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डिस्लेक्सिया न कर पायी मेरे इरादे कमज़ोर

डिस्लेक्सिया न कर पायी मेरे इरादे कमज़ोर

डिस्लेक्सिया न कर पायी मेरे इरादे कमज़ोर

माइकल हैनबो की ज़ुबानी

मुझे पढ़ने-लिखने की तकलीफ है, जिसे डिस्लेक्सिया कहते हैं। यह तकलीफ न सिर्फ मुझे बल्कि मेरे माता-पिता और मेरे तीन छोटे भाइयों को भी है। डिस्लेक्सिया की वजह से मेरे लिए अपनी भाषा डैनिश पढ़ना बहुत मुश्‍किल था और स्कूल की पढ़ाई करना तो लोहे के चने चबाना था। लेकिन मुझे अपने परिवार से, साथ ही दूसरों से काफी मदद और हौसला मिला।

पिछली चार पीढ़ी से हमारा परिवार यहोवा का साक्षी है। हमारे परिवार ने बाइबल और बाइबल की समझ देनेवाले साहित्य पढ़ने को हमेशा अहमियत दी है। यही नहीं, मैं और मेरा छोटा भाई फ्लेमिंग अपने पिता के साथ नियमित तौर पर परमेश्‍वर के राज्य की खुशखबरी सुनाने के लिए जाते थे। इस वजह से यह बात हमारे ज़हन में उतर गयी कि अच्छी तरह पढ़ना-लिखना बहुत ज़रूरी है।

बचपन में प्रहरीदुर्ग और सजग होइए! के हर अंक को पढ़ने में मुझे पूरे 15 घंटे लगते थे! साथ ही, मैंने पूरी बाइबल पढ़ने का लक्ष्य रखा। इसके अलावा, मैंने परमेश्‍वर की सेवा स्कूल में भी भाग लिया, जो पूरी दुनिया में यहोवा के साक्षियों की कलीसियाओं में चलाया जाता है। यह स्कूल विद्यार्थियों को अच्छी तरह से पढ़ना-लिखना और लोगों के सामने भाषण देना सिखाता है। इन इंतज़ामों की बदौलत ही मैं अपने पढ़ने-लिखने की तकलीफ पर काफी हद तक कामयाबी पा सका। लेकिन मुझे इसका अंदाज़ा नहीं था कि आगे चलकर मुझे पढ़ाई-लिखायी के मामले में कितनी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। आइए मैं आपको इस बारे में खुलकर बताऊँ।

अँग्रेज़ी सीखना

सन्‌ 1988 में, 24 साल की उम्र में मैंने पायनियर सेवा शुरू की, यानी मैं एक पूरे समय के सेवक के तौर पर लोगों को खुशखबरी सुनाने लगा। दरअसल हमारे डेनमार्क में कई देशों से आकर लोग बस गए हैं। और मैं उन लोगों को बाइबल की सच्चाई सिखाना चाहता था। ऐसा करने का मतलब था कि मुझे अँग्रेज़ी सीखनी थी, जो मेरे लिए आसान नहीं था। इसके लिए मैंने अलग से ट्यूशन लिया और पूरी लगन के साथ अँग्रेज़ी सीखने में लगा रहा। नतीजा, धीरे-धीरे मेरी मेहनत रंग लायी। एक वक्‍त ऐसा आया कि मैं अपने इलाके कोपनहेगन में रहनेवाले विदेशियों को अँग्रेज़ी में परमेश्‍वर के राज्य की खुशखबरी सुनाने लगा। यकीन मानिए, मैंने कई बार गलतियाँ कीं, लेकिन हार नहीं मानी और लोगों को खुशखबरी सुनाता रहा।

अँग्रेज़ी जानने की वजह से मुझे कई देशों में स्वयंसेवक के तौर पर यहोवा के साक्षियों के निर्माण काम में हाथ बँटाने का मौका मिला। इसके लिए सबसे पहले मुझे यूनान भेजा गया। फिर मुझे स्पेन में मेड्रिड शहर के शाखा दफ्तर के निर्माण काम के लिए बुलाया गया।

