कटनी से पहले—“खेत” में काम
कटनी से पहले—“खेत” में काम
यीशु ने अभी-अभी गेहूँ और जंगली बीज का दृष्टांत बताया। उस दिन यीशु ने ऐसे कई दृष्टांत बताए थे। दृष्टांत सुनने के बाद लोग अपने-अपने घर लौट गए मगर उसके चेले थोड़ी उलझन में पड़ गए। वे जानते थे कि यीशु सिर्फ लोगों का मन बहलाने के लिए कहानियाँ नहीं बोलता है। उन दृष्टांतों का ज़रूर कोई न कोई मतलब होगा, खासकर गेहूँ और जंगली बीज के दृष्टांत का।
इसलिए मत्ती की किताब के मुताबिक, यीशु के चेले उससे कहते हैं: “खेत के जंगली दाने का दृष्टान्त हमें समझा दे।” तब उस दृष्टांत का मतलब समझाते हुए यीशु उन्हें बताता है कि आगे जाकर पूरी दुनिया में धर्मत्याग फैल जाएगा यानी ऐसे लोग निकलेंगे जो अपने आप को यीशु के चेले तो कहेंगे मगर सच्चाई से भटक चुके होंगे। (मत्ती 13:24-30, 36-38, 43) और आगे जाकर ऐसा ही हुआ। प्रेरित यूहन्ना की मृत्यु के बाद तो धर्मत्याग बड़ी तेज़ी से फैलने लगा। (प्रेरितों 20:29, 30; 2 थिस्सलुनीकियों 2:6-12) इसकी जड़ें चारों तरफ इस कदर फैल गईं कि उस ज़माने के लिए लूका 18:8 में यीशु द्वारा पूछा गया यह सवाल बिलकुल सही लगा: “मनुष्य का पुत्र जब आएगा, तो क्या वह पृथ्वी पर विश्वास पाएगा?”
जब यीशु आता तो “कटनी” का काम यानी गेहूँ-समान मसीहियों को इकट्ठा करने का काम शुरू हो जाता। यह इस बात की भी निशानी होती कि ‘जगत के अन्त’ का समय शुरू हो गया है। तो ताज्जुब की बात नहीं कि 1914 में यीशु के आने के कुछ समय पहले से ही कुछ लोगों में बाइबल की सच्चाई जानने की दिलचस्पी जगी।—मत्ती 13:39.
अगर हम इतिहास के पन्नों पर एक नज़र दौड़ाएँ, तो हम पाते हैं कि खासकर 15वीं शताब्दी से कुछ लोगों में बाइबल का अध्ययन करने का उत्साह बढ़ने लगा। और क्योंकि उस समय हर कहीं बाइबल और बाइबल के इंडैक्स उपलब्ध होने लगे इसलिए नेकदिल इंसानों ने, यहाँ तक कि “जंगली बीज” या ईसाईजगत के कुछ लोगों ने भी बाइबल का ध्यान से अध्ययन करना शुरू कर दिया।
समझ की रोशनी बढ़ती गयी
उन्नीसवीं सदी में ऐसा ही एक नेकदिल इंसान था, हॆनरी ग्रू (1781- 1862)। वह बर्मिंगहैम, इंग्लैंड का रहनेवाला था। 13 साल की उम्र में वह अपने परिवार के साथ अटलांटिक महासागर पार करके जुलाई 8, 1795 में अमरीका पहुँचा। यह परिवार रोड द्वीप के प्रौविडेन्स शहर में जा बसा। उसके माता-पिता ने उसके दिल में बाइबल के लिए गहरा प्यार बिठाया था। नतीजा यह हुआ कि 1807 में 25 साल की उम्र में उसे कनॆटिकट के हार्टफर्द शहर के बैपटिस्ट चर्च का पादरी बनने के लिए बुलाया गया।
उसने अपनी इस ज़िम्मेदारी को पूरी ईमानदारी से निभाया और अपने चर्च के लोगों को बाइबल के मुताबिक जीने में मदद दी। मगर उसका यह भी मानना था कि कलीसिया को शुद्ध रखने के लिए कलीसिया में ऐसे लोगों को नहीं रहने देना चाहिए जो जानबूझकर पाप करते हैं। इसलिए उसे, दूसरे ज़िम्मेदार लोगों के साथ मिलकर ऐसे कई लोगों को चर्च से निकाल (बहिष्कृत) देना पड़ा जो बदचलनी और दूसरे गंदे काम करते थे।
