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सुसमाचार की कहानी—सच्ची या झूठी?

सुसमाचार की कहानी—सच्ची या झूठी?

सुसमाचार की कहानी—सच्ची या झूठी?

यीशु एक ऐसा इंसान था जिसने दुनिया के इतिहास को बदल डाला। दुनिया में शायद ही कोई होगा जिसने यीशु के बारे में न सुना हो। उसके बारे में स्कूलों के अलावा दूसरी कई जगहों पर भी सिखाया जाता है। कई लोग सुसमाचार की किताबों की बहुत कदर करते हैं। उनका मानना है कि उसमें कुछ ऐसे नियम और ऐसी बातें दी गई हैं, जो हमेशा फायदा पहुँचाती हैं। एक ऐसा ही नियम है: “तुम्हारी बात हां की हां, या नहीं की नहीं हो।” (मत्ती 5:37) हो सकता है आपके माता-पिता ने ईसाई न होते हुए भी आपको बचपन में जो कुछ सिखाया वह शायद सुसमाचार की किताबों से ही था।

सुसमाचार की किताबों को पढ़कर ही करोड़ों लोग यीशु को जान सके और उसके चेले बन सके। यीशु की खातिर बहुत-से लोग तो अपनी जान भी कुरबान करने को तैयार थे। इन किताबों ने मुसीबत के वक्‍त लोगों का हौसला बढ़ाया, उनका विश्‍वास मज़बूत किया और उनमें जीने की उम्मीद जगाई। इन किताबों ने जब लोगों पर इतना ज़बरदस्त असर किया तो क्या इनको यूँ ही गलत करार देना ठीक होगा? क्या बिना किसी ठोस आधार के इन किताबों की सच्चाई पर सवाल उठाना सही होगा?

हम आपसे गुज़ारिश करते हैं कि आप सुसमाचार की किताबों के बारे में कुछ अहम सवालों पर गौर करें। आप खुद देख सकते हैं कि उन सवालों के बारे में विद्वानों की क्या राय है, हालाँकि उनमें से कुछ ईसाई नहीं हैं। इससे आपको एक सही नतीजे पर पहुँचने में मदद मिलेगी कि आपको उन किताबों पर यकीन करना चाहिए या नहीं।

कुछ ज़रूरी सवाल

क्या यीशु की कहानी चतुराई से गढ़कर लिखी गई थी?

जीसस सेमिनार का संस्थापक, रॉबर्ट फंक कहता है: “मत्ती, मरकुस, लूका और यूहन्‍ना ने यीशु की मौत के बाद उसकी कहानी को इस तरह बनाकर लिखा ताकि ईसाई लोग उसे मान सकें।” लेकिन सच तो यह है कि इन किताबों को लिखे जाने के वक्‍त यीशु के कई चश्‍मदीद गवाह ज़िंदा थे, उन्होंने खुद यीशु के उपदेश सुने थे, अपनी आँखों से उसके चमत्कार देखे और उसे दोबारा ज़िंदा होने के बाद भी देखा था। मगर उन्होंने कभी सुसमाचार की किताबों की सच्चाई पर कोई सवाल नहीं उठाया।

अब यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान की बात ही लीजिए। इन घटनाओं का ज़िक्र न सिर्फ सुसमाचार की किताबों में बल्कि कुरिन्थियों को लिखी पौलुस की पहली पत्री में भी है। पौलुस ने लिखा था: “इसी कारण मैं ने सब से पहिले तुम्हें वही बात पहुंचा दी, जो मुझे पहुंची थी, कि पवित्र शास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया। और गाड़ा गया; और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा। और कैफा को तब बारहों को दिखाई दिया। फिर पांच सौ से अधिक भाइयों को एक साथ दिखाई दिया, जिन में से बहुतेरे अब तक वर्तमान हैं पर कितने सो गए। फिर याकूब को दिखाई दिया तब सब प्रेरितों को दिखाई दिया। और सब के बाद मुझ को भी दिखाई दिया, जो मानो अधूरे दिनों का जन्मा हूं।” (1 कुरिन्थियों 15:3-8) ये सभी लोग यीशु की ज़िंदगी की कई घटनाओं के चश्‍मदीद गवाह थे।

विद्वानों का कहना है कि सुसमाचार के लेखकों ने पहली सदी के दौरान यीशु के बारे में कुछ कहानियाँ चतुराई से गढ़कर लिख दी थी। लेकिन यह बात गलत है। यीशु के बारे में झूठी कहानियाँ बाद में सा.यु. दूसरी सदी से लिखी जाने लगीं। और ये कहानियाँ उन लोगों ने लिखी थीं जो मसीही धर्म से भटक चुके थे क्योंकि वे यीशु के बारे में गलत जानकारी फैलाना चाहते थे।—प्रेरितों 20:28-30.

