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बड़ों की दुनिया में बच्चे का पहला कदम

बड़ों की दुनिया में बच्चे का पहला कदम

बड़ों की दुनिया में बच्चे का पहला कदम

मान लीजिए कि आप एक गर्म इलाके से ऐसी जगह के लिए रवाना होते हैं जहाँ कड़ाके की ठंड पड़ रही है। जैसे ही आप हवाई जहाज़ से बाहर कदम रखते हैं, हड्डी गला देनेवाली बर्फीली हवाएँ आपका स्वागत करती हैं। क्या आप इस मौसम की मार झेल पाएँगे? बिलकुल, लेकिन आपको कुछ फेरबदल करने होंगे।

जब आपके बच्चे जवानी की दहलीज़ पर कदम रखते हैं, तो आपको भी कुछ इसी तरह के हालात का सामना करना पड़ता है। ऐसा लगता है, जैसे रातों-रात मौसम बदल गया। जो लड़का पहले आपका हाथ तक नहीं छोड़ता था, वह अब हमेशा अपने दोस्तों के साथ रहना पसंद करता है। जो लड़की पहले घर लौटते ही आपको अपने दिन-भर का हाल कह सुनाती थी, वह आज बस उतना ही जवाब देती है जितना आप पूछते हैं।

आप पूछते हैं: “आज स्कूल में दिन कैसा रहा?”

वह कहती है: “ठीक था।”

खामोशी।

आप पूछते हैं: “क्या सोच रही हो?”

वह कहती है: “कुछ नहीं।”

एक लंबी खामोशी।

आखिर हुआ क्या? पहले तो आपका बच्चा अपने दिल की हर बात आपसे कह देता था, लेकिन अब वह आपको ज़्यादा कुछ नहीं बताता। यहाँ तक कि कभी-कभी वह अपनी बातें आपसे कहने के बजाय दूसरों को बता देता है। शायद आपको लगे कि आप बस दूर खड़े होकर अपने बच्चे को बड़ा होते देख सकते हैं और उसकी कोई मदद नहीं कर सकते।

क्या इसका मतलब है कि अब आपके बस में कुछ नहीं? ऐसा नहीं है। जैसे-जैसे आपके बच्चे जवान हो रहे हैं, आप उनके करीब बने रह सकते हैं। लेकिन सबसे पहले आपको यह समझना होगा कि इस दिलचस्प मगर उथल-पुथल से भरे दौर में आपके बच्चों पर क्या बीत रही है।

जवानी के मोड़ पर खड़े बच्चे

एक समय पर खोजकर्ता सोचते थे कि पाँच साल की उम्र तक एक बच्चे का दिमाग लगभग पूरी तरह विकसित हो जाता है। लेकिन अब वे मानते हैं कि हालाँकि पाँच साल के बाद दिमाग का आकार तो ज़्यादा नहीं बढ़ता, लेकिन काम करने का तरीका ज़रूर बदलता रहता है। जब बच्चे किशोर उम्र के होते हैं, तो उनके शरीर में हार्मोन बदलते हैं जिससे उनके सोचने-समझने का तरीका बिलकुल अलग हो जाता है। उदाहरण के लिए, छोटे बच्चे अकसर सिर्फ हाँ या ना में सोचते हैं, जबकि किशोर बच्चे मामले की तह तक जाकर बातों को तौलते हैं, चीज़ों और घटनाओं के बारे में सोचकर ही किसी नतीजे पर पहुँचते हैं। (1 कुरिंथियों 13:11) किशोर बच्चों को अपनी बात सही लगती है और वे दूसरों के आगे अपनी बात रखने से नहीं शर्माते।

इटली में रहनेवाले पाओलो ने अपने किशोर बच्चे में कुछ इसी तरह का बदलाव देखा। वह बताता है: “जब मैं अपने किशोर बेटे को देखता हूँ, तो मुझे लगता है कि अब वह मेरी उँगली पकड़कर चलनेवाला बच्चा नहीं रहा बल्कि एक जवान आदमी बन गया है। मुझे सबसे ज़्यादा हैरानी इस बात की होती है कि वह सिर्फ कद-काठी में ही नहीं बढ़ रहा, बल्कि उसके सोचने का तरीका भी बड़ों जैसा होता जा रहा है। वह यह बताने से बिलकुल नहीं घबराता कि उसका क्या मानना है और अपनी बातों को सही ठहराने की कोशिश करता है।”