चर्च में कुछ ऐसी और भी समस्याएँ थीं जिनको लेकर हॆनरी परेशान था। जैसे चर्च का आर्थिक कारोबार ऐसे लोग सँभालते थे जो चर्च के सदस्य ही नहीं थे। और चर्च में भजन गाने में भी वे सबसे आगे रहते थे। और-तो-और उन्हें चर्च के ज़रूरी मामलों में अपनी राय ज़ाहिर करने का पूरा हक था और इस तरह कुछ हद तक चर्च की बागडोर उन्हीं के हाथों में थी। मगर ग्रू का यह दृढ़ विश्वास था कि चर्च की बागडोर सिर्फ उन लोगों को सँभालनी चाहिए जो विश्वासी हों क्योंकि बाइबल के मुताबिक हमें संसार के लोगों से कोई नाता नहीं रखना चाहिए। (2 कुरिन्थियों 6:14-18; याकूब 1:27) उसके मुताबिक चर्च में अविश्वासियों द्वारा स्तुति के भजन गाना परमेश्वर की निंदा करने के बराबर है। अपने इस सोच को ज़ाहिर करने की वजह से उसे 1811 में चर्च से निकाल दिया गया। उसी वक्त चर्च के कुछ ऐसे सदस्यों ने भी चर्च छोड़ दिया जो उसकी बातों से सहमत थे।
ईसाईजगत से अलग होना
इसके बाद, हॆनरी ग्रू और उसके साथियों ने अपना एक अलग समूह बनाया, और बाइबल का अध्ययन शुरू किया ताकि वे अपनी ज़िंदगी बाइबल की सलाहों के मुताबिक जी सकें। इस अध्ययन से वे बाइबल की सच्चाई को और बेहतर समझ सके और उन्होंने ईसाईजगत की गलतियों का पर्दाफाश किया। मिसाल के लिए, 1824 में ग्रू ने त्रिएक को गलत साबित करने के लिए बहुत अच्छा तर्क पेश किया जो गौर करने लायक है। उसने लिखा: “ ‘उस दिन या उस घड़ी के विषय में कोई [मनुष्य] नहीं जानता, न स्वर्ग के दूत और न पुत्र; परन्तु केवल पिता।’ (तिरछे टाइप हमारे।) [मरकुस 13:32] गौर करें कि इस वचन में किस तरह उनका दर्जा बताया गया है—मनुष्य, उससे बढ़कर स्वर्गदूत, उससे बढ़कर पुत्र और सबसे बढ़कर पिता। . . . [त्रिएक की शिक्षा] के मुताबिक अगर पिता, वचन और पवित्र आत्मा मिलकर एक परमेश्वर है तो इसका मतलब होगा कि . . . पुत्र को भी, पिता की तरह उस दिन के बारे में मालूम होगा। मगर यह सच नहीं है क्योंकि हमारे प्रभु यीशु ने सिखाया कि केवल पिता को उस दिन के बारे में मालूम है।”
इसके अलावा, ग्रू ने ढोंगी पादरियों और मिलिट्री कमांडरों का भंडाफोड़ किया जो मसीह की सेवा करने का ढोंग रचते थे। 1828 में उसने यह ऐलान किया: “यह क्या ही अजीब बात है कि मसीही अकेले बंद कोठरी में अपने दुश्मनों के लिए दुआ माँगता है और अगले ही पल वह युद्ध भूमि में इन्हीं दुश्मनों पर हथियार चलाकर उनके टुकड़े-टुकड़े करने का हुक्म सुनाता है। दुश्मनों के लिए प्रार्थना करते वक्त तो वह अपने स्वामी यानी यीशु के आदर्श पर चल रहा है, मगर जब वह उन्हीं लोगों का खून बहाता है तब किसके आदर्श पर चल रहा है? यीशु ने तो अपने हत्यारों के लिए प्रार्थना की थी मगर ईसाईयों के मामले में तो बात बिलकुल उलटी है, वे जिनके लिए प्रार्थना करते हैं उन्हीं की हत्या कर देते हैं।”
