“मुझे बचपन से सिखाया गया कि परमेश्वर वजूद में नहीं है”
“मुझे बचपन से सिखाया गया कि परमेश्वर वजूद में नहीं है”
प्राग शहर की चार्ल्स यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर फ्रान्टीशेक वीस्कॉचील, तन्त्रिका-तन्त्र के शरीर-क्रियाविज्ञान (न्यूरोफिज़ीयोलॉजी) पर किए अपने अध्ययन के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं। एक समय पर वे नास्तिक थे, पर अब वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। सजग होइए! को दिए एक इंटरव्यू में प्रोफेसर वीस्कॉचील ने बताया कि किस वजह से उन्होंने अपना नज़रिया बदला।
वैज्ञानिक बनने से पहले धर्म के प्रति आपका क्या नज़रिया था?
मुझे बचपन से सिखाया गया कि परमेश्वर वजूद में नहीं है। मेरे पिता अकसर धर्म गुरुओं की खिल्ली उड़ाया करते थे। सन् 1963 में मैंने जीव-विज्ञान और रसायन-विज्ञान में ग्रेजुएशन किया। स्कूल के दिनों में मैं मानता था कि विकासवाद का सिद्धांत अलग-अलग प्रकार के जीव-जंतुओं की शुरूआत के बारे में समझाता है।
वैज्ञानिक के तौर पर अपने पेशे के बारे में हमें कुछ बताइए।
डॉक्टरी की पढ़ाई खत्म करने के बाद, मैंने तंत्रिका कोशिकाओं के बीच की कड़ियों के रसायनिक और विद्युतीय गुणों का अध्ययन किया। इसके अलावा मैंने तंत्रिका कोशिका, कोशिकाओं के ऊपर की झिल्ली से तत्वों के अंदर या बाहर जाने की प्रक्रिया, ऊतकों का प्रतिरोपण और शरीर के अंगों पर किसी चीज़ से होनेवाली एलर्जी को कैसे कम या दूर किया जा सकता है, इनका अध्ययन किया। मेरे बहुत-से अध्ययनों के नतीजे छापे जा चुके हैं और कुछ लेखों को स्कूल-कॉलेज की किताबों में भी शामिल किया गया है। आगे जाकर मैं चेक गणराज्य के एक प्रतिष्ठित संस्थान (लर्नेड सोसाइटी ऑफ द चेक रिपब्लिक) का सदस्य बना। वैज्ञानिक ही इस संस्थान के सदस्य बन सकते हैं और वे ही नए सदस्यों को चुनते हैं। दिसंबर 1989 के “वेलवेट रिवॉल्यूशन” (चेकोस्लोवाकिया का अहिंसा आंदोलन, जिसने कम्यूनिस्ट सरकार का तख्ता पलट दिया) के बाद, मैं चार्ल्स यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बन गया। इसके बाद मुझे पश्चिम देशों में जाकर और भी कई वैज्ञानिकों से मिलने की इजाज़त मिली, जिनमें से कुछ नोबल पुरस्कार विजेता थे।
क्या आपने कभी परमेश्वर के बारे में सोचा?
हाँ, सोचता तो था। कभी-कभी मेरे मन में सवाल उठता था कि आखिर क्यों पढ़े-लिखे लोग, जैसे मेरे कुछ साथी प्रोफेसर, परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। यह बात और है कि वे कम्यूनिस्ट सरकार की वजह से अपना विश्वास खुलकर ज़ाहिर नहीं करते थे। पर मैं सोचता था कि परमेश्वर नाम की कोई चीज़ नहीं है, यह सिर्फ इंसान की दिमागी उपज है। इसके अलावा धर्म के नाम पर होनेवाले बुरे-बुरे कामों को देखकर भी मेरा खून खौल उठता था।
विकासवाद के बारे में आपके नज़रिए में बदलाव कैसे आया?
