इस जानकारी को छोड़ दें

विषय-सूची को छोड़ दें

नैतिक मूल्यों का अचानक गिरना कब शुरू हुआ?

नैतिक मूल्यों का अचानक गिरना कब शुरू हुआ?

नैतिक मूल्यों का अचानक गिरना कब शुरू हुआ?

आपको क्या लगता है, नैतिक मूल्यों का अचानक गिरना कब शुरू हुआ? आपके ज़माने से या आपके किसी बुज़ुर्ग रिश्‍तेदार या दोस्त के ज़माने से? कुछ लोग कहते हैं कि सन्‌ 1914 में जब पहला विश्‍वयुद्ध हुआ, तब से नैतिक मूल्यों का अचानक गिरना शुरू हो गया और ऐसा पहले किसी भी ज़माने में नहीं देखा गया था। इतिहास के प्रोफेसर, रॉबर्ट वोल ने अपनी किताब 1914 की पीढ़ी (अँग्रेज़ी) में लिखा: “जिन्होंने भी इस युद्ध को देखा था, वे यकीन नहीं कर सकते कि अगस्त 1914 से संसार का रुख ही बदल गया है।”

इतिहासकार, नॉरमन कैनटर कहते हैं: “हर जगह चालचलन के बारे में लोगों के स्तर, जो पहले से ही गिरने शुरू हो गए थे, अब पूरी तरह खत्म हो चुके हैं। बड़े-बड़े नेता और सेना के जनरल अपने अधीन लाखों लोगों के साथ इस तरह पेश आए, मानो वे हलाल किए जानेवाले जानवर हों। जब उन्होंने ही ऐसा किया, तो भला धर्म का या सही-गलत का कौन-सा उसूल आम लोगों को हर दिन एक-दूसरे के साथ जानवरों जैसा सलूक करने से रोक सकता है? . . . पहले विश्‍वयुद्ध [सन्‌ 1914-18] में जिस कदर खून की नदियाँ बहायी गयीं, उसकी वजह से इंसान की जान की कीमत एकदम घट गयी।”

अँग्रेज़ इतिहासकार, एच. जी. वैल्स ने अपनी किताब, इतिहास का सारांश (अँग्रेज़ी) में लिखा कि जब से विकासवाद के सिद्धांत को अपनाया गया, तब से “सही मायनों में नैतिक मूल्यों का गिरना शुरू हुआ।” क्यों? क्योंकि कई लोगों का यह मानना था कि इंसान बस ऊँची जाति का जानवर है, और कुछ नहीं। वैल्स ने, जो खुद एक विकासवादी थे, सन्‌ 1920 में लिखा: “लोगों ने तय किया कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, ठीक भारत के शिकारी कुत्तों की तरह। . . . इसलिए उन्हें लगता है कि बड़े-बड़े और ताकतवर लोगों का कमज़ोर और कम दर्जे के लोगों पर धौंस जमाना और उन्हें दबाकर रखना सही है।”

दरअसल, जैसे कैनटर ने बताया, पहले विश्‍वयुद्ध का लोगों पर इतना बुरा असर हुआ कि उनकी सही-गलत की समझ पूरी तरह बिगड़ गयी। उन्होंने कहा: “राजनीति की बात ले लो या पहनावे की, या फिर लैंगिक संबंध के बारे में उनके रवैए की, हर मामले में पुराने ज़माने के लोगों को सरासर गलत बताया गया है।” और-तो-और, नैतिक मूल्यों में भारी गिरावट लाने में चर्च का भी बहुत बड़ा हाथ था। वह कैसे? उन्होंने विकासवाद के सिद्धांत को बढ़ावा देकर मसीही शिक्षाओं को भ्रष्ट कर दिया और अपने देश के लोगों को युद्ध में हिस्सा लेने के लिए भड़काया। ब्रिटेन के ब्रिगेडियर जनरल, फ्रैंक क्रोज़र ने लिखा: “हमारे देश में ईसाई धर्म के चर्चों जैसा और कोई नहीं, जो लोगों को खून का प्यासा बनाने में उस्ताद हो। हमने अपने फायदे के लिए उनका खूब इस्तेमाल किया।”