ग्रू की लिखी यह बात तो और भी चुभनेवाली थी: “हम उस सर्वशक्तिमान परमेश्वर पर कब विश्वास करेंगे जिसे ‘ठट्ठों में नहीं उड़ाया जा सकता?’ हम यह कब समझेंगे कि पवित्र धर्म वह है जो यह माँग करता है कि उसके लोगों का आचरण इतना शुद्ध हो कि उन पर कोई ‘उँगली तक न उठा सके?’ . . . परमेश्वर के पुत्र का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता है कि उसके धर्म में एक तरफ तो लोगों को स्वर्गदूत की तरह भले काम करना सिखाया जाता है, वहीं दूसरी तरफ शैतान को करतूतें करने की भी पूरी छूट दी जाती है।”
अनंत जीवन विरासत में नहीं मिलता
उन दिनों जब रेडियो और टीवी का आविष्कार नहीं हुआ था, अपनी राय लोगों तक पहुँचाने के लिए पैमफ्लेट यानी पर्चों का इस्तेमाल किया जाता था। 1835 के आस-पास ग्रू ने भी एक पैमफ्लेट तैयार किया जिसमें उसने साबित किया कि अमर आत्मा और नरकाग्नि की शिक्षाएँ बाइबल के खिलाफ हैं। उसे लगा कि इन शिक्षाओं से परमेश्वर का अपमान होता है।
इस पैमफ्लेट का वाकई ज़बरदस्त असर पड़नेवाला था। 1837 में, 40 साल के जॉर्ज स्टॉर्ज़ को ट्रामकार में इस पैमफ्लेट की एक कॉपी मिली। वह दरअसल न्यू हैम्पशियर के लबानोन शहर का था मगर अब वह न्यू यॉर्क के यूटिका शहर में रह रहा था।
स्टॉर्ज़ मेथोदिस्ट एपिस्कोपल चर्च का एक पादरी था और लोग उसकी काफी इज़्ज़त करते थे। लेकिन जब उसने पैमफ्लेट पढ़ा तो वह बहुत प्रभावित हुआ क्योंकि उसने देखा कि ईसाईजगत की जिन बुनियादी शिक्षाओं को वह आँख मूँदकर विश्वास करता था, वे दरअसल झूठी हैं और यह कहने के लिए इस पैमफ्लेट में ज़बरदस्त सबूत भी दिए गए हैं। मगर उस वक्त उसे पता नहीं था कि इस पैमफ्लेट को किसने लिखा था, इसलिए उसने अपने आप तीन साल तक इस पैमफ्लेट पर अध्ययन किया और सिर्फ दूसरे पादरियों के साथ इस पर चर्चा की। कुछ सालों बाद यानी 1844 में कहीं जाकर उसकी मुलाकात हॆनरी ग्रू से हुई जिसने उस पैमफ्लेट को लिखा था। उस वक्त दोनों ही पॆन्सिलवेनिया के फिलडेलफिया शहर में रह रहे थे।
जॉर्ज स्टॉर्ज़ जो कुछ भी सीख रहा था उसे कोई झूठा साबित नहीं कर पाया। तब उसे एहसास हुआ कि वह मेथोदिस्ट चर्च में रहकर परमेश्वर की सेवा वफादारी से नहीं कर पाएगा। इसलिए उसने 1840 में चर्च से इस्तीफा दे दिया और न्यू यॉर्क के ऐल्बनी शहर में जा बसा।
सन् 1842 की वसंत ऋतु की शुरूआत में स्टॉर्ज़ ने छः हफ्तों के दौरान छः भाषण दिए, जिनका विषय था: “क्या दुष्ट लोग वाकई अमर हैं?—इस पर छानबीन।” ये भाषण लोगों को इतने अच्छे लगे कि उसने इन भाषणों की एक किताब निकाली और अगले 40 सालों में अमरीका और ग्रेट ब्रिटेन में इस किताब की 2,00,000 कॉपियाँ बाँटी गयी। फिर स्टॉर्ज़ और ग्रू ने मिलकर अमर आत्मा की शिक्षा के खिलाफ कई लोगों के साथ तर्क-वितर्क किए। मगर अगस्त 8, 1862 के दिन फिलडेलफिया