क्या यीशु की कहानी पौराणिक कथा है?

लेखक और विद्वान, सी. एस. लूइस ने कहा कि वह यह मानने के लिए हरगिज़ तैयार नहीं कि यीशु की कहानी बस एक पौराणिक कथा है। उसने लिखा: “मैं पुरानी किताबों का अध्ययन करनेवाला एक इतिहासकार हूँ और मैंने सुसमाचार की पुस्तकों की काफी जाँच-परख की है। अब मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूँ कि ये पौराणिक कथाएँ हो ही नहीं सकतीं। . . . पौराणिक कथाओं में तो हर छोटी बात को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है मगर सुसमाचार की किताबें उनसे बिलकुल अलग हैं। और देखा जाए तो यीशु के बारे में कई बातों का ज़िक्र नहीं है।” एक जाने-माने इतिहासकार, एच. जी. वैल्स ने, जो ईसाई नहीं था, यह कहा: “सुसमाचार के चारों लेखकों ने जिस तरीके से यीशु की जीवनी पेश की, उससे ज़ाहिर होता है कि उनकी बात पर शक करने का सवाल ही नहीं उठता।”

मिसाल के लिए, यीशु के दोबारा ज़िंदा होने की घटना पर गौर कीजिए। अगर यह एक पौराणिक कथा होती, तो लेखक ने उसे बहुत बढ़ा-चढ़ाकर लिख दिया होता, जैसे जब वह दोबारा ज़िंदा हुआ तो वह नज़ारा देखने लायक था, उसके चेहरे पर ऐसा तेज था कि लोगों की आँखें चुँधिया गईं, उसके दर्शन के लिए लोग दौड़े चले आए, फिर उसने एक बहुत ही ज़बरदस्त भाषण दिया, वगैरह, वगैरह। मगर सुसमाचार के लेखकों ने ऐसा कुछ नहीं लिखा। उन्होंने सिर्फ सच्चाई पेश की कि वह अपने शिष्यों के सामने एक आम इंसान के तौर पर प्रकट हुआ। फिर उसने उनसे पूछा: “हे बालको, क्या तुम्हारे पास कुछ खाने को है?” (यूहन्‍ना 21:5) विद्वान, ग्रेग ईस्टरब्रुक कहते हैं: “इस तरह की जानकारी से साबित होता है कि सुसमाचार की किताबों में पौराणिक कथाएँ नहीं, बल्कि सच्चाई है।

इतना ही नहीं, ये किताबें उस समय लिखी गई थीं, जब यहूदियों में हर छोटी-छोटी बात की सही जानकारी देने का चलन था। धर्म-गुरू तो अपनी शिक्षाएँ मुँह-ज़बानी याद करके सिखाया करते थे। ऐसे समय में सुसमाचार के लेखक यीशु की कहानी को गढ़कर नहीं लिख सकते।

अगर सुसमाचार की किताबों में दी गई घटनाएँ पौराणिक कथाएँ हैं, तो उन्हें यीशु की मौत के बाद चंद सालों में ही कैसे लिख दिया गया?

यीशु की मृत्यु सा.यु. 33 में हुई थी। और सबूतों से पता चलता है कि सुसमाचार की किताबें सा.यु. 41 और 98 के बीच लिखी गईं थीं। इसका मतलब है कि उसकी मौत के बाद कुछ ही समय के अंदर उसकी जीवनी लिख दी गई थी। इससे साबित होता है कि यीशु की कहानी कोई पौराणिक कथा नहीं हो सकती क्योंकि पौराणिक कथाओं को गढ़कर रूप देने में काफी समय लगता है। अब यूनानी कवि, होमर की रचना, लियाद और ओडिसी की ही बात लीजिए। कुछ लोगों का मानना है कि इन पौराणिक कथाओं को गढ़कर रूप देने में सैकड़ों साल लगे। लेकिन सुसमाचार की किताबों के बारे में क्या?

