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स्क्रिप्ट से परदे तक

स्क्रिप्ट से परदे तक

स्क्रिप्ट से परदे तक

पिछले कुछ सालों से हॉलीवुड ने कई सुपरहिट फिल्में बनायी हैं। इसका असर सिर्फ अमरीका में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में देखा जा सकता है। वह कैसे? अमरीका में जब कोई नयी फिल्म पहली बार दिखायी जाती है, तो उसके कुछ ही हफ्तों या कुछ मामलों में तो चंद दिनों बाद, दुनिया के लगभग सभी देशों में यह फिल्म रिलीज़ की जाती है। कुछ फिल्में ऐसी भी हैं जो एक ही तारीख पर दुनिया-भर में रिलीज़ की जाती हैं। अमरीका में फिल्मों का वितरण करनेवाले ‘वॉर्नर ब्रदर्स पिक्चर्स’ के अध्यक्ष, डैन फैलमन कहते हैं: “फिल्मों का अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार बड़ी तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। इसलिए जब हम कोई फिल्म बनाते हैं, तो हमें बड़े पैमाने पर मुनाफा कमाने का मौका हाथ लगता है।” पहले से कहीं ज़्यादा आज, हॉलीवुड का ज़बरदस्त असर पूरी दुनिया के मनोरंजन जगत पर हो रहा है। *

इससे ऐसा लग सकता है कि फिल्मों से मुनाफा कमाना बाएँ हाथ का खेल है। मगर यह सच नहीं। एक फिल्म की बस शूटिंग करने में और इसका प्रचार करने में 4.5 अरब से भी ज़्यादा रुपए लगते हैं। इसके बाद भी, फिल्म कामयाब होगी या नहीं, यह पूरी तरह दर्शकों के हाथ में है। और उनका कोई भरोसा नहीं कि वे फिल्म देखकर तालियाँ पीटेंगे या थू-थू करेंगे। एमोरी यूनिवर्सिटी में फिल्म पर अध्ययन करनेवाले प्रोफेसर, डेविड कुक कहते हैं: “लोगों को कब-क्या पसंद आ जाए या उन्हें क्या रोमांचक लगे, यह कोई नहीं बता सकता।” तो फिर फिल्मकार अपनी फिल्म के हिट होने की गुंजाइश बढ़ाने के लिए क्या करते हैं? जवाब जानने के लिए हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि फिल्में आखिर बनती कैसे हैं। *

फिल्म शूट करने से पहले का काम —बुनियाद डालना

फिल्म शूट करने से पहले का काम, एक बहुत ही अहम पहलू है और इसमें सबसे ज़्यादा समय लगता है। जिस तरह किसी भी बड़े प्रोजेक्ट को शुरू करने से पहले तैयारी करना निहायत ज़रूरी होता है, उसी तरह फिल्म को कामयाब बनाने के लिए, पहले तैयारी करना ज़रूरी है। यह तैयारी इस उम्मीद से की जाती है कि इसमें जितनी लागत आएगी, उससे फिल्म की शूटिंग के दौरान कई गुना ज़्यादा पैसा बचेगा।

फिल्म बनाने के लिए सबसे पहले एक कहानी की ज़रूरत होती है। यह कहानी या तो कोरी-कल्पना हो सकती है या असल ज़िंदगी पर आधारित हो सकती है। फिर एक लेखक कहानी से एक स्क्रिप्ट तैयार करता है। स्क्रिप्ट को ‘स्क्रीनप्ले’ भी कहा जाता है। इसे कई बार पढ़कर इसमें सुधार किए जाते हैं। तब जाकर आखिरी या ‘फाइनल स्क्रिप्ट’ तैयार होता है। फाइनल स्क्रिप्ट में फिल्म के डायलॉग होते हैं, साथ ही चंद शब्दों में यह जानकारी भी दी जाती है कि क्या अभिनय किया जाएगा। इसके अलावा, शूटिंग के दौरान कैमरा किस तरफ होगा और सीन के बीच-बीच में कहाँ ‘कट’ बोला जाएगा, इस तरह की तकनीकी बारीकियाँ भी स्क्रिप्ट में लिखी होती हैं।

