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शर्मीलापन दूर करने में मुझे मदद मिली

शर्मीलापन दूर करने में मुझे मदद मिली

जीवन कहानी

शर्मीलापन दूर करने में मुझे मदद मिली

रूथ एल. अलरिक—की ज़ुबानी

उस दिन प्रचार में एक पादरी हमारे वॉच टावर बाइबल एन्ड ट्रैक्ट सोसाइटी के पहले अध्यक्ष, भाई चार्ल्स टी. रस्सल पर झूठे इल्ज़ाम लगाए जा रहा था। यह सुनकर मैं उसके दरवाज़े पर ही फूट-फूटकर रोने लगी। लेकिन मैं इतना क्यों रोने लगी, क्या आप इसके पीछे की कहानी जानना चाहेंगे? आइए मैं आपको शुरू से बताऊँ।

मैं 1910 में, अमरीका के नब्रस्का शहर में, एक फार्म में पैदा हुई थी। परिवार के सभी लोग परमेश्‍वर में बड़ी श्रद्धा रखते थे। हम हर रोज़ सुबह और शाम, खाने के बाद बाइबल पढ़ते थे। पिताजी विनसाइड शहर के मैथोडिस्ट चर्च में जाते थे और वहाँ संडे-स्कूल के सुपरिन्टेंडेंट थे। विनसाइड एक छोटा-सा कस्बा था जो हमारे फार्म से करीब छः किलोमीटर दूर था। हमारे पास एक घोड़ा-गाड़ी थी। इसलिए मौसम चाहे जैसा भी हो, पूरा परिवार घोड़ा-गाड़ी में बैठकर हर रविवार सुबह चर्च ज़रूर जाता था।

जब मैं आठ बरस की थी तब मेरे छोटे भाई को पोलियो हो गया। माँ उसे एक हेल्थ-सॆंटर में इलाज के लिए आयोवा शहर ले गई। माँ ने वहाँ जी-जान से उसकी सेवा की, फिर भी वह बच न सका। इसी बीच माँ की मुलाकात एक स्त्री से हुई जो यहोवा की साक्षी थी। उस समय यहोवा के साक्षियों को बाइबल विद्यार्थी कहा जाता था। माँ ने उससे कई विषयों पर बातचीत की थी और कई बार वह उनकी सभाओं में भी गई थी।

जब माँ आयोवा से घर वापस आई तो वह स्टडीज़ इन द स्क्रिप्चर्स की कुछ किताबें भी साथ लायी, जिन्हें वॉच टावर सोसाइटी ने प्रकाशित किया था। उसे पढ़ने के बाद माँ को यकीन हो गया कि बाइबल विद्यार्थी जो सिखा रहे हैं, वही सच है और अमर आत्मा की शिक्षा, दुष्टों का नर्क में हमेशा-हमेशा के लिए तड़पना, ये सभी बातें बिलकुल बकवास हैं।—उत्पत्ति 2:7; सभोपदेशक 9:5, 10; यहेजकेल 18:4.

मगर पिताजी को बाइबल विद्यार्थियों की बातें अच्छी नहीं लगीं। इसलिए वे माँ को सभाओं में नहीं जाने देते थे। और मुझे और क्लारन्स भैया को हमेशा अपने साथ चर्च ले जाते थे। मगर जब कभी पिताजी घर में नहीं होते, तब माँ हमारे साथ बाइबल का अध्ययन करती थी। इसका फायदा यह हुआ कि हमें भी साफ पता चला कि कौन सच्चाई सिखाता है, चर्च या बाइबल-विद्यार्थी।

क्लारन्स भैया और मैं तो हमेशा ही संडे-स्कूल में जाते थे। वहाँ भैया टीचर से कुछ सवाल पूछते थे, मगर टीचर जवाब नहीं दे पाती थी। जब घर आकर हम इसके बारे में माँ को बताते, तो उन्हीं सवालों पर माँ के साथ काफी देर तक चर्चा होती। मैंने देखा कि माँ जो बताती थी, उसमें कितनी सच्चाई है! इसलिए मैंने धीरे-धीरे चर्च जाना ही छोड़ दिया। मैं माँ के साथ बाइबल विद्यार्थियों की सभाओं में जाने लगी और फिर बाद में भैया भी हमारे साथ आने लगे।

मेरा शर्मीलापन

सितंबर 1922 में, माँ और मैं सीडर पॉइंट ओहायो में बाइबल विद्यार्थियों के अधिवेशन में गए। हम उस अधिवेशन को कभी भूल नहीं सकते। मुझे आज भी अच्छी तरह याद है जब वॉच टावर सोसाइटी के अध्यक्ष, भाई जोसेफ एफ. रदरफर्ड राज्य का प्रचार करने के लिए उस अधिवेशन में मौजूद 18,000 लोगों का जोश बढ़ा रहे थे, तब कैसे एक बहुत बड़ा बैनर खोला गया जिस पर लिखा था: “राजा और उसके राज्य की घोषणा करो।” मुझ पर इसका ज़बरदस्त असर हुआ। मुझे भी यह एहसास हुआ कि मुझे जल्द-से-जल्द और ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों तक परमेश्‍वर के राज्य का ज़रूरी संदेश पहुँचाना है।—मत्ती 6:9, 10; 24:14.