क्या आपने भी अपने किशोर बच्चे में कुछ इसी तरह का बदलाव देखा है? बचपन में शायद वह चुपचाप आपकी हर बात मान लेता हो, उससे बस इतना बोलना काफी था “क्योंकि मैं ऐसा कह रहा हूँ।” लेकिन बड़े होने पर वह सिर्फ इतने से संतुष्ट नहीं होता है। आप उससे जब कुछ कहते हैं, तो वह उसकी वजह जानना चाहता है और हो सकता है वह उन उसूलों पर भी सवाल उठाए जिन पर आज तक आपका परिवार चलता आया है। कभी-कभी वह जिस तरह अपनी बात पर अड़ जाता है, उसे देखकर शायद लगे कि वह विद्रोही बन गया है।

लेकिन यह मत मान लीजिए कि आपका बच्चा आपके उसूलों को उलट-पुलटकर रख देना चाहता है। वह शायद इस कश्‍मकश में हो कि वह आपके उसूलों को अपना बना सकता है या नहीं, और देख रहा हो कि वह अपनी ज़िंदगी में उन उसूलों को कितनी अहमियत दे सकता है। इसे समझने के लिए कल्पना कीजिए कि आप अपना घर बदल रहे हैं और अपना सामान पुराने घर से नए घर ले जा रहे हैं। क्या नए घर में हर सामान के लिए जगह होगी? शायद नहीं। लेकिन एक बात पक्की है कि आप ऐसा कोई भी सामान नहीं फेंकेंगे जिसे आप कीमती समझते हैं।

आपका किशोर बच्चा ऐसे ही हालात का सामना कर रहा है, क्योंकि वह उस दिन के लिए तैयारी कर रहा है जब वह आपको यानी ‘अपने माता पिता को छोड़ देगा।’ (उत्पत्ति 2:24) यह सच है कि वह दिन आने में अभी बहुत समय बाकी है; आपका बच्चा अभी बड़ा नहीं हुआ है। लेकिन एक तरह से उसने अपना सामान बाँधना शुरू कर दिया है। किशोर उम्र के इन सालों में वह आपके सिखाए उसूलों को जाँच रहा है और तय कर रहा है कि बड़े होने पर वह किन उसूलों पर चलेगा। *

शायद यह सोचकर ही आपका दिल बैठ जाए कि आपका बच्चा खुद अपने उसूल तय करेगा। लेकिन आप इस बात का यकीन रख सकते हैं कि बड़े होने पर वह उन्हीं उसूलों पर चलेगा जिन्हें वह अनमोल समझता है। इसलिए जब तक आपका बच्चा आपके साथ है, अच्छा होगा कि वह पूरी तरह जाँच ले कि वह अपनी ज़िंदगी में किन सिद्धांतों पर चलेगा।—प्रेषितों 17:11.

ऐसा करना आपके बच्चे के लिए सचमुच फायदेमंद है। ज़रा सोचिए, अगर आज वह आपके स्तरों को चुपचाप मान लेता है, तो आगे चलकर वह दूसरों के स्तरों को भी आँख मूँदकर मान लेगा। (निर्गमन 23:2) ऐसे जवान को बाइबल “निर्बुद्धि” कहती है, यानी वह सोच-समझकर फैसले नहीं ले पाता और आसानी से दूसरों के बहकावे में आ जाता है। (नीतिवचन 7:7) जिस जवान का विश्‍वास मज़बूत नहीं है, वह ‘झूठी बातों की लहरों से यहाँ-वहाँ उछाला जाता और शिक्षाओं के हर झोंके से इधर-उधर उड़ाया जाता है, क्योंकि वह ऐसे इंसानों की बातों में आ जाता है जो फरेब और चालाकी से बातें गढ़कर उसे झूठ की तरफ बहका लेते हैं।’—इफिसियों 4:14.

आपका बच्चा ऐसा न बने, इसके लिए आप क्या कर सकते हैं? इन तीन तरीकों से आप उसकी मदद कर सकते हैं:

1 सोचने-समझने की शक्‍ति

प्रेषित पौलुस ने लिखा, ‘बड़े अपनी सोचने-समझने की शक्‍ति का इस्तेमाल करते-करते, सही-गलत में फर्क करने के लिए इसे प्रशिक्षित कर लेते हैं।’ (इब्रानियों 5:14) शायद आप कहें, ‘मैंने तो अपने बच्चे को बहुत पहले ही सिखा दिया था कि सही क्या है और गलत क्या।’ इसमें कोई शक नहीं कि इस तालीम से आपके बच्चे को बचपन में मदद मिली और इससे वह उम्र के अगले पड़ाव के लिए तैयार भी हो सका। (2 तीमुथियुस 3:14) फिर भी पौलुस ने कहा कि लोगों को अपनी सोचने-समझने की शक्‍ति को प्रशिक्षित करने की ज़रूरत है। हो सकता है छोटे बच्चों को जानकारी हो कि सही क्या है और गलत क्या, लेकिन किशोर बच्चों को “सोचने-समझने की काबिलीयत में सयाने” बनने की ज़रूरत है। (1 कुरिंथियों 14:20; नीतिवचन 1:4; 2:11) आप यह तो नहीं चाहेंगे कि आपका बच्चा किसी की भी बात पर बिना सोचे-समझे विश्‍वास करने लगे, बल्कि आप यही चाहेंगे कि वह तर्क करना सीखे। (रोमियों 12:1, 2) ऐसा करने में आप कैसे उसकी मदद कर सकते हैं?

एक तरीका है कि उसे अपने दिल की बात कहने दीजिए। बीच-बीच में मत टोकिए और छोटी-छोटी बातों पर मत भड़किए, भले ही वह कुछ ऐसा क्यों न कह दे जो आप नहीं सुनना चाहते। बाइबल कहती है: “हर इंसान सुनने में फुर्ती करे, बोलने में सब्र करे, और क्रोध करने में धीमा हो।” (याकूब 1:19; नीतिवचन 18:13) इसके अलावा यीशु ने भी कहा: “जो दिल में भरा है वही मुँह पर आता है।” (मत्ती 12:34) अगर आप अपने बच्चे की बात ध्यान से सुनें तो आप पता लगा पाएँगे कि वह किन बातों को लेकर परेशान है।

सीधे-सीधे दो शब्दों में अपनी बात खत्म करने के बजाय उससे सवाल पूछने की कोशिश कीजिए। यीशु कभी-कभी पूछता था, “तुम क्या सोचते हो?” इस सवाल के ज़रिए वह न सिर्फ अपने चेलों की बल्कि ढीठ किस्म के लोगों के मन की बात भी जान पाता था। (मत्ती 21:23, 28) आप भी अपने किशोर बच्चे से कुछ ऐसे ही सवाल पूछ सकते हैं, फिर चाहे उसकी बातें आपके विचारों से मेल न खाती हों। उदाहरण के लिए:

अगर आपका बच्चा कहता है: “मुझे नहीं लगता मैं परमेश्‍वर पर विश्‍वास करता हूँ।”

यह कहने के बजाय: “तुम ऐसा कैसे कह सकते हो? हमने तुम्हें बचपन से परमेश्‍वर के बारे में कितना कुछ सिखाया है।”

आप कह सकते हैं: “तुम्हें ऐसा क्यों लगता है?”

बच्चे के दिल की बात जानने की कोशिश क्यों करनी चाहिए? आपने यह तो सुन लिया कि वह क्या कह रहा है, लेकिन आपको यह पता लगाने की ज़रूरत है कि वह क्या सोच रहा है। (नीतिवचन 20:5) हो सकता है उसे परमेश्‍वर के वजूद पर शक न हो, बल्कि वह परमेश्‍वर के स्तरों को लेकर उलझन में हो।

उदाहरण के लिए, अगर एक जवान पर परमेश्‍वर के नैतिक नियम तोड़ने का दबाव आता है, तो वह शायद सोचने लगे कि इस झमेले से बचने का सबसे आसान तरीका है, परमेश्‍वर पर विश्‍वास ही मत करो। (भजन 14:1) वह शायद यह तुक भिड़ाए कि ‘अगर परमेश्‍वर नहीं है, तो फिर बाइबल में दिए उसके सिद्धांतों को मानने की ज़रूरत भी नहीं।’

अगर आपका बच्चा ऐसा सोचने लगा है तो उसका ध्यान इस सवाल पर ले जाइए: क्या मैं वाकई मानता हूँ कि परमेश्‍वर के स्तरों पर चलने में मेरी ही भलाई है? (यशायाह 48:17, 18) अगर उसे यकीन है कि परमेश्‍वर के स्तरों पर चलने में ही उसकी भलाई है, तो उसे बढ़ावा दीजिए कि किसी भी मुश्‍किल के बावजूद अपने इस यकीन पर डटे रहना ही अच्छा है।—गलातियों 5:1.

