मैंने ऐसा क्यों कह दिया?
नौजवान पूछते हैं
मैंने ऐसा क्यों कह दिया?
इस लेख से आपको यह पता करने में मदद मिलेगी
क्यों कभी-कभी आपके मुँह से कुछ गलत निकल जाता है
क्या करें जब आपसे बोलने में चूक हो जाती है
कैसे आप अपनी ज़बान पर लगाम लगा सकते हैं
“वैसे मैं अपनी ज़बान पर काबू रखता हूँ, लेकिन कभी-कभी मैं चूक जाता हूँ। तब मुझे लगता है, काश! धरती फट जाए और मैं इसमें समा जाऊँ।”—चेज़
“कभी-कभी मैं वह बात बोल देती हूँ जो सबके मन में चल रही होती है, लेकिन जो बोली नहीं जानी चाहिए . . . क्या करूँ मैं!”—ऐली
क्यों ऐसा होता है
खास आयत: “यदि कोई बोलने में कोई भी चूक न करे तो वह एक सिद्ध व्यक्ति है।” (याकूब 3:2, हिंदी ईज़ी-टू-रीड वर्शन) इस आयत से क्या पता चलता है? कोई भी अपनी ज़बान पर पूरी तरह काबू नहीं रख सकता। कई जवान अनुष्का * की तरह महसूस करते हैं। वह कहती है, कभी-कभी मुझे पता होता है कि फलाँ मामले पर मुझे बात नहीं करनी चाहिए, लेकिन यह जानते हुए भी मैं कुछ ज़्यादा ही बोल जाती हूँ।
सच्ची कहानी: “मैं अपने कुछ कपड़े फेंकने की सोच रही थी, लेकिन मेरी एक सहेली को वे कपड़े पसंद आ गए। मैंने बिना सोचे-समझे उससे कह दिया, ‘मुझे नहीं लगता ये कपड़े तुम्हें आएँगे।’ मेरी सहेली ने कहा, ‘तुम कहना क्या चाहती हो? क्या मैं मोटी हूँ?’—काजल।
यह समझने के लिए कि क्यों आप कभी-कभी अपनी ज़बान पर काबू नहीं रख पाते, इसे आज़माइए।
● अपनी कमज़ोरी पहचानिए।
___ मैं गुस्से में कुछ भी बोल देता हूँ
___ मैं बिना सोचे-समझे बोल देता हूँ
___ मैं पूरी बात सुने बगैर ही बोल देता हूँ
___ या कोई और वजह
उदाहरण: “मैं कुछ ज़्यादा ही मज़ाक करती हूँ और कभी-कभी लोग मेरे मज़ाक को दिल पर ले लेते हैं।”—अलीशा।
● आप किसके सामने बोलने में सबसे ज़्यादा चूक जाते हैं?
___ मम्मी-पापा
___ भाई-बहन
___ कोई दोस्त
___ या कोई और
उदाहरण: बीस साल की कशिश कहती है, “जिनसे मैं सबसे ज़्यादा प्यार करती हूँ, अनजाने में उन्हें ही सबसे ज़्यादा दुख पहुँचाती हूँ। उनके सामने मैं कोई झिझक महसूस नहीं करती शायद इसीलिए जो मुँह में आए, बक देती हूँ।”
क्या करें जब आपसे बोलने में चूक हो जाती है
खास आयत: “उन बातों में लगे रहें जिनसे शांति कायम होती है।” (रोमियों 14:19) इस सलाह को मानने का एक तरीका है माफी माँगना।
सच्ची कहानी: “मैं दस महीने की थी जब मम्मी गुज़र गयी और पापा ने कभी मुझे अपने साथ नहीं रखा। इसलिए मेरी परवरिश मेरे मौसा-मौसी ने की। एक दिन की बात है, मैं करीब 10-11 साल की थी। मैं बहुत अकेला महसूस कर रही थी। मुझे गुस्सा आ रहा था कि मम्मी मुझसे दूर क्यों चली गयी और दिल कर रहा था, किसी पर अपना सारा गुस्सा उतार दूँ। इसलिए जब मौसी ने मुझे किसी काम में हाथ बँटाने के लिए कहा, तो मैं उन पर बरस पड़ी और मेरे मुँह से निकल गया, ‘मैं तुमसे नफरत करती हूँ, तुम मेरी असली माँ नहीं हो।’ यह सुनकर मेरी मौसी दंग रह गयी, फिर वह अपने कमरे में गयी और दरवाज़ा बंद करके रोने लगी। मुझे बहुत बुरा लगा। वह मेरा बहुत खयाल रखती थी, उसने मेरे लिए क्या-कुछ नहीं किया था। लेकिन मैं, मैं उसके साथ कितनी बुरी तरह पेश आयी। जब मौसाजी को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने मुझसे बात की और बाइबल से कुछ आयतें दिखायीं कि हमें क्यों अपनी ज़बान पर काबू रखना चाहिए। मुझे एहसास हो गया कि मैं गलत थी और मैंने जाकर मौसी से माफी माँगी।”—मिनी।
नीचे लिखिए कि माफी माँगना आपके लिए क्यों मुश्किल हो सकता है।
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माफी माँगने से आप क्यों अच्छा महसूस करेंगे?
