इस जानकारी को छोड़ दें

विषय-सूची को छोड़ दें

आप कौन-सी फिल्में देखेंगे?

आप कौन-सी फिल्में देखेंगे?

आप कौन-सी फिल्में देखेंगे?

हाल के सालों से फिल्मों और टी.वी. कार्यक्रमों में सेक्स और मार-धाड़ खुलकर दिखाए जा रहे हैं। साथ ही, डायलॉग में गाली-गलौज और गंदी भाषा का इस्तेमाल बहुत आम हो गया है। इस बारे में लोगों ने अलग-अलग राय ज़ाहिर की है। कई लोग कहते हैं कि सेक्स के कुछ सीन बहुत ही गंदे और अश्‍लील होते हैं, जबकि दूसरे कहते हैं कि यही तो कला है, यही तो अभिनय है। फिल्मों में मार-धाड़ के बारे में कुछ लोग ज़ोर देकर कहते हैं कि ये बेकार में दिखायी जाती हैं, तो कुछ कहते हैं कि ये ज़रूरी हैं। और डायलॉग में गाली बकने या गंदी भाषा इस्तेमाल करने के बारे में क्या? कई लोगों को ऐसे डायलॉग से घिन आती है। मगर कुछ ऐसे भी हैं जो दावा करते हैं कि इन्हीं डायलॉग की वजह से यह फिल्म बनावटी नहीं बल्कि असल ज़िंदगी के करीब लगती है। जिन चीज़ों को एक व्यक्‍ति बेहूदा कहता है, उन्हीं को दूसरा व्यक्‍ति, अपने विचारों को खुलकर ज़ाहिर करने की आज़ादी कहता है। इन दोनों की बात सुनने के बाद ऐसा लग सकता है, यह फिज़ूल की खींचतान है कि फिल्म में दिखाए गए सीन को क्या कहा जाना चाहिए और क्या नहीं।

लेकिन यह सिर्फ फिज़ूल का झगड़ा नहीं है। फिल्म में हम जो देखते-सुनते हैं, इस बारे में चिंता करना जायज़ है। और यह सिर्फ माँ-बाप के लिए ही नहीं बल्कि उन सबके लिए चिंता की बात है जो ऊँचे नैतिक उसूलों की कदर करते हैं। एक लड़की कहती है: “कई बार ऐसा हुआ है कि मेरी समझ मुझसे कहती है कि फिल्म अच्छी नहीं है। फिर भी, यह सोचकर कि देखने में क्या हर्ज़, मैं फिल्म देखने चली जाती हूँ। मगर बाद में जब मैं सिनेमा घर से निकलती हूँ, तो मैं खुद को खूब कोसती हूँ। लानत है ऐसे लोगों पर जो ऐसी रद्दी फिल्में बनाते हैं और लानत है मुझ पर जो इसे देखने गयी। फिल्म देखने के बाद मुझे लगता है कि मैं अपनी ही नज़रों में गिर गयी हूँ।”

उसूल कायम करना

फिल्मों में जो दिखाया और सुनाया जाता है, उनके बारे में फिक्र करना कोई नयी बात नहीं है। जब फिल्मों की शुरूआत हुई थी, तब बड़े परदे पर जो लैंगिक सीन और गुंडे-बदमाश दिखाए जाते थे, उनसे जनता में काफी होहल्ला मच गया था। आखिरकार, सन्‌ 1930 के दशक में अमरीका में एक नियम लागू किया गया जिसके तहत सख्त पाबंदियाँ लगायी गयीं कि फिल्मों में क्या दिखाया जा सकता है।

द न्यू इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका कहती है कि इस नियम में “बहुत-सी बातों पर रोक लगा दी गयी थी। इसके मुताबिक, आम तौर पर इंसान की ज़िंदगी में जो कुछ होता है, उससे जुड़ी लगभग सभी बातें फिल्मों में दिखाना मना था। जैसे, ‘प्यार के सीन।’ यहाँ तक कि व्यभिचार, नाजायज़ संबंध, लैंगिक कामों के लिए फुसलाने और बलात्कार का ज़िक्र भी नहीं किया जाना था। लेकिन, अगर ये कहानी के लिए बेहद ज़रूरी हैं और फिल्म के आखिर में इन गुनहगारों को कड़ी-से-कड़ी सज़ा दी जाती है, तब फिल्मों में इन बुराइयों का ज़िक्र करने की इजाज़त थी।”

