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कुदरती आफतें इंसान कितना ज़िम्मेदार

कुदरती आफतें इंसान कितना ज़िम्मेदार

कुदरती आफतें इंसान कितना ज़िम्मेदार

अगर एक कार का सही रख-रखाव किया जाए, तो यह एक जगह से दूसरी जगह आने-जाने में सुरक्षित साधन साबित हो सकती है। लेकिन अगर उसका रख-रखाव सही तरीके से न किया जाए या गलत इस्तेमाल किया जाए तो वह खतरनाक साबित हो सकती है। कुछ मामलों में पृथ्वी ग्रह भी ऐसा ही है।

कई वैज्ञानिकों की राय में इंसान ने पृथ्वी के वातावरण और महासागरों के साथ जो खिलवाड़ किया है, उसकी वजह से पृथ्वी पर लगातार एक-के-बाद-एक प्राकृतिक विपत्तियाँ आ रही हैं और वह भी इतनी भयानक कि अब यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं। और भविष्य में हालात के और बदतर होने की गुंजाइश है। वातावरण में हो रहे बदलाव के बारे में साइंस पत्रिका के एक संपादक ने अपने लेख में कहा: “अपने एकमात्र ग्रह पृथ्वी के साथ खिलवाड़ करते-करते अब हम मुसीबत के ऐसे भँवर में फँस गए हैं कि आगे क्या होगा, इसका कोई अंदाज़ा नहीं।”

इस बात को अच्छी तरह समझने के लिए कि प्राकृतिक विपत्तियों के पहले से ज़्यादा बढ़ने और विनाशकारी होने में इंसान कैसे ज़िम्मेदार है, हमें थोड़ा-बहुत जानना होगा कि इन घटनाओं के पीछे कुदरत का क्या हाथ है। मिसाल के लिए, हरीकेन जैसे तेज़ तूफान बनते कैसे हैं?

ग्रह पर ऊष्मा की अदला-बदली करनेवाले

पृथ्वी के मौसम की तुलना एक ऐसी मशीन के साथ की गयी है जो सूरज से निकलनेवाली ऊर्जा को बदलती और पृथ्वी पर फैलाती है। सूरज की गर्मी, भूमध्य-रेखा के पासवाले इलाकों पर ज़्यादा पड़ती है। इससे तापमान में गड़बड़ी पैदा हो जाती है, और फिर हवा की गति में हलचल होने लगती है। * पृथ्वी की रोज़ की परिक्रमा की वजह से हलचल करती यह नम हवा बवंडर का रूप ले लेती है। इसलिए कुछ इलाकों में हवा का दबाव एकदम गिर जाता है। इस स्थिति को डिप्रेशन कहते हैं और यही डिप्रेशन कभी-कभी तूफान में बदल जाता है।

अगर आप भूमध्य-रेखा के आस-पास उठनेवाले भारी तूफानों की दिशा पर नज़र डालें, तो पाएँगे कि अकसर वे भूमध्य-रेखा से दूर ठंडे इलाके की तरफ बढ़ते हैं, या तो उत्तर या दक्षिण की तरफ। और जाते-जाते वे बड़े पैमाने पर ऊष्मा की अदला-बदली भी करते हैं और इस तरह मौसम में संतुलन बनाए रखते हैं। मगर जब समुद्र की सतह पर पानी—जो मौसम-रूपी मशीन का “बॉइलर रूम” है—का तापमान 27 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा हो जाता है, तब तूफान इतना भयंकर हो जाता है कि वह चक्रवात, हरीकेन या टायफून बन जाता है। ये तीनों दरअसल एक ही विपत्ति के नाम हैं। बस अलग-अलग इलाकों में इनके अलग-अलग नाम इस्तेमाल किए जाते हैं।