लेकिन फाइनल स्क्रिप्ट को तैयार करने से पहले जो स्क्रीनप्ले होता है, उसे निर्माताओं को बेचा जाता है। * एक निर्माता को किस तरह के स्क्रीनप्ले में दिलचस्पी होती है? देखा जाए तो गर्मियों के मौसम में जो फिल्में रिलीज़ की जाती हैं, वे खासकर 13 से 25 साल के जवानों के लिए होती हैं। एक फिल्म आलोचक (मूवी क्रिटिक) ने इन जवानों को “पॉपकॉर्न दर्शक” नाम दिया। इसलिए एक निर्माता खासकर ऐसी कहानी में दिलचस्पी लेगा जो जवानों को खींच लाएगी।

इससे भी बढ़िया स्क्रिप्ट वह होती है जिसकी कहानी हर उम्र के लोगों को भा जाए। मिसाल के लिए, अगर एक कॉमिक किताब के सुपरहीरो को लेकर फिल्म बनायी जाए, तो इसमें कोई शक नहीं कि छोटे-छोटे बच्चे इसे देखने आएँगे। आखिरकार वे उस किरदार से वाकिफ जो हैं। और अगर बच्चे देखने आएँगे, तो बेशक उनके माँ-बाप भी साथ आएँगे। लेकिन फिल्म बनानेवाले, किशोरों और जवानों को खींचने के लिए क्या करते हैं? द वॉशिंगटन पोस्ट मैगज़ीन में लाइज़ा मंडी लिखती हैं कि फिल्मकार “मसाला फिल्में” बनाते हैं। अगर फिल्म में ये सब हों: गंदी भाषा, मारा-मारी और सेक्स के कई सीन, तो “बच्चों से बड़ों तक, सबको खुश किया जाता है।” और इस तरह “ज़्यादा-से-ज़्यादा मुनाफा कमाने की गुंजाइश बढ़ जाती है।”

स्क्रीनप्ले सुनने के बाद, अगर निर्माता को लगता है कि इससे एक सुपरहिट फिल्म बन सकती है, तो वह उसे खरीद लेता है। फिर वह एक नामी निर्देशक और जाने-माने हीरो-हीरोइन को फिल्म में काम करने के लिए साइन करता है। अगर फिल्म का निर्देशक मशहूर हो और उसमें चोटी के सितारे हों, तो रिलीज़ होने पर लोग इसे देखने के लिए दौड़े-दौड़े आएँगे। लेकिन यह तो बाद की बात है। एक फिल्म के लिए बड़ी-बड़ी हस्तियों को साइन करने का एक और फायदा है। वह यह है कि फिल्म बनने से पहले फाइनेंसर सामने हाज़िर होते हैं। इन फाइनेंसरों की बहुत ज़रूरत होती है क्योंकि वे फिल्म में पैसा लगाते हैं।

फिल्म बनाने की तैयारी में एक और काम है, ‘स्टोरीबोर्डिंग’ यानी अलग-अलग सीन के चित्र बनाना। स्टोरीबोर्ड एक कॉमिक किताब की तरह होता है, जिसमें अलग-अलग सीन में क्या होगा, इसके चित्र बने होते हैं। इसमें खासकर लड़ाई के या दूसरे दमदार सीन के चित्र होते हैं। ये चित्र कैमरामैन के लिए एक ब्लूप्रिंट या नक्शे का काम करते हैं। स्टोरीबोर्ड की वजह से फिल्म शूटिंग के दौरान काफी समय बरबाद होने से बच जाता है। एक निर्देशक-स्क्रीनप्ले राइटर, फ्रैंक डेरबॉन्ट कहता है: “शूटिंग का पूरा दिन बरबाद करने का इससे बदतर तरीका और कोई नहीं हो सकता कि सेट पर खड़े-खड़े यह तय करना कि कैमरा कहाँ आना चाहिए।”

