पूरे समय सेवा करके—यहोवा का एहसान मानना!
जीवन कहानी
पूरे समय सेवा करके—यहोवा का एहसान मानना!
स्टैन्ली ई. रेनॉल्ड्स् की ज़ुबानी
मैं सन् 1910 में लंदन, इंग्लैंड में पैदा हुआ था। पहले विश्वयुद्ध के बाद, मेरे माता-पिता विल्टशर इलाके के एक छोटे-से गाँव वॆस्टबरी ले में बस गए। बचपन में अकसर मेरे दिमाग में यह सवाल पैदा होता था, ‘परमेश्वर कौन है?’ कोई मुझे इसका जवाब नहीं देता था। और मुझे यह कभी समझ नहीं आया कि हमारी छोटी-सी बस्ती में परमेश्वर की उपासना के लिए दो-दो प्रार्थना घर और एक चर्च की ज़रूरत क्यों है।
विश्वयुद्ध शुरू होने के चार साल पहले, सन् 1935 में मैं अपने छोटे भाई, डिक के साथ साइकल पर सवार होकर छुट्टी मनाने के लिए निकल पड़ा। हम इंग्लैंड के दक्षिणी तट पर वेमथ खाड़ी में कैम्पिंग करने गये थे। वहाँ पहुँचने पर ज़ोर की बरसात होने लगी और हम अपने तंबू के अंदर बैठे सोचते रहे कि क्या करें। तभी एक बुज़ुर्ग हमारे पास आए और उन्होंने मुझे बाइबल की समझ देनेवाली तीन किताबें दीं—द हार्प ऑफ गॉड, लाइट I और लाइट II. मैंने ये किताबें ले लीं, मुझे खुशी हुई कि इसी बहाने कुछ बोरियत तो कम होगी। लेकिन उन किताबों ने तो मुझ पर जैसे जादू ही कर दिया, उस समय मैं नहीं जानता था कि इन किताबों में लिखी बातें, हम दोनों भाइयों की ज़िंदगी ही बदल देंगी।
घर लौटकर मैंने माँ को इन किताबों के बारे में बताया। माँ ने कहा कि हमारे गाँव में ही रहनेवाली एक महिला बाइबल के बारे में ऐसी किताबें लोगों को देती हैं। उसका नाम था केट पारसन्स्। उन्हें सब जानते थे क्योंकि काफी उम्र होने पर भी वे एक छोटी-सी मोटरसाइकल पर हमारे इलाके में दूर-दूर तक जाकर लोगों से मिलती थीं। मैं उनसे मिलने गया और उन्होंने खुशी-खुशी मुझे क्रिएशन और रिचिस् किताबें और वॉच टावर संस्था की और भी कई किताबें दे दीं। उन्होंने यह भी बताया कि वे यहोवा की साक्षी हैं।
जब मैंने अपनी बाइबल के साथ ये किताबें पढ़ीं, तो मैं जान गया कि यहोवा ही सच्चा परमेश्वर है और अब मैं उसकी उपासना करना चाहता था। सो मैंने अपने चर्च के पादरी को चिट्ठी लिखकर बताया कि मैं उसका चर्च छोड़ रहा हूँ। और इसके बाद
मैं जॉन और एलिस मूडी के घर होनेवाली सभाओं में जाने लगा। उनका घर वॆस्टबरी में था जो हमारे गाँव के सबसे पास का कस्बा था। उन सभाओं में सिर्फ सात लोग आते थे। सभाओं से पहले और बाद में, केट पारसन्स् हारमोनियम बजाती थीं और हम ज़ोर-ज़ोर से परमेश्वर की स्तुति के गीत गाते थे!शुरूआत के दिन
मुझे इस बात का एहसास हो रहा था कि जिस समय में हम जी रहे हैं वह मानवजाति के इतिहास का बहुत ही खास समय है। मेरी दिली तमन्ना थी कि मत्ती 24:14 में जिस प्रचार काम की भविष्यवाणी की गयी थी उसमें मैं भी हिस्सा लूँ। इसलिए मैंने सिगरेट पीना छोड़ दिया, प्रचार के लिए एक ब्रीफकेस खरीदा और अपने महान परमेश्वर यहोवा को अपना समर्पण किया।
