मगरमच्छ—क्या आप उसे देखकर मुस्करा सकते हैं?
मगरमच्छ—क्या आप उसे देखकर मुस्करा सकते हैं?
भारत में सजग होइए! लेखक द्वारा
मगरमच्छ को देखकर क्या आपके चेहरे पर कभी मुस्कराहट आ सकती है? संगीत और नाटक के तौर पर लिखी गयी बच्चों की एक कहानी पीटर पैन में एक किरदार कैप्टन हुक सबको इस तरह खबरदार करता है, “मगर को देखकर कभी मुस्कराने की मत सोचना।” भला क्यों? वह बताता है, क्योंकि उस वक्त मगरमच्छ के “दिमाग में सिर्फ यह घूम रहा होता है कि कब आपको चट कर जाए।”
यह सच है कि दुनिया-भर में पाए जानेवाले तरह-तरह के मगरमच्छों में, कुछ ऐसे हैं जो इंसानों पर हमला करते हैं। लेकिन “ऐसा इतना कम होता है . . . कि आम तौर पर इन्हें आदमखोर नहीं कहा जा सकता।” (इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका) कुछ लोगों की नज़र में मगरमच्छ बदसूरत और डरावना होता है तो कुछ के लिए यह बहुत दिलचस्प जानवर है। आइए भारत में पायी जानेवाली मगरमच्छ की तीन किस्मों पर गौर करें। खारे पानी में रहनेवाला मगर, मीठे पानी में रहनेवाला मगर और घड़ियाल।
खारे पानी का बड़ा मगर
खारे पानी या मुहाने (समुद्र और नदी के संगम) पर रहनेवाला मगर, धरती पर रेंगनेवाले सभी जंतुओं में सबसे बड़ा होता है। इसकी लंबाई 23 फीट [7 m] या उससे ज़्यादा और वज़न 1,000 किलोग्राम तक हो सकता है। यह सिर्फ खारे पानी में ही रहता है। यह भारत से लेकर उत्तरी ऑस्ट्रेलिया तक के सागर तटों के दलदलों में पाया जाता है जहाँ मैनग्रोव नाम के पेड़ उगते हैं, साथ ही इनके बीच के मुहानों और समुद्रों में पाया जाता है। यह मांसाहारी होता है इसलिए चूहे, मेंढक, मछली, साँप, केकड़े, कछुए यहाँ तक कि हिरन को भी निगल जाता है। लेकिन इसकी खुराक बहुत कम होती है। बड़ा नर एक दिन में सिर्फ 500 से 700 ग्राम खाना खाता है। यह एक आराम-पसंद जानवर है। यह या तो धूप सेंकता रहता है या फिर बिना हिले-डुले पानी में पड़ा रहता है और इसका हाज़मा भी बहुत अच्छी तरह काम करता है। इन्हीं वजहों से इसे ज़्यादा ऊर्जा की ज़रूरत नहीं पड़ती। कभी-कभार खारे पानी में रहनेवाला बड़ा मगरमच्छ किसी बेखबर इंसान पर हमला कर सकता है। यह अपनी पूँछ को दाएँ-बाएँ हिलाकर पानी में तैरता है और ऐसे में इसका सारा शरीर पानी के अंदर रहता है, सिर्फ नथुने और आँखें बाहर होती हैं। ज़मीन पर यह अपने छोटे-छोटे पैरों के बल चलता है। अपना शिकार पकड़ने के लिए यह ज़ोरदार छलाँग भी लगा सकता है और कई दफे तो इसे शिकार के पीछे सरपट दौड़ते भी देखा गया है। दूसरे मगरमच्छों की तरह इसकी सूँघने, देखने और सुनने की शक्ति बहुत तेज़ होती है। नर मगरमच्छ सहवास के मौसम में अपने इलाके की रखवाली करते वक्त बहुत ही हिंसक हो जाता है, उसी तरह मादा अपने अंडों की रखवाली के समय बहुत खूँखार हो जाती है।