फिल्म बनाने की तैयारी करते वक्‍त, दूसरे अहम मसलों पर फैसला करना ज़रूरी होता है। जैसे, शूटिंग कहाँ-कहाँ होगी? क्या इसके लिए दूसरी जगह जाना होगा? अगर किसी घर या इमारत के अंदर का सीन है, तो उसकी साज-सजावट कैसी होगी? क्या कलाकारों को खास कपड़ों की ज़रूरत होगी? लाइट्‌स्‌, मेकअप और बाल सँवारने का काम कौन करेगा? ऑडियो और स्पेशल इफेक्ट्‌स्‌ के बारे में क्या? अभिनेताओं के लिए कूदने-फाँदने जैसे खतरनाक करतब या ‘स्टंट’ कौन करेगा? ये तो उन बहुत-सी बातों में से सिर्फ कुछ ही हैं जिन पर ध्यान देना ज़रूरी है। इन सारी बातों का फैसला, फिल्म का पहला सीन शूट करने से पहले किया जाना चाहिए। अगली बार जब आप कोई बड़ी बजटवाली फिल्म देखेंगे, तो उसके आखिर में जो नाम दिए जाते हैं, उन्हें ज़रूर देखिएगा। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि केवल एक फिल्म बनाने के पीछे सैकड़ों लोगों का हाथ होता है! एक तकनीकी आदमी, जिसने बेशुमार फिल्मों के सेट पर काम किया है, कहता है: “एक फीचर फिल्म बनाने के लिए मानो एक पूरे शहर के लोगों की ज़रूरत पड़ती है।”

फिल्म की शूटिंग

फिल्म की शूटिंग में बहुत समय लगता है, यह काफी थकाऊ होती है और इसमें ढेरों पैसा भी खर्च होता है। दरअसल, एक-एक मिनट कीमती होता है। अगर एक मिनट भी बरबाद हो जाए, तो हज़ारों रुपए का नुकसान हो सकता है। कभी-कभी शूटिंग के लिए कलाकारों और सेट पर काम करनेवालों को दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक जाना पड़ता है, साथ में उपकरणों को भी ले जाना पड़ता है। जी हाँ, शूटिंग चाहे जहाँ भी हो, एक-एक दिन में लाखों रुपए खर्च होते हैं।

फिल्म के सेट पर सबसे पहले ये लोग पहुँचते हैं: लाइट्‌स्‌ सँभालनेवाले, बाल सँवारनेवाले, और मेकअप करानेवाले आर्टिस्ट। हर दिन, शूटिंग की शुरूआत कलाकारों को तैयार करने से होती है। इसमें घंटों लग सकते हैं। इसके बाद, उन्हें कैमरे के सामने लाया जाता है और फिर शूटिंग का एक लंबा दिन शुरू होता है।

फिल्म का निर्देशक यह बताता है कि हर सीन में कलाकारों को कब, क्या और कैसे अभिनय करना है। कई बार तो एक आसान-से सीन को फिल्माने में पूरा दिन निकल जाता है। फिल्म के ज़्यादातर सीन एक ही कैमरे से शूट किए जाते हैं। इसलिए अलग-अलग दिशा से शूट करने के लिए, सीन को बार-बार दोहराया जाता है। इसके अलावा, सीन को इसलिए भी दोहराया जाता है ताकि कलाकार अपना बेहतरीन अभिनय दे सकें या फिर किसी तकनीकी गड़बड़ी को दूर किया जा सके। हर सीन जिसे बिना रुके फिल्माया जाता है, उसे एक ‘टेक’ कहा जाता है। लंबे-चौड़े सीन के लिए कम-से-कम 50 या उससे ज़्यादा टेक लिए जाते हैं! इसके बाद, दिन के आखिर में निर्देशक सभी टेक देखकर तय करता है कि कौन-से टेक सबसे अच्छे हैं, और फिर सिर्फ उन्हीं को रखा जाता है। इस तरह शूटिंग पूरी करने में कई हफ्ते, यहाँ तक कि महीने लग सकते हैं।