मैं खुशखबरी सुनाने के काम में और ज़्यादा हिस्सा लेना चाहता था। इसलिए मैंने कलीसिया सेवक प्रशिक्षण स्कूल के लिए अरज़ी भरी। यह स्कूल यहोवा के साक्षी चलाते हैं। इस स्कूल में अविवाहित मसीही पुरुषों को आठ हफ्ते की खास तालीम दी जाती है। ये उन इलाकों में जाकर राज्य की खुशखबरी सुनाने के लिए तैयार रहते हैं, जहाँ काबिल मसीहियों की ज़रूरत है। (मरकुस 13:10) मुझे इस स्कूल में हाज़िर होने के लिए स्वीडन बुलाया गया, जहाँ क्लास अँग्रेज़ी भाषा में चलायी जानेवाली थी।

यह क्लास 1 सितंबर, 1994 से शुरू होनी थी। मैं इसमें अच्छी तैयारी के साथ हाज़िर होना चाहता था। इसलिए मैं अँग्रेज़ी सीखने में हर रोज़ चार घंटे बिताता था और ऐसा मैंने लगभग आठ महीने तक किया। इसके अलावा, मैं अँग्रेज़ी बोलनेवाली कलीसिया के साथ संगति करने लगा। क्लास शुरू होने पर मैंने अपनी पढ़ने-लिखने की तकलीफ को अपनी तरक्की के आड़े नहीं आने दिया। मिसाल के लिए, क्लास में जब शिक्षक सवाल पूछते थे, तो मैं अकसर जवाब देने के लिए हाथ उठा देता था, जबकि कभी-कभी मुझे यह पता नहीं रहता था कि मैं सही शब्द बोल पाऊँगा या नहीं। स्कूल से ग्रेजुएशन के बाद, मुझे कोपनहेगन में पायनियर के तौर पर सेवा करने के लिए कहा गया। हालाँकि अँग्रेज़ी सीखना मेरे लिए किसी चुनौती से कम नहीं था, मगर इससे भी बड़ी चुनौती मेरे सामने मुँह बाए खड़ी थी।

तमिल से जद्दोजेहद

दिसंबर 1995 में मुझे तमिल बोलनेवाली एक कलीसिया के साथ संगति करने के लिए भेजा गया। यह कलीसिया हरनिंग शहर के डैनिश भाषा बोलनेवाले इलाके में थी। मुझे लगा कि तमिल दुनिया की सबसे मुश्‍किल भाषाओं में से एक है। इसमें कुल 31 अक्षर होते हैं। इसके अलावा कुछ अक्षर, स्वर और व्यंजनों को मिलाकर बनते हैं। इस वजह से तमिल भाषा में करीब-करीब 250 अक्षर हो जाते हैं!

पहले-पहल मैं डैनिश भाषा में ही कलीसिया में भाषण देता था, जिसका तमिल में अनुवाद किया जाता था। आखिरकार जब मैंने तमिल में भाषण देना शुरू किया, तो मैं हमेशा यही सोचता था कि पता नहीं मेरी बातें लोग समझ भी रहे हैं या नहीं। मैंने गौर किया कि मेरी तमिल पर कई लोगों की हँसी छूट जाती थी, फिर भी सब बड़े अदब से मेरा भाषण सुनते थे। मैं जल्द-से-जल्द फर्राटेदार तमिल बोलना चाहता था। इसलिए मैंने ऐसे देश में जाने का फैसला किया, जहाँ लाखों लोग तमिल बोलते हों। और वह देश है, श्रीलंका।

अक्टूबर 1996 में जब मैं श्रीलंका पहुँचा, तब वहाँ गृह-युद्ध छिड़ा हुआ था। इसलिए कुछ समय तक मुझे सरहद पर ही ववूनीया के इलाके में रहना पड़ा, जिसके दोनों तरफ दुश्‍मन सेनाएँ तैनात थीं। उस इलाके के साक्षियों की माली हालत तो ठीक नहीं थी, लेकिन वे दिल खोलकर प्यार और मेहमाननवाज़ी दिखाते थे! मुझे तमिल सिखाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। उस इलाके में पश्‍चिम देश का सिर्फ मैं ही ऐसा शख्स था, जो वहाँ के लोगों से उनकी भाषा में बात करने की कोशिश करता था। यह देखकर उन्हें बड़ा ताज्जुब होता था। वे बड़े ही नम्र थे और उनके दिल में लोगों के लिए कदर थी। इस वजह से उनसे बाइबल के बारे में बात करना मेरे लिए आसान हो गया।