जहाँ तक अमरीका के इतिहास में कुदरती हादसों से लोगों के हताहत होने की बात है, तो यहाँ का सबसे भयानक हादसा सितंबर 8, 1900 को आया हरीकेन था, जिसने टैक्सस के गैलवस्टन द्वीप-शहर को अपना निशाना बनाया था। इस तूफान की वजह से उठी समुद्री लहरों ने शहर के लगभग 6,000 से 8,000 लोगों की जानें लीं। साथ ही, यहाँ के आस-पास के इलाकों के करीब 4,000 लोगों को मार डाला और करीब 3,600 घरों को तहस-नहस कर दिया। पूरे गैलवस्टन में ऐसी एक भी इमारत नहीं बची जिसमें दरारें न पड़ी हों।

जैसे पिछले लेख में बताया गया था, हाल के सालों में कई भीषण तूफान आए हैं। वैज्ञानिक इस खोज में लगे हुए हैं कि कहीं इसका ताल्लुक पृथ्वी के बढ़ते तापमान से तो नहीं है, जो शायद तूफानों को और ज़्यादा घातक बना रहा हो। मगर मौसम में होनेवाला बदलाव, शायद पृथ्वी के बढ़ते तापमान का सिर्फ एक अंजाम है। इसका एक और खतरनाक अंजाम है जो शायद अभी से दिखायी दे रहा है।

समुद्रों में पानी का बढ़ता स्तर और पेड़ों की कटाई

साइंस पत्रिका के एक संपादक के लेख के मुताबिक “पिछली सदी में महासागरों में पानी का स्तर 10 से 20 सेंटीमीटर [चार से आठ इंच] तक बढ़ गया था और भविष्य में इसके और भी बढ़ने की गुंजाइश है।” लेकिन पृथ्वी के तापमान के बढ़ने से समुद्र-स्तर कैसे बढ़ता है? खोजकर्ता कहते हैं कि शायद ऐसा दो वजह से होता है। एक तो यह कि गर्मी की वजह से ध्रुव के आस-पास के इलाकों में जमी बर्फ और हिमनद जब पिघल जाते हैं तो समुद्र का पानी बढ़ सकता है। दूसरा यह कि महासागरों का तापमान बढ़ने की वजह से पानी फैल जाता है और इस तरह उसका स्तर बढ़ जाता है।

ऐसा लगता है कि प्रशांत महासागर के छोटे-छोटे टूवालू द्वीपों ने समुद्र के इस बढ़ते स्तर का अंजाम भुगतना शुरू कर दिया है। स्मिथसोनियन पत्रिका के मुताबिक, प्रशांत महासागर के फ्यूनाफ्यूटी प्रवालद्वीप से मिली जानकारी दिखाती है कि वहाँ के समुद्र का स्तर “पिछले दशक में हर साल औसतन 5.6 मिलीमीटर” बढ़ता रहा था।

दुनिया के कई देशों में आबादी बढ़ने से शहरों को और बड़ा किया जा रहा है, झुग्गी-झोपड़ियाँ बढ़ती जा रही हैं और पर्यावरण पर और भी बुरा असर पड़ रहा है। इसलिए इन इलाकों में कुदरती हादसे और ज़्यादा नुकसान पहुँचा सकते हैं। कुछ मिसालों पर गौर कीजिए।

हैटी कई द्वीपों से बना एक राष्ट्र है, जहाँ की आबादी बहुत ज़्यादा है और सालों से पेड़ों की कटाई चल रही है। एक ताज़ा समाचार रिपोर्ट कहती है कि हैटी की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हालत काफी खराब है, मगर इनमें से किसी भी समस्या से देश के वजूद को इतना खतरा नहीं है जितना पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से है। यह खतरा सन्‌ 2004 में बड़े ही दर्दनाक तरीके से सामने आया जब मूसलाधार बारिश के कारण हुए भू-स्खलन से हज़ारों लोगों की जानें गयीं।