जाने-माने इतिहासकार, विल ड्यूरेंट ने अपनी किताब सीसर एंड क्राइस्ट में लिखा: “अगर हम कहें कि कुछ मामूली आदमियों ने मिलकर यह कहानी बनाकर लिखी कि यीशु एक ऐसा इंसान था जिसने लोगों की ज़िंदगी बदल दी, उसके आदर्श बहुत ऊँचे थे, उसने इंसान को प्यार से जीना सिखाया, तो उनका ऐसा लिखना वाकई एक बड़ा चमत्कार होगा, सुसमाचार की किताबों में बताए गए किसी भी चमत्कार से भी बड़ा। दरअसल मसीह की जीवनी पर दो सदियों तक गहरा अध्ययन करने के बाद देखा गया कि उसकी ज़िंदगी, शख्सियत और शिक्षाओं के बारे में आज हमारे पास जो भी जानकारी है, वह बिलकुल स्पष्ट और सही है और इसका पश्‍चिम के समाज पर ज़बरदस्त असर पड़ा है।”

क्या सुसमाचार के लेखकों ने यीशु की कहानी बदल दी?

कुछ विद्वानों का कहना है कि सुसमाचार के लेखकों ने यीशु के बारे में कुछ बातें बढ़ा-चढ़ाकर लिखीं और कुछ छिपा लीं ताकि ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग ईसाई धर्म में आ जाएँ। लेकिन इन किताबों का ध्यान से अध्ययन करने पर पता चलता है कि ऐसा हरगिज़ नहीं हुआ है। अगर लोगों को ईसाई बनाने के मकसद से ये किताबें लिखी गई होती तो इनमें यहूदियों और गैर-यहूदियों की खामियों का ज़िक्र क्यों किया गया होता?

मिसाल के तौर पर, मत्ती 6:5-7 में ज़िक्र है कि यीशु ने यहूदी धर्म-गुरुओं के कपट के बारे में क्या कहा: “जब तू प्रार्थना करे, तो कपटियों के समान न हो क्योंकि लोगों को दिखाने के लिये सभाओं में और सड़कों की मोड़ों पर खड़े होकर प्रार्थना करना उन को अच्छा लगता है; मैं तुम से सच कहता हूं, कि वे अपना प्रतिफल पा चुके।” यीशु ने गैर-यहूदियों के बारे में भी ऐसा कहा: “प्रार्थना करते समय अन्यजातियों की नाईं बक बक न करो; क्योंकि वे समझते हैं कि उनके बहुत बोलने से उन की सुनी जाएगी।” अगर सुसमाचार के लेखकों का मकसद लोगों का धर्म-परिवर्तन करना होता तो वे यीशु की ऐसी बातों को लिखते? इससे पता चलता है कि उनका मकसद था, यीशु की शिक्षाओं को सही-सही दर्ज करना।

साथ ही इन किताबों में दी गई उस घटना पर गौर कीजिए जिसमें बताया गया है कि यीशु के दोबारा ज़िंदा होने की खबर सबसे पहले स्त्रियों ने दी थी। यीशु की कब्र पर उससे मिलने कुछ स्त्रियाँ आईं थीं और उन्होंने कब्र को खाली पड़ी देखा। (मरकुस 16:1-8) ग्रेग ईस्टरब्रुक के मुताबिक “पुराने ज़माने में पूरब के देशों में स्त्रियों की बात पर कोई यकीन नहीं करता था जबकि पुरुषों की बात को काफी मान्यता दी जाती थी। अगर दो पुरुष किसी स्त्री पर व्यभिचार करने का आरोप लगाते तो उनकी गवाही पर विश्‍वास किया जाता था जबकि स्त्रियाँ पुरुषों को कभी दोषी नहीं ठहरा सकती थीं।” यहाँ तक कि यीशु के शिष्य भी स्त्रियों पर यकीन नहीं करते थे! (लूका 24:11) इसलिए यह कहना गलत होगा कि लेखकों ने इस घटना को अपनी तरफ से बनाकर लिखा था।

कुछ लोगों का कहना है कि दरअसल पौलुस और पहली सदी के लेखकों ने अपने विचारों को बड़ी चालाकी से ऐसा लिखा मानो यीशु ने ही वे बातें कही हों। लेकिन अगर यह बात सच है तो सुसमाचार की किताबों और यूनानी शास्त्र की बाकी पत्रियों में काफी बातें एक जैसी होनी चाहिए। मगर ऐसा नहीं है। मिसाल के लिए, यीशु के दृष्टांतों का ज़िक्र सुसमाचार की किताबों को छोड़ बाकी किताबों में नहीं है। इसलिए हम कह सकते हैं कि सुसमाचार की किताबों में दी गई यीशु की जीवनी चतुराई से गढ़कर लिखी गई कहानी नहीं है।

सुसमाचार की किताबों में जो मत-भेद दिखाई देते हैं, उनके बारे में क्या?

