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बचपन से ही परमेश्‍वर से प्यार करना सिखाया गया

बचपन से ही परमेश्‍वर से प्यार करना सिखाया गया

बचपन से ही परमेश्‍वर से प्यार करना सिखाया गया

आनाटॉलये मेलनिक की ज़ुबानी

कई लोग मुझे प्यार से नानाजी बुलाते हैं। जब भी यह शब्द मेरे कानों में पड़ता है, तो दिल में एक तरंग-सी उठती है, क्योंकि इससे मुझे अपने नानाजी की याद आती है, जिन्हें मैं बेहद प्यार करता था और जिनका मैं बहुत एहसानमंद हूँ। आइए मैं आपको उनके बारे में कुछ बताऊँ और यह भी कि कैसे उन्होंने और नानी ने अपने घरवालों पर, साथ ही दूसरे कई लोगों की ज़िंदगी पर गहरा असर किया।

मेरा जन्म ख्लीना नाम के एक कसबे में हुआ था, जो आज मौलदोवा के उत्तर में है। * सन्‌ 1920 के दशक में सफरी सेवक, जो उन दिनों पिलग्रिम कहलाते थे, रोमानिया की सरहद पार करके हमारे खूबसूरत पहाड़ी इलाके में आए। जब मेरे नाना-नानी को बाइबल से खुशखबरी बतायी गयी तो उन्होंने फौरन उसे कबूल किया। सन्‌ 1927 में वे बाइबल विद्यार्थी बन गए, जैसा कि उन दिनों यहोवा के साक्षियों को कहा जाता था। सन्‌ 1939 में जब दूसरा विश्‍वयुद्ध शुरू हुआ, तब तक हमारे छोटे-से कसबे में यहोवा के साक्षियों की एक कलीसिया बन चुकी थी।

सन्‌ 1936 में जब मैं पैदा हुआ तब तक मेरे सारे रिश्‍तेदार यहोवा के साक्षी बन चुके थे, सिवा पिताजी के जो अब भी ऑर्थोडॉक्स चर्च जाया करते थे। मगर दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौरान, उन्होंने ज़िंदगी के मकसद के बारे में गहराई से सोचना शुरू किया और आखिरकार उन्होंने भी हमारे सिरजनहार, यहोवा परमेश्‍वर को अपनी ज़िंदगी समर्पित कर दी, और इसे ज़ाहिर करने के लिए पानी में बपतिस्मा लिया। हमारे परिवार की आध्यात्मिक उन्‍नति में नानाजी का बहुत बड़ा हाथ रहा। उन्हें बाइबल से गहरा लगाव था और सैकड़ों आयतें मुँह-ज़बानी याद थीं। किसी भी विषय पर होनेवाली बातचीत का रुख बाइबल की तरफ मोड़ना उन्हें खूब आता था।

मैं अकसर नानाजी की गोद में बैठकर उनसे बाइबल की कहानियाँ सुना करता था। उन्होंने मेरे दिल में परमेश्‍वर के लिए प्यार का बीज बोया। उनका यह एहसान शब्दों में ज़ाहिर नहीं किया जा सकता! आठ बरस की उम्र में, पहली बार मैं अपने नानाजी के साथ प्रचार में गया। हमने अपने कसबे के लोगों को बाइबल से दिखाया कि यहोवा कौन है और हम उसके करीब कैसे आ सकते हैं।

कम्युनिस्ट लोगों के हाथों ज़ुल्म

सन्‌ 1947 में, कम्युनिस्ट लोगों की नीति और ऑर्थोडॉक्स चर्च के दबाव की वजह से, मौलदोवा के अधिकारियों ने यहोवा के साक्षियों को सताना शुरू कर दिया। जो कारिंदे बाद में के.जी.बी. (भूतपूर्व सोवियत संघ की खुफिया पुलिस) कहलाए, वे और हमारे इलाके के पुलिसवाले हमारे घर आते और पूछताछ करते थे कि कौन हमारे प्रचार काम में अगुवाई करते हैं, साहित्य कहाँ से आते हैं और उपासना के लिए हम कहाँ इकट्ठे होते हैं। उन्होंने कहा कि वे यहोवा के साक्षियों का काम बंद करनेवाले हैं क्योंकि उनके मुताबिक साक्षी “देश में कम्युनिस्टवाद की तरक्की में रोड़ा हैं।”