सन्‌ 1922 से 1928 तक जितने अधिवेशन हुए थे, उन सब में एक-एक संकल्प लिया गया था। इन्हें बाद में ट्रैक्टों में भी छापा गया। बाइबल विद्यार्थियों ने इन ट्रैक्टों की करोड़ों कॉपियाँ दुनिया भर में बाँटी। मैं भी बड़ी तेज़ी से एक घर से दूसरे घर जाकर ट्रैक्ट बाँट रही थी। मैं बहुत ही लंबी और दुबली थी इसलिए सभी भाई-बहन मुझे ग्रेहाउंड (कुत्ते की एक नस्ल जो दुबला होता है और बहुत तेज़ दौड़ता है) कहकर बुलाने लगे। ट्रैक्ट बाँटने में तो मुझे बड़ा मज़ा आता था, मगर जब घर-घर जाकर लोगों से बातचीत करना होता, तो डर के मारे पसीने छूटने लगते।

मैं इतनी शर्मीली थी कि पूछो मत! माँ हर साल बहुत-से रिश्‍तेदारों को एक-साथ घर पर बुलाती थी। मैं उन्हें देखकर इतनी हदस जाती कि अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकलती। एक बार माँ उनके साथ पूरे परिवार का एक फोटो खींचना चाहती थी, इसलिए उसने मुझे भी बाहर बुलाया। मगर मैं बाहर आने का नाम ही नहीं ले रही थी। तब माँ सबके सामने मुझे घसीटते हुए बाहर लायी और मैं ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाए जा रही थी।

लेकिन वह दिन भी आया जब मैंने ठान लिया कि मुझे अपना शर्मीलापन दूर करना ही होगा। इसलिए मैंने अपने बैग में बाइबल-साहित्य डाले और सोचा कि प्रचार में निकलूँ। मगर मेरा दिल कहने लगा, “नहीं, मुझसे नहीं होगा।” लेकिन फिर मैं अपनी हिम्मत बंधाते हुए कहती, “मुझे करना ही होगा।” और आखिरकार मैं अपने मकसद में कामयाब हो गई। जब मैं प्रचार से लौटी तो मुझे इतनी खुशी हुई कि आखिर मैंने इस काम के लिए हिम्मत जुटा ही ली। मुझे ज़्यादा खुशी इस बात की हुई कि मैंने प्रचार किया, कैसे किया, वो अलग बात थी। और उसी समय के दौरान मुझे वह पादरी मिला था जिसके दरवाज़े पर मैं फूट-फूटकर रोयी और वहाँ से चली आई। मगर जैसे-जैसे समय गुज़रता गया यहोवा की मदद से, मैं हिम्मत के साथ घर-घर जाकर लोगों से बात करने लगी। और इससे उतनी ही खुशी भी मिलने लगी। फिर 1925 में मैंने यहोवा को समर्पण करके बपतिस्मा लिया।

पायनियरिंग की शुरूआत

जब मैं 18 साल की थी तब मैंने पायनियरिंग शुरू कर दी। मैंने अपने लिए एक कार भी खरीदी, जिसके लिए मुझे मौसी ने पैसे दिए थे। दो साल बाद, 1930 में मुझे और मेरी पायनियर पार्टनर को प्रचार के लिए एक अलग इलाका दिया गया। तब तक क्लारन्स भैया ने भी पायनियरिंग शुरू कर दी थी। फिर कुछ ही समय बाद भैया को न्यू यॉर्क, ब्रुकलिन के बेथेल में सेवा करने का मौका मिल गया।