टाइम एशिया बताती है कि दक्षिण एशिया पर कहर ढानेवाली प्राकृतिक विपत्तियों के बढ़ने के पीछे ये कारण रहे हैं, “पृथ्वी का बढ़ता तापमान, बाँधों का निर्माण, जंगलों का सफाया करना और खेती-बाड़ी के लिए पेड़ों को काटकर जला देना।” जंगलों को मिटाने से बाढ़ की ही नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर सूखा पड़ने की भी गुंजाइश पैदा होती है क्योंकि पेड़ों के न होने से मिट्टी जल्दी सूख जाती है। हाल के सालों में इंडोनेशिया और ब्राज़ील में सूखे की वजह से हुए अग्निकांड ने रिकॉर्ड तोड़ दिया क्योंकि इसमें वे जंगल भी भस्म हो गए जो आम तौर पर बहुत गीले होते थे। लेकिन कुदरती आफतों के पीछे सिर्फ खराब मौसम ही नहीं होता। कई देशों में ऐसी आफतें आयी हैं जिनकी शुरूआत ज़मीन के नीचे गहराई में होती है।

जब धरती बुरी तरह काँपती है

पृथ्वी की ऊपरी सतह ऊँची-नीची चट्टानों से बनी है जो एक-दूसरे के साथ रगड़ खाती रहती हैं। दरअसल ज़मीन की पपड़ी के अंदर इतनी हलचल होती रहती है कि हर साल लाखों की तादाद में भूकंप होते होंगे। बस, इतना है कि हम ज़्यादातर झटके महसूस नहीं कर पाते।

कहा जाता है कि लगभग 90 प्रतिशत भूकंप पृथ्वी की पपड़ी में मौजूद परतों की छोर में चट्टानों में आते हैं। और परतों के बीच भी भूकंप आते हैं मगर ये बहुत कम आते हैं और कभी-कभी भयंकर रूप लेते हैं। अंदाज़ा लगाया गया है कि इतिहास का सबसे दिल-दहलानेवाला भूकंप सन्‌ 1556 में चीन के तीन प्रांतों में आया था। तकरीबन 8,30,000 लोग इस भूकंप की भेंट चढ़ गए थे!

भूकंप थम जाने के बाद भी उसके दर्दनाक अंजाम होते हैं। मिसाल के लिए, नवंबर 1, 1755 में आए एक भूकंप ने पुर्तगाल के लिस्बन शहर को खाक में मिला दिया था जहाँ की आबादी 2,75,000 थी। मगर बरबादी का मंज़र वहीं खत्म नहीं हुआ। भूकंप की वजह से बाद में शहर को आग की लपटों ने आ घेरा। और पास के अटलांटिक महासागर से सुनामी भी आयी जिसकी अंदाज़न 15 मीटर ऊँची लहरों ने पूरी रफ्तार के साथ आकर शहर में प्रलय मचा दी। इन सारे हादसों ने कुल मिलाकर शहर के 60,000 से ज़्यादा लोगों को मौत की नींद सुला दिया।

ऐसे हादसों से होनेवाले ज़्यादातर नुकसान के लिए भी काफी हद तक इंसान कसूरवार हैं। वह कैसे? एक कारण है घोर आबादी, जो ऐसे इलाकों में रह रही है जहाँ खतरा हर वक्‍त मँडराता रहता है। लेखक एन्ड्रू रॉबिन्सन कहता है: “आज दुनिया के बड़े-बड़े शहरों में से करीब आधे, ऐसे इलाकों में बसे हैं जहाँ भूकंप का खतरा ज़्यादा है।” दूसरा कारण है इमारतें। उनको बनाने में इस्तेमाल की गयी चीज़ें और उनका ढाँचा इतना मज़बूत नहीं है कि वे भूकंप के आगे टिक सकें। यह कहावत अकसर सच साबित होती है कि “भूकंप, लोगों की जान नहीं लेता; इमारतें लेती हैं।” मगर उन गरीबों के पास और चारा ही क्या है जिनकी ऐसे घर बनाने की हैसियत नहीं है जो भूकंप के झटके सह सकें?