पिताजी जो काफी पढ़े-लिखे थे, उन्हें इस समय तक बाइबल की सच्चाई से गहरा लगाव हो गया था। वे और नानाजी, दोनों बखूबी जानते थे कि पूछताछ करनेवालों को कैसे जवाब देना है ताकि अपने मसीही भाई-बहनों के साथ गद्दारी न करें। वे दोनों बड़े हिम्मतवाले थे। उन्हें भाई-बहनों से बेहद प्यार था और उनकी खैरियत की परवाह थी। उन्हीं की तरह माँ भी हमेशा शांत रहती और ठंडे दिमाग से काम लेती थी।

सन्‌ 1948 में पिताजी को गिरफ्तार करके ले जाया गया। हमें यह भी नहीं बताया गया कि उन पर क्या-क्या आरोप हैं। उन्हें सात साल की जेल हो गयी, जहाँ उन्हें कड़ी निगरानी में रखा गया। इसके बाद उन्हें दो साल के लिए देशनिकाला दे दिया गया। आखिर में, उन्हें उत्तर-पूर्वी रूस में मागदेन नाम के एक दूर-दराज़ इलाके में भेजा गया, जो हमारे घर से 7,000 किलोमीटर से भी ज़्यादा दूर था। नौ साल तक हम पिताजी से बिछड़े रहे। उनके बिना जीना मुश्‍किल था, मगर नानाजी ने मेरी बहुत मदद की।

देशनिकाला

सन्‌ 1949, 6 जून की रात को अचानक एक अफसर और दो सैनिक धड़धड़ाते हुए हमारे घर में घुस आए। उन्होंने हुक्म दिया कि तुम्हारे पास अब सिर्फ दो घंटे हैं, अपना बोरिया-बिस्तर बाँधो और हमारी गाड़ी में बैठ जाओ। कोई वजह नहीं बतायी। बस इतना कहा कि हमें देशनिकाला दिया गया है और हम फिर कभी अपने घर नहीं लौट पाएँगे। माँ, नाना-नानी और दूसरे मसीही भाई-बहनों के साथ मुझे भी साइबेरिया भेज दिया गया। उस वक्‍त मैं सिर्फ 13 साल का था। चंद हफ्तों बाद हम सब टाइगा के एक दलदली इलाके में पहुँचे, जो घने जंगलों से घिरा हुआ था। यह हमारे उस खूबसूरत कसबे से कितना अलग था, जो मुझे बहुत प्यारा था! कभी-कभी हम उसे याद करके रो पड़ते थे। फिर भी हमें पूरा भरोसा था कि यहोवा हमें कभी नहीं छोड़ेगा।

हमें जिस छोटे-से कसबे में लाया गया, उसमें पेड़ की लकड़ियों से बनी दस मामूली झोंपड़ियाँ थीं। बाकी साक्षियों को भी पूरे टाइगा में बिखरे हुए अलग-अलग कसबों में भेज दिया गया। वहाँ के निवासियों के दिल में हमारे खिलाफ डर और नफरत पैदा करने के लिए अधिकारियों ने उन्हें बताया कि हम आदमखोर हैं। मगर कुछ ही समय के अंदर लोगों ने समझ लिया कि यह सरासर झूठ है और उन्हें हमसे डरने की कोई ज़रूरत नहीं।

टाइगा आने के बाद, शुरू के दो महीने हम एक पुरानी झोपड़ी में रहे। मगर इससे पहले कि कड़ाकेदार ठंड शुरू हो, हमें रहने का अच्छा बंदोबस्त करना था। नाना-नानी की मदद से माँ और मैंने मिलकर एक सादा-सा घर बनाया, जिसका आधा हिस्सा ज़मीन में और आधा ऊपर था। इसमें हम तीन साल से ज़्यादा समय तक रहे। हमें बताया गया कि हम बगैर इजाज़त के कसबे से बाहर कदम न रखें, मगर इसकी इजाज़त हमें कभी मिलती ही नहीं थी।

