल की है और ऐसी दवाइयाँ बनायी हैं जिनसे बहुत-से मरीज़ों की ज़िंदगी लंबी की गयी है। अब ऎक्टीव एन्टी-रिट्रोवायरल थेरेपी का ज़ोरों में इस्तेमाल हो रहा है जिसमें कम-से-कम तीन एन्टी-रिट्रोवायरल दवाइयाँ एक-साथ ली जाती हैं।
इन दवाइयों से बीमारी पूरी तरह तो नहीं मिट जाती, मगर एड्स पीड़ितों की मौत की दर ज़रूर कम हुई है; और ऐसा खासकर विकसित देशों में देखा गया है। कई लोग ज़ोर देकर कहते हैं कि ये दवाइयाँ विकासशील देशों तक भी पहुँचना बेहद ज़रूरी है। मगर ये इतनी महँगी हैं कि इन्हें खरीदना उन देशों के अधिकतर लोगों की हैसियत के बाहर है।
तो इससे एक सवाल खड़ा होता है: क्या मुनाफा, इंसानों की जान से भी ज़्यादा कीमती है? ब्राज़ील में एच.आई.वी./एड्स के प्रोग्राम के निर्देशक डॉ. पौलू टेशेरा ने इसी समस्या को मद्देनज़र रखते हुए कहा: “ऐसा बिलकुल नहीं होना चाहिए कि जो दवाइयाँ हज़ारों पीड़ितों की जान बचा सकती हैं, वे उन्हें सिर्फ इसलिए न मिलें क्योंकि दवा-कंपनियाँ हद-से-ज़्यादा मुनाफा कमाना चाहती हैं।” वे आगे कहते हैं: “ज़िंदगी के उसूलों और इंसानियत को ताक पर रखकर, व्यापार से फायदा पाने की बात हरगिज़ नहीं सोचनी चाहिए।”
कुछ देशों की सरकारों ने, बड़ी-बड़ी दवा-कंपनियों के कुछ पेटेन्ट अधिकारों की परवाह न करते हुए एड्स की कुछ दवाइयों की जॆनरिक दवा बनाने या उन्हें दूसरे देशों तक बहुत ही कम दामों में पहुँचाने का फैसला किया है। * दक्षिण अफ्रीकी चिकित्सीय पत्रिका (अँग्रेज़ी) रिपोर्ट करती है कि एक अध्ययन के मुताबिक “[जॆनरिक दवाइयों में] सबसे कम दामवाली दवा की कीमत, अमरीका में मिलनेवाली इन दवाइयों की कीमत से 82 प्रतिशत कम है।”
इलाज में आनेवाली बाधाएँ
आखिरकार, बड़ी-बड़ी दवा-कंपनियों ने उन विकासशील देशों को कम दामों पर दवाइयाँ देना शुरू किया जहाँ इनकी सख्त ज़रूरत थी। इससे यह उम्मीद जाग उठी कि अब ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को ये दवाइयाँ इस्तेमाल करने का मौका मिलेगा। लेकिन इन्हें विकासशील देशों तक पहुँचाने में भी कुछ बाधाएँ हैं और इनमें से एक बाधा, पैसे की समस्या है। इसके अलावा, दवाइयों के दाम बिलकुल गिरा देने के बावजूद, ज़्यादातर ज़रूरतमंद लोगों के लिए ये फिर भी बहुत महँगी हैं।
दूसरी बाधा, दवा की खुराक को लेकर है। इसकी कई गोलियाँ हर रोज़ खानी होती है, और वह भी निर्धारित समयों पर। अगर इन्हें सही तरीके से न लिया जाए या किसी दिन नागा कर दिया जाए तो एच.आई.वी. की ऐसी नस्लें उत्पन्न होने का खतरा है, जो दवा को बेअसर कर सकती हैं। अफ्रीकी देशों में जहाँ लोग एक-एक दाने को तरसते हैं, पीने का साफ पानी नहीं, दवा-दारू का ठीक से इंतज़ाम नहीं, ऐसे हालात में यह उम्मीद करना मुश्किल है कि मरीज़ सही-सही और बराबर दवाइयाँ लेगा।
इतना ही नहीं, जो मरीज़ ये दवाइयाँ लेता है, उसे लगातार अपनी जाँच करावानी होती है। अगर दवाइयाँ उस पर काम नहीं करतीं, तो गोलियों या खुराक को बदलना पड़ता है। ऐसी जाँच-परख करने के लिए अनुभवी मॆडिकल स्टाफ की ज़रूरत होती है, और इसमें भी बहुत खर्च लगता है। इसके अलावा, इन दवाइयों का शरीर पर कुछ बुरा असर भी पड़ता है और अब तो वायरस की ऐसी नस्लें पैदा हो रही हैं जो दवाइयों को बेअसर कर रही हैं।
