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किशोर बच्चों की परवरिश करने में बुद्धि की अहमियत

किशोर बच्चों की परवरिश करने में बुद्धि की अहमियत

किशोर बच्चों की परवरिश करने में बुद्धि की अहमियत

“हम अपने बेटे-बेटी को सही राह दिखाने की पुरज़ोर कोशिश करते हैं। फिर भी हमें ऐसा लगता है मानो हम उन्हें बात-बात पर डाँट-डपट रहे हैं। कभी-कभी हम सोचते हैं कि क्या हम उनके आत्म-विश्‍वास को बढ़ा रहे हैं या उसे खत्म कर रहे हैं। सचमुच, सही अनुशासन देना लोहे के चने चबाने जैसा है।”—जॉर्ज और लॉरेन, ऑस्ट्रेलिया।

किशोर बच्चों की परवरिश करना कोई आसान काम नहीं। एक तरफ माता-पिताओं के सामने उनके बच्चे नयी-नयी चुनौतियाँ खड़ी करते रहते हैं। दूसरी तरफ, माता-पिता खुद अपने बेटे या बेटी को बड़ा होते देखकर बेचैन होने लगते हैं। ऑस्ट्रेलिया का रहनेवाला एक पिता, फ्रैंक कहता है: “यह सोचकर ही कि एक दिन हमारे बच्चे घर छोड़कर चले जाएँगे, हमारा दिल रोने को आता है। यह कबूल करना वाकई बहुत मुश्‍किल है कि अब उन पर हमारा कोई काबू नहीं।”

लिआ, जिसका ज़िक्र पिछले लेखों में किया गया है, कहती है: “मेरे लिए यह मानना बहुत मुश्‍किल है कि मेरा बेटा जवान हो गया है, क्योंकि मेरी नज़र में वह अब भी बच्चा है। मुझे तो ऐसा लगता है, जैसे उसने कल ही स्कूल जाना शुरू किया है!”

चाहे यह सच्चाई कबूल करना कितना ही कठिन क्यों न हो, फिर भी इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि किशोर बच्चे अब नन्हे-मुन्‍ने नहीं रहे। वे अब ऐसे जवान हैं, जो बड़े होने की तालीम पा रहे हैं। और यह तालीम देने में उनके माता-पिता ही उनके शिक्षक हैं और वे ही उनका हौसला बढ़ानेवाले हैं। लेकिन जैसे जॉर्ज और लॉरेन ने ऊपर बताया, माँ-बाप अपने बच्चे के आत्म-विश्‍वास को या तो बढ़ा सकते हैं या उसे खत्म कर सकते हैं। तो फिर, वे अपने बच्चों को सही अनुशासन कैसे दे सकते हैं? इस सिलसिले में बाइबल काफी अच्छी सलाह देती है। (यशायाह 48:17, 18) आइए इनमें से कुछ पर गौर करें।

अच्छी बातचीत होना ज़रूरी है

बाइबल, मसीहियों से कहती है कि वे “सुनने के लिये तत्पर” और ‘बोलने में धीरे’ हों। (याकूब 1:19) वैसे तो हर उम्र के बच्चों के साथ व्यवहार करते वक्‍त इस सलाह को मानना ज़रूरी है। लेकिन जब किशोर बच्चों के साथ व्यवहार करने की बात आती है, तब इस सलाह को मानना और भी ज़रूरी हो जाता है। और इसमें माता-पिताओं को शायद खूब मेहनत करनी पड़े।

ब्रिटेन का रहनेवाला एक पिता, पीटर कहता है: “जब मेरे बेटे किशोर उम्र के हुए, तो मुझे बातचीत करने की अपनी काबिलीयत बढ़ानी पड़ी। जब वे छोटे थे, तो मैं और मेरी पत्नी उन्हें बताते थे कि उन्हें क्या करना चाहिए और वे चुपचाप हमारी बात मान लेते थे। मगर अब हालात बदल गए हैं। जब कोई समस्या उठती है, तो हमें उनके साथ तर्क करना पड़ता है, उन्हें काफी समझाना पड़ता है और फिर मामले को उनके हाथ में छोड़ देना पड़ता है, ताकि वे अपनी सोचने-समझने की काबिलीयत का इस्तेमाल करके उस समस्या को सुलझा सकें। चंद शब्दों में कहें तो हमें उनके दिल तक पहुँचना होता है।”—2 तीमुथियुस 3:14.