लड़ाई और मार-पीट के बारे में क्या? नियम के मुताबिक, “अगर ये बातें कहानी के लिए एकदम ज़रूरी नहीं हैं, तो [फिल्मों में] न तो आम हथियार दिखाए जा सकते थे और ना ही उनकी चर्चा की जा सकती थी। जुर्म की बारीकियाँ या अपराधियों के हाथों पुलिस अफसरों की मौत होते हुए दिखाना, क्रूरता और अंधाधुंध मार-काट दिखाना, कत्ल या खुदकुशी, ये सब दिखाना मना था। . . . किसी भी हाल में फिल्म में यह नहीं दिखाना था कि जो जुर्म किया गया था, वह जायज़ था।” इन सारी बातों का निचोड़ यह है कि नियम के मुताबिक, “ऐसी कोई भी फिल्म नहीं बनायी जानी थी जिसे देखकर दर्शकों के नैतिक उसूल गिर सकते थे।”

नियम के बदले आयी रेटिंग

सन्‌ 1950 के आते-आते, हॉलीवुड के बहुत-से निर्माता फिल्म के इस नियम को दरकिनार करने लगे थे। उन्हें लगा कि यह नियम बहुत ही दकियानूसी है। इसलिए सन्‌ 1968 में नियम को हटा दिया गया और उसकी जगह रेटिंग का तरीका शुरू किया गया। * रेटिंग क्या है? फिल्म में सेक्स और खून-खराबे के सीन खुलकर दिखाए जा सकते हैं, मगर साथ ही एक रेटिंग का निशान दिया जाता है जिससे दर्शक पहले से खबरदार हो जाएँ कि फिल्म में क्या दिखाया जाएगा। जैसे कि अँग्रेज़ी में अक्षर “ए” (“A”) के निशान का मतलब है कि फिल्म सिर्फ बड़ों के लिए है। जैक वैलेनटी, जो करीब चालीस सालों से ‘मोशन पिक्चर एसोसिएशन ऑफ अमेरिका’ के सभापति रहे हैं, उन्होंने कहा कि रेटिंग का मकसद था, “माँ-बाप को पहले से सावधान करना ताकि वे तय कर सकें कि कौन-सी फिल्में उनके बच्चे देख सकते हैं और कौन-सी नहीं।”

जब से रेटिंग शुरू हुआ, फिल्मों पर से पाबंदियाँ हट गयीं। बस फिर क्या था, हॉलीवुड की बड़ी-बड़ी फिल्में सेक्स, मार-धाड़ और गाली-गलौज से भर गयीं। फिल्मकारों को जो नयी आज़ादी मिली, उससे एक ऐसी लहर उठी जिसे रोकना नामुमकिन हो गया। फिर भी, रेटिंग का एक फायदा ज़रूर था और वह यह कि लोगों को पहले से खबरदार किया जा सकता था। लेकिन क्या आप रेटिंग से फिल्म के बारे में सबकुछ जान सकते हैं?

रेटिंग आपको क्या नहीं बता सकती

कुछ लोगों को लगता है कि वक्‍त के गुज़रते रेटिंग के तरीके में थोड़ी ढील आ गयी है। और उनका शक बेबुनियाद नहीं है। क्योंकि ‘हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हैल्थ’ ने एक अध्ययन चलाया और पाया कि आज जो फिल्में बच्चों और जवानों के लिए बनायी जाती हैं, उनमें इतनी मार-धाड़ और सेक्स के सीन दिखाए जा रहे हैं जो कि दस साल पहले नहीं दिखाए जाते थे। अध्ययन के आखिर में यह लिखा था कि “दो फिल्मों की एक ही रेटिंग हो सकती है, फिर भी एक में खराब सीन ज़्यादा हो सकते हैं जबकि दूसरी में कम।” अध्ययन से यह भी पता चला कि “कौन-सी फिल्म किस उम्र के लोगों के लिए है, इस तरह की रेटिंग से यह जानना बहुत मुश्‍किल है कि फिल्म में मार-धाड़, सेक्स और गाली-गलौज किस हद तक दिखाया जाएगा।” *