अगर आपका बच्चा कहता है: “यह आपका धर्म होगा, लेकिन ज़रूरी नहीं कि मैं भी इसी धर्म को मानूँ।”

यह कहने के बजाय: “यह हमारा धर्म है, तुम हमारे बच्चे हो और तुम उसी धर्म को मानोगे जिसे हम मानते हैं।”

आप कह सकते हैं: “अगर तुम्हें लगता है कि मैं जिन बातों पर विश्‍वास करता हूँ वे गलत हैं, तो तुम्हारे हिसाब से सही क्या है? तुम किन बातों पर विश्‍वास करते हो? तुम्हारे हिसाब से जीने के लिए कौन-से स्तर सही हैं?”

बच्चे के दिल की बात जानने की कोशिश क्यों करनी चाहिए? क्योंकि इस तरह जब आप उसके साथ तर्क करेंगे तो उसे अपने विचारों पर दोबारा गौर करने में मदद मिलेगी। वह शायद यह देखकर हैरान रह जाए कि उसके और आपके विश्‍वास मिलते-जुलते हैं। लेकिन जिन बातों को लेकर वह परेशान हो रहा है वह असल में कुछ और ही हैं।

उदाहरण के लिए, हो सकता है कि आपके बच्चे को अपने विश्‍वास के बारे में दूसरों को समझाने में मुश्‍किल हो रही हो। (कुलुस्सियों 4:6; 1 पतरस 3:15) या शायद वह किसी लड़की को पसंद करने लगा हो और उस लड़की के विश्‍वास आपके विश्‍वास से अलग हों। समस्या की जड़ तक जाइए और अपने बच्चे को भी ऐसा करने में मदद दीजिए। वह अपने सोचने-समझने की शक्‍ति का जितना ज़्यादा इस्तेमाल करेगा, बड़े होने पर वह ज़िंदगी का सामना उतनी ही अच्छी तरह कर पाएगा।

2 बड़ों का मार्गदर्शन

कुछ मनोवैज्ञानिक दावा करते हैं कि तेरह से उन्‍नीस साल के बीच बच्चों को कई तरह की परेशानियों से गुज़रना पड़ता है। लेकिन कुछ संस्कृतियों में बच्चों के सामने ये परेशानियाँ बहुत कम या बिलकुल भी नहीं आतीं। खोजकर्ताओं ने पाया है कि उन संस्कृतियों में जवान बहुत छोटी उम्र से ही बड़ों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। वे बड़ों के साथ काम करते हैं, उन्हीं के साथ उठते-बैठते हैं और बड़ी-बड़ी ज़िम्मेदारियाँ उठाते हैं। वहाँ पर “युवा संस्कृति,” “किशोर अपराध” और “किशोरावस्था” जैसे शब्द होते ही नहीं हैं।

इसके उलट, गौर कीजिए कि कई देशों में बच्चों पर क्या बीतती है। उन्हें ऐसे स्कूलों में ठूँस दिया जाता है जो पहले से ही खचाखच भरे होते हैं और जहाँ उनका ज़्यादातर वक्‍त हम-उम्र बच्चों के साथ ही बीतता है। स्कूल से लौटने पर उन्हें घर खाली मिलता है। मम्मी-पापा दोनों काम पर गए होते हैं। नाते-रिश्‍तेदार बहुत दूर रहते हैं। ऐसे में हम-उम्र दोस्तों के अलावा, बात करने के लिए उनके पास कोई नहीं होता। * क्या आप इससे होनेवाले खतरे को भाँप सकते हैं? खतरा सिर्फ गलत लोगों की संगति का नहीं है, खोजकर्ताओं ने पाया है कि बड़ों के साए से दूर, अच्छे-से-अच्छा जवान भी गैर-ज़िम्मेदार हरकतें करने लग सकता है।

एक समाज जिसमें बच्चों और बड़ों की दुनिया अलग-अलग नहीं होती थी, वह था प्राचीन इसराएली समाज। * उदाहरण के लिए, बाइबल उज्जिय्याह के बारे में बताती है जो 16 साल की उम्र में ही यहूदा देश का राजा बन गया था। उज्जिय्याह को यह भारी ज़िम्मेदारी उठाने में किससे मदद मिली? कुछ हद तक जकर्याह से, जो उससे उम्र में बड़ा था। बाइबल कहती है कि उसने “उज्जिय्याह को शिक्षा दी कि परमेश्‍वर का सम्मान और उसकी आज्ञा का पालन कैसे किया जाता है।”—2 इतिहास 26:5, ईज़ी-टू-रीड वर्शन।