सन् 1936 के अगस्त में, वॉच टावर संस्था के अध्यक्ष जोसेफ एफ. रदरफर्ड, स्कॉटलैंड के ग्लासगो शहर में आए हुए थे और वे “हरमगिदोन” विषय पर भाषण देनेवाले थे। जहाँ मैं रहता था वहाँ से ग्लासगो शहर लगभग 600 किलोमीटर दूर था, फिर भी मैंने वहाँ पहुँचने का और उस अधिवेशन में बपतिस्मा लेने का फैसला कर लिया। मेरे पास थोड़े-से पैसे थे, इसलिए मैंने स्कॉटलैंड की सरहद पर बसे कारलाइल शहर तक ट्रेन से सफर किया और अपनी साइकल भी साथ ले गया। कारलाइल पहुँचने के बाद मैंने उत्तर की ओर 160 किलोमीटर का सफर साइकल से तय किया। वापसी पर भी मैंने ज़्यादातर रास्ता साइकल से तय किया और जब घर पहुँचा तो थककर चूर हो चुका था, मगर आध्यात्मिक तरीके से बहुत ही मज़बूत।
तब से मैं आस-पास के गाँवों में साइकल पर जाकर लोगों को अपने विश्वास के बारे में बताता था। उन दिनों हर साक्षी के पास एक टॆस्टमनी कार्ड हुआ करता था, जिस पर बाइबल का संदेश लिखा हुआ था। प्रचार करते वक्त हम घर के लोगों को वही पढ़ने के लिए दे दिया करते थे। हम अपने साथ फोनोग्राफ भी ले जाते थे और बाइबल के विषयों पर संस्था के अध्यक्ष द्वारा दिए गए भाषणों के रिकॉर्ड लोगों को बजाकर सुनाते थे। और हाँ, हम अपने साथ हमेशा मैगज़ीन बैग * ले जाते थे, जिसे देखकर लोग समझ जाते थे कि हम यहोवा के साक्षी हैं।
युद्ध के दौरान पायनियरिंग करना
सन् 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था। सन् 1940 में मेरे भाई ने बपतिस्मा लिया। हम दोनों ने यह समझा कि पूरे समय प्रचार करनेवालों की बहुत ज़रूरत है। इसलिए हमने पायनियर बनने के लिए अर्ज़ी भर दी। जब हम दोनों को एक साथ ब्रिस्टल पायनियर होम जाकर वहाँ पहले से मौजूद पायनियरों के साथ काम करने के लिए कहा गया तो हमें बहुत खुशी हुई। ब्रिस्टल पायनियर होम में ईडथ पूल, बर्ट फार्मर, टॉम और डॉरथी ब्रिजिस्, बर्नार्ड होटन और कई और पायनियर रहते थे। एक अरसे से हम इन पायनियरों के विश्वास का लोहा मानते आए थे और अब हमें उन्हीं के साथ काम करने का बढ़िया मौका मिल रहा था।
जल्द ही एक छोटी-सी वैन हमें प्रचार में ले जाने आयी। इस गाड़ी के दोनों तरफ बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था, “यहोवा के साक्षी।” गाड़ी चलानेवाला भाई स्टैन्ली जोन्स् था जिसे बाद में मिशनरी बनाकर चीन भेजा गया और वहाँ प्रचार करने की वज़ह से उसे कैद किया गया और सात साल के लिए उसे, सबसे अलग एक कोठरी में बंद रखा गया।
दूसरा विश्वयुद्ध तेज़ी पकड़ता जा रहा था इसलिए हम रात को चैन की नींद नहीं सो पाते थे। हमारे पायनियर होम के चारों तरफ बम बरसते रहते थे, और हमें हर वक्त चौकन्ना रहना पड़ता था कि कहीं कोई ऐसा बम तो नहीं गिराया गया जो फटने पर हर तरफ आग लगा देता है। ब्रिस्टल शहर के मुख्य भाग में एक बहुत ही बढ़िया सम्मेलन रखा गया जिसमें 200 साक्षी आए। हम सम्मेलन के बाद, बमबारी से बचते-बचाते वापस अपने पायनियर होम लौटे जो सम्मेलन के इलाके से काफी सुरक्षित था।