कई माता-पिता ऐसे हैं जो बिना पूछताछ किए, यूँ ही अपने बच्चों को उनके दोस्तों के साथ सिनेमा देखने की इजाज़त दे देते हैं। उन्हें शायद यह मालूम न हो कि रेटिंग के मुताबिक जो फिल्म बच्चों के लिए है, वह असल में उनके लिए सही नहीं है। मसलन, एक फिल्म आलोचक ने बताया कि अमरीका में एक फिल्म निकली थी जो रेटिंग के मुताबिक जवानों के लिए थी। उसकी मुख्य किरदार है, “17 बरस की एक बिंदास लड़की जो हर दिन पार्टियों में जाती है, बेझिझक शराब पीकर नशे में धुत्त हो जाती है, ड्रग्स लेती है और जिस किसी लड़के से मिलती है, उसके साथ लैंगिक संबंध रखने में उसे कोई परहेज़ नहीं है।” आजकल लगभग हर फिल्म में यही दिखाया जाता है। दरअसल, द वॉशिंगटन पोस्ट मैगज़ीन कहती है कि रेटिंग के हिसाब से जो फिल्में किशोरों के लिए हैं, उनमें मुख मैथुन का ज़िक्र “बहुत ही आम” हो गया है। इससे साफ है कि सिर्फ रेटिंग की बिना पर यह तय नहीं किया जाना चाहिए कि फिल्म अच्छी है या बुरी। क्या यह तय करने का और कोई बढ़िया तरीका है?

“बुराई से घृणा करो”

रेटिंग से ज़्यादा हमें बाइबल से तालीम पाए अपने विवेक पर भरोसा करना चाहिए। इसलिए मसीही जो भी फैसला करते हैं, यहाँ तक कि मनोरंजन के मामले में भी वे हमेशा बाइबल के भजन 97:10 में दी सलाह को मानने की कोशिश करते हैं। वहाँ लिखा है: “बुराई से घृणा करो।” जो इंसान बुराई से घृणा करता है, वह ऐसे तमाम मनोरंजन से नफरत करेगा जिससे परमेश्‍वर को नफरत है।

माता-पिताओं को खासकर सावधान रहने की ज़रूरत है कि वे अपने बच्चों को कौन-सी फिल्में देखने की इजाज़त देते हैं। एक फिल्म अच्छी है या खराब, सिर्फ रेटिंग देखकर यह तय कर लेना समझदारी नहीं होगी। क्योंकि हो सकता है कि जो फिल्म बच्चों के लिए होती है, उसमें ऐसी बातों को बढ़ावा दिया जाता है जो आप नहीं चाहेंगे कि आपके बच्चे कभी सीखें। यह मसीहियों के लिए कोई ताज्जुब की बात नहीं, क्योंकि दुनिया की सोच और उसके तौर-तरीके परमेश्‍वर के स्तरों के खिलाफ हैं। *इफिसियों 4:17,18; 1 यूहन्‍ना 2:15-17.

लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सभी फिल्में बुरी होती हैं। फिर भी, एहतियात बरतना ज़रूरी है। इस बारे में सजग होइए! के जून 8,1997 का अंक कहता है: ‘हर व्यक्‍ति को ध्यान से बातों को तोलकर ऐसा फैसला करना चाहिए जिससे परमेश्‍वर और मनुष्य के सामने उसका विवेक शुद्ध रहे।’—1 कुरिन्थियों 10:31-33.