कुछ समय बाद मुझे स्कूल जाने की इजाज़त दी गयी। टीचरों और क्लास के बच्चों ने जब देखा कि मेरे धार्मिक विचार, दूसरों से अलग थे, तो वे अकसर मुझसे सवाल पूछा करते थे। घर आकर जब मैं नानाजी को बताता कि मैंने स्कूल में कैसे अपने विश्‍वास के बारे में समझाया, तो उनकी आँखें खुशी से चमक उठती थीं।

थोड़ी और आज़ादी

सन्‌ 1953 में, तानाशाह स्टालिन की मौत के बाद कानून में थोड़ी ढील दी गयी, जिससे हमें कुछ राहत मिली। हमें कसबे से बाहर जाने की इजाज़त दी जाने लगी। अब हम पास के उन कसबों में जा सकते थे जहाँ दूसरे साक्षी रहते थे। हम उनसे मिलते और सभाओं में हाज़िर होते। मगर हम हमेशा छोटे-छोटे समूहों में मिलते थे ताकि लोगों का ध्यान हम पर न आए। वहाँ जाने के लिए हमें 30 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था। कभी-कभी रास्ते पर बर्फ घुटनों तक जमी रहती और तापमान शून्य से 40 डिग्री नीचे होता था। फिर अगले ही दिन हम लंबा सफर तय करके घर लौटते थे। रास्ते में हम अचार और खड़ी शक्कर के टुकड़े खाते थे। ऐसी तकलीफों के बावजूद हम प्राचीन समय के दाऊद की तरह बहुत खुश थे!—भजन 122:1.

सन्‌ 1955 में मैंने यहोवा को अपना समर्पण ज़ाहिर करने के लिए बपतिस्मा लिया। इसके कुछ ही समय पहले, एक दिन जब मैं पासवाले कसबे में सभा के लिए गया तो मेरी मुलाकात एक लड़की से हुई जिसका नाम था, लीडीया। काली ज़ुल्फोंवाली यह लड़की बिलकुल सीधी-सादी थी। हमारी तरह उसे और उसके परिवार को भी साक्षी होने की वजह से मौलदोवा से देशनिकाला दिया गया था। उसकी आवाज़ बड़ी सुरीली थी और उन दिनों की गीत-पुस्तक के लगभग सारे 337 गीत उसे मुँह-ज़बानी याद थे। मैं तो उसका कायल हो गया क्योंकि मुझे भी संस्था के गीत-संगीत बेहद पसंद थे। सन्‌ 1956 में हमने शादी करने का फैसला कर लिया।

जब हमें खबर मिली कि पिताजी को मागदेन भेज दिया गया है, तो मैंने उनको एक खत लिखा। उनका आशीर्वाद मिलने तक हमने शादी की बात टाल दी। जल्द ही पिताजी रिहा किए गए और वे भी हमारे साथ कसबे में रहने आ गए। उन्होंने बताया कि जेल के हालात कैसे बदतर थे, मगर परमेश्‍वर की मदद से वे और दूसरे मसीही कैसे सबकुछ झेलकर ज़िंदा बचे। उनकी दास्तान सुनने से हमारा विश्‍वास मज़बूत हुआ।

अभी पिताजी को लौटे ज़्यादा दिन नहीं हुए थे कि एक दिन घर में भयानक दुर्घटना हो गयी। माँ एक तरह का तेल पका रही थी जिसे हम रंगों और वार्निश में इस्तेमाल करते थे। न जाने कैसे उबलते तेल का बड़ा हंडा उलट गया और तेल माँ के ऊपर गिर गया। हम माँ को फौरन अस्पताल ले गए मगर वहाँ उसने दम तोड़ दिया। हम इस हादसे से पूरी तरह टूट गए। मगर धीरे-धीरे पिताजी का दुःख थोड़ा कम हुआ। फिर बाद में उन्होंने टाट्याना नाम की एक साक्षी से शादी की, जो हमारे पड़ोसवाले कसबे से थी।