ज्वालामुखी—बनानेवाले और बिगाड़नेवाले

अमरीका के ‘स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूट’ की रिपोर्ट कहती है कि “इस वक्‍त जब आप ये शब्द पढ़ रहे हैं, दुनिया-भर में कम-से-कम 20 ज्वालामुखी फूट रहे होंगे।” प्लेट टेक्टॉनिक्स (विवर्तनिक) का सिद्धांत कहता है कि मोटे तौर पर, भूकंप और ज्वालामुखी दोनों दरारों में होते हैं, खासकर समुद्र-तल की दरारों में; पृथ्वी की पपड़ी में, जहाँ मैग्मा यानी पिघली हुई चट्टानें पपड़ी के अंदर की दरारों में से ऊपर उठती हैं; और सबडक्शन ज़ोन में भी, यानी पृथ्वी की पपड़ी की वह जगह जहाँ चट्टानों की परतें एक-दूसरे से टकराती हैं और एक परत दूसरी के नीचे खिसक जाती है।

सबडक्शन ज़ोन में उठनेवाले ज्वालामुखी इंसानों के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं, क्योंकि एक तो ये ज्वालामुखी ज़्यादा बार फूटते हैं और अकसर उन्हीं जगहों के इर्द-गिर्द फूटते हैं जहाँ लोग रहते हैं। प्रशांत महासागर के देशों में, जिन्हें रिंग ऑफ फायर (आग का घेरा) कहा जाता है, जगह-जगह इस तरह के सैकड़ों ज्वालामुखी पाए जाते हैं। कुछ ज्वालामुखी, पृथ्वी की परतों के किनारों से दूर उन इलाकों में भी पाए जाते हैं जिन्हें ‘हॉट स्पॉट’ कहा जाता है। ऐसा लगता है कि हवाई द्वीप-समूह, एज़ॉर्ज़, गालापेगोज़ द्वीप-समूह और सोसाइटी द्वीप-समूह, ये सब-के-सब ‘हॉट स्पॉट’ कहलानेवाले इलाकों में फूटे ज्वालामुखियों की वजह से वजूद में आए हैं।

तो ज्वालामुखियों को सिर्फ मुसीबत का सबब नहीं समझना चाहिए क्योंकि इन्होंने लंबे अरसे से धरती की बनावट में एक अच्छी भूमिका भी निभायी है। एक यूनिवर्सिटी की वेब साइट के मुताबिक, “कम-से-कम 90 प्रतिशत महाद्वीप और महासागरों के तल, ज्वालामुखियों की बदौलत ही वजूद में आए हैं।” मगर कुछ ज्वालामुखी इतना खूँखार रूप क्यों लेते हैं?

ज्वालामुखी दरअसल धरती के अंदर शुरू होते हैं जहाँ तापमान इतना ज्यादा होता है कि चट्टानें भी पिघलने लगती हैं। इन्हीं पिघली हुई चट्टानों को मैग्मा कहा जाता है जो लावा बनकर ज्वालामुखी के मुँह से निकलता है। कुछ ज्वालामुखी धीरे-धीरे लावा उगलते हैं जो धरती पर इतने आहिस्ते फैलता है कि शायद ही लोगों को चौंका दें। मगर दूसरे ज्वालामुखियों का विस्फोट, परमाणु बम विस्फोट से भी शक्‍तिशाली होता है! ऐसा क्यों? यह, धरती के भीतर मैग्मा की बनावट और उसकी चिपचिपाहट पर निर्भर करता है और इस पर भी कि उस मैग्मा में गैसों और खौलते पानी का मिश्रण कितना है। जैसे-जैसे यह मैग्मा ऊपर की तरफ उठने लगता है, अंदर का पानी और गैस तेज़ी से फैलते जाते हैं। आखिरकार, जब मैग्मा में सही मिश्रण की वजह से दबाव बहुत बढ़ जाता है, तब यह बिलकुल ऐसे फूटता है जैसे सोडा बोतल खोलने पर सोडा फूटकर निकलता है।

गनीमत है कि ज़्यादातर ज्वालामुखी, फूटने से काफी पहले चेतावनी देते हैं। सन्‌ 1902 में मारटिनीक के कैरिबियन द्वीप पर माउंट पेले नाम के पर्वत ने ऐसी मेहरबानी की थी। मगर पास के सैन पियर शहर के नेताओं ने आनेवाले चुनाव को देखते हुए लोगों को वहीं रहने के लिए कहा था, इसके बावजूद कि पर्वत से राख निकलनी शुरू हो चुकी थी, शहर में बीमारी फैल गयी थी और आतंक छाया हुआ था। ज़्यादातर दुकानें तो कई दिन तक बंद रहीं!

