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परमेश्‍वर का मित्र बनने में उम्र कोई रुकावट नहीं

परमेश्‍वर का मित्र बनने में उम्र कोई रुकावट नहीं

परमेश्‍वर का मित्र बनने में उम्र कोई रुकावट नहीं

ओलावी जे. माटीला की ज़ुबानी

“क्या आपने कभी सोचा है कि आप सृष्टिकर्ता को जान सकते हैं, उसके बारे में सही ज्ञान हासिल कर सकते हैं?” यह सवाल एक यहोवा के साक्षी ने मुझसे किया और मैं सोचने पर मजबूर हो गया। उस वक्‍त मेरी उम्र 80 से ऊपर थी और मेरी जान-पहचान कई नामी लोगों से थी, यहाँ तक कि बड़े-बड़े नेताओं से भी। लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर क्या मैं सचमुच परमेश्‍वर को जान सकता था और उसका मित्र बन सकता था?

मेरा जन्म अक्टूबर 1918 में फिनलैंड के हूविंग्का शहर में हुआ। हमारा एक फार्म था, जहाँ हम मवेशी, घोड़े, मुर्गियाँ और बतख पालते थे। छोटी उम्र से ही मैं फार्म के अलग-अलग कामों में हाथ बँटाने लगा। मैंने मेहनत करना और अपने काम पर फख्र करना सीखा।

मेरे माता-पिता चाहते थे मैं खूब पढ़ूँ। इसलिए स्कूल खत्म करके मैं कॉलेज की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर चला गया। वहाँ मैं खेल-कूद में भी हिस्सा लेने लगा और मेरी पहचान फिनलैंड के ऐथलेटिक संघ के अध्यक्ष उरहो केकेनन से हुई। क्या पता था कि आगे चलकर वे फिनलैंड के प्रधानमंत्री और बाद में राष्ट्रपति बन जाएँगे। उन्होंने करीब 30 साल तक इन पदों को सँभाला। और-तो-और मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरी ज़िंदगी पर उनका गहरा असर होगा।

बड़े-बड़े लोगों से जान-पहचान

सन्‌ 1939 में फिनलैंड और सोवियत संघ के बीच युद्ध छिड़ गया। जंग का मैदान करीलिया नाम का एक इलाका था जो फिनलैंड और सोवियत संघ की सीमा पर है। उसी साल नवंबर में मुझे सेना में भर्ती कर लिया गया। पहले मुझे फौजियों को ट्रेनिंग देने का काम दिया गया, फिर सेना की एक टुकड़ी का कमांडर बनाया गया जो मशीन-गन चलाने में माहिर थी। सन्‌ 1941 की गर्मियों में जब हम वाईबोर्ग कसबे के पास लड़ रहे थे तो बमबारी में मैं बुरी तरह घायल हो गया और मुझे सेना के अस्पताल में भर्ती किया गया। मेरे ज़ख्म इतने गहरे थे कि मैं फिर कभी युद्ध में हिस्सा नहीं ले पाया।

सितंबर 1944 में सेना ने मुझे छुट्टी दे दी और मैं फिर से कॉलेज जाने लगा। मैंने यूनिवर्सिटी से टेक्नॉलजी और अर्थशास्त्र में डिग्री हासिल की। पढ़ाई के साथ-साथ मैं खेल-कूद में भी हिस्सा लेता रहा और तीन बार राष्ट्रीय चैंपियन बना, दो बार रिले दौड़ में और एक बार बाधा दौड़ में।

इस बीच उरहो केकेनन राजनीति में ऊँचाइयाँ हासिल करते गए। सन्‌ 1952 में जब वे देश के प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने मुझे देश की तरफ से एक खास काम से चीन जाने के लिए कहा। वहाँ मैं कई सरकारी अधिकारियों से मिला, जिनमें से एक थे चीन के नेता माओ से-तुंग। लेकिन वहाँ हुई एक खास मुलाकात मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। मैं अनीकी नाम की एक प्यारी-सी लड़की से मिला, जो फिनलैंड के विदेश मंत्रालय के लिए काम करती थी। नवंबर 1956 में हम दोनों ने शादी कर ली।

अगले साल मेरा तबादला अर्जण्टिना कर दिया गया, जहाँ मुझे फिनलैंड के दूतावास में काम करना था। वहाँ हमारे दो बेटे पैदा हुए। जनवरी 1960 में हम फिनलैंड लौट आए। यहाँ हमें एक बेटी हुई।

सरकार के ऊँचे-ऊँचे पदों पर

हालाँकि मैं किसी राजनैतिक पार्टी का सदस्य नहीं था, लेकिन नवंबर 1963 में राष्ट्रपति केकेनन ने मुझे विदेश व्यापार मंत्री बनने का न्यौता दिया। अगले 12 सालों में मैंने कैबिनट के 6 अलग-अलग पदों पर काम किया, जिस दौरान मैं दो बार विदेश मंत्री भी बना। उन दिनों मेरा मानना था कि इंसान अपनी बुद्धि से दुनिया की समस्याएँ सुलझा सकता है। लेकिन जल्द ही मुझे एहसास हो गया कि वह सिर्फ ताकत का भूखा है। मैंने खुद अपनी आँखों से ईर्ष्या और अविश्‍वास के बुरे अंजाम देखे।—सभोपदेशक 8:9.

