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जुर्म क्या इसकी जड़ काटना मुमकिन है?

जुर्म क्या इसकी जड़ काटना मुमकिन है?

जुर्म क्या इसकी जड़ काटना मुमकिन है?

“अध्ययन दिखाते हैं कि बार-बार जुर्म करनेवाले ज़्यादातर मुजरिम, जेल की हवा खाने के बाद भी समाज के खिलाफ काम करना बंद नहीं करते। नतीजा, इससे पहुँचनेवाला भारी नुकसान, जिसे सिर्फ पैसों से नहीं आँका जा सकता, बढ़ता ही जा रहा है।”—मुजरिम के दिमाग में झाँकना (अँग्रेज़ी), लेखक डॉ. स्टैनटन ई. सैमनो।

आप चाहे दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न रहते हों, हर दिन आपको जुर्म की ऐसी ढेरों वारदातों के बारे में सुनने को मिलता होगा, जिनसे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ऐसे में सवाल उठता है: क्या जुर्म को रोकने के तरीके, यानी अपराधियों को जेल की या दूसरी सख्त-से-सख्त सज़ा देने के तरीके कामयाब हो रहे हैं? क्या जेल में सज़ा काटने से गुनहगार सुधर जाते हैं? इससे भी ज़रूरी सवाल यह है कि क्या समाज, जुर्म की जड़ को काटने के लिए कुछ कर रहा है?

जुर्म को रोकने के मौजूदा तरीकों के बारे में, डॉ. स्टैनटन ई. सैमनो लिखते हैं: “एक बार जेल की सज़ा काटने के बाद [मुजरिम] पहले से कहीं ज़्यादा चालाक और होशियार बन सकता है। मगर वह दूसरों का नाजायज़ फायदा उठाने और जुर्म करने से बिलकुल भी बाज़ नहीं आता। [अपराध करने के आदी होनेवालों] के आँकड़े बहुत ही कम होते हैं, क्योंकि इनमें सिर्फ उन लोगों की गिनती होती है, जो अपनी ही लापरवाही की वजह से दोबारा पकड़े जाते हैं।” दूसरे शब्दों में कहें तो जेल अकसर मुजरिमों के लिए एक ऐसा स्कूल बन जाता है, जहाँ वे और भी शातिर अपराधी बनना सीखते हैं।—पेज 7 पर दिया बक्स, “जुर्म का स्कूल?” देखिए।

और-तो-और, कई अपराधियों को उनके किए की सज़ा तक नहीं दी जाती। इसलिए वे इस नतीजे पर पहुँच जाते हैं कि जुर्म करना फायदेमंद है। वे और भी हठीले बन जाते हैं और बुराई के अपने रास्ते पर चलते रहने की ज़िद पकड़ लेते हैं। एक बार एक बुद्धिमान राजा ने लिखा था: “इसलिए कि बुरे कार्य का दण्ड शीघ्र नहीं दिया जाता, उनके बीच रहनेवालों का मन बुराई करने में पूर्णतः लिप्त रहता है।”—सभोपदेशक 8:11, NHT.

जुर्म की दुनिया में जाना —मजबूरी से या अपनी मरज़ी से?

कुछ लोगों को लगता है कि इस संसार में जीने के लिए, उनके आगे सिर्फ एक ही रास्ता है और वह है, जुर्म की दुनिया में जाना। क्या यह सच है? डॉ. सैमनो कहते हैं: “हालाँकि जुर्म को सही करार नहीं दिया जा सकता, फिर भी मैं पहले सोचता था कि चंचल मनवाले, या गरीबी की चक्की में पिस रहे या फिर ज़िंदगी से हार चुके लोग जुर्म नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे।” लेकिन काफी खोजबीन करने के बाद, उन्होंने अपने खयालात बदल दिए। वे जिस नतीजे पर पहुँचे, उस बारे में वे कहते हैं: “लोग अपनी मरज़ी से जुर्म करने का चुनाव करते हैं। जुर्म . . . की ‘जड़’ एक इंसान के हालात नहीं, बल्कि उसकी अपनी सोच होती है।” वे आगे जोड़ते हैं: “हम जैसा सोचते हैं, वैसा ही करते हैं। हम कोई भी काम करने से पहले सोचते हैं, उसे करते वक्‍त सोचते हैं और उसे पूरा करने के बाद भी सोचते रहते हैं।” इसलिए डॉ. सैमनो का मानना है कि मुजरिम बेबस नहीं होते, बल्कि “वे दूसरों को बेबस बनाते हैं और जुर्म की दुनिया में कदम रखने का चुनाव अपनी मरज़ी से करते हैं।” *