फिल्म शूट करने के बाद का काम —अलग-अलग हिस्सों को जोड़ना

इस दौरान, हरेक टेक को ‘एडिट’ किया जाता है यानी उसमें काट-छाँट की जाती है और फिर सभी टेक जोड़ दिए जाते हैं। सबसे पहले, फिल्म के साथ आवाज़ और डायलॉग का तालमेल बिठाया जाता है। इससे एडिटर पूरी फिल्म का कच्चा रूप तैयार करता है जिसे ‘रफ कट’ कहा जाता है।

फिर, ‘साउंड इफेक्ट्‌स्‌’ और ‘विज़ुअल इफेक्ट्‌स्‌’ जोड़े जाते हैं। यह सबसे पेचीदा काम है। इसके लिए कभी-कभी कंप्यूटर का इस्तेमाल किया जाता है। नतीजा, फिल्म कमाल की दिखती है और एकदम असली लगती है।

फिल्म के लिए तैयार किया गया संगीत भी इसी दौरान मिलाया जाता है। आजकल फिल्मों में संगीत का होना इतना ज़रूरी हो गया है कि लगभग हर फिल्म में यह होता ही है। फिल्म स्कोर मंथली में एडवन ब्लैक लिखता है: “फिल्म इंडस्ट्री में आज पहले से ज़्यादा फिल्मों में संगीत डालने की माँग की जा रही है। और संगीत होने का मतलब सिर्फ बीस मिनट का संगीत नहीं और ना ही बीच-बीच में तब संगीत देना जब एक ज़ोरदार सीन आता है, बल्कि फिल्म की शुरूआत से लेकर आखिर तक, कम-से-कम एक घंटे से ज़्यादा का संगीत होना चाहिए।”

कभी-कभी एडिट की गयी नयी फिल्म गिने-चुने दर्शकों को दिखायी जाती है। इसे ‘टेस्ट स्क्रीनिंग’ कहते हैं। इन दर्शकों में निर्देशक के ऐसे दोस्त या साथी हो सकते हैं जिनका फिल्म बनाने में कोई हाथ नहीं था। फिल्म देखने के बाद अगर कुछ सीन दर्शकों को पसंद नहीं आते, तो निर्देशक या तो वे सीन दोबारा फिल्माते हैं या फिर उन्हें हटा ही देते हैं। कई मामलों में तो ऐसा हुआ कि फिल्म का आखिरी सीन पूरी तरह बदल दिया गया, क्योंकि टेस्ट स्क्रीनिंग के दर्शकों को यह सीन कुछ खास पसंद नहीं आया था।

आखिरकार, पूरी फिल्म तैयार होकर सिनेमा घरों में रिलीज़ की जाती है। अब जाकर तय होता है कि फिल्म बॉक्स-ऑफिस में धूम मचा देगी, ठंडी पड़ जाएगी या फिर ठीक-ठाक चलेगी। मगर फिल्मों के हिट या फ्लॉप होने में सिर्फ रुपए-पैसे दाँव पर लगे नहीं होते। इनमें कलाकारों का भविष्य और निर्देशकों का नाम भी शामिल होता है। अगर एक कलाकार की एक-के-बाद-एक फिल्म फ्लॉप होती है, तो उसका फिल्मी करियर डूब सकता है। और अगर एक निर्देशक की फिल्मों का ऐसा हश्र होता है, तो उसका नाम मिट्टी में मिल सकता है। निर्देशक जॉन बोरमन उन दिनों को याद करते हुए कहता है जब उसने फिल्म बनाना शुरू किया था: “मैंने अपने समय के कई निर्देशकों को देखा है जिनकी कुछ फिल्में चली नहीं और इस वजह से उन्होंने यह काम ही छोड़ दिया। फिल्मी दुनिया का यह एक कड़वा सच है कि अगर आप अपने मालिकों के लिए खूब पैसा नहीं कमाएँगे, तो आपको एक रद्दी कागज़ की तरह फेंक दिया जाएगा।”