अपनी सेवा को बढ़ाना

सन्‌ 1958 में लीडीया और मैं, कीज़ाक नाम का अपना कसबा छोड़कर, करीब 100 किलोमीटर दूर लिब्याइये नाम के एक बड़े कसबे में रहने चले गए। हमने संस्था के साहित्य में पढ़ा था कि दूसरे देशों में हमारे भाई-बहन घर-घर जाकर प्रचार करते हैं। इसलिए हमने भी इस नयी जगह में घर-घर जाकर गवाही देने की कोशिश की। हालाँकि प्रहरीदुर्ग और सजग होइए! पत्रिकाओं पर पाबंदी थी, मगर हमें दूसरी जगहों से चोरी-छिपे पत्रिकाएँ मिलती रहती थीं। हमें रूसी और मौलदोवा की भाषा में पत्रिकाएँ मिलती थीं। लेकिन अब हमें खबर मिली कि हमें सिर्फ रूसी भाषा में पत्रिकाएँ मिलेंगी। इसलिए हमने रूसी भाषा अच्छी तरह सीखने के लिए कड़ी मेहनत की। आज भी मुझे न सिर्फ उन लेखों के शीर्षक बल्कि उनमें बतायी कुछ बातें भी याद हैं।

अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करने के लिए लीडीया अनाज के एक गोदाम में काम करती और मैं गाड़ियों से बड़ी-बड़ी लकड़ियाँ उतारने का काम करता था। काम बहुत थकाऊ था, मगर मज़दूरी कौड़ी भर मिलती थी। हम साक्षियों की कड़ी मेहनत की तारीफ तो की जाती थी, मगर ज़रूरत की घड़ी में हमें कभी पैसे की मदद नहीं दी जाती थी, और न ही बतौर इनाम थोड़ा ज़्यादा पैसा दिया जाता। अधिकारी साफ-साफ कहते: “कम्युनिस्ट समाज में यहोवा के साक्षियों के लिए कोई जगह नहीं।” इस बात से हम दुःखी नहीं, बल्कि बहुत खुश हुए क्योंकि यीशु ने अपने चेलों के बारे में जो कहा, वह हमारे मामले में सच हो रहा था: “जैसे मैं संसार का नहीं, वैसे ही वे भी संसार के नहीं।”—यूहन्‍ना 17:16.

नयी चुनौतियाँ

सन्‌ 1959 में, हमारी बेटी वॉलनटीना पैदा हुई। इसके कुछ ही समय बाद ज़ुल्मों का एक नया दौर शुरू हुआ। दी इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका कहती है: “सन्‌ 1959-64 के दरमियान, प्रधानमंत्री नीकीटा क्रुशचेव ने धर्म के खिलाफ एक नया आंदोलन छेड़ दिया।” के.जी.बी. के सदस्यों ने हमें जताया कि सोवियत सरकार ने सभी धर्मों का, खासकर यहोवा के साक्षियों का नामो-निशान मिटाने की ठान ली है।

जब हमारी बच्ची, वॉलनटीना करीब एक साल की हुई, तब मुझे सेना में भरती होने का बुलावा मिला। निष्पक्ष रहने के कारण जब मैं नहीं गया, तो मुझे पाँच साल की जेल हो गयी। एक बार जब लीडीया मुझसे जेल में मिलने आयी तो के.जी.बी. के कर्नल ने उससे कहा: “हमें रूसी सरकार, क्रेमलिन से सूचना मिली है कि दो साल के अंदर पूरे सोवियत संघ से साक्षियों का सफाया हो जाएगा।” फिर उसने यह धमकी दी: “तुम्हें अपना धर्म छोड़ना होगा, वरना तुम्हें भी सलाखों के पीछे डाल दिया जाएगा।” कर्नल को लगा कि ऐसी गीदड़-भभकियों से ये औरतें घबराकर दब जाएँगी। उसका कहना था: “ये औरतें बुज़दिल हैं।”