अब ज़रा शब्द “चुनाव” पर गौर कीजिए। ब्रिटेन में हाल ही के एक अखबार में यह सुर्खी छपी थी: “ज़िंदगी को बेहतर बनाने के चक्कर में बहुत-से शहरी जवानों ने अपराध को चुना अपना करियर।” इंसान को आज़ाद मरज़ी के साथ बनाया गया है, इसलिए वह मुश्‍किल-से-मुश्‍किल हालात में भी अपना रास्ता खुद चुन सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि लाखों लोग हर दिन तंगहाली में जीते हैं और समाज में हो रहे अन्याय के शिकार होते हैं। या फिर हो सकता है, वे ऐसे परिवार में रहते हों जिनमें लड़ाई-झगड़े होना रोज़ की बात है। मगर फिर भी, ये लोग कुख्यात अपराधी नहीं बनते। डॉ. सैमनो कहते हैं: “जुर्म बुरे माहौल, लापरवाह माँ-बाप, . . . या बेरोज़गारी की वजह से नहीं, बल्कि अपराधियों की वजह से होते हैं। इसकी शुरूआत एक इंसान के दिमाग से होती है, ना कि समाज के बुरे हालात से।”

जुर्म की जड़—मन

बाइबल बताती है कि एक इंसान के पाप करने की वजह उसके हालात नहीं, बल्कि उसका मन होता है। याकूब 1:14, 15 कहता है: “प्रत्येक व्यक्‍ति अपनी ही अभिलाषा से खिंचकर, और फंसकर परीक्षा में पड़ता है। फिर अभिलाषा गर्भवती होकर पाप को जन[ती] है।” जब एक इंसान अपनी किसी बुरी इच्छा के बारे में दिन-रात सोचता रहता है, तो वह दरअसल उसे अपने दिल में पनपने दे रहा होता है। फिर यह इच्छा उस पर इस कदर हावी हो जाती है कि मौका मिलते ही वह खतरनाक काम कर बैठता है। उदाहरण के लिए, जब एक शख्स कभी-कभार अश्‍लील तसवीरें देखता है, तो कुछ समय बाद उस पर अनैतिक काम करने का जुनून सवार हो सकता है। फिर एक दिन इस जुनून में आकर वह घिनौनी लैंगिक हरकत कर सकता है। यहाँ तक कि इसके लिए वह जुर्म का रास्ता इख्तियार कर सकता है।

हमें एक और बात पर गौर करने की ज़रूरत है। वह यह कि दुनिया किन बातों पर ज़ोर देती है। वह कहती है कि खुद के लिए जीओ, खूब पैसा कमाओ, ऐश करो और झटपट अपनी ख्वाहिशें पूरी करो। हमारे समय के बारे में बाइबल में भविष्यवाणी की गयी थी: “अन्तिम दिनों में . . . मनुष्य अपस्वार्थी, लोभी, . . . कठोर, भले के बैरी . . . और परमेश्‍वर के नहीं बरन सुखविलास ही के चाहनेवाले होंगे।” (2 तीमुथियुस 3:1-5) आज दुनिया फिल्मों, वीडियो गेमों, साहित्यों और ऐसी जानी-मानी हस्तियों के ज़रिए, जो अच्छी मिसाल नहीं हैं, इसी रवैए को बढ़ावा दे रही है। और अफसोस, यही रवैया जुर्म की आग में घी का काम करता है। * लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि हर इंसान, दुनिया के रंग में रंग जाता हो। और-तो-और, कुछ लोग जो पहले ऐसा रवैया रखते थे, उन्होंने अपनी ज़िंदगी में बड़े-बड़े बदलाव किए हैं। साथ ही, उन्होंने जीवन के बारे में अपना नज़रिया भी बदल दिया है।

लोगों की कायापलट हो सकती है!