जब मैं तंत्रिका कोशिकाओं के बीच की कड़ियों का अध्ययन कर रहा था, तब मेरे मन में विकासवाद को लेकर शक पैदा होने लगा। मैं
यह जानकर दंग रह गया कि ये सरल दिखनेवाली कड़ियाँ दरअसल कितनी जटिल हैं! मैं सोचने लगा, ‘ये कड़ियाँ और इनमें दर्ज़ आनुवंशिक जानकारी अपने आप कैसे आ सकती हैं?’ यह वाकई मेरी समझ के बाहर था।उन्नीस सौ सत्तर के दशक की शुरूआत में मैंने एक मशहूर रूसी वैज्ञानिक और प्रोफेसर का भाषण सुना। उन्होंने कहा कि जीवित प्राणी अपने आप हुए उत्परिवर्तन (आनुवंशिक कोड में परिवर्तन) और प्राकृतिक चुनाव की बदौलत उत्पन्न नहीं हुए। वहाँ हाज़िर लोगों में से एक ने उनसे पूछा: तो फिर सारे प्राणी कैसे उत्पन्न हुए? प्रोफेसर ने अपने कोट में से एक छोटी रूसी बाइबल निकाली और कहा, “बाइबल पढ़ो। खास तौर पर उत्पत्ति की किताब, जहाँ सृष्टि के बारे में बताया गया है।”
बाद में मैंने गलियारे में प्रोफेसर से पूछा कि उन्होंने बाइबल के बारे में जो बात कही, क्या वे उस पर पूरा यकीन करते हैं। उन्होंने एक अहम बात बतायी: “साधारण जीवाणु करीब 20 मिनट में विभाजित हो सकते हैं, जबकि उसमें सैकड़ों अलग-अलग प्रकार के प्रोटीन होते हैं। और हर प्रोटीन 20 अलग-अलग तरह के अमीनो अम्ल से बना होता है, जो एक-दूसरे से कड़ियों में जुड़े होते हैं और एक कड़ी में सैकड़ों अमीनो अम्ल होते हैं। कई वैज्ञानिक मानते हैं कि धरती पर जीवन की शुरूआत आज से करीब तीन या चार अरब साल पहले हुई। लेकिन देखा जाए तो इतने कम समय में जीवाणुओं का एक-एक करके अपने आप विकास होना बहुत मुश्किल है, उन्हें इससे कहीं ज़्यादा समय लगता।” प्रोफेसर के हिसाब से बाइबल में उत्पत्ति की किताब में जीवन की शुरूआत के बारे में जो बताया गया है वह ज़्यादा सही लगता है।
प्रोफेसर की बात का आप पर क्या असर हुआ?
उनकी बातों और अपने मन में उठ रहे सवालों की वजह से मैंने इस विषय पर अपने साथ के कई प्रोफेसरों और दोस्तों से बात की जो धर्म पर आस्था रखते थे। लेकिन उनकी बातों पर मुझे कुछ यकीन नहीं हुआ। उसके बाद मेरी बातचीत एक फार्माकॉलोजिस्ट (दवाइयों का वैज्ञानिक अध्ययन करनेवाला) से हुई, जो एक यहोवा का साक्षी था। तीन साल तक उसने मुझे और मेरी पत्नी एमा को बाइबल की बातें समझायीं। दो बातों का हम पर गहरा असर हुआ। पहली, सदियों से चला आ रहा नाम के वास्ते “मसीही धर्म” असल में बाइबल की शिक्षाओं से मेल नहीं खाता। दूसरी, हालाँकि बाइबल विज्ञान की किताब नहीं है, लेकिन इसकी बातें विज्ञान से पूरी तरह मेल खाती हैं।
क्या नज़रिया बदल जाने की वजह से आपके वैज्ञानिक अध्ययन में कोई रुकावट आयी?
बिलकुल नहीं। एक अच्छे वैज्ञानिक को चाहिए कि उसका विश्वास चाहे जो भी हो, वह जितना हो सके अपनी राय सबूतों के आधार पर कायम करे, न कि अपनी धारणा के मुताबिक। लेकिन मेरे विश्वास ने मुझे बदल दिया है। जैसे कि खुद पर ज़्यादा विश्वास करने, दूसरों से आगे निकलने और अपने वैज्ञानिक हुनर पर बेवजह घमंड करने के बजाय, अब मैं अपनी काबिलीयतों के लिए परमेश्वर को धन्यवाद देता हूँ। साथ ही यह कहने के बजाय कि कुदरत की बेमिसाल कारीगरी इत्तफाक से आ गयी, मैं और दूसरे कई वैज्ञानिक खुद से पूछते हैं, ‘परमेश्वर ने इसे कैसे बनाया?’ (g10-E 11)
[पेज 9 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
मैं और दूसरे कई वैज्ञानिक खुद से पूछते हैं, ‘परमेश्वर ने इसे कैसे बनाया?’