सही किस्म का मनोरंजन कैसे ढूँढ़ें

परिवार कौन-सी फिल्म देख सकता है, इस मामले में माता-पिता सोच-समझकर चुनाव कैसे कर सकते हैं? आइए गौर करें कि इस बारे में, दुनिया के अलग-अलग कोने में रहनेवाले माता-पिता क्या कहते हैं। उनकी बातों से आपको अपने परिवार के लिए सही किस्म के मनोरंजन का इंतज़ाम करने में मदद मिल सकती है।—पेज 14 पर “मन बहलाने के दूसरे तरीके” बक्स भी देखिए।

स्पेन का रहनेवाला, क्वॉन कहता है: “जब हमारे बच्चे छोटे थे और फिल्में देखने की बात आती थी, तो मैं या मेरी पत्नी हरदम उनके साथ जाते थे। वे कभी-भी अकेले या केवल अपने दोस्तों के साथ नहीं जाते थे। अब उनकी उम्र तेरह से ऊपर है, फिर भी वे नयी फिल्म का पहला शो देखने नहीं जाते। इसके बजाय, हम उन्हें तब तक रुकने को कहते हैं जब तक कि हम फिल्म के बारे में आलोचकों की राय नहीं पढ़ लेते या जब तक कि हम किसी भरोसेमंद जन से उस फिल्म के बारे में जान नहीं लेते। फिर पूरा परिवार मिलकर तय करता है कि हमें यह फिल्म देखनी चाहिए या नहीं।”

मार्क, दक्षिण अफ्रीका में रहता है। वह अपने किशोर बेटे को खुलकर यह बताने का बढ़ावा देता है कि सिनेमा घरों में जो फिल्में दिखायी जा रही हैं, उनके बारे में वह क्या सोचता है। मार्क कहता है: “बातचीत की शुरूआत मैं और मेरी पत्नी करते हैं। हम अपने बेटे से पूछते हैं कि फलाँ फिल्म के बारे में तुम्हारी क्या राय है? फिर हम ध्यान से उसकी बात सुनते हैं। इससे हम जान पाते हैं कि वह क्या सोच रहा है और फिर उसके मुताबिक हम उससे तर्क कर पाते हैं। इसका नतीजा यह रहा है कि हम ऐसी फिल्में चुनते हैं जिन्हें देखने में हम सबको मज़ा आता है।”

ब्राज़ील का रोज़ारयू भी कुछ ऐसा करता है। जब उसके बच्चे कोई फिल्म देखना चाहते हैं, तो रोज़ारयू पहले उनके साथ बैठकर यह जाँच करता है कि फिल्म अच्छी है या नहीं। वह कहता है: “फिल्म के बारे में आलोचक क्या कहते हैं, मैं उन्हें पढ़कर सुनाता हूँ। फिर मैं उनके साथ वीडियो की दुकान में जाता हूँ और उन्हें सिखाता हूँ कि कवर में किन चीज़ों को देखकर पता लग सकता है कि फिल्म अच्छी है या बुरी।”

ब्रिटेन के रहनेवाले, मैथ्यू ने पाया है कि जो फिल्म बच्चे देखना चाहते हैं, उस बारे में उनसे बातचीत करना फायदेमंद है। उसने कहा: “जब हमारे बच्चे छोटे थे, तब से हम उन्हें फिल्मों के बारे में चर्चा में शामिल करते थे। अगर मैं और मेरी पत्नी किसी फिल्म को न देखने का फैसला करते, तो हम अपने बच्चों को सिर्फ अपना फैसला नहीं सुनाते, बल्कि इसकी वजह भी समझाते हैं।”

इसके अलावा, कुछ माता-पिताओं को इंटरनेट पर फिल्मों के बारे में खोजबीन करने पर काफी मदद मिली है। इंटरनेट पर ऐसे कई वेब साइट हैं जो फिल्म की पूरी जानकारी देते हैं। इस जानकारी की मदद से आप साफ-साफ समझ पाएँगे कि किस फिल्म में क्या सीख दी गयी है।