जब माता-पिता और बच्चों के बीच तकरार होती है, तब उनके लिए एक-दूसरे की बात सुनना और भी ज़रूरी हो जाता है। (नीतिवचन 17:27) ब्रिटेन की रहनेवाली एक माँ, डैनियला ने इस बात को सच पाया। वह कहती है: “मेरी एक बेटी मुझसे बहुत ज़बान लड़ाने लगी थी। जब भी मैं उसे कुछ करने को कहती, वह मुझे पलटकर जवाब देती थी। और उसकी शिकायत यह थी कि मैं हमेशा उस पर चिल्लाती और हुक्म चलाती हूँ। इस मतभेद को सुलझाने के लिए हमने बैठकर बात की और ध्यान से एक-दूसरे की सुनी। उसने मुझे खुलकर बताया कि मैं उससे किस लहज़े में बात करती हूँ और इससे उसे कैसा लगता है। इसके बाद, मैंने उसे बताया कि उसके रवैए से मुझे कैसा लगता है।”

“सुनने के लिये तत्पर” रहने की सलाह पर चलने की वजह से, डैनियला मामले की तह तक पहुँच पायी। वह कहती है: “अब मैं अपनी बेटी के साथ पेश आते वक्‍त सब्र से काम लेने की कोशिश करती हूँ और सिर्फ उस वक्‍त उससे बात करती हूँ, जब मेरा गुस्सा ठंडा हो जाता है। इससे हमारे रिश्‍ते में काफी सुधार आया है।”

नीतिवचन 18:13 कहता है: “जो बिना बात सुने उत्तर देता है, वह मूढ़ ठहरता, और उसका अनादर होता है।” ऑस्ट्रेलिया के रहनेवाले एक पिता, ग्रैग ने पाया कि इस नीतिवचन में लिखी बात सोलह आने सच है। ग्रैग कहता है: “कभी-कभी बच्चों के साथ हमारा झगड़ा इसलिए होता है, क्योंकि हम उनकी बात सुने बगैर और उनकी भावनाओं को समझे बगैर उन्हें झाड़ देते हैं। इसलिए हमने पाया है कि अपने बच्चों को कोई भी ताड़ना या सलाह देने से पहले, उन्हें अपने दिल की बात कहने का मौका देना बेहद ज़रूरी है। तब भी जब हमें उनका रवैया ठीक नहीं लगता।”

किशोरों को कितनी आज़ादी दी जानी चाहिए?

देखा गया है कि माँ-बाप और किशोर बच्चों के बीच अकसर इस बात को लेकर झड़प होती है: किशोरों को कितनी आज़ादी दी जानी चाहिए? एक पिता कहता है: ‘कभी-कभी मुझे लगता है कि अगर मैं अपनी बेटी को ज़रा भी छूट दूँ, तो वह और ज़्यादा आज़ादी की माँग करेगी।’

इसमें कोई दो राय नहीं कि जवानों को खुली छूट देने के भयानक अंजाम हो सकते हैं। बाइबल खबरदार करती है: अगर ‘लड़के को योंही छोड़ा जाए, तो वह अपनी माता की लज्जा का कारण होगा।’ (नीतिवचन 29:15) सभी नौजवानों को सख्त हिदायतों की ज़रूरत है और माँ-बाप को चाहिए कि वे प्यार और दृढ़ता से घर के नियम लागू करवाएँ। (इफिसियों 6:4) मगर साथ ही, जवानों को थोड़ी-बहुत आज़ादी भी दी जानी चाहिए, ताकि वे आगे चलकर बुद्धि-भरे फैसले करने के काबिल बन सकें।