जो इंसान एक बार मुजरिम बन जाता, तो इसका यह मतलब नहीं कि वह ज़िंदगी-भर मुजरिम ही बना रहेगा। किताब मुजरिम के दिमाग में झाँकना कहती है कि जैसे एक इंसान, जुर्म की दुनिया में जाने का चुनाव करता है, वैसे ही वह “जुर्म की दुनिया से निकलकर, एक साफ-सुथरी ज़िंदगी जीने का भी चुनाव कर सकता है।”

अनुभव दिखाते हैं कि लोगों की चाहे किसी भी माहौल में परवरिश क्यों न हुई हो, वे बदल सकते हैं, बशर्ते उनमें ऐसा करने की इच्छा हो। * उन्हें इंसान के बदलते उसूलों के मुताबिक नहीं, बल्कि सिरजनहार के टिकाऊ स्तरों के मुताबिक अपना रवैया, इरादा और सोचने का तरीका बदलने के लिए तैयार होना चाहिए। आखिर, परमेश्‍वर से बेहतर हमें और कौन जानता है? और-तो-और, क्या परमेश्‍वर को यह तय करने का अधिकार नहीं कि इंसानों के लिए क्या भला है, क्या बुरा? इसलिए अपने स्तर बताने के लिए उसने करीब 40 लोगों को, जो उसका भय मानते थे, एक किताब लिखने को प्रेरित किया। इस किताब को आज हम पवित्र बाइबल के नाम से जानते हैं। यह एक ऐसी लाजवाब किताब है, जिसे खुशहाल और मकसद-भरी ज़िंदगी जीने का मार्गदर्शक कहना बिलकुल सही होगा।—2 तीमुथियुस 3:16, 17.

परमेश्‍वर को खुश करने के लिए बदलाव करना शायद आसान न हो। क्यों? क्योंकि हमें पाप करने के अपने रुझान से संघर्ष करना पड़ता है। दरअसल, बाइबल के एक लेखक ने अपने अंदर के संघर्ष को ‘लड़ाई’ का नाम दिया। (रोमियों 7:21-25) मगर उसने इस लड़ाई में जीत हासिल की, क्योंकि उसने अपनी ताकत के बजाय उस परमेश्‍वर पर भरोसा रखा, जिसका प्रेरित वचन “जीवित, और प्रबल” है।—इब्रानियों 4:12.

अच्छी “खुराक” की नियामत

चुस्त-दुरुस्त रहने के लिए अच्छा खान-पान ज़रूरी है। साथ ही, हमें खाने को अच्छी तरह चबाना और पचाना चाहिए। ऐसा करने के लिए वक्‍त और मेहनत लगती है। उसी तरह, आध्यात्मिक मायने में सेहतमंद होने के लिए हमें परमेश्‍वर की बातों के बारे में गहराई से सोचने-समझने की ज़रूरत है, ताकि ये बातें हमारे दिलो-दिमाग में अच्छी तरह बैठ जाएँ। (मत्ती 4:4) बाइबल कहती है: “जो जो बातें सत्य हैं, और जो जो बातें आदरनीय हैं, और जो जो बातें उचित हैं, और जो जो बातें पवित्र हैं, और जो जो बातें सुहावनी हैं, और जो जो बातें मनभावनी हैं, निदान, जो जो सद्‌गुण और प्रशंसा की बातें हैं उन्हीं पर ध्यान लगाया करो। . . . तब परमेश्‍वर जो शान्ति का सोता है तुम्हारे साथ रहेगा।”—फिलिप्पियों 4:8, 9.

गौर कीजिए कि अगर हम अपनी पुरानी शख्सियत उतारकर नयी शख्सियत पहनना चाहते हैं, तो हमें अपना “ध्यान” परमेश्‍वर के विचारों पर ‘लगाए’ रखने की ज़रूरत है। मगर इसके लिए हमें सब्र से काम लेना होगा, क्योंकि आध्यात्मिक तरक्की रातों-रात नहीं होती।—कुलुस्सियों 1:9, 10; 3:8-10.

