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अपने बारे में आपका क्या खयाल है?

अपने बारे में आपका क्या खयाल है?

अपने बारे में आपका क्या खयाल है?

वह बड़ा ही मगरूर इंसान था। सरकार में उसके ऊँचे पद की वज़ह से उसकी बहुत खुशामद और चापलूसी की जाती थी, जिससे उसकी छाती घमंड से दोगुनी फूली रहती थी। वहीं एक ऐसा अधिकारी भी था जो उसकी कभी खुशामद नहीं करता था। फिर क्या था, मगरूर अधिकारी के सिर पर खून सवार हो गया और उसने उस अधिकारी से बदला लेने की ठान ली। उसने एक घिनौना षड्यंत्र रचा जिससे वह पूरे साम्राज्य में उस जाति के लोगों को जड़ से खत्म कर सके। खुद को अधिक अहमियत देने के चक्कर में वह कितना ज़ालिम बन गया था!

यह घिनौना षड्यंत्र रचनेवाला इंसान हामान था जो फारस के राजा क्षयर्ष के राजभवन में एक उच्च अधिकारी था। और उसका दुश्‍मन था मौर्दकै जो एक यहूदी था। बदले के लिए जनसंहार की बात सोचकर वह एकदम नीचता पर उतर आया था और इससे हम देख सकते हैं कि एक इंसान अगर घमंडी हो जाए तो अंजाम कितना भयंकर हो सकता है। उस मगरूर इंसान के घमंड ने, न सिर्फ दूसरों के लिए आफत खड़ी की बल्कि अपने घमंड की वज़ह से वह खुद भी मुसीबत में जा फँसा। उसे बीच बाज़ार में लोगों के सामने शर्मिंदा किया गया और फाँसी दे दी गई।—एस्तेर 3:1-9; 5:8-14; 6:4-10; 7:1-10.

सच्चे उपासकों में भी घमंड आ सकता है

यहोवा चाहता है कि हम ‘उसके साथ नम्रता से चलें।’ (मीका 6:8) बाइबल में ऐसे बहुत-से इंसानों का ज़िक्र है जो नम्रता से नहीं चले, जिसकी वज़ह से वे मुसीबत में फँसे और खुद का बेड़ागरक किया। आइए अब हम कुछ ऐसे उदाहरणों पर गौर करें जिनसे यह सीखा जा सकता है कि खुद को हद से ज़्यादा अहमियत देना न सिर्फ बड़ी मूर्खता हो सकती है बल्कि यह खतरनाक भी हो सकता है।

यहोवा ने अपने भविष्यद्वक्‍ता योना को नीनवे के दुष्ट लोगों को न्यायदंड सुनाने के लिए भेजा था। मगर सही सोच-विचार न होने की वज़ह से वह परमेश्‍वर से मिली आज्ञा टालकर दूसरी जगह भाग खड़ा हुआ। (योना 1:1-3) आखिरकार बाद में वह नीनवे गया और उसने लोगों को न्यायदंड सुनाया। नतीजा यह हुआ कि लोग अपने बुरे कामों से फिर गए। तब परमेश्‍वर ने उनको नाश करने का अपना इरादा बदल दिया। मगर इससे योना चिढ़ गया। क्यों? क्योंकि उसे अपनी इज़्ज़त की पड़ी थी कि उसकी कही हुई बात सच होनी ही चाहिए। उसे नीनवे की हज़ारों जानों की कोई परवाह नहीं थी। (योना 4:1-3) इसी तरह अगर हम भी खुद को हद से ज़्यादा अहमियत देते हैं तो हमारे लिए इंसानों के जज़्बात और आस-पास के हालात को ठीक से समझना बहुत मुश्‍किल हो सकता है। हम पक्षपाती हो सकते हैं और सही न्याय नहीं कर पाएँगे।

अब उज्जिय्याह की ही बात लीजिए जो यहूदा का एक नेक राजा था। लेकिन जब वह अपने बारे में हद से ज़्यादा सोचने लगा तब उसने बड़ी ढिठाई से याजक का काम करने की कोशिश की। अपनी हद पार करके अहंकार में आकर उसने जो गुस्ताखी की, उसे उसका फल भुगतना पड़ा। इसकी वज़ह से वह न सिर्फ रोगी हो गया बल्कि परमेश्‍वर का अनुग्रह भी उस पर से उठ गया।—2 इतिहास 26:3, 16-21.