इसे और भी अच्छी तरह समझने के लिए एक बच्चे का उदाहरण लीजिए। जब बच्चा बिलकुल छोटा होता है, तब उसके माता-पिता उसे गोद में लेकर चलते हैं। फिर कुछ समय बाद, बच्चा पहले तो अपने घुटनों के बल और फिर अपने पैरों पर चलना सीखता है। इस दौरान बच्चे को यूँ ही अकेला छोड़ देना खतरनाक हो सकता है। इसलिए माता-पिता उस पर कड़ी नज़र रखते हैं, यहाँ तक कि बाड़ा भी लगाते हैं ताकि बच्चा सीढ़ी के पास या दूसरी खतरनाक जगहों पर न जाए। मगर साथ ही, वे उसे खुद-ब-खुद चलने-फिरने की थोड़ी-बहुत छूट भी देते हैं। यह ज़रूरी भी है क्योंकि बच्चा कई बार गिरता है, तब जाकर चलना सीखता है।

किशोर बच्चों को आज़ादी देना, चलना सीखने की छूट देने के बराबर है। जब बच्चे छोटे होते हैं, तो माता-पिता ही उनके लिए सारे फैसले करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे वे नन्हे-मुन्‍नों को गोद में लेकर चलते हैं। फिर कुछ समय बाद, माता-पिता अपने बच्चों को घुटनों के बल चलने देते हैं। यानी जब बच्चे थोड़े-बहुत समझदार हो जाते हैं, तब माँ-बाप उन्हें अपने लिए कुछ चुनाव करने देते हैं। मगर हाँ, इस दौरान माँ-बाप बच्चों की हिफाज़त के लिए कुछ सीमाएँ बाँधते हैं। इसके बाद, जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, माँ-बाप उन्हें अपने आप चलने देते हैं, यानी उन्हें और भी दूसरे फैसले करने की छूट देते हैं। आखिरकार जब वे बड़े हो जाते हैं, तो वे ‘अपना बोझ खुद उठाते हैं।’—गलतियों 6:5.

बाइबल में दी एक बढ़िया मिसाल से सीखना

यीशु जब 12 साल का था, तो उसके माता-पिता ने उसे कुछ हद तक आज़ादी दी थी। मगर उसने अपनी इस आज़ादी का कभी नाजायज़ फायदा नहीं उठाया। इसके बजाय, वह ‘अपने माँ-बाप के अधीन बना रहा’ (NHT) और “बुद्धि और डील-डौल में और परमेश्‍वर और मनुष्यों के अनुग्रह में बढ़ता गया।”—लूका 2:51, 52.

माता-पिताओ, आप इस ब्यौरे से क्या सीख सकते हैं? अगर आपके बच्चे आपकी दी हुई आज़ादी का ज़िम्मेदाराना तरीके से इस्तेमाल करते हैं, तो आप धीरे-धीरे उन्हें और भी आज़ादी दे सकते हैं। इस बारे में कुछ माता-पिताओं ने जो कहा है, ज़रा उस पर ध्यान दीजिए।

“मैं पहले अपने बच्चों के कामों में कुछ ज़्यादा ही दखलअंदाज़ी करती थी। मगर बाद में, मैंने उन्हें कुछ उसूल सिखाए और फिर उन्हें इन्हीं उसूलों की बिनाह पर खुद फैसला करने की छूट दी। इसका नतीजा यह हुआ कि अब वे बहुत ही सोच-समझकर फैसला करते हैं।”—सू-ह्‍यन, कोरिया।

“हालाँकि मुझे और मेरे पति को हमेशा अपने बच्चों को आज़ादी देने में थोड़ी झिझक महसूस होती है, मगर इस वजह से हम उन्हें आज़ादी देने से पीछे नहीं हटते। क्योंकि हमने देखा है कि वे हमसे मिली आज़ादी का ज़िम्मेदाराना तरीके से इस्तेमाल करते हैं।”—डारया, ब्राज़ील।