जून 2001 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा में, एड्स पर हुई एक खास सभा के दौरान विकासशील देशों की मदद के लिए विश्व स्वास्थ्य निधि का इंतज़ाम करने का प्रस्ताव रखा गया। सभा में अनुमान लगाया गया कि मदद के लिए 7 अरब से 10 अरब डॉलर तक की ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन इतनी रकम अभी तक जमा नहीं हो पायी है।
वैज्ञानिकों को पूरा यकीन है कि इस बीमारी के लिए वैक्सीन का ईजाद कर दिया जाएगा। यहाँ तक कि कई देशों में लोगों पर ऐसे वैक्सीन आज़माए भी जा रहे हैं। लेकिन अगर वे अपनी कोशिशों में कामयाब हो जाएँ, तौभी ऐसे वैक्सीन को तैयार करने, उसकी जाँच करने और उसे लोगों के इस्तेमाल के लिए सुरक्षित साबित करने में बरसों लग जाएँगे।
थाइलैंड, ब्राज़ील और युगांडा जैसे कुछ देशों में एड्स की दवाइयों के ज़रिए इलाज की योजना काफी सफल हुई है। ब्राज़ील, जो खुद इन दवाइयों को बनाता है, एड्स से होनेवाली मौत की दर, काफी हद तक कम कर पाया है। बॉटस्वाना, जो कि छोटा और अमीर देश है, अपने सभी ज़रूरतमंद मरीज़ों के लिए एन्टी-रिट्रोवायरल दवा और क्लीनिकों का इंतज़ाम कराने की पूरी कोशिश कर रहा है।
एड्स की हार
लेकिन दूसरी कुछ महामारियों की तुलना में एड्स एक खास तरीके से अलग है: इसे रोका जा सकता है। अगर एक इंसान बाइबल के बुनियादी सिद्धांतों के मुताबिक जीने के लिए तैयार हो, तो वह एड्स की बीमारी लगने के सभी खतरों से ना सही, मगर ज़्यादातर खतरों से बच सकता है।
बाइबल, नैतिक दर्ज़ों के बारे में बिलकुल साफ-साफ बताती है। जो शादी-शुदा नहीं हैं, उन्हें लैंगिक संबंध नहीं रखने चाहिए। (1 कुरिन्थियों 6:18) जो शादी-शुदा हैं, उन्हें अपने जीवन-साथी का वफादार होना चाहिए और व्यभिचार नहीं करना चाहिए। (इब्रानियों 13:4) साथ ही, बाइबल खून न लेने की सलाह भी देती है जिसे मानने पर एक इंसान इस संक्रमण से बच सकता है।—प्रेरितों 15:28, 29.
मगर जिन्हें यह बीमारी लग चुकी है, वे परमेश्वर के इस वादे से खुश हो सकते और तसल्ली पा सकते हैं कि जल्द ही वह एक ऐसी दुनिया लाएगा, जहाँ बीमारियाँ नहीं होंगी और आगे से वे परमेश्वर की माँगों के मुताबिक जीने की कोशिश कर सकते हैं।
बाइबल आश्वासन देती है कि आखिरकार इंसानों के सारे दुःख-दर्द, जिसमें बीमारी भी शामिल है, पूरी तरह मिट जाएँगे। यह वादा प्रकाशितवाक्य की किताब में किया गया है: “मैं ने सिंहासन में से किसी को ऊंचे शब्द से यह कहते हुए सुना, कि देख, परमेश्वर का डेरा मनुष्यों के बीच में है; वह उन के साथ डेरा करेगा, और वे उसके लोग होंगे, और परमेश्वर आप उन के साथ रहेगा; और उन का परमेश्वर होगा। और वह उन की आंखों से सब आंसू पोंछ डालेगा; और इस के बाद मृत्यु न रहेगी, और न शोक, न विलाप, न पीड़ा रहेगी; पहिली बातें जाती रहीं।”—प्रकाशितवाक्य 21:3, 4.