नैतिक सिद्धांतों को ठुकरा दिया गया

पहले विश्‍वयुद्ध के बाद सन्‌ 1920 के दशक में, सभी लोग सुख-विलास के पीछे भागने लगे और उन पर अमीर बनने का जुनून सवार हो गया। ऐसे हालात में जितने भी पुराने उसूल और नैतिक सिद्धांत थे, उन सबको ठुकरा दिया गया। उनके बदले, लोग ‘सब चलता है’ रवैया अपनाने लगे। इतिहासकार, फ्रेड्रिक लूअस एलन कहते हैं: “पहले विश्‍वयुद्ध के बाद के दस सालों को ‘बेहूदगी का दशक’ कहना बिलकुल सही होगा। . . . पुराने ज़माने के बीतने के साथ-साथ, उसके वे सारे उसूल भी खत्म हो गए, जिनसे कुछ हद तक लोगों की ज़िंदगी खुशहाल थी और उनके पास जीने का एक मकसद था। यही नहीं, उनके बदले दूसरे उसूलों को कायम करना हरगिज़ आसान नहीं था।”

सन्‌ 1930 के दशक में, पूरी दुनिया में महामंदी छा गयी और बहुत-से लोग गरीब हो गए। तब जाकर कहीं लोगों के होश ठिकाने आए और वे खुद पर काबू रखने लगे। मगर उस दशक के खत्म होते-होते, दुनिया-भर में एक और युद्ध छिड़ गया। वह पहले विश्‍वयुद्ध से भी बड़ा भयंकर था। वह था, दूसरा विश्‍वयुद्ध। देखते-ही-देखते, कई देश विनाश करनेवाले खतरनाक हथियार बनाने लगे। इससे दुनिया महामंदी की मार से उबर तो गयी, मगर साथ ही वह दुःख-तकलीफों और दहशत की ऐसी खाई में जा गिरी, जिसके बारे में शायद ही किसी ने कभी कल्पना की हो। दूसरे विश्‍वयुद्ध के खत्म होने तक सैकड़ों शहर खाक हो गए। जापान के दो शहरों पर एक-एक परमाणु बम गिराकर उन्हें पूरी तरह भस्म कर दिया गया! यातना शिविरों में लाखों लोगों को बहुत ही खौफनाक तरीके से मौत के घाट उतारा गया। इस युद्ध में करीब 50 लाख स्त्री-पुरुष और बच्चे मारे गए।

दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौरान, जब चारों तरफ के हालात बहुत ही खराब थे, तब लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी से चले आ रहे सही-गलत के स्तरों को मानने के बजाय, अपने मन-मुताबिक व्यवहार करने लगे। किताब प्यार, सेक्स और युद्ध—इनके बदलते उसूल, 1939-45 (अँग्रेज़ी) कहती है: “ऐसा लगता है कि लैंगिकता के मामले में जितने भी नियम थे, उन सभी को युद्ध के दौरान ताक पर रख दिया गया था। मैदाने-जंग में फौजियों को मर्यादा पार करने की जो छूट दी जाती है, वही छूट अब आम लोगों को भी दी जाने लगी। . . . युद्ध की वजह से हर जगह छाए तनाव और सनसनी में, नैतिकता उड़न-छू हो गयी। नतीजा, जिस तरह युद्ध के मैदान में इंसान की ज़िंदगी पल-भर की और दो कौड़ी की मानी जाती है, उसी तरह आम लोगों की ज़िंदगी की भी कोई कीमत नहीं रही।”

युद्ध के वक्‍त, लोगों पर मौत का साया मँडरा रहा था। इसलिए वे किसी के भी साथ जज़बाती तौर पर गहरा लगाव रखने के लिए तरस रहे थे, फिर चाहे वह कुछ वक्‍त के लिए ही क्यों न हो। ब्रिटेन में रहनेवाली एक शादीशुदा स्त्री ने, उस समय सेक्स के मामले में दी गयी खुली छूट की सफाई में कहा: “असल में देखा जाए तो हम बदचलन नहीं थे, आखिर युद्ध जो चल रहा था।” एक अमरीकी सैनिक ने कबूल किया: “बहुत-से लोगों के मुताबिक हम बदचलन थे। पर हम करते भी तो क्या, आखिर हम जवान थे और हमारी मौत कभी-भी हो सकती थी।”