बच्चों को जी-जान से पालनेवाली माँ
मादा मगरमच्छ अकसर समुद्र के किनारे सड़ी-गली पत्तियों, घास-फूस और मिट्टी से अपना घरौंदा बनाती है। कभी-कभी वह एक बार में 100 अंडे तक देती है, जिनके खोल बहुत सख्त होते हैं। फिर वह अंडों को अच्छी तरह ढक देती है और शिकारियों से उनकी हिफाज़त करती है। इसके बाद,
वह अपने घरौंदे पर पानी छिड़कती है ताकि घास-फूस से बना घर और भी सड़ने लगे, उससे ज़्यादा गर्मी पैदा हो और अंडों की अच्छी सिंकाई हो।अब आगे जो होता है, वह बहुत दिलचस्प है। अंडे से निकलनेवाले बच्चों का लिंग, अंडे को मिलनेवाले तापमान पर निर्भर करता है। है न, अनोखी बात! जब अंडे को 28 से 31 डिग्री सेलसियस तक का तापमान मिलता है तो करीब 100 दिन में उसमें से मादा मगरमच्छ निकलती है। और जब तापमान 32.5 डिग्री सेलसियस होता है तो अंडे में से 64 दिनों के अंदर नर मगरमच्छ निकलता है। लेकिन तापमान 32.5 से 33 डिग्री सेलसियस के बीच हो, तो उसमें से नर या मादा कोई भी निकल सकता है। घरौंदे की एक तरफ पानी, तो दूसरी तरफ सूरज की कड़कती धूप होती है इसलिए जिस तरफ गर्मी होती है, उधर से नर और जिस तरफ ठंडक होती है वहाँ से मादा निकल सकती है।
जब माँ बच्चे की चिचियाहट सुनती है, तो वह घरौंदे पर से घास-फूस हटा देती है और कभी-कभी जब बच्चे अपने खास दाँतों से अंडे को नहीं तोड़ पाते, तो वह खुद उसे तोड़ देती है। फिर बच्चे को बहुत सँभालकर अपने बड़े जबड़ों में उठाती है और जीभ के नीचे थैलीनुमा जगह में रखकर पानी के किनारे ले जाती है। ये बच्चे जन्म से ही अपने बलबूते जीने लगते हैं और फौरन कीड़े-मकोड़े, मेंढक और छोटी-छोटी मछलियाँ पकड़ने लग जाते हैं। लेकिन कुछ माँएं बच्चों को एक इलाके में रखकर उनके आस-पास ही रहती हैं और कई महीनों तक उनकी हिफाज़त करती हैं। साथ ही पिता भी बच्चों की देखभाल और हिफाज़त करता है।
मीठे पानी का मगर और लंबी नाकवाला घड़ियाल
मीठे पानी का मगर और घड़ियाल सिर्फ भारत के उप-महाद्वीप में पाए जाते हैं। इस मगर की लंबाई करीब 13 फीट [4 m] होती है यानी खारे पानी के मगर के मुकाबले यह काफी छोटा होता है। यह भारत के मीठे पानी के दलदलों, झीलों और नदियों में पाया जाता है। यह छोटे-छोटे जानवरों को अपने शक्तिशाली जबड़ों से धरदबोचता है और पानी में डुबा-डुबाकर, इधर-उधर उछालकर उसके टुकड़े-टुकड़े करके खाता है।
मगरमच्छ अपना साथी कैसे ढूँढ़ता है? जब उसे साथी की तलाश होती है तो वह अपना जबड़ा ज़ोर-ज़ोर से पानी पर मारते हुए गुर्राता है। सहवास के बाद वह घरौंदे की रखवाली करने, बच्चों को अंडे से बाहर निकालने और कुछ समय तक उनकी देखभाल करने में मादा का साथ निभाता है।