अगली सुबह डिक और मैं वापस शहर गए क्योंकि हम अपना कुछ सामान वहीं छोड़ आए थे। वहाँ ब्रिस्टल की तबाही का नज़ारा देखकर हमारा खून सूख गया। पूरा शहर बमों से उड़ा दिया गया था और जलकर राख हो चुका था। पार्क स्ट्रीट, जहाँ हमारा किंग्डम हॉल था मलबे का ढेर बन चुका था जिससे धुंआ निकल रहा था। लेकिन शुक्र है कि हमारे किसी भी भाई-बहन को चोट नहीं आयी और न ही किसी की जान गयी। एक और खुशी की बात यह थी कि हमने पहले ही किंग्डम हॉल से बाइबल की जानकारी देनेवाली किताबें निकालकर कलीसिया के भाई-बहनों के घरों पर रखवा दी थीं। इन दोनों बातों के लिए हमने यहोवा का एहसान माना और उसे धन्यवाद दिया।
आज़ादी जिसकी मैंने उम्मीद नहीं की थी
युद्ध के दौरान, बहुत से भाइयों को कैद हुई थी क्योंकि उन्होंने किसी भी देश की तरफ से लड़ाई में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया था। मैं भी उम्मीद कर रहा था कि जल्द ही मेरी भी आज़ादी इसी तरह छीन ली जाएगी। और दूसरे भाइयों की तरह मुझे भी सेना में भर्ती होने के कागज़ात मिले। उस वक्त, मैं ब्रिस्टल कलीसिया में प्रिसाइडिंग ओवरसियर के नाते सेवा कर रहा था, जिसमें कुल 64 भाई-बहन थे। ब्रिस्टल की ही अदालत में मेरे मुकद्दमे की सुनवाई हुई। भाई एन्थनी बक मेरी पैरवी कर रहे थे। वे पहले जेल के अधिकारी रह चुके थे। वे बड़े ही दिलेर और निडर इंसान थे और बड़े हौसले से बाइबल की सच्चाई लोगों को सुनाते थे। उनकी ज़बरदस्त पैरवी की वज़ह से मुझे ऐसा फैसला सुनाया गया जिसकी मैंने ज़रा भी उम्मीद नहीं की थी। मुझे सेना में भर्ती नहीं होने की पूरी-पूरी छूट दे दी गयी और इस छूट की शर्त यह थी कि मैं पूरे समय प्रचार का काम करता रहूँ और उसे न छोड़ूँ!
यह आज़ादी पाकर मेरी खुशी का ठिकाना न रहा और मैंने पक्का फैसला कर लिया कि इस आज़ादी का मैं पूरा फायदा उठाऊँगा और ज़्यादा-से-ज़्यादा प्रचार करूँगा। इसके बाद मेरे पास एक फोन आया कि लंदन के ब्रांच आफिस के ब्रांच ओवरसियर भाई अल्बर्ट श्रोडर से जाकर मुझे मिलना है। मेरे मन में यह सवाल उठना लाज़मी था कि न जाने मेरे लिए यहोवा की क्या मरज़ी है। मैं हैरान रह गया जब भाई श्रोडर ने मुझे इंग्लैंड के यॉर्कशायर इलाके में सर्किट ओवरसियर की हैसियत से सेवा करने के लिए कहा। इसका मतलब था कि मुझे हर हफ्ते अलग-अलग कलीसियाओं में जाकर भाइयों का हौसला बढ़ाना था और उनकी मदद करनी थी। मुझे लगा कि मैं इस काम के लिए बिलकुल भी काबिल नहीं हूँ, लेकिन मुझे सेना में भर्ती से छूट मिली हुई थी और मैं कहीं भी जाकर प्रचार कर सकता था। इसलिए यहोवा से मिले इस निर्देशन को मानकर मैं बड़ी खुशी से इस काम के लिए निकल पड़ा।
भाई श्रोडर ने हडर्सफील्ड के एक सम्मेलन में मेरा परिचय वहाँ के भाइयों से कराया और अप्रैल 1941 में मैं अपने इस नए काम में जुट गया। इन प्यारे भाइयों को ज़्यादा नज़दीकी से जानने पर मुझे कितनी खुशी मिली इसका मैं बयान नहीं कर सकता! उनका प्यार और उनकी भलाई की वज़ह से मैं इस बात को और अच्छी तरह समझ सका कि यहोवा के लोग दिलो-जान यूहन्ना 13:35.