उस समय तक माँ और पिताजी अलग हो गए थे। इसलिए मैं माँ के साथ ट्रेलर के बने घर में रहने लगी। हम दोनों साथ-साथ पायनियरिंग करते थे। उस समय पूरे अमरीका में महामंदी छायी हुई थी, हर चीज़ का दाम आसमान छू रहा था। ऐसे में पायनियरिंग करना बहुत ही मुश्‍किल था, फिर भी हम पीछे नहीं हटे। हम बाइबल-साहित्य के बदले में लोगों से चूज़े, अंडे और फल या सब्ज़ियाँ लिया करते थे। पुरानी बैट्रियाँ और बेकार अलुमीनियम भी लेते थे और उन्हें बेचकर जो पैसे मिलते, उनसे कार में पॆट्रोल भरते और अपना दूसरा खर्च चलाते। मैंने पैसों की बचत करने के लिए अपनी कार की छोटी-मोटी मरम्मत करना भी सीख लिया था। और हमने देखा कि यहोवा सचमुच अपने वादे का पक्का है क्योंकि जब भी हमें कोई समस्या आती, वह ज़रूर कोई-न-कोई रास्ता दिखा देता।—मत्ती 6:33.

मिशनरी सेवा

सन्‌ 1946 में मुझे वॉच टावर बाइबल स्कूल ऑफ गिलियड के सातवें क्लास के लिए बुलाया गया। अब तक मैंने और माँ ने मिलकर साथ-साथ 15 साल पायनियरिंग किया था, इसलिए अब माँ को अकेले छोड़कर जाना वाकई एक समस्या थी। मगर फिर भी, माँ ने मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा कि तुम ट्रेनिंग के लिए ज़रूर जाओ। इस वज़ह से मैं गिलियड स्कूल में हाज़िर हो पायी। ग्रैज्युएशन के बाद पाइओरिया, इलीनॉए की रहनेवाली मारथा हेस और मैं पार्टनर बने। हमें और दूसरी दो बहनों को एक साल के लिए ओहायो के क्लीवलैंड में प्रचार करने के लिए भेजा गया। इसके बाद हमें दूसरे देश जाना था।

सन्‌ 1947 में मुझे और मारथा को हवाई देश भेजा गया। इस देश में दूसरे देश से आनेवालों के लिए कोई रोक-टोक नहीं थी इसलिए माँ भी हमारे साथ होनोलूलू शहर में आकर रहने लगी। अब माँ बहुत कमज़ोर हो गई थी इसलिए मुझे मिशनरी काम के साथ-साथ माँ की भी देखभाल करनी पड़ती थी। और 1956 में माँ 77 साल की उम्र में गुज़र गयी। जब हम शुरू-शुरू में हवाई आए थे तो वहाँ सिर्फ 130 साक्षी थे, मगर 1956 तक वहाँ एक हज़ार से भी ज़्यादा साक्षी हो गए थे। इसलिए अब वहाँ मिशनरियों की ज़रूरत नहीं थी।

बाद में मुझे और मारथा को वॉच टावर सोसाइटी से एक खत आया, जिसमें हमें पूछा गया कि क्या हम जापान में सेवा करना चाहेंगे? वहाँ जाने में कोई हर्ज़ तो नहीं था, मगर मैं 48 की थी और मारथा 44 साल की। सो, हमें बस यही फिक्र थी कि इस उम्र में हम जापानी भाषा सीखेंगे कैसे। लेकिन फिर भी हमने सब कुछ यहोवा के हाथ छोड़ा और जापान जाने के लिए तैयार हो गए।

सन्‌ 1958 में, हम न्यू यॉर्क शहर के यांकी स्टेडियम और पोलो ग्राउंड्‌स में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन में हाज़िर हुए। और इसके तुरंत बाद हम दोनों समुद्री जहाज़ से टोक्यो के लिए रवाना हो गए। हम योकोहामा बंदरगाह पहुँच ही रहे थे कि बड़े ज़ोर का तूफान आया। मगर फिर भी हम सही-सलामत बंदरगाह पहुँचे। हमे लेने के लिए डॉन और मेबल हैसलॆट, लॉइड और मेल्बा बैरी और दूसरे मिशनरी आए। उस समय जापान में सिर्फ 1,124 साक्षी थे।

हमने तुरंत ही जापानी भाषा सीखनी शुरू कर दी और घर-घर जाकर प्रचार करने लगे। हम जापानी शब्दों को अंग्रेज़ी अक्षरों में लिखते थे, और उन्हीं को पढ़कर सुनाते थे। इसके जवाब में लोग कहते, “योरोशीई देसू” या “कक्को देसू” जिसका मतलब था “ठीक है” या “अच्छी बात है।” लेकिन हम समझ नहीं पाते थे कि उन्हें वाकई दिलचस्पी है या नहीं क्योंकि वे इंकार करने के लिए भी ऐसा ही कहते थे। उन शब्दों का सही अर्थ उनके बोलने के लहज़े से, या उनके चेहरे को देखकर समझा जा सकता था। और यह समझने में हमें काफी समय लगा।