में, ग्रू की मृत्यु हो गयी। उसने मरते दम तक पूरे जोश के साथ प्रचार किया था।ऊपर ज़िक्र किए गए छः भाषण देने के कुछ ही समय बाद स्टॉर्ज़, विलियम मिलर के प्रचार में दिलचस्पी लेने लगा जिसका कहना था कि 1843 में मसीह इस पृथ्वी पर दोबारा आएगा और लोग उसे देख पाएँगे। करीब दो सालों तक, स्टॉर्ज़ ने भी पूरे जोश के साथ उत्तर-पूर्वी अमरीका में इस संदेश का प्रचार किया। लेकिन 1844 के बाद से उसने किसी तारीख को मन में रखकर यीशु के आने की उम्मीद करनी छोड़ दी। उसका बस यह मानना था कि यीशु की वापसी का समय करीब आ रहा है और उस समय यीशु सबका न्याय करेगा। तो उस दिन का सामना करने के लिए सभी मसीहियों को आध्यात्मिक रूप से सतर्क और जागते रहना चाहिए। मगर दूसरी तरफ उसने ऐसे लोगों का भी एतराज़ नहीं किया जो यीशु के आने की तारीख की खोजबीन करते थे। बाद में वह मिलर और उनके साथियों से अलग हो गया क्योंकि उनकी कई शिक्षाएँ बाइबल से नहीं थीं जैसे आत्मा अमर है, पृथ्वी जलकर राख हो जाएगी और जो परमेश्वर से अनजान थे और मर गए उनके लिए अनंत जीवन की कोई आशा नहीं है, वगैरह-वगैरह।
एक प्रेममय परमेश्वर से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं?
एडवेन्टिस्ट चर्च की यह शिक्षा थी कि जो दुष्ट मर गए हैं उनको परमेश्वर ज़िंदा करेगा, सिर्फ इसलिए कि उन्हें दोबारा मौत की सज़ा दे सके। यह शिक्षा स्टॉर्ज़ को बेतुकी लगी क्योंकि बाइबल में इस बात का कोई सबूत नहीं है कि परमेश्वर दुष्टों से बदला लेने के लिए ऐसा करेगा। मगर दूसरी तरफ स्टॉर्ज़ और उसके साथी विश्वास करने लगे कि दुष्टों को ज़िंदा उठाया ही नहीं जाएगा। हालाँकि उन्हें बाइबल के उन वचनों को समझाना मुश्किल लगा जहाँ अधर्मियों के जी उठने का ज़िक्र है मगर उनको इस बात का पूरा यकीन था कि परमेश्वर बहुत प्रेमी है इसलिए यह कहना वाजिब नहीं कि वह दुष्टों को मार डालने के मकसद से ही उन्हें दोबारा ज़िंदा करेगा। इसके बजाय उनको यह मानना ज़्यादा सही लगा कि परमेश्वर अधर्मियों को ज़िंदा ही नहीं करेगा। हालाँकि उस वक्त वे नहीं समझ पाए थे कि इस मामले में परमेश्वर ने क्या ठाना है मगर जल्द ही उनको समझ मिलनेवाली थी।
सन् 1870 में स्टॉर्ज़ बहुत बीमार हो गया और कुछ महीनों के लिए बिलकुल काम नहीं कर सका। इस दौरान उसने उन बातों पर दोबारा विचार किया जो उसने अपने 74 साल के जीवनकाल में सीखी थीं। फिर उसे एहसास हुआ कि वह तो परमेश्वर के मकसद की एक अहम बात को समझने से चूक गया है। परमेश्वर का मकसद इब्राहीम के साथ बाँधी उस वाचा से पता चलती है जब उसने इब्राहीम से वादा किया कि ‘पृथ्वी के सारे घराने आशीष पाएंगे क्योंकि तूने मेरी बात मानी है।’—उत्पत्ति 22:18; प्रेरितों 3:25.