से उसकी सेवा करते हैं और अपने भाइयों से बेहिसाब प्यार करते हैं।—सेवा करने के और भी मौके मिले
सन् 1941 में लीस्टर शहर के ड मॉन्तफर्ट हॉल में पाँच दिन का एक यादगार अधिवेशन हुआ। उस समय देश में खाने का सामान राशन पर मिलता था और बसें और ट्रेनें भी बहुत कम चल रही थीं। फिर भी अधिवेशन की हाज़िरी बढ़ती गयी और रविवार को बाकी दिनों से ज़्यादा यानी 12,000 लोग हाज़िर हुए। जबकि उस वक्त ब्रिटेन में सिर्फ 11,000 साक्षी ही थे। संस्था के अध्यक्ष का भाषण रिकॉर्ड पर सुनाया गया और चिल्ड्रन किताब रिलीज़ की गयी। यह अधिवेशन ब्रिटेन में यहोवा के सेवकों के इतिहास में एक खास अहमियत रखता है क्योंकि यह दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान आयोजित किया गया था।
इस अधिवेशन के कुछ ही समय बाद मुझे लंदन बेथेल में सेवा करने के लिए बुलाया गया। वहाँ मैंने शिपिंग और पैकिंग विभागों में काम किया और बाद में मुझे देश भर की कलीसियाओं के मामलों की देखरेख करने के लिए आफिस का काम दिया गया।
युद्ध के दौरान लंदन शहर पर दिन-रात हवाई हमले होते रहते थे और बेथेल परिवार को भी इससे काफी परेशानियाँ होती थीं। इसके अलावा, संगठन के ज़िम्मेदार भाइयों से सरकारी अधिकारी आए दिन पूछताछ करते रहते थे। प्राइस ह्यूज़, ईवर्ट चिटी और फ्रैंक प्लैट, इन सभी भाइयों को कैद किया गया क्योंकि उन्होंने युद्ध में हिस्सा लेने से इनकार किया था और आखिरकार अल्बर्ट श्रोडर को वापस अमरीका भेज दिया गया। इन सभी मुश्किलों के बावजूद राज्य के प्रचार का काम बढ़ता रहा और कलीसियाओं की देखभाल होती रही।
गिलियड के लिए चल पड़ा!
जब 1945 में युद्ध खत्म हुआ, तो मैंने गिलियड नामक वॉचटावर बाइबल स्कूल में मिशनरी की ट्रेनिंग पाने के लिए अर्ज़ी भरी और मुझे 1946 में आठवीं क्लास में आने की मंज़ूरी मिली। संस्था ने कई भाइयों के आने का इंतज़ाम किया था, मेरे साथ-साथ टोनी ऑटवुड, स्टैन्ली जोन्स्, हैरल्ड किंग, डॉन रेन्डॆल और स्टैन्ली वुडबर्न जैसे भाई भी जा रहे थे। हमने फोई के कॉर्निश बंदरगाह से अपना सफर शुरू किया। वहीं के एक भाई ने पानी के एक मालवाहक जहाज़ से जाने के लिए हमारी टिकटें ली थीं। वह जहाज़ चीनी मिट्टी ले जा रहा था। हमें जो कमरे दिए गए थे वे बहुत छोटे थे और जहाज़ का डॆक हमेशा पानी से भरा रहता था। जब हम अमरीका में प्रवेश पाने के लिए फिल्डेल्फिया बंदरगाह के नज़दीक पहुँचे तो हमने चैन की साँस ली।