यहोवा की सेवा में मेरे अनुभव

एक दिन मैं मीट्‌सूबीशी कंपनी के क्वार्टर्स में प्रचार के लिए गई। उस समय मुझे जापानी भाषा ठीक से बोलनी नहीं आती थी। वहाँ मैंने 20 साल की एक लड़की से बात की, जिसने काफी दिलचस्पी दिखायी। आगे जाकर उसने बाइबल का अच्छा ज्ञान लिया और 1966 में बपतिस्मा भी ले लिया। एक साल बाद उसने पायनियरिंग शुरू कर दी और जल्द ही वह स्पैश्‍यल पायनियर बन गई। और आज भी वह एक स्पैश्‍यल पायनियर है। जवानी से उसने जिस तरह अपना पूरा समय और पूरी शक्‍ति परमेश्‍वर की सेवा में लगाया है, यह देखकर मुझे बहुत हौसला मिलता है।

जो ईसाई नहीं होते उनके लिए सच्चाई अपनाना वाकई बहुत बड़ी चुनौती होती है। मगर फिर भी जापान में हज़ारों-हज़ार लोगों ने यह चुनौती स्वीकार की है, जिनमें से कुछ लोगों के साथ मैंने भी बाइबल का अध्ययन किया था। उन्होंने अपने धर्म से संबंधित सभी महँगी से महँगी चीज़ें घर से निकालकर फेंक दीं जिन्हें पूर्वजों की उपासना के लिए रखा जाता है। ऐसा करके उन्होंने वाकई बड़ी हिम्मत का काम किया है क्योंकि जब कोई ऐसा करता है तो रिश्‍तेदार समझते हैं कि मृत पूर्वजों का निरादर किया जा रहा है। उनकी यह हिम्मत देखकर हमें पहली सदी के मसीहियों की याद आती है जिन्होंने झूठी उपासना से संबंध रखनेवाली सभी चीज़ों का नाश कर दिया था।—प्रेरितों 19:18-20.

मुझे एक गृहणी याद है जो बाइबल स्टडी करती थी। वह अपने परिवार के साथ टोक्यो के बाहर बस जाने की सोच रही थी। वह ऐसा नया घर चाहती थी, जिसमें झूठे धर्म के किसी भी चीज़ का नामोनिशान तक न हो। उसने इस बारे में अपने पति से बात की और वह भी राज़ी हो गया। तो उसने बहुत खुश होकर यह खबर मुझे सुनायी। तभी उसे याद आया कि उसने एक बड़ा मँहगा संगमरमर का गुलदस्ता भी पैक कर दिया है, जिसे उसने इस अंधविश्‍वास से खरीदा था कि उससे घर में हमेशा खुशहाली होगी। क्योंकि वह अंधविश्‍वास से छुटकारा पाना चाहती थी, इसलिए उसे वह गुलदस्ता रखना ठीक नहीं लगा, और उसने हथौड़े से गुलदस्ते को तोड़कर चकनाचूर कर दिया।

जब मैं इस स्त्री और दूसरे ऐसे भाई-बहनों के बारे में सोचती हूँ कि किस तरह उन्होंने झूठे धर्म से संबंध रखनेवाली महँगी-से-महँगी चीज़ें उठाकर फेंक दी हैं और हिम्मत के साथ यहोवा की सेवा में एक नई ज़िंदगी शुरू की है तो मेरा हौसला बुलंद हो जाता है और मुझे बेहद खुशी मिलती है। मिशनरी के तौर पर जापान में बिताए 40 से भी ज़्यादा साल मेरे लिए वाकई खुशियों भरे थे और इसलिए मैं यहोवा की बहुत शुक्रगुज़ार हूँ।

आज के “करिश्‍मे”

आज भी, कभी-कभी मुझे यह सोचकर हैरानी होती है कि मुझ जैसी शर्मीली लड़की ने परमेश्‍वर की सेवा में सत्तर साल कैसे गुज़ार दिए हैं! मेरे लिए तो यह एक करिश्‍मा ही है! मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा कि मैं अपनी पूरी ज़िंदगी दूसरों को जाकर राज्य-संदेश सुनाने में बिता दूँगी, वह भी एक ऐसा संदेश जिसे ज़्यादातर लोग सुनना पसंद नहीं करते। मगर मैंने अपना शर्मीलापन दूर किया। और सिर्फ मैंने ही नहीं बल्कि सैकड़ों लोगों ने इस कमज़ोरी पर जीत हासिल की। जब मैं 1958 में जापान आयी थी, तब यहाँ सिर्फ हज़ार के लगभग साक्षी थे, लेकिन सभी भाई-बहनों ने काफी मेहनत की, जिनमें मेरी तरह शर्मीले भाई-बहन भी थे इसीलिए तो आज जापान में 2,22,000 से भी ज़्यादा साक्षी हैं!

