लोग अधिकारियों के हक को क्यों नहीं स्वीकारते?
लोग अधिकारियों के हक को क्यों नहीं स्वीकारते?
“पूरी दुनिया में लोग धर्म, सरकार, समाज या राजनीति में अधिकारियों के खिलाफ बगावत करते आए हैं, मगर इस मामले में तुलना करने पर पिछला दशक सबसे आगे होगा।”
यह बात इतिहासकार और फिलॉसफर हाना आरॆंट ने 1960 के दशक के बारे में कही थी जिसको बीते आज तकरीबन 30 साल हो गए हैं। मगर हम देखते हैं कि आज अधिकार रखनेवालों के खिलाफ आवाज़ उठाने का जुनून तो लोगों पर पहले से कहीं ज़्यादा सवार है।
मिसाल के तौर पर, लंदन के द टाइम्स अखबार में हाल ही में यह रिपोर्ट छपी: “शिक्षकों का अपने विद्यार्थियों पर जो हक बनता है, उसे भी कुछ माता-पिता कबूल नहीं करते। जब टीचर विद्यार्थियों को सुधारने के लिए अनुशासन या सज़ा देते हैं, तो माता-पिता इसे पसंद नहीं करते और इसका विरोध करते हैं।” वे अकसर स्कूल में चले आते हैं और शिक्षकों को सिर्फ धमकी ही नहीं देते बल्कि कई बार उन पर हमला भी कर देते हैं।
इस बारे में ब्रिटन के नैशनल एसोसिएशन ऑफ हॆड टीचर्स के एक स्पीकर ने यूँ कहा: “माता-पिता अपनी ज़िम्मेदारी को निभाने के बजाय अपने हक पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं।” माता-पिताओं की ज़िम्मेदारी होती है कि वे अपने बच्चों में टीचरों या दूसरे अधिकारियों के प्रति आदर पैदा करें। मगर वे अपनी ज़िम्मेदारी से मुँह मोड़ लेते हैं। और बच्चे अगर गलती करते भी हैं तब भी वे उन्हें डाँटते-फटकारते नहीं हैं। वे न तो खुद उन्हें अनुशासन देते हैं, ना ही दूसरों को ऐसा करने देते हैं। नतीजा यह होता है कि ऐसे बच्चे खुद अपने “अधिकार” का दावा करने लगते हैं, उन्हें पूरी छूट मिल जाती है और फिर वे न तो अपने माता-पिता की, ना ही टीचरों की सुनते हैं, बल्कि दोनों के अधिकार को तुच्छ समझने लगते हैं। इसका अंजाम? पत्रकार मार्गरॆट ड्रिसकोल कहती हैं, “ऐसे बच्चे बड़े होकर अधिकार के प्रति कोई आदर नहीं दिखाते, साथ ही उन्हें सही-गलत की कोई पहचान नहीं होगी।”
टाइम पत्रिका में एक लेख छपा था जिसका शीर्षक था “लॉस्ट जेनॆरेशन।” उसमें एक मशहूर रैप म्युज़ीशियन ने कुछ ऐसे रूसी जवानों के बारे में कहा जिनको दुनिया में अधिकार के दुरुपयोग के बारे में एहसास हो गया था। उसने कहा: “इस दुनिया में कुछ भी ज़्यादा देर नहीं टिकता, यहाँ बस अन्याय ही अन्याय होता है। ऐसी दुनिया में जन्म लेनेवाला व्यक्ति भला समाज पर कैसे भरोसा कर सकेगा?” समाजवादी मिकाईल टोपालोव ने भी कुछ ऐसा ही कहा: “ये बच्चे बेवकूफ नहीं हैं। उन्होंने अपनी आँखों से देखा है कि सरकार ने उनके माता-पिता से झूठ बोला है, उनके माता-पिता की सारी जमा-पूँजी, यहाँ तक कि उनकी नौकरी भी छीन ली है। तो क्या हम उनसे यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे अधिकारियों पर विश्वास करेंगे और उनकी इज़्ज़त करेंगे?”
मगर ये कहना गलत होगा कि सिर्फ जवान लोगों का ही अधिकार रखनेवालों पर से भरोसा उठ गया है। आज हर किस्म के और हर उम्र के लोग अधिकारियों पर भरोसा नहीं करते हैं। वे अधिकारियों को तुच्छ समझते हैं। तो क्या इसका मतलब यह है कि अधिकार रखनेवाले किसी भी व्यक्ति पर भरोसा नहीं किया जा सकता? ऐसी बात नहीं है। क्योंकि अधिकार रखनेवाले अगर अपना अधिकार सही तरीके से और सोच-समझकर जताएँ, तो इससे हमेशा दूसरों का भला ही होगा। दरअसल, अधिकार शब्द की परिभाषा यूँ की गयी है: “दूसरों के कामों पर प्रतिबंध लगाने, नियंत्रित करने या उनका न्याय करने का हक।” ऐसे अधिकार से समाज को और हर व्यक्ति को फायदा ही होता है। मगर कैसे? इस बारे में अगला लेख और खुलकर समझाएगा।