बाइबल से तालीम पाए विवेक के फायदे

बाइबल उन लोगों का ज़िक्र करती है “जिन के ज्ञानेन्द्रिय [“परख-शक्‍ति,” NW] अभ्यास करते करते, भले बुरे में भेद करने के लिये पक्के हो गए हैं।” (इब्रानियों 5:14) इसलिए माता-पिता का लक्ष्य होना चाहिए, अपने बच्चों के दिल में ऐसे उसूल बिठाना जिनकी मदद से, वे बड़े होकर जब मनोरंजन के बारे में खुद फैसला करने के लिए आज़ाद हों, तब सही फैसले कर सकें।

यहोवा के साक्षियों में ऐसे बहुत-से जवान हैं जिन्हें बचपन से अपने माँ-बाप से बढ़िया तालीम मिली है। मिसाल के तौर पर, बिल और शेरी को लीजिए जो अमरीका में रहते हैं। वे अपने दो किशोर लड़कों के साथ फिल्म देखने जाना पसंद करते हैं। बिल कहता है: “सिनेमा घर से आने के बाद, हम अकसर साथ बैठकर उस फिल्म के बारे में बात करते हैं। जैसे, उस फिल्म में किन उसूलों को बढ़ावा दिया गया था और क्या हमारे मुताबिक वे उसूल सही हैं या नहीं।” बेशक, बिल और शेरी सोच-समझकर फिल्म का चुनाव करने का पूरा ध्यान रखते हैं। बिल कहता है: “हम किसी फिल्म के बारे में पहले से पढ़कर रखते हैं। और अगर उस फिल्म को देखते-देखते अचानक कोई ऐसा सीन आता है जो बेहूदा है और जिसकी हमने उम्मीद नहीं की थी, तो हमें उठकर सिनेमा घर से बाहर जाने में कोई झिझक महसूस नहीं होती।” फिल्म के बारे में फैसला करते वक्‍त बिल और शेरी अपने बेटों को भी शामिल करते हैं। इससे उन्हें लगता है कि उनके लड़कों को अपने अंदर सही-गलत की समझ बढ़ाने में मदद मिल रही है। इस बारे में बिल कहता है: “मैं देख पा रहा हूँ कि वे फिल्मों का चुनाव करते वक्‍त बुद्धि भरे फैसले ले रहे हैं।”

बिल और शेरी की तरह, बहुत-से माता-पिताओं ने अपने बच्चों को परख-शक्‍ति का इस्तेमाल करना सिखाया है ताकि मनोरंजन के मामले में भी वे सही चुनाव कर सकें। यह सच है कि फिल्म इंडस्ट्री जो फिल्में बनाती है, उनमें से ज़्यादातर अच्छी नहीं होतीं। दूसरी तरफ, जब मसीही बाइबल के सिद्धांतों के मुताबिक चलते हैं, तो वे अच्छे मनोरंजन का मज़ा ले पाते हैं जिनसे न सिर्फ उन्हें ताज़गी मिलती है बल्कि वे अच्छा भी महसूस करते हैं। (g05 5/8)

[फुटनोट]

^ बहुत-से देशों ने रेटिंग का तरीका अपनाया है। फिल्म में दिए रेटिंग के निशान से साफ पता चलता है कि किस उम्र के लोग यह फिल्म देख सकते हैं।

^ इसके अलावा, हर देश की अपनी एक कसौटी होती है जिसके मुताबिक फिल्म की रेटिंग की जाती है। इसलिए एक देश में जो फिल्म जवानों के लिए मना है, वही शायद दूसरे देश में जवानों को देखने की छूट हो।

^ मसीहियों को यह भी ध्यान रखने की ज़रूरत है कि बच्चों और जवानों के लिए बनायी गयी कुछ फिल्मों में जादू-टोना, भूतविद्या या दुष्टात्माओं के दूसरे काम दिखाए जा सकते हैं।—1 कुरिन्थियों 10:21.