यह बात सच है कि जब लोग, सिनेमा घरों पर लगे फिल्म के पोस्टरों को देखते हैं, तो वे इसके पीछे काम करनेवालों के भविष्य के बारे में नहीं सोचते। उनके दिमाग में बस यही बात घूमती है: ‘न जाने यह फिल्म कैसी होगी? मैं इतना पैसा खर्च करके आया हूँ, पता नहीं यह फिल्म देखने लायक होगी भी या नहीं? इसमें कहीं कोई घटिया सीन तो नहीं? क्या यह मेरे बच्चों के लिए अच्छी होगी?’ यह तय करते वक्‍त कि आपको फलाँ फिल्म देखनी चाहिए या नहीं, आप इन सवालों का जवाब कैसे पा सकते हैं? (g05 5/8)

[फुटनोट]

^ हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल की प्रोफेसर, अनीता एलबर्स कहती हैं: “यह सच है कि अमरीका के मुकाबले विदेशों में फिल्मों की कमाई ज़्यादा होती है, फिर भी बाहर के देशों में ये फिल्में कितनी धूम मचाएँगी, यह काफी हद तक इस बात से तय होता है कि अमरीका में ये फिल्में चलती हैं या नहीं।”

^ हर फिल्म को बनाने का अपना-अपना तरीका हो सकता है। फिर भी, इस लेख में जो तरीका बताया गया है, उससे आपको थोड़ा-बहुत अंदाज़ा हो जाएगा कि फिल्म कैसे बनती है।

^ कुछ मामलों में, एक निर्माता को स्क्रीनप्ले के बजाय कहानी सुनायी जाती है। अगर उसे कहानी अच्छी लगी, तो वह उसे कानूनी तौर पर खरीद लेता है और फिर उससे एक स्क्रीनप्ले तैयार करवाता है।

[पेज 6 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

“लोगों को कब-क्या पसंद आ जाए या उन्हें क्या रोमांचक लगे, यह कोई नहीं बता सकता।”—डेविड कुक, फिल्म पर अध्ययन करनेवाले प्रोफेसर

[पेज 6, 7 पर बक्स/तसवीरें]

फिल्म को सुपरहिट बनाने के तरीके

फिल्म पूरी हो चुकी है। अब यह करोड़ों दर्शकों के देखने के लिए तैयार है। लेकिन क्या यह फिल्म चलेगी? आइए देखें कि कुछ फिल्मकार अपनी फिल्म का प्रचार कैसे करते हैं जिससे यह एक सुपरहिट फिल्म बन जाती है।

खबर फैलाना: किसी फिल्म को देखने के लिए लोगों को खींचने का सबसे बढ़िया तरीका है, फिल्म के बारे में खबर फैलाना। कभी-कभी फिल्म के रिलीज़ होने के महीनों पहले इसकी चर्चा शुरू हो जाती है। शायद यह बताया जाता है कि यह फिल्म, एक हिट फिल्म का दूसरा या तीसरा भाग है। इससे लोग नयी फिल्म के बारे में सोचने लगते हैं। पिछले भाग में जो हीरो-हीरोइन थे, क्या वे इस फिल्म में भी होंगे? क्या यह पहली फिल्म जैसी लाजवाब (या बेकार) होगी?

कुछ मामलों में, नयी फिल्म के एक ऐसे सीन को लेकर खबर फैल जाती है जो वाद-विवाद का मुद्दा बन जाता है। जैसे, सेक्स का सीन जो आम तौर पर फिल्मों में खुलकर दिखाया नहीं जाता। क्या यह सीन वाकई इतना खराब है? क्या इस फिल्म ने सारी हदें पार कर दी हैं? जब इन बातों को लेकर खुलेआम बहस होती है, तो फिल्मकार बहुत खुश होते हैं, क्योंकि मुफ्त में उनकी फिल्म की पब्लिसिटी होने लगती है। इस तरह के विवाद से कई बार फिल्म से दूर भागने के बजाय, लोगों की भीड़ पहले दिन का पहला शो देखने के लिए दौड़ी चली आती है।