मैंने यह भी देखा कि कई नेता सचमुच दुनिया के हालात सुधारने की कोशिश करते हैं। लेकिन अच्छे-से-अच्छा नेता भी अपने इरादों में कामयाब नहीं हो पाता।

सन्‌ 1975 की गर्मियों में हेलसिंकी शहर में एक सम्मेलन रखा गया, जिसका मकसद था यूरोप के देशों के बीच आपसी सहयोग और बेहतर सुरक्षा कायम करना। इस सम्मेलन में 35 देशों के बड़े-बड़े नेता शामिल हुए। उस समय मैं राष्ट्रपति केकेनन का खास सलाहकार और विदेश मंत्री था। सम्मेलन को आयोजित करने का ज़िम्मा मुझे दिया गया और मैं इसमें आए सभी नेताओं से मिला।

सम्मेलन के उन दिनों में मेरी व्यवहार-कुशलता को पूरी तरह परखा गया। छोटी-छोटी बात जैसे कौन कहाँ बैठेगा, इस पर ही नेता भड़क जाते थे और उन्हें मनाना टेढ़ी खीर होता था। फिर भी सम्मेलन और उसके बाद हुई कुछ सभाओं से मुझे लगा कि मानव अधिकारों में सुधार आए और महाशक्‍तियों के बीच रिश्‍ते बेहतर हुए।

परमेश्‍वर को जानने की इच्छा

सन्‌ 1983 में मैं रिटायर हो गया और फ्राँस चला गया, जहाँ मेरी बेटी रहती थी। कुछ समय बाद, नवंबर 1994 में हमें पता चला कि मेरी पत्नी को स्तन कैंसर है। यह हमारे लिए बहुत मुश्‍किल घड़ी थी। उसी साल मैंने एक निवेश स्कीम में पैसा लगाया, मगर वह स्कीम फरज़ी निकली। मैंने सारी ज़िंदगी जो अच्छा नाम कमाया था, वह इस एक गलत फैसले की वजह से मिट्टी में मिल गया।

मेरी मुलाकात यहोवा के साक्षियों से कई बार हुई थी। हालाँकि मुझे उनसे मिलना अच्छा लगता था और मैं उनकी पत्रिकाएँ भी लेता था, लेकिन व्यस्त रहने की वजह से परमेश्‍वर की बातों के लिए मेरे पास ज़रा-भी वक्‍त नहीं रहता था। जब अनीकी को कैंसर हो गया, तो मैं अपना ज़्यादातर समय उसकी देखभाल करने में बिताने लगा। एक दिन, सितंबर 2002 में एक यहोवा का साक्षी मेरे घर आया। उसने मुझसे वही सवाल किया, जो इस लेख की शुरूआत में दिया गया है। मैं सोचने लगा: ‘क्या मैं वाकई परमेश्‍वर को जान सकता हूँ? क्या मैं उसका मित्र बन सकता हूँ?’ मैंने तुरंत अपनी बाइबल निकाली, जो सालों से धूल खा रही थी और मैं साक्षियों के साथ नियमित तौर पर चर्चा करने लगा।

जून 2004 में मेरी प्यारी पत्नी की मौत हो गयी और मैं अकेला हो गया। मेरे बच्चों ने उस वक्‍त मुझे बहुत सँभाला, लेकिन मेरे मन में यह सवाल घूम रहा था कि मरने पर हमारा क्या होता है। मैंने इस बारे में लूथरन चर्च के दो पादरियों से पूछा। उन्होंने सिर्फ इतना कहा, “इसका जवाब देना बहुत मुश्‍किल है।” उनकी बातों से मुझे चैन नहीं पड़ा। परमेश्‍वर के बारे में सच जानने की मेरी इच्छा और बढ़ गयी।

साक्षियों के साथ बाइबल अध्ययन करने से मैं सही ज्ञान हासिल कर पाया, जिसकी मुझे तलाश थी। उदाहरण के लिए, बाइबल बताती है कि मरे हुओं को कोई सुध-बुध नहीं होती क्योंकि मौत गहरी नींद की तरह है। बाइबल यह भी आशा देती है कि मरे हुओं को इसी धरती पर दोबारा ज़िंदा किया जाएगा। (यूहन्‍ना 11:25) इस सच्चाई ने मुझे अपने दुख से उबरने में मदद दी और मुझे आशा है कि एक दिन मैं अपनी अनीकी से दोबारा मिल पाऊँगा।