उस युद्ध से बचनेवाले बहुत-से लोगों को गहरा सदमा पहुँचा, क्योंकि उन्होंने लड़ाई के वक्‍त अपनी आँखों से दिल-दहलानेवाली घटनाएँ देखी थीं। आज भी, कुछ लोगों की आँखों के सामने उन घटनाओं की ऐसी तसवीर उभर आती है, मानो वे फिर से घट रही हों। उनमें वे लोग भी शामिल हैं, जो युद्ध के समय बच्चे थे। इस वजह से कइयों का दूसरों पर से भरोसा उठ गया, साथ ही उन्होंने नैतिकता के बारे में अपनी समझ भी खो दी। अब उनके दिल में ऐसे किसी भी अधिकारी के लिए इज़्ज़त नहीं रही, जो अच्छे-बुरे के स्तर कायम करते हैं। इसलिए उनकी नज़र में सबकुछ पल-दो-पल का है, आज है तो कल नहीं।

चालचलन के नए नियम

दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद, लोगों के लैंगिक कामों के बारे में कई अध्ययन चलाए गए। ऐसा ही एक अध्ययन सन्‌ 1940 के दशक में अमरीका में चलाया गया और उस पर 800 से भी ज़्यादा पेजों की एक रिपोर्ट छापी गयी, जिसका नाम था ‘किनज़ी रिपोर्ट।’ इस रिपोर्ट से क्या नतीजा निकला? बहुत-से लोगों में सेक्स के बारे में इतनी खुलकर चर्चा होने लगी, जितनी पहले कभी नहीं होती थी। हालाँकि बाद में पता चला कि उस रिपोर्ट में समलैंगिकता के और सेक्स के दूसरे घिनौने कामों में हिस्सा लेनेवालों की गिनती बढ़ा-चढ़ाकर बतायी गयी थी, फिर भी उस अध्ययन से एक बात ज़रूर सामने आयी। वह यह कि युद्ध के बाद से नैतिक मूल्यों का अचानक गिरना शुरू हो गया।

कुछ समय तक, सही-गलत के स्तर को बरकरार रखने की पूरज़ोर कोशिश की गयी थी। जैसे, रेडियो से ऐसी बातें, साथ ही फिल्मों और टी.वी. कार्यक्रमों से ऐसे सीन हटाए जाते थे जो अश्‍लील होते थे। लेकिन ऐसा ज़्यादा समय तक नहीं चला। विलियम बेनेट, जो पहले अमरीका के शिक्षा विभाग के सचिव रह चुके थे, कहते हैं: “सन्‌ 1960 के दशक तक, अमरीका सीधे और तेज़ी से एक ऐसे गर्त में गिरने लगा जिसे असभ्यता कहा जा सकता है।” और यही हाल कई देशों का था। आखिर, सन्‌ 1960 के दशक में नैतिक मूल्य इतनी तेज़ी से क्यों गिरने लगे?

उस दशक में ‘नारी मुक्‍ति आंदोलन’ शुरू हुआ। उसके फौरन बाद, लैंगिकता के मामले में एक बड़ी क्रांति आयी। साथ ही, नए नैतिक मूल्यों की शुरूआत हुई। इसके अलावा, ऐसी गर्भ-निरोधक गोलियाँ ईजाद की गयीं जो काफी असरदार थीं। इसलिए अब गर्भ ठहरने का डर नहीं रहा। इस वजह से स्त्री-पुरुषों के बीच, एक-दूसरे का साथ निभाने का वादा किए बगैर, लैंगिक संबंध रखना आम हो गया।

उसी दौरान, अखबारवालों, फिल्म बनानेवालों और टी.वी. पर कार्यक्रम दिखानेवालों ने भी नैतिकता के मामले में ढील देना शुरू कर दिया। सालों बाद, ज़बीगन्येव ब्रेज़िनस्की ने, जो पहले अमरीका के राष्ट्र सुरक्षा परिषद्‌ के अध्यक्ष रह चुके थे, बताया कि टी.वी. कार्यक्रम क्या-क्या उसूल सिखाते हैं। उन्होंने कहा: “वे साफ-साफ बताते हैं कि अपने सुख-विलास को पूरा करना ही सबकुछ है। वे मार-पीटवाले और खून-खराबेवाले सीनों को ऐसे दिखाते हैं, मानो ये आम बात हों। [और] वे एक-से-ज़्यादा लोगों के साथ सेक्स करने का भी बढ़ावा देते हैं।”

सन्‌ 1970 के दशक के आते-आते, वी.सी.आर. बहुत मशहूर हो गया। अब लोग चुपके से अपने घर की चार-दीवारी में रहकर ही उन गंदी और अश्‍लील फिल्मों को देख सकते थे, जिन्हें वे सिनेमा घर में देखने की जुर्रत कभी न करते। और आज, पूरी दुनिया में जिस किसी के पास कंप्यूटर है, वह इंटरनेट के ज़रिए सबसे घिनौनी किस्म की पोर्नोग्राफी देख सकता है।