[पेज 12 पर बक्स/तसवीरें]

“हम साथ मिलकर फैसला करते हैं”

“जब मैं छोटी थी, तो हमारा पूरा परिवार एक-साथ सिनेमा देखने जाता था। लेकिन अब जब मैं बड़ी हो गयी हूँ, तो मेरे माता-पिता मुझे अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखने की इजाज़त देते हैं। मगर इससे पहले वे यह ज़रूर पूछते हैं कि फिल्म का नाम क्या है और वह किस बारे में है। अगर उन्हें फिल्म के बारे में कुछ नहीं मालूम, तो वे अखबार या किसी पत्रिका में फिल्म आलोचकों की रिपोर्ट पढ़ते हैं या फिर टी.वी. पर इसके ट्रेलर देखते हैं। वे इंटरनेट पर भी इस फिल्म के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश करते हैं। इसके बाद, अगर उन्हें लगता है कि यह फिल्म अच्छी नहीं, तो वे वजह देकर समझाते हैं कि क्यों मुझे यह फिल्म नहीं देखनी चाहिए। वे मुझे अपनी राय ज़ाहिर करने का मौका भी देते हैं। इस तरह हमारी खुलकर बातचीत होती है और हम साथ मिलकर फैसला करते हैं कि हमें कौन-सी फिल्म देखनी चाहिए और कौन-सी नहीं।”—उन्‍नीस साल की एलॉईज़, फ्रांस।

[पेज 13 पर बक्स/तसवीर]

बात कीजिए!

“अगर माता-पिता कुछ किस्म के मनोरंजन पर रोक लगाते हैं मगर उसके बदले अपने बच्चों के लिए अच्छे मनोरंजन का इंतज़ाम नहीं करते, तो ऐसे में बच्चे चोरी-छिपे अपनी ख्वाहिश पूरी करने की कोशिश कर सकते हैं। इसलिए जब बच्चे कोई ऐसी फिल्म देखना चाहते हैं जो अच्छी नहीं है, तो कुछ माँ-बाप फौरन मना नहीं करते और ना ही इसे देखने की इजाज़त देते हैं। इस बात को लेकर माता-पिता और बच्चे, एक-दूसरे से नाराज़ हो सकते हैं। इसलिए माता-पिता कुछ समय बीतने देते हैं ताकि उनका और बच्चे का गुस्सा ठंडा हो जाए। फिर कुछ दिनों के दौरान, वे ठंडे दिमाग से उस मामले पर अपने बच्चों से बातचीत करते हैं। वे उनसे पूछते हैं कि उस फिल्म में ऐसी क्या अच्छी बात है कि वे उसे देखना चाहते हैं। इस तरह बातचीत करने से, अकसर जवानों का मन बदल जाता है और वे अपने माँ-बाप की बातों से सहमत होते हैं। यहाँ तक कि कुछ बच्चे अपने माँ-बाप को उनकी मदद के लिए शुक्रिया भी कहते हैं। इसके बाद, माँ-बाप के कहने पर पूरा परिवार कोई ऐसा मनोरंजन चुनता है जिसमें सभी मिलकर मज़ा ले सकते हैं।”—मासाआकी, जापान का एक सफरी अध्यक्ष।

[पेज 14 पर बक्स/तसवीरें]

मन बहलाने के दूसरे तरीके

◼ “आम तौर पर, जवान लोग अपने हमउम्र दोस्तों-यारों के साथ वक्‍त बिताना पसंद करते हैं। इसलिए हमने हमेशा इस बात का ध्यान रखा है कि हमारी मौजूदगी में हमारी बिटिया अच्छे जवानों के साथ मेल-जोल बढ़ाए। हमारी कलीसिया में ऐसे बहुत-से नौजवान हैं जो बढ़िया मिसाल रखते हैं। इसलिए, हम अपनी बेटी को उनके साथ दोस्ती करने का बढ़ावा देते हैं।”—ऐलीज़ा, इटली।

◼ “बच्चों का मन बहलाने के लिए, हम बहुत-से अच्छे इंतज़ाम करते हैं। जैसे, हम उनके साथ लंबी सैर पर निकलते हैं, बार्बीक्यू या घर के बाहर खाना पकाते हैं, पिकनिक जाते हैं और अपने घर पर हर उम्र के भाई-बहनों को बुलाते हैं। इस तरह हमारे बच्चे समझ पाए हैं कि मन बहलाने का मतलब सिर्फ अपने हमउम्र दोस्तों के साथ मौज-मस्ती करना नहीं है।” —जॉन, ब्रिटेन।