जनवरी 1997 में मुझे डेनमार्क वापस जाना पड़ा। उसके अगले साल केमिला नाम की एक पायनियर से मैंने शादी कर ली। मेरा मन अब भी श्रीलंका में था, इसलिए मैं दिसंबर 1999 में अपनी पत्नी केमिला के साथ फिर श्रीलंका चला गया। कुछ ही समय में हम दोनों कई परिवारों और अलग-अलग लोगों को बाइबल का अध्ययन कराने लगे। इतना ही नहीं, हम दूसरे साक्षियों के साथ उनके बाइबल अध्ययनों पर भी जाते थे। हम लोगों को परमेश्‍वर के राज्य की खुशखबरी सुनाने और भाषा सीखने में पूरी तरह रम गए।

मार्च 2000 में एक बार फिर हमें डेनमार्क की राह पकड़नी पड़ी। श्रीलंका के साक्षी भाई-बहनों और अपने बाइबल विद्यार्थियों से हम इस कदर प्यार के बँधन में बँध गए थे कि अब उनसे जुदा होना बड़ा मुश्‍किल हो रहा था। पर जाना तो था ही, क्योंकि हमें अभी बहुत कुछ करना था। जैसे कि एक और भाषा सीखने की चुनौती का सामना करना!

अब लाटवियन भाषा की ओर

हमारी शादी के चार साल बाद, मई 2002 में हमें मिशनरी सेवा के लिए यूरोप के एक देश लाटविया भेजा गया। यह देश डेनमार्क के पूरब में है। केमिला ने तो चुटकियों में ही लाटवियन भाषा सीख ली और महज़ छः हफ्ते बाद लाटवियन में बात करने लगी! लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पाया। इसके बावजूद कि मुझे काफी मदद मिली, मुझे आज भी लगता है कि मैंने कोई खास तरक्की नहीं की है। फिर भी, भाषा सीखने का मेरा इरादा अटल बना रहा। *

केमिला ने जीवन के हर मोड़ पर मेरा साथ दिया है और हम दोनों आज भी खुशी-खुशी मिशनरी सेवा कर रहे हैं। हमने लाटविया के कई लोगों के साथ बाइबल का अध्ययन किया जो हमारे काम की बहुत कदर करते थे। बातचीत के दौरान अगर मैं कोई शब्द भूल जाता, या कोई वाक्य गलत तरीके से बोलता, तो वहाँ के साक्षी और बाइबल विद्यार्थी बड़े सब्र से मेरी बात समझने की कोशिश करते और मेरी गलती सुधारने में मदद करते थे। इस वजह से मेरा उत्साह बढ़ा है और मैं पूरे यकीन के साथ सुसमाचार सुना पाता हूँ और सभाओं में भाषण दे पाता हूँ।

जब भाषाएँ सीखना मेरे लिए इतनी बड़ी चुनौती थी, तो आखिर मैंने यह बीड़ा क्यों उठाया? एक शब्द में कहूँ तो इसकी वजह है, प्यार। किससे? भाषा से? जी नहीं। लोगों से। लोगों को सच्चे परमेश्‍वर यहोवा को जानने और उसके करीब आने में मदद देने से बड़ा सम्मान और क्या हो सकता है? इस मामले में उनकी मदद तब और भी बेहतर ढंग से की जा सकती है, जब उनसे उनकी अपनी भाषा में बात की जाए। और बहुत-से मिशनरियों का भी यही अनुभव रहा है।

कई सालों से मैंने और मेरी पत्नी ने बहुत-से लोगों को बाइबल की सच्चाई का सही-सही ज्ञान लेने में मदद दी है। लेकिन फिर भी इसका पूरा श्रेय यहोवा को जाता है। और अच्छे नतीजों के लिए हम यहोवा का लाख-लाख शुक्रिया अदा करते हैं। और क्यों न करें, हमने तो बाइबल की सच्चाई का सिर्फ बीज बोया और पानी दिया, बढ़ाया तो परमेश्‍वर ने है।—1 कुरिन्थियों 3:6.