मीडिया: आम तौर पर, फिल्म का प्रचार इन तरीकों से होता है: सड़कों पर बड़े-बड़े बोर्डों पर फिल्म के पोस्टर, अखबारों में इश्‍तहार, टी.वी. पर एक झलक, सिनेमा घर में किसी फिल्म के शुरू होने से पहले ट्रेलर और फिल्मी सितारों का इंटरव्यू जिसमें वे अपनी नयी फिल्म के बारे में बताते हैं, साथ ही दर्शकों को देखने का बढ़ावा देते हैं। और अब, फिल्म का प्रचार करने का एक और अहम ज़रिया शुरू हुआ है और वह है, इंटरनेट।

चीज़ों की बिक्री: फिल्म के रिलीज़ से पहले, लोगों का ध्यान खींचने के लिए कुछ ऐसी चीज़ें बेची जाती हैं जिन पर फिल्म का इश्‍तहार दिया होता है। मिसाल के लिए, एक फिल्म थी जो कॉमिक किताब के एक हीरो पर आधारित थी। उस फिल्म को बढ़ावा देने के लिए टिफिन डब्बा, प्याला, ज़ेवरात, कपड़े, चाबी के चेन, घड़ियाँ, लैम्प, एक बोर्ड गेम और इस तरह की कितनी ही चीज़ें बाज़ार में बेची गयीं जिनमें फिल्म से जुड़ी तसवीरें लगी हुई थीं। ‘अमेरिकन बार एसोसिएशन’ की मनोरंजन पत्रिका में जॉ सिस्टो लिखते हैं: “लगभग हर फिल्म के साथ ऐसा होता है कि इससे जुड़ी चीज़ों में से 40 प्रतिशत, फिल्म के रिलीज़ होने से पहले ही बिक जाती हैं।”

होम वीडियो: अगर एक फिल्म बॉक्स-ऑफिस पर पिट जाती है तो जितना घाटा होता है, उसे होम वीडियो बनाकर बेचने से उसका घाटा पूरा हो जाता है। ब्रूस नैश जो फिल्मों की कमाई का सही-सही हिसाब रखते हैं, कहते हैं कि “होम वीडियो से 40 से 50 प्रतिशत की आमदनी होती है।”

रेटिंग: फिल्मकारों ने अपने फायदे के लिए रेटिंग का इस्तेमाल करना सीख लिया है। मिसाल के लिए, कुछ फिल्मकार जानबूझकर अपनी फिल्म में सेक्स और मार-धाड़ के सीन डालते हैं ताकि इसे सख्त रेटिंग (“A”) मिले, यानी फिल्म सिर्फ बड़ों के लिए है। दूसरी तरफ, कुछ फिल्मकार सेक्स और खून-खराबे के सिर्फ उतने ही सीन हटा देते हैं जिससे उसकी फिल्म को ऐसी रेटिंग न मिले कि यह सिर्फ बड़ों के लिए है, बल्कि वे जवानों को भी दिखा सकें। द वॉशिंगटन पोस्ट मैगज़ीन में लाइज़ा मंडी लिखती हैं कि रेटिंग के ज़रिए यह कहना कि फिल्म जवानों के लिए है, “इश्‍तहार का काम करता है: मूवी स्टूडियो, किशोरों तक यहाँ तक कि उन छोटे बच्चों तक जो जल्द जवान होना चाहते हैं, यह पैगाम पहुँचाते हैं कि फिल्म बहुत ही मस्त और मज़ेदार है।” मंडी यह भी लिखती हैं कि इस तरह की रेटिंग “दो पीढ़ियों के बीच तकरार” पैदा करती है, क्योंकि “एक तरफ यह माता-पिता को खबरदार करती है और दूसरी तरफ, बच्चों को ललचाती है।”

[पेज 8, 9 पर तसवीरें]

फिल्म कैसे बनायी जाती है

स्क्रिप्ट

स्टोरीबोर्ड या चित्र

कपड़े

मेकअप

सेट पर शूटिंग

स्पेशल इफेक्ट्‌स्‌ फिल्माना

संगीत रिकॉर्ड करना

आवाज़ मिलाना

कंप्यूटर से तैयार की गयी तसवीरें

एडिट करना