यह आश्वासन सिर्फ उन लोगों के लिए नहीं है जिनके पास महँगी दवाइयों का खर्च उठाने की हैसियत है। यशायाह 33:24 की भविष्यवाणी प्रकाशितवाक्य के अध्याय 21 में किए वादे को पुख्ता करती है: “कोई निवासी न कहेगा कि मैं रोगी हूं।” उस समय धरती पर जीनेवाले सभी लोग परमेश्वर के नियमों के मुताबिक चलेंगे और पूरी तरह सेहतमंद होंगे। इस तरह जानलेवा एड्स के साथ-साथ बाकी बीमारियों की जान हमेशा-हमेशा के लिए चली जाएगी। (g02 11/08)
[फुटनोट]
^ दवा-कंपनियों की पेटेन्ट दवाओं को जब नकल करके बनाया जाता है, तो उन्हें जॆनरिक दवा कहा जाता है। विश्व व्यापार संगठन (WTO) के सदस्य देश, संकट की घड़ियों में दवा-कंपनियों के पेटेन्ट अधिकारों को कानूनी तौर पर रद्द कर सकते हैं।
[पेज 9, 10 पर बक्स/तसवीरें]
यही था वह असली इलाज जिसकी मुझे तलाश थी
मैं अफ्रीका के दक्षिण भाग में रहती हूँ और 23 बरस की हूँ। वह दिन मुझे आज भी याद है जब मैंने पहली बार सुना कि मैं एच.आई.वी. पॉज़िटिव हूँ।
मैं और मेरी मम्मी, कनसल्टिंग रूम में थे जब डॉक्टर ने हमें यह खबर दी। यह मेरी ज़िंदगी की सबसे दर्दनाक खबर थी। मैं एकदम घबरा गयी। मुझे बिलकुल यकीन नहीं हो रहा था। मैंने सोचा, हो न हो लॆबोरेट्री की जाँच में ज़रूर कुछ गलती हुई है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या कहूँ, क्या करूँ। बस रोना आ रहा था मगर आँसू बिलकुल सूख गए थे। डॉक्टर, मम्मी के साथ एन्टी-रिट्रोवायरल दवाइयों और दूसरे विषयों पर बात करने लगा लेकिन मुझे तो ऐसा धक्का पहुँचा था कि कोई बात मेरे दिमाग में धस नहीं रही थी।
मैं समझ गयी कि यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते वक्त किसी लड़के से मुझे एच.आई.वी. का संक्रमण हुआ है। मैं बेचैन थी और अपना हाल किसी ऐसे व्यक्ति को सुनाना चाहती थी जो सचमुच मुझे समझे। लेकिन मुझे ऐसा कोई नहीं मिला। मैं अपनी नज़रों में गिर चुकी थी और पूरी तरह से टूट चुकी थी। बेशक मेरे परिवारवालों ने मेरी बहुत हिम्मत बँधायी, मगर मुझे अपना भविष्य बिलकुल अँधेरा नज़र आ रहा था, मैं डर के साये में जी रही थी। दूसरे जवानों की तरह मेरे भी कितने अरमान थे। दो साल बाद मैं साइन्स की डिग्री हासिल कर लेती, मगर अब मेरे सारे अरमान धरे-के-धरे रह गए।
मैंने डॉक्टर की लिखी एन्टी-रिट्रोवायरल दवाइयाँ लेनी शुरू कर दी और एड्स के सलाहकारों के पास भी गयी; फिर भी अपनी हताशा की भावना से मैं उबर नहीं पायी थी। मैंने परमेश्वर को दोहाई देते हुए कहा कि मेरी मौत से पहले मुझे दिखा दे कि सच्चा मसीही धर्म कहाँ है। मैं पैन्टीकॉस्टल चर्च की सदस्य थी, मगर उस चर्च का कोई भी मुझसे मिलने नहीं आया। मैं यह सच्चाई जानने के लिए बेताब थी कि मरने के बाद मैं कहाँ जाऊँगी।
सन् 1999 में, अगस्त महीने की शुरूआत में, एक सुबह दो यहोवा के साक्षियों ने मेरे दरवाज़े पर दस्तक दी। उस दिन मैं बहुत बीमार थी, फिर भी मैं जैसे-तैसे आकर बाहर के कमरे में बैठी। दोनों स्त्रियों ने अपना परिचय दिया और कहा कि वे बाइबल सीखने में लोगों की मदद कर रही हैं। आखिरकार अपनी प्रार्थनाओं का जवाब पाकर मुझे कितनी तसल्ली हुई! मगर तब तक मैं इतनी कमज़ोर हो चुकी थी कि मैं न तो ठीक से पढ़ पाती थी और ना ही ज़्यादा समय तक ध्यान दे पाती थी।