एक स्त्री की मिसाल लीजिए। बचपन में उसके साथ लैंगिक दुर्व्यवहार किया गया था। जब वह बड़ी हुई, तो वह ड्रग्स और तंबाकू का इस्तेमाल करने लगी, साथ ही वह शराब भी पीने लगी। आज वह कई इलज़ामों की वजह से उम्र-कैद की सज़ा काट रही है। जेल में उसकी मुलाकात यहोवा के साक्षियों से हुई, जो कैदियों को गवाही देने के लिए आते थे। वह उनके साथ बाइबल अध्ययन करने लगी और सीखी हुई बातों को अपनी ज़िंदगी में लागू करने लगी। इसका क्या नतीजा हुआ? वह धीरे-धीरे अपनी पुरानी शख्सियत उतारकर नयी शख्सियत धारण करने लगी, यानी वह मसीह जैसे गुण ज़ाहिर करने लगी। अब वह ऐसी सोच और आदतों की गुलाम नहीं, जिनसे एक इंसान तबाह हो जाता है। उसका सबसे मनपसंद बाइबल वचन है 2 कुरिन्थियों 3:17, जिसमें लिखा है: “प्रभु [यहोवा] तो आत्मा है: और जहां कहीं प्रभु का आत्मा है वहां स्वतंत्रता है।” हालाँकि वह जेल में कैद है, मगर उसे आज़ादी का ऐसा मीठा एहसास है, जो उसे पहले कभी नहीं हुआ था।

परमेश्‍वर, दया का सागर

परमेश्‍वर किसी भी इंसान के बारे में ऐसा नहीं सोचता कि उसके बदलने की कोई उम्मीद नहीं। * उसके बेटे, यीशु मसीह ने कहा था: “मैं धर्मियों को नहीं, परन्तु पापियों को मन फिराने के लिये बुलाने आया हूं।” (लूका 5:32) माना कि बाइबल के स्तरों के मुताबिक जीने के लिए ज़िंदगी में फेरबदल करना मुश्‍किल हो सकता है। लेकिन एक इंसान इसमें कामयाब हो सकता है, बशर्ते वह सब्र से काम ले, साथ ही परमेश्‍वर और आध्यात्मिक सोच रखनेवाले मसीहियों की प्यार-भरी मदद का पूरा-पूरा फायदा उठाए। (लूका 11:9-13; गलतियों 5:22, 23) दुनिया-भर में, यहोवा के साक्षी ऐसी ही मदद देने के लिए बाकायदा जेलों में जाते हैं। वहाँ वे ऐसे स्त्री-पुरुषों के साथ बाइबल अध्ययन करते हैं, जो दिल से सच्चाई सीखना चाहते हैं, फिर चाहे उन्होंने कोई भी अपराध क्यों न किया हो। * इसके अलावा, कई जेलों में साक्षी हफ्ते की सभाएँ भी रखते हैं।—इब्रानियों 10:24, 25.

हालाँकि कुछ लोगों ने बुराई का रास्ता छोड़ दिया है और सच्चे मसीही बन गए हैं, फिर भी बाइबल में पहले से यह साफ-साफ बताया गया था कि हमारे समय में ‘अधर्म बढ़ जाएगा।’ (मत्ती 24:12) अगले लेख में हम देखेंगे कि यह बात एक ऐसी अहम भविष्यवाणी का हिस्सा है, जिसमें कुछ खुशखबरी भी शामिल है। (g 2/08)

[फुटनोट]

^ कुछ मामलों में मानसिक तौर पर बीमार लोग जुर्म करते हैं। यह खासकर उन देशों में होता है, जहाँ ऐसे लोगों को सड़कों पर भटकने की छूट दी जाती है और जहाँ हथियार पाना काफी आसान होता है। मगर इस लेख में इस पेचीदा विषय पर बात नहीं की गयी है।