“जब भी मेरा बेटा अपनी आज़ादी का सही इस्तेमाल करता है, तो मैं उसे शाबाशी देना नहीं भूलती। मैंने पाया है कि ऐसा करना काफी फायदेमंद है। इसके अलावा, मैं उसे जो करने को कहती हूँ, वही खुद भी करती हूँ। जैसे कि जब मुझे कहीं जाना होता है या कुछ काम रहता है, तो मैं उसे इस बारे में ज़रूर बताती हूँ। और अगर कभी मुझे घर आने में देर हो जाती है, तो उसे पहले से इत्तला कर देती हूँ।”—आना, इटली।

“हमने अपने बेटों को साफ-साफ जता दिया है कि आज़ादी पाना उनका हक नहीं है, बल्कि इसे पाने के लिए उन्हें खुद को भरोसेमंद साबित करना होगा।”—पीटर, ब्रिटेन।

अंजाम भुगतने देना

बाइबल कहती है: “पुरुष के लिये जवानी में जूआ उठाना भला है।” (विलापगीत 3:27) जवानों के लिए ज़िम्मेदारी का जुआ उठाने का सबसे बढ़िया तरीका है, खुद के तजुरबे से इस बात की सच्चाई सीखना: “मनुष्य जो कुछ बोता है, वही काटेगा।”—गलतियों 6:7.

कुछ माता-पिता अपने किशोर बच्चों को उनकी नादानी के बुरे अंजाम से बचाते हैं और ज़ाहिर है कि वे ऐसा नेक इरादे से करते हैं। मिसाल के तौर पर, मान लीजिए कि एक जवान अपने फिज़ूल के खर्चों के लिए उधार लेता है। मगर जब उधार चुकाने का वक्‍त आता है, तो उसके पास पैसे नहीं होते। ऐसे में अगर उसके माँ-बाप उधार चुका दें, तो इससे वह क्या सीखेगा? या अगर माँ-बाप उसे अपना उधार खुद चुकाने के लिए एक योजना बनाने में मदद दें, तब वह क्या सीखेगा?

जब माता-पिता अपने बेटे या बेटी को उसकी नादानी के बुरे अंजाम से बचाने की कोशिश करते हैं, तो दरअसल वे उसे ही नुकसान पहुँचा रहे होते हैं। उसे बड़ों की दुनिया में कदम रखने के लिए तैयार करने के बजाय, वे उसे यह सिखाते हैं कि उसे मुसीबत से बाहर निकालने और उसकी गलतियों परदा डालनेवाला कोई-न-कोई हमेशा रहेगा। मगर इस तरह, बच्चे को बिगाड़ने के बजाय अच्छा होगा कि उसे अपने किए की सज़ा भुगतने दी जाए। साथ ही, उसे यह भी सीखने का मौका दिया जाए कि समस्याओं से कैसे निपटा जाता है। ऐसा करना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि तभी उसकी ‘ज्ञानेन्द्रियाँ अभ्यास करते करते, भले बुरे में भेद करने के लिये पक्की’ हो पाएँगी।—इब्रानियों 5:14.

एक बढ़ता और बदलता इंसान

इसमें कोई शक नहीं कि किशोर बच्चों की परवरिश करने में पहाड़ जैसी चुनौतियों को पार करना पड़ता है। बच्चों को “प्रभु की शिक्षा, और चितावनी देते हुए, उन का पालन-पोषण” करते वक्‍त, माता-पिताओं को शायद कई बार निराशा के आँसू बहाने पड़ें।—इफिसियों 6:4.

इन लेखों से साफ ज़ाहिर है कि बच्चों की अच्छी परवरिश करने का यह मतलब नहीं कि आप उन्हें अपनी मुट्ठी में बंद रखें। इसके बजाय, इसका मतलब यह है कि आप उन्हें अच्छे उसूल सिखाएँ और उन उसूलों को उनके दिल में बिठाएँ। (व्यवस्थाविवरण 6:6-9) बेशक यह कहना आसान है, मगर करना मुश्‍किल। इसी सिलसिले में ग्रैग, जिसका ज़िक्र पहले भी किया गया है, कहता है: “हम एक ऐसे इंसान की बात कर रहे हैं, जो बढ़ने के साथ-साथ बदल भी रहा है। इसलिए इस बदलते इंसान को जानने और उसके मुताबिक खुद को ढालने के लिए हमें लगातार मेहनत करने की ज़रूरत है।”