इसके बावजूद मैंने उनसे कहा कि मुझे बाइबल पढ़ना है और उन्होंने मुझसे दोबारा मिलने का समय तय किया। मगर अफसोस, उनके दोबारा आने से पहले मैं इस कदर हताश हो गयी थी कि मुझे मनोविकार अस्पताल में भरती होना पड़ा। तीन हफ्ते बाद मैं अस्पताल से लौटी। और बाद में, उन साक्षियों को देखकर मुझे कितना सुकून मिला कि वे मुझे अब तक नहीं भूली थीं! मुझे याद है कि उनमें से एक, हमेशा मेरी खैर-खबर लेती रहती थी। कुछ समय बाद मुझमें थोड़ी चुस्ती-फुर्ती आयी और उस साल के आखिर में, मैंने बाइबल का अध्ययन शुरू किया। यह मेरे लिए बड़ा मुश्किल था क्योंकि कई बार मेरी तबियत अचानक खराब हो जाती थी। लेकिन जो बहन मेरा अध्ययन लेती थी, वह मेरी हालत को अच्छी तरह समझती थी और उसने मेरे साथ बड़े धीरज से काम लिया।
बाइबल की सच्चाइयों ने मेरे दिल पर गहरी छाप छोड़ी। मैंने यहोवा और उसके गुणों के बारे में जाना, और सीखा कि परमेश्वर को जानने का असल में मतलब क्या होता है। मुझे यह भी पता चला कि हमें भविष्य में हमेशा-हमेशा की ज़िंदगी मिलेगी। इसके अलावा, मैंने पहली बार समझा कि इंसानों के दुःख-तकलीफों की असली वजह क्या है। जब मैंने परमेश्वर के राज्य के बारे में सीखा, जो जल्द ही इंसानी सरकारों की जगह ले लेगा तो मुझे बहुत खुशी हुई। इन सारी बातों ने मुझे इस कदर उकसाया कि मैंने अपने जीने का पूरा तरीका ही बदल दिया।
यही था वह असली इलाज, जिसकी मुझे तलाश थी! यह जानकर कि यहोवा अब भी मुझसे प्यार करता है और उसे मेरी परवाह है, मुझे इतनी तसल्ली मिली कि मैं उसका बयान नहीं कर सकती। पहले मैं सोचती थी कि परमेश्वर मुझसे नफरत करता है इसीलिए मुझे यह बीमारी लगी है। लेकिन मैंने जाना कि यहोवा कितना प्यार करनेवाला परमेश्वर है, उसने तो हमारे पापों की क्षमा के लिए यीशु मसीह के छुड़ौती बलिदान का इंतज़ाम किया। इससे मुझे एहसास हुआ कि वह सचमुच हमारा खयाल रखता है, ठीक जैसे 1 पतरस 5:7 में लिखा है: “अपनी सारी चिन्ता उसी पर डाल दो क्योंकि उस को तुम्हारा ध्यान है।”
हर रोज़ बाइबल का अध्ययन करने और राज्यगृह की सभाओं में जाने के ज़रिए मैं यहोवा के करीब आने की अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रही हूँ। यह मेरे लिए हमेशा आसान नहीं होता मगर मैं यहोवा से प्रार्थना करके अपनी सारी चिंता उस पर डाल देती हूँ और उससे शक्ति और मन की शांति के लिए बिनती करती हूँ। मुझे इस बात से खुशी मिलती है कि कलीसिया के भाई-बहन भी मेरी मदद के लिए हमेशा तैयार हैं।
मैं नियमित रूप से अपनी कलीसिया के साथ प्रचार काम में जाती हूँ। मैं दूसरों को आध्यात्मिक रूप से मदद देना चाहती हूँ, खासकर उन्हें जिनकी हालत भी मेरी तरह है। मैंने दिसंबर 2001 में बपतिस्मा भी लिया।
[तसवीर]
परमेश्वर के राज्य के बारे में सीखकर मुझे बहुत खुशी हुई
[पेज 8 पर तसवीर]
बॉटस्वाना में एड्स सलाहकारों का दल
[पेज 10 पर तसवीर]
फिरदौस बनी धरती पर सभी लोग पूरी तरह सेहतमंद होंगे