इससे उसके मन में एक नया खयाल आया कि अगर “सारे घराने” को आशीष मिलनी है, तो इसका मतलब है सभी लोगों तक सुसमाचार पहुँचना होगा। लेकिन सवाल यह है कि लाखों लोग जो मर चुके हैं, उनके बारे में क्या? परमेश्वर के वादे के मुताबिक उन्हें आशीष कैसे मिलेगी? फिर स्टॉर्ज़ ने बाइबल की और गहरी जाँच की तब उसने सीखा कि मरे हुए “दुष्टों” में दो वर्ग के लोग शामिल हैं: पहला, जिन्होंने जानबूझकर परमेश्वर के प्रेम को ठुकरा दिया था और दूसरे वर्ग में वे लोग हैं जिन्हें
अपने जीवनकाल में कभी परमेश्वर को जानने का मौका ही नहीं मिला था।स्टॉर्ज़ इस नतीजे पर पहुँचा कि परमेश्वर दूसरे वर्ग के लोगों को ज़िंदा करेगा और उन्हें यीशु मसीह के छुड़ौती बलिदान से फायदा उठाने का एक मौका देगा। तब जो लोग इस बलिदान को कबूल करेंगे उन्हें पृथ्वी पर हमेशा की ज़िंदगी पाने की आशीष मिलेगी। दूसरे शब्दों में कहें तो स्टॉर्ज़ का यह मानना था कि परमेश्वर जिन मरे हुओं को ज़िंदा करेगा उन सभी को हमेशा की ज़िंदगी पाने का एक मौका ज़रूर देगा। मगर जो इस बलिदान को ठुकरा देंगे उन्हें मौत की सज़ा मिलेगी। इस तरह उनकी मौत के लिए आदम नहीं बल्कि वे खुद ज़िम्मेदार होंगे। अब सवाल यह है कि उन लोगों का क्या जो मसीह की वापसी के समय में जी रहे होंगे, उन तक सुसमाचार कैसे पहुँचेगा? अब स्टॉर्ज़ को लगा कि उन लोगों तक पहुँचने के लिए पूरी दुनिया में प्रचार का काम शुरू करना होगा। हालाँकि उसे इस बात का कोई सुराग नहीं था कि यह काम कैसे पूरा होगा लेकिन उसे पक्का विश्वास था कि यह काम ज़रूर होकर रहेगा। उसने लिखा: “जब किसी काम के पूरा होने का कोई सुराग नज़र नहीं आता तो कई लोग कहते हैं कि यह होना नामुमकिन है। मगर क्या परमेश्वर के लिए कोई काम नामुमकिन हो सकता है?”