जब मैं और मारथा जापान आए थे, तो हमें टोक्यो के ब्राँच ऑफिस में रहने के लिए कहा गया था। 1963 में वहीं पर एक और छः महले की बिल्डिंग बनायी गई और तब से हम वहीं रह रहे हैं। उसी साल नवंबर में इसका समर्पण-भाषण हमारे ब्राँच ओवरसियर भाई लॉइड बैरी ने दिया था। उस अवसर पर कुल 163 लोग मौजूद थे जिनमें हम भी थे। उस समय तक जापान में 3,000 साक्षी हो चुके थे।

राज्य के प्रचार काम में जिस तरह से तरक्की होती गई है, यह देखना वाकई बड़ी खुशी की बात है। जापान में 1972 तक कुल 14,000 साक्षी हो गए थे, इसलिए नूमाज़ू शहर में एक नई ब्राँच बनायी गई। लेकिन 1982 में यह संख्या बढ़कर 68,000 हो गयी। इसलिए टोक्यो से 80 किलोमीटर दूर एबीना शहर में एक और बड़ी ब्राँच बनायी गई।

उसी दौरान, टोक्यो शहर में पुरानी ब्राँच की मरम्मत भी की गई। फिर उसे मिशनरी होम बना दिया गया, जिसमें करीब 20 मिशनरी रहते हैं। इन मिशनरियों ने जापान में 40, 50 या उससे भी ज़्यादा साल सेवा की है। मैं और मेरी पार्टनर मारथा हेस भी यहीं रहती हैं। हमारे साथ रहनेवाला एक भाई डॉक्टर है और उसकी पत्नी नर्स है। वे हमारी बहुत अच्छी देखभाल करते हैं। हाल ही में एक और नर्स भी आई है और दिन के समय उसकी मदद के लिए कुछ मसीही बहनें भी आती हैं। एबीना बेथेल परिवार से बारी-बारी से दो सदस्य हमारे लिए खाना बनाने और घर की साफ-सफाई करने के लिए आते हैं। सचमुच, मैंने अपनी ज़िंदगी में यह अनुभव किया है कि यहोवा कितना भला है!—भजन 34:8, 10.

मिशनरी होम के समर्पण के 36 साल बाद, 13 नवंबर, 1999 के दिन, एबीना ब्राँच में बनाई गई नई बिल्डिंगों का समर्पण हुआ। वो सुनहरा दिन मैं कभी भूल नहीं सकती। उस दिन 37 देशों से 4,486 भाई-बहन आए थे। उनमें सैकड़ों ऐसे थे, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी के कई साल परमेश्‍वर की सेवा में बिताए हैं। फिलहाल, एबीना ब्राँच में करीब 650 सदस्य हैं।

आज से करीब 80 साल पहले, जब मैंने घर-घर जाकर प्रचार करना शुरू किया था, तब मैं बहुत ही डरपोक और शर्मीली थी। मगर यहोवा से मुझे हिम्मत मिली। उसने मेरी मदद की जिस वज़ह से मेरा शर्मीलापन दूर हुआ। और आज मैं पूरे यकीन के साथ कह सकती हूँ कि जो इंसान यहोवा पर भरोसा रखेगा, उसे वह अपने काम के लिए ज़रूर इस्तेमाल करेगा, फिर चाहे वह मेरी तरह कितना ही डरपोक और शर्मीला क्यों न हो। मुझे यहोवा के बारे में अजनबियों से बात करके इतनी खुशी मिली है कि मैं उसका बयान नहीं कर सकती!

[पेज 21 पर तसवीर]

माँ और मैं, साथ ही क्लारन्स भैया जो हमसे मिलने बेथेल से आए थे

[पेज 23 पर तसवीर]

न्यू यॉर्क, साउथ लैंसींग में गिलियड के हमारे क्लास के सदस्य बाहर लॉन में पढ़ रहे हैं

[पेज 23 पर तसवीर]

बाएँ: हवाई में, मैं, मारथा हेस और माँ

[पेज 24 पर तसवीर]

दाएँ: टोक्यो मिशनरी होम के सदस्य

[पेज 24 पर तसवीर]

नीचे: मैं और मेरी पार्टनर मारथा हेस

[पेज 25 पर तसवीर]

एबीना में बना नया ब्राँच ऑफिस, जिसे पिछले नवंबर को समर्पित किया गया