नैतिक मूल्यों के गिरने से जो अंजाम हुए हैं, उन्हें देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हाल ही में, अमरीका के एक जेलर ने कहा: “दस साल पहले जब गंदे मोहल्ले में पले-बढ़े नौजवान इस जेलखाने में आते थे, तो मैं उनसे सही-गलत के बारे में बात कर सकता था। मगर आजकल जो बच्चे आते हैं, उन्हें तो मालूम तक नहीं कि मैं किस बारे में बात कर रहा हूँ।”

सही मार्गदर्शन के लिए हम किसके पास जा सकते हैं?

नैतिकता के मामले में सही मार्गदर्शन पाने के लिए, हम दुनिया के चर्चों के पास नहीं जा सकते। क्यों? क्योंकि वे, यीशु और पहली सदी के मसीहियों की तरह नहीं हैं, जो धर्मी सिद्धांतों पर चलते थे। इसके बजाय, चर्चों ने खुद को दुनिया का हिस्सा बना लिया और वे उसकी बुराइयों में शामिल हो गए। एक लेखक कहते हैं: “क्या आज तक कोई ऐसा युद्ध हुआ है जिसमें लड़नेवालों ने यह न कहा हो कि परमेश्‍वर उनकी तरफ है?” जहाँ तक परमेश्‍वर के नैतिक सिद्धांतों को बुलंद करने की बात है, तो इस बारे में न्यू यॉर्क सिटी के एक पादरी ने सालों पहले कहा: “बस में सफर करने के लिए भी नियमों के मुताबिक पेश आने की ज़रूरत होती है, वरना एक इंसान को बस से उतार दिया जाता है। मगर चर्च के स्तर इतने गिर गए हैं कि इसके सदस्यों के साथ ऐसा कुछ भी नहीं किया जाता।”

सचमुच, इस दुनिया में जिस हद तक नैतिक मूल्य गिर गए हैं, उससे साफ पता चलता है कि जल्द-से-जल्द कुछ बदलाव किए जाने की सख्त ज़रूरत है। लेकिन कैसा बदलाव? यह बदलाव कौन ला सकता है और कैसे? (4/07)

[पेज 5 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

“पहले विश्‍वयुद्ध [सन्‌ 1914-18] में जिस कदर खून की नदियाँ बहायी गयीं, उसकी वजह से इंसान की जान की कीमत एकदम घट गयी”

[पेज 6 पर बक्स]

सद्‌गुण और मूल्यों में फर्क

एक वक्‍त था जब सद्‌गुण का मतलब बिलकुल साफ था। जैसे, एक इंसान ईमानदार, वफादार, अच्छे चरित्र का और आदर के काबिल होता था या नहीं। मगर आज शब्द “सद्‌गुण” की जगह “मूल्य” ने ले ली है। फिर भी, इसमें एक समस्या है। इतिहासकार, गरट्रूड हिमलफार्ब अपनी किताब, समाज में नैतिक पतन (अँग्रेज़ी) कहती हैं: “लोग मूल्य के बारे में जो कहते हैं, वही बात वे सद्‌गुण के बारे में नहीं कह सकते, . . . यानी वे यह नहीं कह सकते कि हरेक को अपने-अपने सद्‌गुण चुनने का हक है।”

गरट्रूड कहती हैं कि मूल्य में “यह सब शामिल हो सकते हैं: विश्‍वास, राय, रवैए, भावनाएँ, आदतें, संविधान, पसंद-नापसंद, भेदभाव, यहाँ तक कि अजीबो-गरीब व्यवहार, जिनकी एक इंसान, समूह या समाज किसी भी एक वक्‍त पर, किसी वजह से कदर करता है।” इस मौजूदा समाज में जिसमें लोग खुले विचार के हैं, उन्हें लगता है कि उन्हें अपने मूल्यों को चुनने की आज़ादी है। ठीक जैसे वे एक बड़े-से बाज़ार में खाने-पीने की चीज़ें चुनते हैं। लेकिन जब ऐसा होता है, तब सच्चे सद्‌गुण और नैतिकता का क्या होता है?

[पेज 6, 7 पर तसवीर]

आजकल घिनौने किस्म के मनोरंजन का मज़ा लेना दिनोंदिन आसान होता जा रहा है