यीशु के चेलों का अपने बारे में सही सोच-विचार न होने की वज़ह से, वे करीब-करीब अहंकार के फंदे में फँस गए थे। उन्हें अधिकार और महिमा पाने में हद से ज़्यादा दिलचस्पी हो गई थी। जब असल परीक्षा की घड़ी आई तो वे यीशु को छोड़कर भाग खड़े हुए। (मत्ती 18:1; 20:20-28; 26:56; मरकुस 9:33, 34; लूका 22:24) नम्रता की कमी और अपने बारे में हद से ज़्यादा सोचने की वज़ह से, कुछ पल के लिए वे यहोवा के मकसद और उसकी इच्छा पूरी करने में अपनी भूमिका को भूल गए थे।

खुद को ज़्यादा अहमियत देने के बुरे अंजाम

अपने बारे में हद से ज़्यादा सोचने का अंजाम दुःख भोगना और दूसरों के साथ अपना रिश्‍ता बिगाड़ना हो सकता है। मान लीजिए कि हम एक ऐसे कमरे में बैठे हैं जहाँ पति-पत्नी का एक जोड़ा कानाफूसी कर रहा है और हँस रहा है। अगर हम अपने बारे में बहुत ज़्यादा सोचते हैं, तब हम शायद सोच बैठें कि वे मेरे बारे में ही बात करके हँस रहे हैं वरना इतनी धीरे-धीरे बात ही क्यों करते। उनके आपस में इस तरह धीरे-धीरे बोलने का और भी कारण हो सकता है, लेकिन हम अपने दिमाग का दरवाज़ा इस कदर बंद कर लेते हैं कि कुछ और सोच ही नहीं पाते। आखिर वे और किसके बारे में बात कर रहे होंगे? हम परेशान हो उठते हैं और ठान लेते हैं कि अगली बार से उस जोड़े से कभी बात नहीं करेंगे। तो देखिए अपने बारे में हद से ज़्यादा सोचने की वज़ह से गलतफहमी पैदा सकती है। इससे हम अपने दोस्तों, परिवार के सदस्यों और अन्य लोगों के साथ अपने रिश्‍ते में कड़वाहट ला सकते हैं।

जो लोग अपने बारे में हद से ज़्यादा सोचते हैं वे शायद शेखी बघारनेवाले बन जाएँ। बस हर वक्‍त अपने ही किसी अच्छे गुण, काम या चीज़ों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बोलते रहें। या हो सकता है, जब कहीं बातचीत चल रही हो तो वहाँ वे अपनी ही तूती फूँकने लगें, सबका ध्यान अपनी तरफ खींचने की कोशिश करें। उनकी बातों में सच्चे प्यार की कमी होती है जिससे और लोग खीज सकते हैं। और इसी लिए घमंडी अकसर दूसरों से एकदम अलग ही हो जाते हैं।—1 कुरिन्थियों 13:4.

यहोवा के साक्षी होने के नाते हमें प्रचार काम के लिए जाना होता है उस वक्‍त शायद लोग हमारा मज़ाक उड़ाएँ या अपमान करें। मगर हम एक बात हमेशा अपने मन में रखेंगे कि लोग, हमारा विरोध नहीं करते बल्कि यहोवा का करते हैं जिसकी तरफ से हम संदेश सुनाते हैं। लेकिन, अगर हम खुद को हद से ज़्यादा अहमियत देते हैं तो इसका अंजाम बहुत बुरा हो सकता है। कुछ साल पहले की बात है, किसी व्यक्‍ति ने प्रचार के दौरान एक भाई को अनाप-शनाप कह दिया तो भाई इतना बुरा मान गया कि उसने गालियाँ बक दीं। (इफिसियों 4:29) इसके बाद से वह कभी-भी घर-घर प्रचार काम के लिए नहीं गया। यह बिलकुल सच है कि अगर हम घमंडी हैं तो प्रचार में भी हम अपना आपा खो सकते हैं। तो आइए हम अपनी तरफ से भरसक कोशिश करें कि हम कभी अपना आपा न खोएँ। इसके बजाए हम नम्र बनें और यहोवा से मदद माँगे कि उसने हम मसीहियों को जो प्रचार करने का सुनहरा मौका दिया है, उसके लिए हम सही तरह से कदर दिखा सकें।—2 कुरिन्थियों 4:1, 7; 10:4, 5.

खुद को हद से ज़्यादा अहमियत देने की वज़ह से हम शायद मिलनेवाली ज़रूरी सलाह को भी ठुकरा दें। एक ऐसी ही घटना सॆंट्रल अमरीका के देश में कुछ सालों पहले घटी। एक जवान भाई ने थियोक्रेटिक मिनिस्ट्री स्कूल में टॉक दी। जब स्कूल ओवरसियर ने उसे कुछ रूखे अंदाज़ में सलाह दी तो उस गुस्सैल लड़के ने बाइबल को धम-से ज़मीन पर पटका और आग-बबूला होकर इस इरादे से किंगडम हॉल के बाहर चलता बना कि वह फिर कभी वहाँ कदम नहीं रखेगा। मगर कुछ दिनों बाद जब उसका पारा उतरा तो उसने स्कूल ओवरसियर से सुलह की और मिलनेवाली सलाह को नम्र होकर कबूल किया। समय के गुज़रते वह समझदार और प्रौढ़ मसीही बन गया।