गिलियड स्कूल का कैम्पस, न्यू यॉर्क शहर के उत्तर में साउथ लैंसिंग के बहुत ही खूबसूरत इलाके में था। मुझे यहाँ जो ट्रेनिंग मिली वह मेरे लिए अनमोल है। हमारी क्लास में 18 अलग-अलग देशों से भाई-बहन आए थे। यह पहली बार था कि संस्था ने दूसरे देशों के इतने प्रचारकों को इस स्कूल में शामिल किया था और हम सभी एक-दूसरे के बहुत अच्छे दोस्त बन गए। फिनलैंड से आया एक भाई, काल्ले सालवारा और मैं एक ही कमरे में रहते थे और हम एक-दूसरे के पक्के दोस्त हो गए।
वक्त मानो पंख लगाकर उड़ गया और पाँच महीने खत्म होने पर संस्था के अध्यक्ष, नेथन एच. नॉर ब्रुकलिन मुख्यालय से आए और उन्होंने हमें डिप्लोमा दिए और हमें बताया कि हम कहाँ-कहाँ जा रहे हैं। उन दिनों, विद्यार्थियों को पता नहीं होता था कि उन्हें मिशनरी बनाकर कहाँ भेजा जाएगा। ग्रैजुएशन के कार्यक्रम में ही उन जगहों के नाम बताए जाते थे। मुझे लंदन बेथेल में काम जारी रखने के लिए वापस भेजा गया।
लंदन को वापसी
ब्रिटेन में युद्ध खत्म होने के बाद, कुछ साल तक हमें काफी तकलीफें झेलनी पड़ीं। खाना और बहुत सी दूसरी ज़रूरी चीज़ें, यहाँ तक कि कागज़ भी राशन पर दिया जाता था। लेकिन हमारा गुज़ारा किसी तरह चल गया और यहोवा का काम बढ़ता गया। बेथेल में काम करने के अलावा मैं ज़िला और सर्किट सम्मेलनों में संस्था का प्रतिनिधि बनकर जाता था और कुछ कलीसियाओं में सफरी ओवरसियर के तौर पर जाता था। इन कलीसियाओं में आयरलैंड की कलीसियाएँ भी शामिल थीं। इस दौरान, मुझे यूरोप के भाई-बहनों से और खासकर भाई एरिक फ्रॉस्ट से मिलने का सुनहरा मौका मिला। वे हमें बताते थे कि कैसे उनके साथ नात्ज़ी यातना शिविरों में रहनेवाले भाइयों ने अपना ईमान नहीं छोड़ा और उन्हें कैसी-कैसी यातनाओं से गुज़रना पड़ा। बेथेल में रहकर ही मुझे ये सारी आशीषें मिलीं।
सन् 1952 में मेरी शादी जोन वॆब से हुई। मैं उसे दस साल से जानता था। वह लंदन के उत्तर में वाटफर्ड नगर में स्पेशल पायनियर थी। शादी के बाद मुझे बेथेल छोड़ना पड़ा। लेकिन हम दोनों पूरे समय प्रचार का काम करते रहना चाहते थे इसलिए जब मुझे सर्किट ओवरसियर बनाया गया तो हम दोनों को बहुत खुशी हुई। हमारा पहला सर्किट इंग्लैंड के दक्षिणी तट पर, ससिक्स और हैम्पशाइर इलाकों का था। उन दिनों सर्किट ओवरसियर का काम काफी मुश्किल हुआ करता था। हम ज़्यादातर बस से, साइकल पर या पैदल चलकर अपनी मंज़िल तक पहुँचते थे। कई कलीसियाओं के इलाके बहुत बड़े-बड़े और घर दूर-दूर थे। इन इलाकों तक पहुँचना काफी मुश्किल हुआ करता था, फिर भी साक्षियों की गिनती बढ़ती ही जाती थी।
सन् 1958, न्यू यॉर्क शहर
सन् 1957 में, मुझे लंदन बेथेल से एक बार फिर न्यौता मिला, जिसमें लिखा था: “सन् 1958 में न्यू यॉर्क के यैन्की स्टेडियम और पोलो ग्राऊन्ड्स् में अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन होनेवाले हैं। यहाँ प्रेरितों 2:41.