बहुत समय से विद्वानों ने दावा किया है कि सुसमाचार की किताबों में आपस में काफी मतभेद है। इतिहासकार ड्यूरेंट ने ठान लिया कि वह खुद इन किताबों का अध्ययन करके देखेगा कि क्या उनमें कोई मतभेद है। उसने कहा कि इन किताबों को पढ़ने पर हालाँकि लगता है कि उनमें कुछ मतभेद है मगर फिर भी “ये मतभेद बहुत ही छोटी-छोटी बातों पर हैं जबकि विचारों में ज़रा भी मतभेद नहीं है; मोटे तौर पर देखा जाए तो मत्ती, मरकुस और लूका मिलकर एक ही बात कहते हैं और मसीह के बारे में सही-सही बताते हैं।”

सुसमाचार की किताबों में जो मतभेद नज़र आते हैं, उन्हें बड़ी आसानी से दूर किया जा सकता है। अब मत्ती 8:5 की ही बात लीजिए जहाँ बताया गया है कि “एक सूबेदार ने उसके [यीशु के] पास आकर उस से बिनती की” कि वह उसके सेवक को चंगा कर दे। यही बात लूका 7:3 में भी दी गई है, मगर वहाँ यह नहीं कहा गया है कि सूबेदार खुद यीशु के पास गया बल्कि यह कहा गया है कि उसने “यहूदियों के कई पुरनियों को उस से यह बिनती करने को उसके पास भेजा, कि आकर मेरे दास को चंगा कर।” दरअसल यीशु के पास अफसर खुद नहीं गया था बल्कि उसने पुरनियों को ही भेजा था। मगर मत्ती इसलिए कहता है कि सूबेदार ने खुद उसके पास आकर बिनती की क्योंकि उस सूबेदार ने पुरनियों के ज़रिए यीशु से बिनती की यानी सूबेदार की जगह पुरनियों ने बात की। यह बस एक मिसाल है कि किस तरह इन किताबों में दिखनेवाले अंतर को आसानी से दूर किया जा सकता है।

कुछ विद्वानों का दावा है कि सुसमाचार की कहानी को सच्चा इतिहास कहने के लिए हमारे पास काफी सबूत नहीं हैं। मगर क्या यह सच है? ड्यूरेंट कहता है: “दरअसल चर्च के विद्वानों ने सुसमाचार की कहानी को परखने के लिए इतने कड़े नियम बना दिए हैं कि अगर उन्हीं नियमों से किसी और किताब की सच्चाई परखें तो वह बिलकुल झूठी साबित होगी और हम्मुरबी, दाऊद और सुकरात जैसी सैकड़ों महान हस्तियों की जीवनी बस एक मनगढ़ंत कहानी साबित होगी। सुसमाचार के लेखकों में खुद कई कमज़ोरियाँ थीं, मगर फिर भी उन्होंने अपनी कमज़ोरियों को छिपाया नहीं बल्कि साफ-साफ बताया। उन्होंने कुछ ऐसी कमज़ोरियों का ज़िक्र किया जैसे, परमेश्‍वर के राज्य में ऊँचा पद पाने के लिए प्रेरितों के बीच एक-दूसरे से आगे बढ़ निकलने की भावना, यीशु की गिरफ्तारी के बाद उनका भाग जाना, पतरस द्वारा यीशु को ठुकराना . . .। ऐसी घटनाओं से सुसमाचार की कहानी पर शक करने का सवाल ही नहीं उठता।”

क्या आज के ईसाई लोगों के चालचलन से यीशु की पहचान होती है?

जीसस सेमिनार में यह घोषणा की गई थी कि उस सेमिनार में सुसमाचार की किताबों पर जो भी रिसर्च की जाती है उसका “चर्च से कोई नाता नहीं है।” इतिहासकार वैल्स कहता है कि सुसमाचार की किताबों में बताई गई यीशु की शिक्षाओं और ईसाईजगत की शिक्षाओं के बीच ज़मीन-आसमान का फर्क है। उसने लिखा: “आज ईसाई धर्म में त्रियेक की शिक्षा दी जाती है जबकि यीशु ने कभी अपने प्रेरितों से इसका ज़िक्र तक नहीं किया था . . . ना ही उसने अपनी माँ, मरियम को पूजने की आज्ञा दी मगर आज ईसाई उसकी भी पूजा कर रहे हैं। यह दरअसल पुराने ज़माने के स्वर्ग की देवी आइसिस की पूजा से संबधित है। ऐसी कई झूठी शिक्षाएँ आज ईसाई धर्म में खूब देखने को मिलती हैं।” इसलिए ईसाईजगत की शिक्षाओं के आधार पर सुसमाचार की किताबों की सच्चाई परखने की कोशिश करना गलत होगा।

आपका फैसला क्या है?