◼ “अपने मसीही भाई-बहनों के साथ कुछ वक्‍त बिताने से हमें बेहद खुशी मिलती है। इसके अलावा, मेरे बच्चों को फुटबॉल खेलना बहुत पसंद है, इसलिए समय-समय पर हम कलीसिया के भाइयों के साथ फुटबॉल खेलने का बंदोबस्त भी करते हैं।”—क्वॉन, स्पेन।

◼ “हम अपने बच्चों को बढ़ावा देते हैं कि वे कोई साज़ बजाना सीखें। हम साथ मिलकर मन बहलाने के दूसरे तरीकों में भी हिस्सा लेते हैं। जैसे, टेनिस और वॉलीबॉल खेलना, साइकिल चलाना, किताबें पढ़ना और दोस्तों के साथ मौज-मस्ती करना।”—मार्क, ब्रिटेन।

◼ “हम पूरे परिवार और अपने दोस्तों के साथ नियमित तौर पर एक खेल खेलने ज़रूर जाते हैं, जिसमें एक बड़ी गेंद से एक ही दफे में बोतल की आकार की दस पिनों को गिराना होता है। साथ ही, हम महीने में एक बार कुछ खास करने की कोशिश करते हैं। अगर माँ-बाप अपने बच्चों को समस्याओं से बचाना चाहते हैं तो इसका अहम तरीका है, बच्चे क्या करते हैं उस पर नज़र रखना।”—दानीलो, फिलीपींस।

◼ “सिनेमा हॉल में बैठे फिल्म देखने से, कोई कार्यक्रम या प्रदर्शनी देखने जाना ज़्यादा मज़ेदार होता है। इसलिए हम हमेशा इश्‍तहार देखते हैं कि क्या शहर में कहीं कला प्रदर्शन, गाड़ियों का शो या संगीत कार्यक्रम हो रहा है, जहाँ हम सब जा सकते हैं। इस तरह के कार्यक्रम का एक फायदा यह होता है कि आप बीच-बीच में एक-दूसरे से बात कर सकते हैं जो कि आम तौर पर सिनेमा घरों में नहीं किया जा सकता। मगर हम इस बात का भी खयाल रखते हैं कि हम बहुत ज़्यादा मनोरंजन न करें। क्योंकि ऐसा करने से काफी वक्‍त बरबाद होता है, और कुछ नया करने का मज़ा भी चला जाता है और फिर मनोरंजन रोमांचक नहीं लगता।”—जूडिथ, दक्षिण अफ्रीका।

◼ “यह ज़रूरी नहीं कि जो दूसरे बच्चे करते हैं, वह मेरे बच्चों के लिए भी सही है। यह बात मैं अपने बच्चों को समझाने की कोशिश करती हूँ। मगर साथ ही, मैं और मेरा पति उनके लिए अच्छे मनोरंजन का इंतज़ाम भी करते हैं। हम पूरी कोशिश करते हैं कि उन्हें यह शिकायत करने का मौका न दें, ‘हम न तो कहीं घूमने जाते हैं और न ही कुछ मस्ती करते हैं।’ इसलिए हम सभी मिलकर पार्क जाते हैं, और घर पर पार्टी रखते हैं जिसमें हम कलीसिया के लोगों को बुलाते हैं।” *मारीआ, ब्राज़ील।

[फुटनोट]

^ लोगों के साथ मिलने-जुलने या पार्टियों के बारे में ज़्यादा जानने के लिए, इसकी साथी पत्रिका प्रहरीदुर्ग, नवंबर 1,1992, पेज 24-9 देखिए।

[चित्र का श्रेय]

James Hall Museum of Transport, Johannesburg, South Africa

[पेज 11 पर तसवीर]

फिल्म देखने से पहले पता लगाइए कि फिल्म आलोचकों का क्या कहना है

[पेज 12, 13 पर तसवीर]

माता-पिताओ, अपने बच्चों को सोच-समझकर चुनाव करना सिखाइए