जल्द ही मैंने पूरी बाइबल पढ़ ली। मीका 6:8 में दी इस बात ने मेरा दिल छू लिया: “यहोवा तुझ से इसे छोड़ और क्या चाहता है, कि तू न्याय से काम करे, और कृपा से प्रीति रखे, और अपने परमेश्‍वर के साथ नम्रता से चले?” इस आयत में सरल मगर कितनी गहरी बात लिखी हुई है। मैंने यह भी जाना कि यहोवा न्याय से काम करनेवाला परमेश्‍वर है और हमसे बहुत प्यार करता है।

भविष्य के लिए एक उम्मीद

जैसे-जैसे मैं परमेश्‍वर के बारे में सीखता गया, उस पर मेरा विश्‍वास और भरोसा बढ़ता गया। हम एक-दूसरे के सच्चे मित्र बनते गए। यशायाह 55:11 में दर्ज़ उसके शब्दों ने मुझ पर गहरा असर किया: “उसी प्रकार से मेरा वचन भी होगा जो मेरे मुख से निकलता है; वह व्यर्थ ठहरकर मेरे पास न लौटेगा, परन्तु, जो मेरी इच्छा है उसे वह पूरा करेगा, और जिस काम के लिये मैं ने उसको भेजा है उसे वह सुफल करेगा।” वाकई, परमेश्‍वर ने आज तक अपने वादे पूरे किए हैं और वह भविष्य में भी ऐसा करेगा। इंसानी सरकारें और उनके कई राजनैतिक सम्मेलन जिन लक्ष्यों को हकीकत का रूप नहीं दे पाए हैं, परमेश्‍वर उन्हें ज़रूर पूरा करेगा। ऐसा ही एक लक्ष्य भजन 46:9 में बताया गया है: ‘वह पृथ्वी की छोर तक लड़ाइयों को मिटा देगा।’

यहोवा के साक्षियों की सभाओं में आने से मुझे बहुत फायदे हुए। वहाँ मैंने खुद अपनी आँखों से देखा कि उनके बीच सच्चा प्यार है। यीशु ने कहा था कि यही प्यार उसके सच्चे चेलों की पहचान होगी। (यूहन्‍ना 13:35) यह प्यार, देश-प्रेम की भावना से बढ़कर है और ऐसा प्यार राजनीति और व्यापार जगत में देखने को नहीं मिलता।

सबसे बड़ा सम्मान

मेरी उम्र अब 90 से भी ज़्यादा है और यहोवा का साक्षी होना मेरे लिए सबसे बड़ा सम्मान है। यहोवा ने मुझे यह मौका दिया कि मैं उसके बारे में सच्चाई सीख सकूँ और ज़िंदगी के मकसद के बारे में जान सकूँ। अब मुझे अपनी ज़िंदगी अधूरी नहीं लगती।

मैं इस बात से खुश हूँ कि इस उम्र में भी मैं सभाओं और प्रचार जैसे मसीही कामों में ज़ोर-शोर से हिस्सा ले पाता हूँ। मैं अपनी ज़िंदगी में कई बड़े-बड़े लोगों से मिला हूँ और मैंने कई ऊँचे पदों पर काम किया है। मगर सृष्टिकर्ता यहोवा परमेश्‍वर को जानने और उसका मित्र बनने का जो सम्मान मुझे मिला है, उसके आगे ये सब कुछ भी नहीं। मैं यहोवा का बहुत शुक्रगुज़ार हूँ और उसकी महिमा करना चाहता हूँ कि उसने मुझे अपना “सहकर्मी” बनने के लायक समझा। (1 कुरिंथियों 3:9) वाकई, सृष्टिकर्ता यहोवा परमेश्‍वर का मित्र बनने में उम्र कोई रुकावट नहीं! (g12-E 01)

[पेज 21 पर तसवीर]

सन्‌ 1975 में हेलसिंकी सम्मेलन के दौरान राष्ट्रपति केकेनन और अमरीका के राष्ट्रपति फोर्ड के साथ

[पेज 21 पर तसवीर]

राष्ट्रपति केकेनन और सोवियत नेता ब्रेज़नेव के साथ

[पेज 22 पर तसवीर]

मैं मसीही कामों में ज़ोर-शोर से हिस्सा लेता हूँ

[पेज 21 पर चित्रों का श्रेय]

नीचे बायीं तरफ: Ensio Ilmonen/Lehtikuva; नीचे दायीं तरफ: Esa Pyysalo/Lehtikuva