अड़चन बनी मददगार

हालाँकि डिस्लेक्सिया मेरी ज़िंदगी में एक अड़चन रही है, लेकिन यह मेरे लिए फायदेमंद भी साबित हुई। वह कैसे? कलीसिया में भाषण देते वक्‍त मैं अपने नोट्‌स पर ज़्यादा ध्यान नहीं देता। इस वजह से मैं हाज़िर लोगों से नज़र मिलाकर बात कर पाता हूँ। इतना ही नहीं, मैं दृष्टातों का भी ज़्यादा इस्तेमाल करता हूँ, क्योंकि इन्हें याद रखना आसान होता है। इस तरह देखा जाए तो इस तकलीफ की वजह से मेरी सिखाने की कला में निखार आया है।

प्रेरित पौलुस जो एक मसीही था, उसने लिखा: “परमेश्‍वर ने जगत के निर्बलों को चुन लिया है, कि बलवानों को लज्जित करे।” (1 कुरिन्थियों 1:27) मेरी तकलीफ ने वाकई कुछ हद तक मुझे ‘निर्बल’ बनाया। इसके बावजूद, जैसे कि मैंने और दूसरों ने भी यह अनुभव किया कि यहोवा हमारी उम्मीदों से कहीं बढ़कर हमारी कमी पूरी कर सकता है, बशर्ते हम सही लक्ष्य रखें, खुद से हद-से-ज़्यादा की उम्मीद न करें और परमेश्‍वर की पवित्र शक्‍ति के लिए प्रार्थना करते रहें। और फिर अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए जी-जान से जुट जाएँ। (g 2/09)

[फुटनोट]

^ लाटविया में छः साल सेवा करने के बाद, अभी हाल में हैनबो जोड़े को घाना में सेवा के लिए भेजा गया।

[पेज 20 पर बक्स]

डिस्लेक्सिया से रू-बरू

डिस्लेक्सिया क्या है? शब्द “डिस्लेक्सिया” यूनानी भाषा से लिया गया है, जिसका मतलब है, “कमज़ोर बोली।” डिस्लेक्सिया के शिकार लोगों को भाषा से जुड़ी तकलीफें होती हैं, खासकर पढ़ने की तकलीफ। ये तकलीफें उन्हें ज़िंदगी-भर रहती हैं। ऐसे व्यक्‍ति खासकर यह नहीं जान पाते कि किसी अक्षर का कैसे उच्चारण करना चाहिए। लेकिन डिस्लेक्सिया के लक्षण अलग-अलग लोगों में अलग-अलग होते हैं।

डिस्लेक्सिया क्यों होती है? अभी तक इसका सही-सही पता नहीं चल पाया है। लेकिन माना जाता है कि अकसर यह माँ-बाप से मिलती है। हालाँकि अध्ययन दिखाते हैं कि डिस्लेक्सिया के शिकार लोगों का दिमागी विकास ठीक से नहीं हो पाता, फिर भी देखा गया है कि इनमें आम लोगों की तरह ही बुद्धि या सीखने की इच्छा होती है। दरअसल, वे कुछ काम बड़ी कुशलता से कर लेते हैं, खासकर जिनमें पढ़ाई-लिखाई की ज़्यादा ज़रूरत नहीं होती।

डिस्लेक्सिया का इलाज कैसे किया जाता है? अगर इस तकलीफ का पता जल्द लग जाए तो बहुत अच्छा है। भाषा को असरदार तरीके से सिखाने के लिए सुनने, देखने और स्पर्श करने जैसी कई इंद्रियों का इस्तेमाल होता है। बच्चा अपनी रफ्तार के मुताबिक तरक्की कर सके, इसके लिए ज़रूरी है कि उसे निजी तौर पर ध्यान देकर सिखाएँ। स्कूल में उठनेवाली परेशानियों से निपटने के लिए, उसे हौसला अफज़ाई और आपके प्यार की भी ज़रूरत है। अगर डिस्लेक्सिया के शिकार बच्चे को अच्छा ट्यूशन दिया जाए और उसके साथ कड़ी मेहनत की जाए तो वह ज़रूर अच्छी तरह पढ़ना-लिखना सीख लेगा। *

[फुटनोट]

^ ऊपर दी गयी जानकारी अंतर्राष्ट्रीय डिस्लेक्सिया संगठन से ली गयी है। इसी पत्रिका में “पढ़ने-लिखने की तकलीफ से जूझते बच्चों की मदद” लेख भी देखिए।

[पेज 21 पर तसवीर]

श्रीलंका में एक साक्षी के साथ

[पेज 21 पर तसवीर]

लाटविया में केमिला के साथ