अहंकारी होने और अपने बारे में हद से ज़्यादा सोचने का एक बड़ा खतरा यह है कि हम परमेश्‍वर के साथ अपना रिश्‍ता बिगाड़ सकते हैं। नीतिवचन 16:5 हमें खबरदार करता है: “सब मन के घमण्डियों से यहोवा घृणा करता है।”

खुद को जितना समझना चाहिए उससे अधिक न समझें

तो यह ज़ाहिर है कि हमें खुद के बारे में हद से ज़्यादा नहीं सोचना चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम जो कहते या करते हैं उसके बारे में बिलकुल ध्यान न दें, क्योंकि बाइबल बताती है कि ओवरसियर और सहायक सेवकों को गंभीर होना चाहिए। साथ ही कलीसिया के हरेक सदस्य को गंभीर होना चाहिए यानी अपने बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। (1 तीमुथियुस 3:4, 8, 11; तीतुस 2:2) तो फिर एक मसीही अपने बारे में सही नज़रिया कैसे अपना सकता है और नम्र कैसे बन सकता है?

बाइबल में कई लोगों की बढ़िया मिसालें दी गई हैं जिन्होंने अपनी हद को समझा और अपने बारे में सही नज़रिया अपनाया। नम्रता की सबसे बेहतरीन मिसाल यीशु मसीह की है। अपने पिता परमेश्‍वर की इच्छा पूरी करने के लिए और इंसानों का उद्धार कराने के लिए यीशु ने अपनी मर्ज़ी से स्वर्ग का शानदार पद छोड़ा और पृथ्वी पर आकर एक नम्र इंसान बना। पृथ्वी पर उसे ज़लील किया गया, गाली दी गई, यहाँ तक कि उसे शर्मनाक मौत दी गयी। मगर इन सबके बावजूद उसने अपना आपा नहीं खोया और अपनी गरिमा बनाए रखी। (मत्ती 20:28; फिलिप्पियों 2:5-8; 1 पतरस 2:23, 24) यीशु यह सब कुछ कैसे कर सका? उसका भरोसा पूरी तरह यहोवा पर था और उसने उसकी इच्छा पूरी करने का दृढ़ संकल्प किया था। यीशु ने ध्यान लगाकर परमेश्‍वर के वचन का अध्ययन किया, लगातार प्रार्थना की और उसके नाम का प्रचार करने के लिए अपना तन-मन लगा दिया। (मत्ती 4:1-10; 26:36-44; लूका 8:1; यूहन्‍ना 4:34; 8:28; इब्रानियों 5:7) अगर हम यीशु के उदाहरण पर चलें तो अपने बारे में हम भी सही नज़रिया अपनाएँगे और कभी भी हद से ज़्यादा खुद को अहमियत नहीं देंगे।—1 पतरस 2:21.

राजा शाऊल के बेटे योनातन की शानदार मिसाल पर भी गौर कीजिए। योनातन के पिता राजा शाऊल ने परमेश्‍वर की आज्ञा नहीं मानी जिसकी वज़ह से योनातन को राजा बनने का हक खोना पड़ा। (1 शमूएल 15:10-29) अपना हक गँवाने की वज़ह से क्या वह चिढ़ गया? क्या वह नौजवान दाऊद से जलने लगा जो उसकी जगह राजा बनता? योनातन दाऊद से उम्र में काफी बड़ा था और काफी अनुभवी भी था, फिर भी उसने नम्रता दिखाई और यहोवा की मर्ज़ी कबूल करते हुए उसने दाऊद का पूरा-पूरा साथ दिया। (1 शमूएल 23:16-18) इस तरह अगर हम परमेश्‍वर की इच्छा बखूबी समझकर उसके मुताबिक चलेंगे, तो हम ‘अपने आप को जैसा समझना चाहिए, उस से बढ़कर कभी नहीं समझेंगे।’—रोमियों 12:3.

यीशु ने नम्रता और अपनी हद के अंदर रहने के बारे में बहुत बढ़िया सबक सिखाया था। उसने अपने चेलों को एक दृष्टांत देते हुए कहा कि जब तुम किसी शादी में जाओ तो वहाँ “मुख्य जगह में न बैठना” क्योंकि हो सकता है कि तुमसे भी कोई खास व्यक्‍ति आए तब तुम्हें वहाँ से उठकर सबसे नीची जगह बैठना पड़े और खामखाह शर्मिंदा होना पड़े। यह सबक साफ-साफ समझाते हुए यीशु ने कहा: “जो कोई अपने आप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा; और जो कोई अपने आप को छोटा बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा।” (लूका 14:7-11) यीशु की इस सलाह को मानकर अपने आपको ‘नम्र’ बनाना वाकई बुद्धिमानी की बात होगी।—कुलुस्सियों 3:12; 1 कुरिन्थियों 1:31.