घड़ियाल जो कि बहुत कम पाए जाते हैं, असल में मगरमच्छ नहीं होते बल्कि कई तरीकों से उनसे बहुत अनोखे होते हैं। अपने लंबे और तंग जबड़ों से घड़ियाल आसानी से पहचाने जाते हैं। मछली उनका खास भोजन है और उनके ये जबड़े मछली पकड़ने के लिए बिलकुल सही होते हैं। हालाँकि घड़ियालों की लंबाई खारे पानी के मगरमच्छों के जितनी होती है लेकिन घड़ियाल इंसान पर हमला नहीं करते। ये मगरमच्छों के मुकाबले कम मोटे और कम खुरदरे होते हैं इसलिए उत्तरी भारत की गहरी और तेज़ बहती नदियों में बड़ी रफ्तार से तैर सकते हैं। सहवास के दौरान नर घड़ियाल के थूथन का सिरा गुब्बारे की तरह उभर आता है। इससे उसकी सिसकारने की आवाज़ मोटी और भारी हो जाती है और मादा घड़ियाल उसकी तरफ खिंची चली आती है।
पर्यावरण में इनका काम
मगरमच्छ हमारे पर्यावरण के लिए कितने ज़रूरी हैं? ये नदियों, झीलों और उनके
आस-पास के इलाकों से सड़ी-गली मछलियाँ और जानवर खाते हैं। इस तरह ये पानी को गंदा होने से बचाते हैं। ये कमज़ोर, घायल और बीमार जानवरों का शिकार करते हैं। ये मछलियाँ खाते हैं, जैसे कि कैटफिश। कैटफिश व्यापार के नज़रिए से बड़ी नुकसानदेह हैं क्योंकि ये कार्प और तिलापिया मछलियाँ खा जाती हैं जिन्हें बड़े पैमाने पर इंसानों के खाने के लिए पकड़ा जाता है।मगरमच्छ के आँसू नहीं बल्कि जीने के लिए संघर्ष
क्या आपने किसी को यह कहते सुना है कि उसके तो मगरमच्छ के आँसू थे? इसका मतलब है, झूठमूठ का रोना या दिखावटी शोक। पर जहाँ तक मगर की बात है, उसके आँसुओं के ज़रिए उसके शरीर का अनचाहा नमक बाहर निकल जाता है। लेकिन सन् 1970 के दशक की शुरूआत में मगरमच्छों के लिए शायद सचमुच ही आँसू बहाए गए हों। उस वक्त भारत में सिर्फ कुछ हज़ार मगर रह गए थे या दूसरे शब्दों में कहें तो पहले उनकी जितनी संख्या थी, उसका सिर्फ 10 प्रतिशत रह गया था। क्यों? क्योंकि इंसान जैसे-जैसे मगर के इलाकों पर कब्ज़ा करने लगे, उनका जीना दुश्वार हो गया। क्योंकि मगरमच्छ छोटे और कमज़ोर पालतू जानवरों को खा जाते थे इसलिए उन्हें खतरा समझकर मार डाला जाता था। इसके अलावा, कइयों की जीभ पर मगर के गोश्त और अंडों का स्वाद चढ़ गया था। मगरमच्छ की कस्तूरी ग्रंथियों का इस्तेमाल इत्र बनाने के लिए किया जाने लगा। उस पर से, बाँध बनाने और पानी के प्रदूषण की वजह से मगरमच्छों की आबादी बहुत घट गयी। लेकिन जिस वजह से मगर के धरती से गायब होने की नौबत आयी, वह थी उसके चमड़े की माँग। मगर के चमड़े से बने जूते, छोटे-बड़े बैग, बेल्ट और दूसरी चीज़ें इतनी सुंदर और टिकाऊ होती हैं कि सभी इन चीज़ों को चाहने लगे। हालाँकि इस वजह से मगरमच्छों को आज भी खतरा है, लेकिन उनकी हिफाज़त के लिए जो कदम उठाए गए उससे बहुत कामयाबी मिली है!—नीचे दिया बक्स देखिए।
मुस्कराना मत भूलिए!