देखते-ही-देखते ज़्यादातर साक्षी पुरुषों को जेलों या लेबर कैंपों में डाल दिया गया। मगर हमारी जाँबाज़ मसीही बहनों ने प्रचार काम जारी रखा। अपनी जान पर खेलते हुए वे जेलों और लेबर कैंपों में रहनेवाले भाइयों के लिए चोरी-छिपे पत्रिकाएँ लाती थीं। लीडीया ने भी ऐसी परीक्षाएँ झेलीं और कई बार तो उसे बुरी नीयतवाले आदमियों का सामना करना पड़ा, जो मेरी गैर-हाज़िरी में उसका फायदा उठाना चाहते थे। उसे यह भी बताया गया कि वह मेरी रिहाई के ख्वाब देखना छोड़ दे। मगर मैं छूटकर वापस आया!

रिहाई और कज़ाकस्तान जाना

सन्‌ 1963 में मेरे मामले की दोबारा सुनवाई हुई और बाद में मुझे रिहा किया गया। तब तक मुझे तीन साल जेल में गुज़ारने पड़े। मगर रिहाई के बाद, हमें कहीं भी रहने का परमिट नहीं मिल रहा था, इसलिए मुझे नौकरी भी नहीं मिली। सरकार का एक कानून था: “रहने का परमिट नहीं, तो नौकरी नहीं।” हमने गिड़गिड़ाकर यहोवा को मदद के लिए पुकारा। फिर हमने कज़ाकस्तान के उत्तर में पिट्रपावल शहर जाने का फैसला किया। मगर अफसोस, वहाँ के अधिकारियों को हमारे आने की खबर मिल गयी, इसलिए उन्होंने न तो हमें रहने की और ना ही काम करने की इजाज़त दी। इस शहर में करीब 50 साक्षियों को ऐसा ही अत्याचार सहना पड़ा।

हम एक और साक्षी जोड़े के साथ, दूर दक्षिण की तरफ शचुचिंक्स नाम के छोटे-से कसबे में चले आए। यहाँ एक भी साक्षी नहीं रहता था और अधिकारियों को हमारे प्रचार काम की बिलकुल खबर नहीं थी। एक हफ्ते तक मैं और दूसरा भाई आइवन, नौकरी की तलाश में भटकते रहे और हमारी पत्नियाँ रेलवे स्टेशन पर बैठी रहीं, जहाँ हम रात गुज़ारते थे। आखिरकार, हमें काँच के कारखाने में नौकरी मिल गयी। हम दोनों परिवारों ने मिलकर किराए पर एक छोटा-सा कमरा लिया, जिसमें दो पलंग रखने के बाद, थोड़ी-सी जगह बची थी। मगर हम उसी में खुश थे।

आइवन और मैं खूब मेहनत करते थे, जिससे हमारे मालिक बहुत खुश हुए। मुझे फिर से सेना में भरती होने का बुलावा आया। लेकिन तब तक कारखाने के मैनेजर को पता चल गया था कि बाइबल से तालीम पाया मेरा विवेक मुझे सेना में भरती नहीं होने देगा। हैरानी की बात है कि उसने खुद सेना के मुख्य अधिकारी को बताया कि आइवन और मैं कुशल मज़दूर हैं और कारखाना हमारे बिना नहीं चल सकता। इसलिए हमें नौकरी पर रहने की इजाज़त मिल गयी।

बच्चों की परवरिश और दूसरों की सेवा

सन्‌ 1966 में हमारी दूसरी बेटी, लील्या पैदा हुई। एक साल बाद हम ब्यीलिये वॉडी नाम के कसबे में रहने लगे। यह कसबा, कज़ाकस्तान के दक्षिण में, और उज़्बेकस्तान की सरहद के पास है। वहाँ साक्षियों का एक छोटा-सा समूह था। जल्द ही वह बढ़कर एक कलीसिया बन गयी और मुझे प्रिसाइडिंग ओवरसियर ठहराया गया। सन्‌ 1969 में हमें एक बेटा हुआ जिसका नाम हमने ऑल्येक रखा। फिर दो साल बाद हमारी सबसे छोटी बेटी, नताशा पैदा हुई। लीडीया और मैं कभी नहीं भूले कि बच्चे, परमेश्‍वर का दिया हुआ भाग या उसकी दी हुई विरासत हैं। (भजन 127:3) हम आपस में बातचीत करते थे कि हमें उनकी परवरिश कैसे करनी चाहिए ताकि वे यहोवा से प्यार करना सीखें।