क्या आपके किशोर बच्चे का कोई ऐसा भरोसेमंद दोस्त है जो उससे उम्र में बड़ा हो और जो उन आदर्शों पर चलता हो जिन्हें आप भी मानते हैं? अगर हाँ, तो उनकी गहरी दोस्ती देखकर जलिए मत। ऐसे लोगों की दोस्ती आपके बच्चे को सही काम करने में मदद दे सकती है। बाइबल का एक नीतिवचन कहता है: “बुद्धिमानों की संगति कर, तब तू भी बुद्धिमान हो जाएगा।”—नीतिवचन 13:20.

3 ज़िम्मेदारी का एहसास

कुछ देशों में कानून के मुताबिक जवान बच्चे एक हफ्ते में तय घंटों से ज़्यादा काम नहीं कर सकते और उन्हें कुछ खास तरह के काम करने की भी मनाही है। ये पाबंदियाँ बच्चों की सुरक्षा के लिए हैं और इन्हें इसलिए लगाया गया है, क्योंकि 18वीं और 19वीं सदी में औद्योगिक क्रांति के दौरान बच्चों से ऐसे खतरनाक हालात में काम करवाए जा रहे थे, जिनसे उनकी सेहत पर बुरा असर पड़ रहा था।

जहाँ एक तरफ बाल-मज़दूरी को रोकने के लिए बनाए कानून जवानों को खतरे और शोषण से बचाते हैं, वहीं कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि ये पाबंदियाँ जवानों को ज़िम्मेदारियाँ उठाने से भी बचाती हैं। एस्केपिंग दि एंडलेस ऐडोलेसन्स नाम की किताब कहती है, इसका नतीजा यह हुआ है कि कई जवान “इसे अपना हक समझने लगे हैं कि उनके लिए जो भी चीज़ें हैं, वे सब उन्हें बिना कोई मेहनत किए मिलनी चाहिए।” किताब के लेखकों ने यह भी गौर किया कि ऐसा रवैया “जवानों में इसलिए पनपने लगा है क्योंकि वे एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहाँ उनसे कोई उम्मीद नहीं की जाती, बल्कि सिर पर चढ़ाया जाता है।”

इसके उलट, बाइबल ऐसे जवानों के बारे में बताती है जिन्होंने छोटी उम्र में ही बड़ी-बड़ी ज़िम्मेदारियाँ उठाना शुरू कर दिया था। तीमुथियुस के उदाहरण पर गौर कीजिए। जब वह प्रेषित पौलुस से मिला तो करीब सोलह-सत्रह साल का था। पौलुस ने उसकी ज़िंदगी पर ज़बरदस्त असर डाला। एक बार पौलुस ने तीमुथियुस से कहा: “परमेश्‍वर का जो वरदान तुझे . . . मिला था, उसे तू एक ज्वाला की तरह जलाए रख।” (2 तीमुथियुस 1:6) तीमुथियुस जब करीब 19-20 साल का रहा होगा, तभी वह प्रेषित पौलुस के साथ मंडलियाँ शुरू करने और अलग-अलग जगह के भाई-बहनों का हौसला बढ़ाने के लिए निकल गया। करीब दस साल तक तीमुथियुस के साथ काम करने के बाद, पौलुस उसके बारे में फिलिप्पुस के मसीहियों से कह सका: “मेरे पास उसके जैसा स्वभाव रखनेवाला दूसरा और कोई भी नहीं जो सच्चे दिल से तुम्हारी परवाह करेगा।”—फिलिप्पियों 2:20.

अकसर किशोर बच्चे ज़िम्मेदारियाँ उठाने के लिए तैयार रहते हैं, खासकर तब जब उन्हें लगता है कि इससे वे अपनी काबिलीयतों का इस्तेमाल कर पाएँगे और उन्हें खुशी मिलेगी, साथ ही उनकी और दूसरों की ज़िंदगी पर इसका अच्छा असर होगा। इस तरह वे न सिर्फ आगे चलकर ज़िम्मेदार व्यक्‍ति बन पाएँगे, बल्कि आज भी वे अपनी काबिलीयतों को निखार पाएँगे।