मई 8 को स्वर्गारोहण दिवस था, जो यीशु के स्वर्ग लौटने की याद में मनाया जाता है। उस दिन कई लोग कैथोलिक चर्च में परमेश्‍वर से प्रार्थना करने गए थे कि वह उन्हें ज्वालामुखी से बचाए। उसी दिन सुबह 8:00 बजने से कुछ ही देर पहले, आखिरकार माउंट पेले पर ज्वालामुखी फूट ही गया। फिर क्या था, अंदर से खौलती हुई राख, अंगारे, लावा, झाँवा और गैस उफनने लगी। इस ज्वालामुखी की झुलसानेवाली गर्मी 200 से 500 डिग्री सेल्सियस तक थी। इससे उठनेवाले काले बादल ज़मीन से लगकर तेज़ी से पहाड़ से उतरने लगे और देखते-ही-देखते मौत का पैगाम लेकर शहर में घुस गए। नतीजा, करीब 30,000 लोग जलकर खाक हो गए। चर्च की घंटी तक पिघल गयी और बंदरगाह पर लगे जहाज़ भी जल गए। यह 20वीं सदी का सबसे घातक ज्वालामुखी था। मगर इस तबाही से काफी हद तक बचा जा सकता था अगर लोगों ने ज्वालामुखी के फूटने की निशानियों पर ध्यान दिया होता।

क्या कुदरती आफतें और बढ़ेंगी?

दुनिया की विपत्तियों पर सन्‌ 2004 की रिपोर्ट (अँग्रेज़ी) में ‘इंटरनैशनल फेडरेशन ऑफ रेड क्रॉस ऐन्ड क्रेसेंट सोसाइटीज़’ नाम की संस्था कहती है कि पिछले दशक में धरती, सागर और मौसम से जुड़ी आफतें पहले के मुकाबले 60 प्रतिशत बढ़ गयी थीं। दिसंबर 26 को हिंद महासागर में आयी सुनामियों से पहले प्रकाशित की गयी इस रिपोर्ट में बताया गया था: “इससे सुराग मिलता है कि आगे एक लंबे अरसे तक ऐसा ही चलता रहेगा।” इसमें कोई शक नहीं कि अगर ज़्यादा खतरेवाले इलाकों में लोगों की आबादी बढ़ती रही और पेड़ों की गिनती घटती रही, तो भविष्य में सुधार की गुंजाइश भी नहीं बचेगी।

इतना ही नहीं, कई अमीर देश वातावरण में गर्मी बढ़ानेवाली ग्रीनहाउस गैसें लगातार फैला रहे हैं। साइंस पत्रिका के एक संपादक के लेख के मुताबिक, इन ज़हरीली गैसों को फैलने से रोकने में टालमटोल करना, “किसी पनपते रोग के लिए दवा लेने से इनकार करने जैसा है: अंजाम तय है, आगे चलकर हमें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।” आफतों को कम करने के बारे में पेश की गयी कनाडा की एक रिपोर्ट उस भारी कीमत की ओर इशारा करते हुए कहती है: “अब तक दुनिया के सभी देशों ने मिलकर जिन समस्याओं का मुकाबला करने की कोशिश की है, उनमें सबसे ज़्यादा नुकसान पहुँचानेवाली समस्या है, वातावरण की समस्या।”

मगर, वातावरण में सुधार लाने की बात तो दूर, आज हालत यह है कि दुनिया के सभी देश इस बात पर एकमत नहीं हैं कि पृथ्वी का तापमान इंसानों की करतूतों की वजह से बढ़ रहा है। यह उलझन हमें बाइबल की इस सच्चाई की याद दिलाती है: ‘मनुष्य के डग उसके अधीन नहीं हैं।’ (यिर्मयाह 10:23) मगर जैसे अगले लेख में हम देखेंगे, इस अंधकारमय दुनिया में उम्मीद की एक किरण अभी-भी बाकी है। दरअसल आज के ये सारे संकट, साथ ही समाज पर आनेवाले मुसीबत के तूफान भी इस बात का सबूत हैं कि राहत नज़दीक है। (g05 7/22)