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सुराग: नीतिवचन 11:2 और मत्ती 5:23, 24 में दिए सिद्धांतों पर गौर कीजिए।
अच्छा तो यही होगा कि हमारे मुँह से कुछ गलत न निकले और हमें माफी माँगनी की ज़रूरत न पड़े। इसके लिए आप क्या कर सकते हैं?
कैसे आप अपनी ज़बान पर लगाम लगा सकते हैं
खास आयत: “हर इंसान सुनने में फुर्ती करे, बोलने में सब्र करे, और क्रोध करने में धीमा हो।” (याकूब 1:19) आगे बताया गया है कि आप इस सलाह पर कैसे चल सकते हैं। (g12-E 01)
नीचे दी आयतें पढ़िए और उनसे मिलती सलाह के साथ उन्हें जोड़िए।
1 “खुद को बहुत ज़्यादा अहमियत मत दीजिए, इस तरह आप जल्दी-से दूसरों की बात का बुरा नहीं मानेंगे।”—दीया।
2 “जब भी मुझे गुस्सा आता है, मैं सैर पर निकल जाती हूँ। इससे मुझे थोड़ी देर अकेले रहने का मौका मिलता है और मेरा गुस्सा ठंडा हो जाता है।”—बिंदिया।
3 “जब मैं छोटी थी तो सोचती थी कि झगड़ा जीतना ही सबकुछ होता है, इसलिए मैं हर बात का बतंगड़ बना देती थी। लेकिन अब मैं जान गयी हूँ कि छोटी-छोटी बातों को भुला देना ही अच्छा होता है।”—सलोनी।
4 “अगर कोई आप पर चिल्ला रहा है और बदले में आप उससे कुछ नहीं बोलते, तो कुछ देर बाद वह खुद-ब-खुद चुप हो जाएगा। बस सब्र रखिए। आग में घी डालने का काम मत कीजिए।”—कोमल।
5 “कई बार जब मैं किसी से नाराज़ हो जाता हूँ, तो मेरा मन करता है कि मैं उसे खूब सुनाऊँ। लेकिन अगर मैं थोड़ा समय गुज़रने दूँ, तो मुझे एहसास हो जाता है कि बात बढ़ाना फिज़ूल है। मैंने सीख लिया है, हमें फौरन पलटकर जवाब नहीं देना चाहिए।”—चेतन।
“नौजवान पूछते हैं” के और भी लेख, वेब साइट www.watchtower.org/ype पर उपलब्ध हैं
[फुटनोट]
^ इस लेख में कुछ नाम बदल दिए गए हैं।
[पेज 18 पर बक्स/तसवीरें]
ऐली—कुछ भी बोलने से पहले, मैं खुद से पूछती हूँ, ‘क्या मेरे यह कहने से कुछ अच्छा होगा? मैं जो कहने जा रही हूँ उसका सामनेवाले पर क्या असर पड़ेगा?’ अगर आप इस कशमकश में हैं कि आपको यह बात कहनी चाहिए या नहीं, तो उसे न कहना ही अच्छा होगा।
चेज़—कुछ कहने से पहले मैं यह सोचता हूँ कि मेरी बात का दूसरों पर क्या असर होगा। मुझे लगता है, जैसे-जैसे मैं बड़ा हो रहा हूँ, मैं अपनी ज़बान को काबू में रखना सीख रहा हूँ। तजुरबा हमें सिखा ही देता है।
[पेज 19 पर बक्स]
क्यों ना अपने माता-पिता से पूछें?
हममें से कोई सिद्ध नहीं है और याकूब ने भी लिखा “हम सब कई बार गलती करते हैं।” इसलिए अपने माता-पिता से पूछिए कि अपनी ज़बान पर काबू रखने के लिए उन्हें किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा।—याकूब 3:2.
[पेज 18 पर तसवीर]
“एक बार आप टूथपेस्ट निकाल लेते हैं, तो आप उसे वापस ट्यूब में नहीं डाल सकते। यही बात हमारे शब्दों के बारे में भी सच है। एक बार हमारे मुँह से कोई चुभनेवाली बात निकल जाती है, तो हम उसे वापस नहीं ले सकते।”—जतिन।