नए हालात का सामना करने की तैयारी करना

जैसा इस लेख की शुरूआत में बताया गया था, अगर आपका बच्चा जवान हो रहा है तो आप यह महसूस कर रहे होंगे कि उसके व्यवहार में पिछले कुछ सालों के दौरान बहुत बदलाव आ गया है। यकीन रखिए कि आप इस नए हालात का सामना कर सकते हैं, ठीक जैसे आपने उसके छुटपन और बचपन में किया था।

अभी आपके पास मौका है कि आप अपने किशोर बच्चे को (1) अपनी सोचने-समझने की शक्‍ति बढ़ाने, (2) बड़ों का मार्गदर्शन पाने, और (3) ज़िम्मेदारी का एहसास पैदा करने में मदद दे सकते हैं। इस तरह आप अपने बच्चे को बड़ों की दुनिया में कदम रखने के लिए तैयार कर रहे होंगे। (g11-E 10)

[फुटनोट]

^ एक किताब यह कहती भी है कि किशोरावस्था वह समय होता है, जब बच्चे अपने माता-पिता से अलग एक नयी ज़िंदगी की शुरूआत करने की तैयारी करते हैं। ज़्यादा जानकारी के लिए अक्टूबर-दिसंबर, 2009 की प्रहरीदुर्ग पत्रिका के पेज 10-12 देखिए। इसे यहोवा के साक्षियों ने प्रकाशित किया है।

^ आज जिस तरह का मनोरंजन जवानों के लिए तैयार किया जाता है, वह उनकी इस इच्छा को और बढ़ाता है कि उन्हें बस अपने दोस्त चाहिए और उनमें यह विचार फैलाता है कि उनकी अपनी एक दुनिया है जिसे बड़े न तो समझ सकते हैं और न ही उसमें दाखिल हो सकते हैं।

^ बाइबल में “किशोर” शब्द नहीं पाया जाता। इससे ज़ाहिर होता है कि बाइबल में जिन सालों का इतिहास दर्ज़ है, उस वक्‍त परमेश्‍वर के लोगों के बीच जवान बहुत जल्दी बड़ों की तरह व्यवहार करने लगते थे। लेकिन आज की कई संस्कृतियों में जवानों पर इतनी जल्दी ज़िम्मेदारियाँ नहीं डाली जाती हैं।

[पेज 20 पर बक्स/तसवीर]

“मेरे मम्मी-पापा दुनिया के सबसे अच्छे मम्मी-पापा हैं”

जो माता-पिता यहोवा के साक्षी हैं, वे अपने बच्चों को अपनी बातों और कामों से बाइबल के सिद्धांतों के मुताबिक जीना सिखाते हैं। (इफिसियों 6:4) लेकिन ऐसा करने के लिए वे अपने बच्चों पर ज़ोर नहीं डालते। वे जानते हैं कि वक्‍त आने पर हर बच्चे को खुद फैसला लेना होता है कि वह किन उसूलों के मुताबिक जीएगा।

ऐशलीन, अठारह साल की है और उसने उन उसूलों को अपनाया है, जो उसे सिखाए गए हैं। वह कहती है: “मेरे लिए मेरे धर्म का मतलब हफ्ते में सिर्फ एक दिन परमेश्‍वर को याद करना नहीं है। यह मेरे जीने का तरीका है। इसका असर मेरे हर काम और हर फैसले पर होता है। जैसे कि किन लोगों के साथ दोस्ती करनी है, पढ़ाई के लिए कौन-से विषय चुनने हैं और कौन-सी किताबें पढ़नी हैं।”

ऐशलीन के मम्मी-पापा यहोवा के साक्षी हैं और वह उनकी बहुत एहसानमंद है कि उन्होंने इतनी अच्छी तरह उसकी परवरिश की। वह कहती है: “मेरे मम्मी-पापा दुनिया के सबसे अच्छे मम्मी-पापा हैं। उन्होंने ही मेरे अंदर यहोवा का साक्षी बनने और इस विश्‍वास को हमेशा थामे रहने की इच्छा डाली। जब तक मैं ज़िंदा हूँ, तब तक मेरे माँ-बाप मेरी प्रेरणा बने रहेंगे।”

[पेज 17 पर तसवीर]

बच्चे को अपने दिल की बात कहने दीजिए

[पेज 18 पर तसवीर]

एक भरोसेमंद दोस्त जो आपके बच्चे से उम्र में बड़ा हो, आपके बच्चे पर अच्छा असर डाल सकता है

[पेज 19 पर तसवीर]

अपनी काबिलीयतों का इस्तेमाल करने से बच्चे ज़िम्मेदार बन पाते हैं