^ जुर्म के विषय पर ज़्यादा जानकारी के लिए, 22 फरवरी, 1998 की सजग होइए! (अँग्रेज़ी), पेज 3-9 पर दिया लेख, “जुर्म बिना एक दुनिया—कब?”; और 8 अगस्त, 1985 की सजग होइए! (अँग्रेज़ी), पेज 3-12 पर दिया लेख, “क्या कभी ऐसा वक्‍त आएगा, जब सड़कों पर कोई जुर्म न होगा?” देखिए।

^ इस पत्रिका और इसके साथ निकलनेवाली पत्रिका, प्रहरीदुर्ग में अकसर ऐसे लोगों के अनुभव दिए जाते हैं, जो बाइबल से सच्चाई सीखने के बाद अपराध की दुनिया छोड़ देते हैं। सजग होइए! (अँग्रेज़ी) के ये अंक देखिए: जुलाई 2006, पेज 11-13; 8 अक्टूबर, 2005, पेज 20-1. साथ ही, प्रहरीदुर्ग के ये अंक भी देखिए: 1 जनवरी, 2000, पेज 4-5; 15 अक्टूबर, 1998, पेज 27-9; और 15 फरवरी, 1997, पेज 21-4.

^ पेज 29 पर दिया लेख, “बाइबल का दृष्टिकोण: क्या परमेश्‍वर गंभीर पापों को माफ करता है?” देखिए।

^ पेज 9 पर दिया बक्स, “परमेश्‍वर और उसके मकसद जानने में कैदियों को मदद” देखिए।

[पेज 5 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

लाखों लोग तंगहाली में जीते हैं, मगर वे जुर्म की दुनिया में नहीं जाते

[पेज 6, 7 पर बक्स/तसवीर]

“दो साल के अंदर वापस जेल में”

यह सुर्खी, इंग्लैंड के लंदन शहर के द टाइम्स अखबार में छपी थी। इसमें यह बताया गया था कि ब्रिटेन में जिन लोगों को चोरी और सेंधमारी के जुर्म में जेल की सज़ा दी जाती है, उनमें से 70 प्रतिशत से भी ज़्यादा जनों को दो साल के अंदर फिर किसी और जुर्म के लिए जेल हो जाती है। कई जुर्म, ड्रग्स लेनेवाले करते हैं, क्योंकि मौत के मुँह में ले जानेवाली यह आदत उन्हें बहुत मँहगी पड़ती है और इसका खर्चा उठाने के लिए वे कुछ भी करने को आमादा हो जाते हैं।

[पेज 7 पर बक्स]

“जुर्म का स्कूल”?

प्रोफेसर जॉन ब्रेथवेट यू.सी.एल.ए. लॉ रिव्यू में लिखते हैं: “जेल, जुर्म का स्कूल है।” और डॉ. स्टैनटन ई. सैमनो अपनी किताब मुजरिम के दिमाग में झाँकना में लिखते हैं कि “ज़्यादातर मुजरिम तजुरबे से [ऐसी खतरनाक बातें] सीखते हैं,” जो समाज नहीं चाहता कि वे सीखें। वे आगे लिखते हैं: “जेल में कैदियों के पास एक नंबरी अपराधी बनने का वक्‍त-ही-वक्‍त होता है। साथ ही, उन्हें इस काम में महारत हासिल करने के ढेरों मौके भी मिलते हैं। . . . और कुछ हैं, जो पेशेवर अपराधी बनने में कामयाब हो जाते हैं और वे बेजा हरकतें करने में पूरी तरह डूब जाते हैं। इसके अलावा, वे कानून को चकमा देने में उस्ताद हो जाते हैं।”

डॉ. सैमनो अपनी किताब के एक और अध्याय में लिखते हैं: “जेल की सज़ा काटने से एक मुजरिम की शख्सियत नहीं बदल जाती। वह चाहे जेल के अंदर हो या बाहर, वह किसी-न-किसी तरीके से दूसरे अपराधियों के साथ संपर्क कर ही लेता है, नए-नए हथकंडे सीख लेता है और दूसरों को भी अपने कुछ हथकंडे सिखा देता है।” एक जवान गुनहगार कहता है: “जेल की हवा खाने के बाद, मैं तो जुर्म का गुरु बन गया हूँ।”