अब जबकि मगर परिवार के कुछ सदस्यों को आप और करीब से जान गए हैं तो उनके बारे में आपका क्या खयाल है? अगर उनके बारे में पहले आपके खयालात अच्छे नहीं थे तो उम्मीद करते हैं कि अब उनमें आपकी दिलचस्पी जागी होगी। दुनिया-भर में ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो जानवरों से प्यार करते हैं और एक ऐसे दिन की आस लगाए हुए हैं जब वे किसी भी जानवर, यहाँ तक कि खारे पानी के बड़े मगर से भी नहीं डरेंगे। रेंगनेवाले जंतुओं का रचयिता, जब इस धरती को नया रूप देगा, तब हम बेझिझक मगरमच्छों को देखकर मुस्करा सकेंगे।—यशायाह 11:8, 9. (g05 3/8)
[पेज 13 पर बक्स/तसवीर]
मद्रास क्रोकडाइल बैंक
सर्वे लेने पर जब पता चला कि एशिया के कुछ देशों के जंगलों में बहुत कम मगरमच्छ रह गए हैं, तो सन् 1972 में मद्रास सर्प उद्यान (मद्रास स्नेक पार्क) में उनकी हिफाज़त के इंतज़ाम शुरू किए गए। आज पूरे भारत में 30 से भी ज़्यादा केंद्र हैं जहाँ रेंगनेवाले जानवरों की नस्लें बढ़ायी जाती हैं। इनमें सबसे पुराना और सबसे बड़ा केंद्र है, ‘मद्रास क्रोकडाइल बैंक।’ इसकी शुरूआत रेंगनेवाले जंतुओं का अध्ययन करनेवाले रॉम्यलस व्हिटकर ने सन् 1976 में की। यह कोरोमंडल तट पर साढ़े आठ एकड़ [3.5 ha] की ज़मीन पर बना है। यहाँ 150 किस्म के पेड़ लगाए गए हैं, जिस वजह से तरह-तरह के सुंदर पक्षी और कीड़े-मकौड़े इस ओर खिंचे चले आते हैं।
इस बैंक में मगरमच्छों और घड़ियालों की नस्लें पैदा की जाती हैं। जब वे बड़े हो जाते हैं तो उन्हें दलदलों या नदियों में छोड़ दिया जाता है, या उन्हें खोज और नस्लें बढ़ानेवाले दूसरे केंद्रों में ले जाया जाता है। यहाँ एक नर्सरी भी है जिसके अलग-अलग तालाबों में एक बार में, मगर के करीब 2,500 बच्चे पाले जाते हैं। इन्हें मछलियों के छोटे-छोटे टुकड़े खिलाए जाते हैं, जो यहाँ के मछुवारे रोज़ाना देने आते हैं। परिंदे कहीं मछलियों या मगर के नन्हें कमज़ोर बच्चों को उड़ा न ले जाएँ, इसलिए तालाब जाल से ढके जाते हैं। बच्चों के बड़े होने पर उन्हें बड़े तालाबों में डाल दिया जाता है। उन्हें करीब तीन साल की उम्र तक और चार-पाँच फुट [1.25-1.5 m] लंबे होने तक खाने को पूरी मछली दी जाती है। इसके बाद से उन्हें गाय-बैल का मांस खिलाया जाता है। बैंक को इनका गोश्त उन कंपनियों से मिलता है जो बाज़ार में बेचने के लिए इन्हें काटकर पैक करती हैं और ये जानवरों के वे हिस्से होते हैं जो उनके किसी काम नहीं आते। शुरू-शुरू में यहाँ सिर्फ तीन तरह के मगरमच्छों की नस्लें बढ़ायी जाती थीं जो भारत में पायी जाती हैं। लेकिन अब यहाँ 7 और किस्में आ गयी हैं और बैंक की योजना है कि आगे चलकर यहाँ दुनिया में पाए जानेवाले सभी तरह के मगरमच्छों को पाला जाएगा। लेकिन चमड़े और गोश्त का कारोबार करने के लिए मगर को पालना कहाँ तक सही है, यह बहस का मुद्दा बना हुआ है। व्हिटकर ने सजग होइए! को बताया कि इन रेंगनेवाले जानवरों का गोश्त बहुत स्वादिष्ट और कम कोलेस्ट्रॉलवाला होता है। एक वक्त था, जब इस विशाल प्राणी के धरती से गायब होने की नौबत आ गयी थी। लेकिन उनकी हिफाज़त करने और पालने की वजह से ऐसी कामयाबी मिली कि इनकी संख्या अब हद-से-ज़्यादा हो गयी है। मद्रास क्रोकडाइल बैंक सिर्फ पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित ही नहीं करता, बल्कि इसका यह मकसद भी है कि वह मगर के बारे में लोगों की गलतफहमियाँ दूर करे ताकि वे उनके बारे में सही राय कायम करें।
[चित्र का श्रेय]
Romulus Whitaker, Madras Crocodile Bank
[पेज 23 पर तसवीर]
खारे पानी का बड़ा मगर
[पेज 24 पर तसवीर]
खारे पानी की मादा मगरमच्छ अपने नए जन्मे बच्चे को जबड़े में उठाए हुए
[चित्र का श्रेय]
© Adam Britton, http://crocodilian.com
[पेज 24 पर तसवीर]
मीठे पानी का मगर
[चित्र का श्रेय]
© E. Hanumantha Rao/Photo Researchers, Inc.
[पेज 24 पर तसवीर]
लंबी नाकवाला घड़ियाल