क्या अपना विश्वास बदलना गलत है?
बाइबल क्या कहती है
क्या अपना विश्वास बदलना गलत है?
अवतार, सिख धर्म की माननेवाली थी। जब उसने बाइबल के बारे में सीखना शुरू किया, तो उसके घरवाले बहुत नाराज़ हुए। वह कहती है: “हमारे देश में जब कोई व्यक्ति अपना विश्वास बदलता है, तो उसे बिरादरी से अलग कर दिया जाता है। यही नहीं, हमारा नाम भी हमारे धर्म से जुड़ा होता है। अपना विश्वास बदलना, अपनी पहचान ठुकराने और अपने परिवार का नाम मिट्टी में मिलाने के बराबर समझा जाता है।”
कुछ समय बाद अवतार, यहोवा की एक साक्षी बन गयी। क्या अपना विश्वास बदलकर उसने बड़ी भूल की? शायद आपकी सोच भी उसके परिवारवालों की तरह हो। हो सकता है आपको लगे कि आपका धर्म विरासत में मिला है। इसका आपके संस्कारों से गहरा ताल्लुक है। इसलिए इसे कभी नहीं बदला जाना चाहिए।
अपने परिवार का मान रखना ज़रूरी है। बाइबल कहती है: “अपने पिता की जिसने तुझे उत्पन्न किया है, सुनना।” (नीतिवचन 23:22, NHT) लेकिन इससे भी ज़रूरी है, अपने सृष्टिकर्ता और उसके मकसदों के बारे में सच्चाई जानना। (यशायाह 55:6) क्या यह सच्चाई ढूँढ़ी जा सकती है? अगर हाँ, तो इसकी खोज करना आपके लिए कितना ज़रूरी है?
सृष्टिकर्ता और उसके मकसदों के बारे में सच्चाई ढूँढ़ना
दुनिया के अलग-अलग धर्म अलग-अलग शिक्षा देते हैं। और ज़ाहिर-सी बात है कि सभी शिक्षाएँ सच्ची नहीं हो सकतीं। नतीजा, जैसे बाइबल कहती है, बहुत-से लोग “परमेश्वर की सेवा के लिए जोश तो रखते हैं, मगर सही ज्ञान के मुताबिक नहीं।” (रोमियों 10:2) फिर भी 1 तीमुथियुस 2:4 में प्रेषित पौलुस ने कहा, परमेश्वर की यह मरज़ी है कि ‘सब किस्म के लोग सच्चाई का सही ज्ञान हासिल करें।’ यह सही ज्ञान पाने के लिए हमें क्या करना होगा?
सही ज्ञान पाने के लिए हमें बाइबल की जाँच करनी होगी। बाइबल की ही क्यों? आइए इसकी कुछ वजहों पर गौर करें। प्रेषित पौलुस ने ईश्वर-प्रेरणा से बाइबल की कई किताबें लिखीं। इसलिए वह कह पाया: “पूरा शास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से लिखा गया है और सिखाने . . . के लिए फायदेमंद है।” (2 तीमुथियुस 3:16) सच्चाई की खोज करने के लिए, उन सबूतों की जाँच कीजिए जो दिखाते हैं कि बाइबल में लिखी बातें सच्ची हैं। इसके अलावा, यह भी जाँचिए कि हम क्यों यकीन रख सकते हैं कि बाइबल में बुद्धि की जो बातें लिखी हैं वे बेजोड़ हैं, इसमें दर्ज़ इतिहास सच्चा और भरोसेमंद है और इसकी कई भविष्यवाणियाँ कैसे पूरी हो चुकी हैं।
बाइबल यह नहीं सिखाती कि सभी धर्म परमेश्वर की तरफ ले जानेवाले अलग-अलग रास्ते हैं। यह लोगों से कहती है कि वे सुनी-सुनायी बातों पर आँख मूँदकर यकीन न करें। इसके बजाय, यह उन्हें उकसाती है कि वे ‘हर संदेश को यह जानने के लिए परखें कि वह सचमुच परमेश्वर की तरफ से है या नहीं।’ (1 यूहन्ना 4:1) उदाहरण के लिए, कोई भी शिक्षा जो परमेश्वर की तरफ से होती है, उसे परमेश्वर की शख्सियत, खासकर उसके बेजोड़ गुण प्यार से मेल खाना चाहिए।—1 यूहन्ना 4:8.
बाइबल के मुताबिक, परमेश्वर चाहता है कि हम ‘वाकई उसे पा लें।’ (प्रेषितों 17:26, 27) जी हाँ, हमारा सृष्टिकर्ता चाहता है कि हम सच्चाई की तलाश करें। इसलिए हमें जो सबूत मिलते हैं, उनके मुताबिक कदम उठाना गलत नहीं होगा, फिर चाहे इसके लिए हमें अपना विश्वास भी क्यों ना बदलना पड़े। लेकिन इससे जो परेशानियाँ खड़ी हो सकती हैं, उनका क्या?
परिवार और विश्वास—किसका पलड़ा भारी?