नम्र होने की आशीषें

अगर यहोवा के सेवक अपने को हद से ज़्यादा अहमियत न दें और नम्र रहें तो अपनी सेवकाई में वे सच्ची खुशी पा सकते हैं। जब प्राचीन ‘प्यार से झुंड की रखवाली करते हैं’ तो लोग उनके पास जाने से नहीं हिचकिचाते। (प्रेरितों 20:28, 29, NW) कलीसिया में सभी लोगों के लिए प्राचीनों से दिल खोलकर बात करना आसान हो जाता है और वे उनसे मदद ले पाते हैं। ऐसा करने से कलीसिया में सभी एक-दूसरे के ज़्यादा करीब महसूस करते हैं। उनमें प्रेम, खुशी और भरोसे की भावना बढ़ जाती है।

अपने आपको हद से ज़्यादा अहमियत न देने की बढ़िया आशीष यह है कि हम अच्छे दोस्त बना सकते हैं। अपनी हद को समझने और नम्रता की वज़ह से हम किसी के साथ होड़ लगाने के चक्कर में नहीं रहेंगे, चाहे वह किसी तरह के काम को लेकर हो या चीज़ों के बारे में हो। इन ईश्‍वरीय गुणों के ज़रिए हम दूसरों का लिहाज़ करना सीखते हैं। नतीजा यह होता है कि हम दूसरों का हौसला बढ़ाने या उनकी मदद करने के ज़्यादा काबिल हो जाते हैं। (फिलिप्पियों 2:3, 4) जब हम दूसरों की भलाई करते हैं और जब उन्हें हमारे प्यार का एहसास होता है, तो वे भी हमारे करीब आते हैं। जब आपसी रिश्‍तों में कोई स्वार्थ नहीं होता तब दोस्ती बहुत ही गहरी और मज़बूत होती है। तो देखिए, खुद को जितना समझना चाहिए, जब हम उससे ज़्यादा नहीं समझते तो कितनी बड़ी आशीष मिलती है।—रोमियों 12:10.

अपने बारे में सही नज़रिया अपनाने का फायदा यह होता है कि अगर हमसे गलती हो जाए तो उसे कबूल करना हमारे लिए आसान होता है। (मत्ती 5:23, 24) और हमारी गलती से जिन्हें चोट पहुँची है, उनके साथ मेल-मिलाप करना और उन्हें इज़्ज़त देना भी हमारे लिए आसान हो जाता है। इससे रिश्‍ता फिर से मधुर हो जाता है। मसीही कलीसिया में ज़िम्मेदारी सँभालनेवाले भाई जैसे प्राचीन, अगर नम्र रहें और खुद को हद से ज़्यादा अहमियत न दें तो वे दूसरों की बहुत भलाई कर सकते हैं। (नीतिवचन 3:27; मत्ती 11:29) अगर एक इंसान नम्र है तो उसे चोट पहुँचानेवाले को माफी देना भी आसान हो जाता है। (मत्ती 6:12-15) और जब उसे कभी कोई बुराई नज़र आती है तो वह झट-से बिना सोचे-समझे कुछ कदम नहीं उठाएगा। अगर वह मामला किसी तरह से नहीं सुलझ सकता तो वह यहोवा पर भरोसा रखते हुए सब कुछ उसके हाथ छोड़ देगा।—भजन 37:5; नीतिवचन 3:5, 6.

जब हम अपने आपको बहुत ज़्यादा अहमियत नहीं देते और नम्र होते हैं तो सबसे बड़ी आशीष यह मिलती है कि हम यहोवा का अनुग्रह पाते हैं और उसे खुश करते हैं, क्योंकि लिखा है: “परमेश्‍वर अभिमानियों का साम्हना करता है, परन्तु दीनों पर अनुग्रह करता है।” (1 पतरस 5:5) आइए हम इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि कभी भी अपने आपको ज़रूरत से ज़्यादा अच्छा न समझें, जो एक खतरनाक फंदा है। इसके बजाय, यहोवा की नज़रों में हमारी जो स्थिति है उसे पहचानें और नम्र बनें। जो लोग ‘परमेश्‍वर के साथ नम्रता से चलते’ हैं, उन्हें आगे जाकर बढ़िया आशीषें मिलेंगी।

[पेज 22 पर तसवीर]

योनातन ने नम्रता दिखाते हुए दाऊद का साथ दिया