[फुटनोट]

^ पैरा. 6 सूरज की गर्मी का पृथ्वी पर बराबर वितरण न होने की वजह से समुद्री प्रवाह भी पैदा होते हैं। ये प्रवाह ऊर्जा को ठंडे इलाकों तक पहुँचाते हैं।

[पेज 6 पर बक्स/तसवीर]

मकई के खेत में उगा ज्वालामुखी

सन्‌ 1943 में मेक्सिको में एक किसान ने देखा कि उसके खेत में मकई के अलावा कुछ और बढ़ रहा है। उसने देखा कि खेत में दरारें पड़ चुकी हैं। अगले दिन तक ये दरारें शंकु के आकार का एक छोटा ज्वालामुखी बन गए थे। एक हफ्ते के अंदर यह ज्वालामुखी 150 मीटर ऊँचा हो गया! और एक साल बाद इसकी ऊँचाई 360 मीटर तक बढ़ गयी। आखिरकार, यह ज्वालामुखी अपने शिखर यानी 430 मीटर की ऊँचाई तक पहुँच गया। समुद्र-तल से इसकी ऊँचाई 2,775 मीटर थी। पारीकूटीन नाम का यह ज्वालामुखी सन्‌ 1952 में अचानक फूटना बंद हो गया और तब से लेकर आज तक यूँ ही खामोश है।

[चित्र का श्रेय]

U. S. Geological Survey/Photo by R. E. Wilcox

[पेज 8 पर बक्स/तसवीर]

जब परमेश्‍वर ने देशों को विपत्ति से बचाया

अकाल भी एक किस्म का कुदरती कहर है। अकाल का इतिहास बहुत पुराना है। इसकी एक मिसाल है, याकूब या इस्राएल के बेटे यूसुफ के ज़माने में प्राचीन मिस्र में पड़ा अकाल। यह सात साल तक रहा और इसने मिस्र, कनान और दूसरे कई इलाकों को अपनी चपेट में ले लिया। मगर इतने बड़े अकाल के बावजूद, मिस्र के रहनेवालों पर भूखों मरने की नौबत नहीं आयी क्योंकि यहोवा ने इस अकाल के बारे में सात साल पहले बता दिया था। उसने यह भी बताया था कि अकाल से पहले, मिस्र में सात साल तक फसल बहुतायत में उगेगी। परमेश्‍वर का भय माननेवाले यूसुफ को मिस्र देश का प्रधान-मंत्री और अनाज के भंडारों का अधिकारी बनाया गया, जिसके पीछे परमेश्‍वर का हाथ था। यूसुफ की निगरानी में मिस्रियों ने इतना अनाज इकट्ठा किया कि उन्होंने “उसका हिसाब रखना भी छोड़ दिया।” (NHT) इतना बड़ा भंडार होने की वजह से मिस्र न सिर्फ अपने देश के लोगों को बल्कि ‘सारी पृथ्वी के लोगों’ को अनाज दे सका, जिनमें यूसुफ का परिवार भी एक था।—उत्पत्ति 41:49, 57; 47:11, 12.

[पेज 7 पर तसवीरें]

हैटी 2004—लड़के, बाढ़-ग्रस्त सड़कों पर पीने का पानी ले जाते हुए। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से हुआ ज़बरदस्त भू-स्खलन

[चित्रों का श्रेय]

पीछे की तसवीर: Sophia Pris/EPA/Sipa Press; अंदर की तसवीर: Carl Juste/Miami Herald/Sipa Press

[पेज 9 पर तसवीर]

कई देश आज भी वातावरण में ग्रीनहाउस गैसें फैला रहे हैं

[चित्र का श्रेय]

© Mark Henley/Panos Pictures