ज़्यादातर साक्षी भाइयों को सन्‌ 1970 के दशक तक भी लेबर कैंपों से रिहा नहीं किया गया। बहुत-सी कलीसियाओं को प्रौढ़ भाइयों की ज़रूरत थी जो उनकी देखरेख करें और उन्हें मार्गदर्शन दें। इसलिए मैंने सफरी ओवरसियर के नाते सेवा शुरू की। इस दौरान लीडीया ने बच्चों की परवरिश करने की भारी ज़िम्मेदारी उठायी। कभी-कभी वह माँ और बाप दोनों का फर्ज़ निभाती थी। मैंने कज़ाकस्तान के साथ-साथ पड़ोस के ताज़िकिस्तान, तर्कमेनस्तान और उज़्बेकिस्तान के सोवियत गणराज्यों में कलीसियाओं का दौरा किया। साथ ही, मैं परिवार के गुज़र-बसर के लिए नौकरी भी करता था। लीडीया और बच्चों ने खुशी-खुशी मेरा साथ दिया।

हालाँकि कभी-कभार मैं हफ्तों घर से बाहर रहता था, मगर जब भी मैं बच्चों के साथ होता, तो उन्हें पिता का प्यार देने और आध्यात्मिक तरक्की में उनकी मदद करने की पूरी कोशिश करता था। लीडीया और मैं साथ मिलकर तहेदिल से प्रार्थना करते थे कि यहोवा हमारे बच्चों की मदद करे। हम बच्चों के साथ बैठकर चर्चा करते थे कि वे इंसान का खौफ मन से कैसे दूर कर सकते हैं और परमेश्‍वर के साथ करीबी रिश्‍ता कैसे कायम कर सकते हैं। मेरी प्यारी पत्नी ने जी-जान से मेरा साथ निभाया जिसकी बदौलत मैं सफरी ओवरसियर की ज़िम्मेदारी पूरी कर सका। लीडीया और हमारी दूसरी बहनें, यकीनन ‘बुज़दिल औरतें’ नहीं थीं, जैसे सेना के उस अफसर ने दावा किया था। वे बड़ी मज़बूत थीं, वाकई उनमें गजब की आध्यात्मिक ताकत थी!—फिलिप्पियों 4:13.

जब मेरे सभी बच्चे बड़े हो गए, तब सन्‌ 1988 में मुझे नियमित तौर पर सफरी काम करने को कहा गया। मेरे सर्किट में मध्य एशिया के ज़्यादातर देश आते थे। सन्‌ 1991 में भूतपूर्व सोवियत संघ में यहोवा के साक्षियों के प्रचार काम को कानूनी मान्यता मिली। तब से आध्यात्मिक तजुरबा रखनेवाले काबिल भाई सफरी काम के सिलसिले में, भूतपूर्व सोवियत संघ के एशियाई गणराज्यों का दौरा करने लगे। आज इन देशों में कुल 14 सफरी ओवरसियर हैं और यहाँ पिछले साल 50,000 से ज़्यादा लोग मसीह की मौत के स्मारक समारोह में हाज़िर हुए थे!

ऐसा बुलावा जिसकी उम्मीद नहीं थी!

सन्‌ 1998 की शुरूआत में रूस के शाखा दफ्तर से मुझे अचानक एक फोन आया। मुझसे पूछा गया: “आनाटॉलये, क्या आपने और लीडीया ने मिलकर पूरे समय की सेवा के बारे में सोचा है?” बेशक, हमारा सपना था कि हमारे बच्चों को ऐसा मौका मिले। वैसे हमारा बेटा ऑल्येक तो रूस के शाखा दफ्तर में करीब पाँच साल से सेवा कर ही रहा था।