नया विश्वास अपनाने पर लोग शायद यह फैसला करें कि वे अपने पुराने धार्मिक रीति-रिवाज़ों और तीज-त्योहारों में हिस्सा नहीं लेंगे। ज़ाहिर-सी बात है कि उनके इस फैसले से परिवारवाले नाराज़ होंगे। यीशु ने भी यह बात कबूल की थी। उसने अपने चेलों से कहा: “मैं बेटे को बाप के, बेटी को माँ के और बहू को उसकी सास के खिलाफ करने आया हूँ।” (मत्ती 10:35) क्या यीशु के कहने का यह मतलब था कि बाइबल की शिक्षाएँ इसलिए दी गयी हैं, ताकि वे फसाद की ऐसी जड़ हों जिसे कभी नहीं काटा जा सके? बिल्कुल नहीं। इसके बजाय, उसने सिर्फ यह अंदाज़ा लगाया कि जब एक व्यक्ति अपने परिवार से हटकर एक नया विश्वास अपनाएगा और उस पर अटल बना रहेगा, तो उसके अपने उसके खिलाफ हो सकते हैं।
परिवार में झगड़े न हों, क्या इसके लिए हमें कुछ भी करने के लिए तैयार रहना चाहिए? बाइबल सिखाती है कि बच्चों को माता-पिता का कहना मानना और पत्नियों को अपने-अपने पति के अधीन रहना चाहिए। (इफिसियों 5:22; 6:1) मगर साथ ही, यह परमेश्वर से प्यार करनेवालों को हिदायत देती है कि वे ‘इंसानों के बजाय परमेश्वर की आज्ञा मानें।’ (प्रेषितों 5:29) इसलिए परमेश्वर के वफादार बने रहने की खातिर शायद आपको ऐसे कई फैसले भी लेने पड़ें, जिनसे आपके परिवारवाले नाखुश हो जाएँ।
यह सच है कि बाइबल, सच्ची और झूठी शिक्षाओं में साफ फर्क बताती है। फिर भी, परमेश्वर किसी के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं करता। इसके बजाय, वह सबको यह आज़ादी देता है कि सच्चाई जानने के बाद वे क्या करेंगे। (व्यवस्थाविवरण 30:19, 20) किसी को भी ऐसी उपासना करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए, जो उसे मंज़ूर न हो। ना ही उस पर अपने परिवार और विश्वास के बीच चुनाव करने का दबाव डाला जाना चाहिए। क्या बाइबल पढ़ने से परिवार बिखर जाता है? जी नहीं। दरअसल, बाइबल बढ़ावा देती है कि चाहे पति-पत्नी का विश्वास अलग-अलग क्यों न हो, फिर भी उन्हें एक-साथ रहना चाहिए।—1 कुरिंथियों 7:12, 13.
डर पर काबू पाना
आपको शायद डर हो कि अगर आप यहोवा के साक्षियों से बाइबल सीखने लगें, तो बिरादरी के लोग क्या कहेंगे। मरीअम्मा नाम की एक स्त्री कहती है: “मेरे परिवार को फिक्र थी कि मुझे कोई ढंग का लड़का नहीं मिलेगा और मैं ज़िंदगी-भर कुँवारी रह जाऊँगी। इसलिए उन्होंने मेरा बाइबल अध्ययन बंद करवाना चाहा।” मगर मरीअम्मा ने यहोवा परमेश्वर पर भरोसा रखा और बाइबल का अध्ययन करना नहीं छोड़ा। (भजन 37:3, 4) आप भी ऐसा ही कर सकते हैं। अंजामों से मत डरिए, बल्कि फायदों के बारे में सोचिए। बाइबल के संदेश से लोगों की ज़िंदगी सँवरती है और उनकी शख्सियत निखर जाती है। लोग अपने परिवार के लिए निस्वार्थ प्यार दिखाना सीखते हैं। वे अपनी बुरी आदतें छोड़ पाते हैं, जैसे गाली-गलौच करना, मार-पीट करना, ड्रग्स लेना और ज़्यादा शराब पीना। (2 कुरिंथियों 7:1) बाइबल हमें ऐसे अच्छे गुण पैदा करने में मदद देती है, जैसे वफादारी, ईमानदारी और मेहनती होना। (नीतिवचन 31:10-31; इफिसियों 4:24, 28) तो क्यों न आप बाइबल का अध्ययन करें और इसकी शिक्षाओं को अपनी ज़िंदगी में लागू करने के फायदों का लुत्फ उठाएँ? (g 7/09)
क्या आपने कभी सोचा है?
◼ अपना विश्वास जाँचना क्यों ज़रूरी है?—नीतिवचन 23:23; 1 तीमुथियुस 2:3, 4.
◼ आप सच्ची शिक्षाओं के बारे में कैसे पता लगा सकते हैं?—2 तीमुथियुस 3:16; 1 यूहन्ना 4:1.
◼ क्या परिवार से आनेवाले विरोध के डर से आपको बाइबल का अध्ययन बंद कर देना चाहिए?—प्रेषितों 5:29.
[पेज 31 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
बाइबल के संदेश से लोगों की ज़िंदगी सँवरती है और उनकी शख्सियत निखर जाती है
[पेज 31 पर तसवीर]
मरीअम्मा और उसका पति