ब्रांच ऑफिस में भाइयों के आने-जाने का इंतज़ाम करने में क्या आप मदद करना चाहते हैं?” संस्था द्वारा किराये पर लिए गए हवाईजहाज़ और पानी के जहाज़ों में बुकिंग कराने के लिए भाइयों की अर्जियाँ आने लगीं और हम दोनों यह काम सँभालने लगे। यह वह मशहूर ‘डिवाइन विल अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन’ था जिसमें 2,53,922 लोग हाज़िर हुए थे। इस अधिवेशन में, 7,136 लोगों ने बपतिस्मा लेकर यहोवा को किया गया अपना समर्पण जग ज़ाहिर किया। यह गिनती उन लोगों की गिनती से दुगुनी थी जिन्होंने सा.यु. 33 में पिन्तेकुस्त के यादगार मौके पर बपतिस्मा लिया था और जिसका ब्यौरा बाइबल में दिया गया है।—मैं और जोन, भाई नॉर के एहसानमंद हैं, जिन्होंने हमें खुद उस सम्मेलन में हाज़िर होने का न्यौता दिया ताकि हम न्यू यॉर्क शहर में सम्मेलन के लिए 123 देशों से आनेवाले भाइयों की देखभाल कर सकें। इस काम को पूरा करके हम दोनों बहुत खुश थे।
पूरे समय की सेवा की आशीषें
जब हम न्यू यॉर्क से लौटे, तो हम दोबारा सर्किट का काम करने लगे, और जोन के बीमार पड़ने तक करते रहे। जोन को हस्पताल में भर्ती करना पड़ा और मुझे भी हल्का-सा दौरा पड़ा था। इसलिए हम स्पेशल पायनियर बनकर सेवा करने लगे और कुछ समय बाद मुझे फिर से सर्किट ओवरसियर की हैसियत से थोड़ी देर तक काम करने का मौका मिला। आखिरकार हम ब्रिस्टल लौट आए। यहाँ हम अब भी पूरे समय की सेवा कर रहे हैं। मेरा भाई डिक अपने परिवार के साथ यहीं पास रहता है और हम अकसर बैठकर पुरानी यादें ताज़ा करते हैं।
सन् 1971 में आँखों में खराबी आने की वज़ह से मेरी नज़र बहुत कमज़ोर हो गयी। तब से मुझे पढ़ने में बहुत परेशानी होती है, इसलिए जब संस्था की किताबों को टेप रिकॉर्डर पर सुनता हूँ तो इस बढ़िया इंतज़ाम के लिए यहोवा का धन्यवाद करता हूँ। मैं और जोन अब भी लोगों के घर जाकर उनको बाइबल सिखाते हैं और आज तक हमें 40 लोगों को सच्चाई का ज्ञान लेने में मदद करने की आशीष मिली है। इनमें एक परिवार भी है जिसमें सात लोग हैं।
जब हमने 60 से भी ज़्यादा साल पहले अपनी ज़िंदगी यहोवा को समर्पित की थी, तब हमारी यह तमन्ना थी कि हम पूरे समय उसकी सेवा करें और आखिर तक करते रहें। हम कितने एहसानमंद हैं कि आज भी हमारे शरीर में अपने महान परमेश्वर यहोवा की सेवा करने की ताकत है। यही तो एक तरीका है जिससे हम यहोवा का एहसान मान सकते हैं, और उसकी भलाई के लिए और एक साथ खुशी-खुशी जीने की आशीष देने के लिए धन्यवाद कह सकते हैं!
[फुटनोट]
^ यह बैग, कपड़े का एक थैला था जिसे कंधे पर लटकाया जा सकता था। इसे इस तरह बनाया गया था कि इसमें वॉचटावर और कन्सोलेशन (बाद में, अवेक!) पत्रिकाओं की कॉपियाँ रखी जा सकें।
[पेज 25 पर तसवीर]
अपने भाई डिक (बिलकुल बाएँ; डिक खड़ा है) और दूसरे पायनियरों के साथ ब्रिस्टल पायनियर होम के सामने
[पेज 25 पर तसवीर]
सन् 1940 में ब्रिस्टल का पायनियर होम
[पेज 26 पर तसवीरें]
जनवरी 12, 1952 को स्टैन्ली और जोन रेनॉल्ड्स् की शादी के दिन की तस्वीर और उनकी आज की तस्वीर