इस लेख में बाइबल के जो सिद्धांत दिए गए हैं, उन्हें लागू करने की कोशिश कीजिए। अपने बच्चों से हद-से-ज़्यादा की माँग मत कीजिए। साथ ही, याद रखिए कि आपको ही उनकी ज़िंदगी का आदर्श बनना चाहिए। इसलिए किसी और को अपनी जगह लेने मत दीजिए। बाइबल कहती है: “लड़के को शिक्षा उसी मार्ग की दे जिस में उसको चलना चाहिये, और वह बुढ़ापे में भी उस से न हटेगा।”—नीतिवचन 22:6. (g 6/08)

[पेज 23 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

किशोर बच्चों को आज़ादी देना, चलना सीखने की छूट देने के बराबर है—इसमें वक्‍त लगता है

[पेज 24 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

यीशु जब 12 साल का था, तो उसे कुछ हद तक आज़ादी दी गयी थी

[पेज 7 पर बक्स]

अपना अधिकार जताइए

हो सकता है कि आपकी लगायी पाबंदियों की वजह से आपका किशोर बेटा या बेटी आपसे खफा हो। मगर इसका यह मतलब नहीं कि आपको अपना अधिकार जताना छोड़ देना चाहिए। याद रखिए कि किशोर बच्चे नादान होते हैं, इसलिए उन्हें आपके मार्गदर्शन की ज़रूरत है।—नीतिवचन 22:15.

जॉन रोज़मॉन्ड अपनी किताब न्यू पैरेंट पावर! में लिखते हैं: “जब बच्चे बदलाव से गुज़रते हैं और इस वजह से उनके मन में काफी उथल-पुथल मचती है, तो यह देखकर माता-पिता थोड़ा डर जाते हैं। और वे उनके साथ बहस करने से दूर रहने के लिए उन्हें कुछ ज़्यादा ही आज़ादी देने लगते हैं। मगर यह वक्‍त बच्चों को अपनी मनमानी करने देने का नहीं होता। इसके बजाय, यह वक्‍त है उन्हें यह याद दिलाने का कि वे अब भी आपके अधीन हैं और उन्हें आपकी बात माननी होगी। और हो सकता है, वे इस बात को ठुकरा दें, मगर फिर भी आपको उन्हें साफ-साफ जता देना चाहिए कि आप ही उन्हें सही राह पर ले जाने के काबिल हैं।”

[पेज 24 पर बक्स]

आज़ादी देना

देखा गया है कि जवानों को जितनी आज़ादी मिलनी चाहिए, वे अकसर उससे कहीं ज़्यादा की माँग करते हैं। दूसरी तरफ, कुछ माता-पिता अपने बच्चों को और भी आज़ादी दे सकते हैं, पर वे देते नहीं। तो फिर माता-पिता ऐसा क्या कर सकते हैं, जिससे कि वे अपने बच्चों को न तो ज़्यादा आज़ादी दें और ना ही कम? सबसे पहले नीचे दी गयी सूची को जाँचिए और देखिए कि किन मामलों में आपके बेटे या बेटी ने अच्छी समझ दिखायी है।

❑ दोस्तों के चुनाव में

❑ कपड़ों के चुनाव में

❑ सोच-समझकर पैसे खर्च करने में

❑ ठीक समय पर घर लौटने में

❑ घर के काम-काज करने में

❑ अपना होमवर्क पूरा करने में

❑ गलती करने पर माफी माँगने में

❑ दूसरे मामलों में

अगर आपका किशोर बच्चा ऊपर बताए कई मामलों में पहले से अच्छी समझ दिखा रहा है, तो क्यों न आप उसे और थोड़ी आज़ादी दें?

[पेज 8, 9 पर तसवीर]

बच्चों को कोई भी ताड़ना या सलाह देने से पहले, उन्हें अपने दिल की बात कहने दीजिए