जब मैंने लीडीया को इस बुलावे के बारे में बताया तो वह बोली: “मगर हमारे घर, बाग-बगीचे और हमारी चीज़ों का क्या होगा?” हमने इस बारे में प्रार्थना की और आपस में बातचीत करने के बाद इस बुलावे को कबूल करने का फैसला किया। आखिरकार हमें कज़ाकस्तान के एक बड़े शहर, अल्मा अटा में इसक नाम के नगर में यहोवा के साक्षियों के धार्मिक केंद्र में सेवा करने के लिए बुलाया गया। यहाँ उन भाषाओं में हमारे बाइबल साहित्य को अनुवाद करने का काम होता है, जो यहाँ के पूरे इलाके में बोली जाती हैं।

आज हमारा परिवार

यहोवा ने हमारे बच्चों को बाइबल की सच्चाई सिखाने में हमारी जो मदद की, उस उपकार को हम कभी नहीं भूलेंगे! हमारी बड़ी बेटी वॉलनटीना, सन्‌ 1993 में शादी करके अपने पति के साथ जर्मनी के इंगलहाइम शहर में बस गयी। उनके तीन बच्चे हैं और वे सभी यहोवा के बपतिस्मा-शुदा साक्षी हैं।

हमारी दूसरी बेटी, लील्या ने भी अपना घर बसा लिया है। उसका पति, ब्यीलिये वॉडी कलीसिया में प्राचीन है और दोनों मिलकर अपने दो बच्चों की अच्छी परवरिश कर रहे हैं ताकि वे यहोवा से प्यार करना सीखें। ऑल्येक ने मॉस्को की एक मसीही बहन, नताशा से शादी की और वे दोनों सेंट पीटर्सबर्ग के पास, रूस के शाखा दफ्तर में सेवा कर रहे हैं। सन्‌ 1995 में हमारी सबसे छोटी बेटी नताशा ने भी शादी कर ली और वह अपने पति के साथ जर्मनी में, एक रूसी कलीसिया में सेवा कर रही है।

कभी-कभार, हमारा यह बड़ा परिवार एक-साथ इकट्ठा होता है। हमारे बच्चे अपने बच्चों को बताते हैं कि कैसे “मम्मी” और “पापा” ने यहोवा की सुनी और अपने बच्चों की इस तरह से परवरिश की कि वे सच्चे परमेश्‍वर यहोवा से प्यार करें और उसकी सेवा करें। मैं देख सकता हूँ कि ऐसी बातों से हमारे नाती-पोतों को आध्यात्मिक रूप से बढ़ने में मदद मिलती है। मेरा सबसे छोटा नाती बिलकुल वैसा ही दिखता है जैसा मैं उसकी उम्र में दिखता था। कभी-कभी वह मेरी गोद में आकर बैठ जाता है और मुझसे बाइबल की कहानी सुनाने के लिए कहता है। उस वक्‍त मेरी आँखें भर आती हैं, क्योंकि मुझे याद आता है कि कैसे मैं भी उसकी उम्र में अपने नानाजी की गोद में बैठ जाता था और किस तरह उन्होंने मेरे दिल में अपने महान सिरजनहार, यहोवा के लिए प्यार और उसकी सेवा करने का जज़्बा पैदा किया। (g04 10/22)

[फुटनोट]

^ पहले इस देश का नाम मॉल्डेवीया या मॉल्डेवीया का सोवियत गणराज्य था। इस पूरे लेख में मौजूदा नाम मौलदोवा इस्तेमाल किया जाएगा।

[पेज 11 पर तसवीर]

पिताजी को जेल होने के कुछ ही समय पहले, मौलदोवा में अपने घर के बाहर माता-पिता के साथ

[पेज 12 पर तसवीर]

सन्‌ 1959 में लीडीया के साथ, देशनिकाला की सज़ा के दौरान

[पेज 13 पर तसवीर]

जब मैं कैद में था, तब लीडीया हमारी बेटी वॉलनटीना के साथ

[पेज 15 पर तसवीर]

आज लीडीया के साथ

[पेज 15 पर तसवीर]

आज हम अपने बच्चों और नाती-पोतों के साथ मिलकर यहोवा की सेवा कर रहे हैं