इतने सारे सबूतों पर विचार करने के बाद, आप क्या सोचते हैं? क्या यह कहना ठीक होगा कि यीशु की जीवनी बस मनगढ़ंत कहानी है? कई लोगों ने देखा है कि सुसमाचार की किताबों की सच्चाई पर उठाए गए सवाल बिलकुल बेबुनियाद हैं। इस बारे में आपको अपनी राय कायम करने के लिए सुसमाचार की किताबों को ध्यान से और खुले मन से पढ़ना होगा। (प्रेरितों 17:11) फिर आप देख सकेंगे कि इन किताबों में कोई मतभेद नहीं है, उनमें कोई भी बात छिपाई नहीं गई है और यीशु के बारे में एकदम सही-सही जानकारी दी गई है। तब आप यकीन कर सकते हैं कि यीशु की कहानी वाकई सच्ची है। *

अगर आप बाइबल का ध्यान से अध्ययन करेंगे और उस पर अमल करेंगे तो आप एक बेहतरीन ज़िंदगी जी सकेंगे। (यूहन्‍ना 6:68) खासकर सुसमाचार की किताबों में दी गई यीशु की शिक्षाओं को मानने से। साथ ही आप सीख सकते हैं कि परमेश्‍वर की आज्ञा माननेवालों को किस तरह एक उज्जवल भविष्य मिलनेवाला है।—यूहन्‍ना 3:16; 17:3, 17.

[फुटनोट]

^ द बाइबल—गॉड्‌स वर्ड ऑर मैन्स? (अँग्रेज़ी) के अध्याय 5 से 7 और ब्रोशर, सब लोगों के लिए एक किताब देखिए। इस किताब और ब्रोशर को वॉच टावर बाइबल एण्ड ट्रैक्ट सोसाइटी ने प्रकाशित किया है।

सच्ची गवाही का सबूत

कुछ साल पहले ऑस्ट्रेलिया के एक रिपोर्टर ने, जो पहले बाइबल का खंडन करता था, यह कहा: “ज़िंदगी में पहली बार मैंने एक रिपोर्टर का फर्ज़ निभाया: मैंने सबूतों की जाँच की। . . . फिर मैं यह देखकर दंग रह गया कि [सुसमाचार की किताबों में] जिन घटनाओं को मैं पढ़ रहा था, वे काल्पनिक कहानियाँ नहीं बल्कि हकीकत में हुई घटनाएँ थीं। उनको ऐसे लोगों ने लिखा जो यीशु के साथ रहे थे या उसके चश्‍मदीद गवाहों से सुना था। . . . चश्‍मदीद गवाहों की बात की अपनी एक पहचान होती है और यह हम सुसमाचार की किताबों में देखते हैं।”

उसी तरह ऑकलैंड यूनिवर्सिटी में पुराने ग्रंथों के प्रॉफेसर, ई. एम. ब्लॉक्‌लॉक ने कहा: “मैं एक इतिहासकार होने का दावा करता हूँ क्योंकि मैं हर ग्रंथ का अध्ययन एक इतिहासकार की तरह करता हूँ। मैं आपको यकीन दिला सकता हूँ कि मसीह की ज़िंदगी, मौत और पुनरुत्थान के बारे में इतने सारे सबूत हैं, जितने इतिहास की किसी और घटना के बारे में नहीं हैं।”

[पेज 8 पर नक्शे/तसवीरें]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

फीनीके

गलील

यरदन नदी

यहूदिया

[तसवीरें]

“मसीह की ज़िंदगी, मौत और पुनरुत्थान के बारे में इतने सारे सबूत हैं, जितने इतिहास की किसी और घटना के बारे में नहीं हैं।”प्रोफेसर ई. एम. ब्लॉक्‌लॉक

[चित्र का श्रेय]

बैकग्राऊँड में दिए गए नक्शे: Based on a map copyrighted by Pictorial Archive (Near Eastern History) Est. and Survey of Israel.