जॉर्ज स्टॉर्ज़ को उस समय का बेसब्री से इंतज़ार था जब पूरी दुनिया में प्रचार किया जाता। मगर दिसंबर 1879 में न्यू यॉर्क के ब्रुकलिन शहर में उसके अपने ही घर में उसकी मृत्यु हो गयी। उसका घर, बस उस जगह से कुछ ही दूरी पर था जो आगे जाकर दुनिया भर में होनेवाले प्रचार काम का केंद्र बननेवाला था।
समझ की रोशनी, और भी ज़रूरी
आज जिस तरह हमें सच्चाई की अच्छी समझ है क्या उस वक्त हॆनरी ग्रू और जॉर्ज स्टॉर्ज़ को थी? नहीं! वे सच्चाई को जानने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे थे तभी तो स्टॉर्ज़ ने 1847 में कहा: “हम यह न भूलें कि चर्च में जो आध्यात्मिक अंधकार पड़ा है, उससे हम अभी तो बस निकले ही हैं। और इसमें कोई हैरानी की बात नहीं होगी अगर हमें आगे जाकर पता चले कि हम जिन शिक्षाओं को सच मानकर विश्वास कर रहे हैं, उनमें से कुछ दरअसल बाबुल की झूठी शिक्षाएँ हैं।” मिसाल के लिए, ग्रू को इस बात का तो विश्वास था कि यीशु ने बलिदान दिया है मगर वह यह नहीं समझ पाया कि आदम ने जो सिद्ध ज़िंदगी खो दी थी उसे इंसान को वापस दिलाने के लिए यीशु ने अपनी सिद्ध ज़िंदगी कुरबान कर दी थी और इस तरह ‘छुटकारे का बराबर दाम’ चुकाया था। (1 तीमुथियुस 2:6) और यीशु की वापसी के बारे में हॆनरी ग्रू का विश्वास तो बिलकुल गलत था क्योंकि वह मानता था कि यीशु इस पृथ्वी पर आकर शासन करेगा और सब उसे देख पाएँगे। मगर ग्रू ने यहोवा के नाम को पवित्र ठहराए जाने की अहमियत को समझा जो कि वाकई काबिल-ए-तारीफ है। और यह एक ऐसा विषय है जिसमें दूसरी सदी के बाद से बहुत कम लोगों ने दिलचस्पी ली थी।
ग्रू की तरह जॉर्ज स्टॉर्ज़ को भी कुछ अहम बातों की सही समझ नहीं थी। उसने यह तो समझ लिया कि पादरियों की शिक्षाएँ गलत हैं मगर कुछ बातों में वह भी बिलकुल गलत नतीजे पर पहुँच गया। मिसाल के लिए, शैतान के बारे में पादरी जो झूठी शिक्षा देते थे शायद उसको गलत साबित करने की धुन में उसने यह कह डाला कि शैतान है ही नहीं। और त्रिएक के बारे में देखें तो उसे विश्वास था कि यह शिक्षा गलत है मगर वह यह ठीक-ठीक नहीं समझ पाया कि पवित्र आत्मा एक व्यक्ति है या शक्ति। मगर अपनी मौत के कुछ समय पहले उसने इस बात को सही-सही समझा। यीशु की वापसी के बारे में जॉर्ज स्टॉर्ज़ का विश्वास था कि शुरू में यीशु अदृश्य रूप में आएगा मगर
बाद में वह सबको नज़र आएगा। हालाँकि ग्रू और स्टॉर्ज़ की ऐसी कुछ गलत धारणाएँ थी मगर इसमें कोई शक नहीं कि वे दोनों नेकदिल इंसान थे और सच्चाई को करीब-करीब पहचान ही गए थे और इस तरह सच्चाई की समझ में वे अपने समय के ज़्यादातर लोगों से काफी आगे थे।अच्छे और जंगली बीज के दृष्टांत में यीशु ने जिस “खेत” का ज़िक्र किया उस खेत की कटनी का वक्त ग्रू और स्टॉर्ज़ के दिनों तक नहीं आया था। (मत्ती 13:38) मगर वे और उनकी तरह कुछ और व्यक्ति कटनी के लिए “खेत” को तैयार कर रहे थे।
चार्ल्स टेज़ रस्सल, जिसने 1879 में इस प्रहरीदुर्ग पत्रिका को प्रकाशित करना शुरू किया, अपने शुरूआती दिनों के बारे में लिखता है: “हम परमेश्वर के वचन को अच्छी तरह समझ सकें, इसके लिए प्रभु ने हमारी बहुत मदद की है। खासकर उसने हमें यह मदद हमारे प्रिय भाई जॉर्ज स्टॉर्ज़ के ज़रिए दी है जिनके भाषणों और किताबों से हम बहुत कुछ सीख पाए हैं। मगर हमें इस बात से सावधान रहना चाहिए कि कहीं हम ऐसे इंसानों के चेले न बन जाएँ भले वे कितने ही नेक और समझदार क्यों न हों, बल्कि हम हमेशा ‘प्रिय बच्चों के नाते’ परमेश्वर के ही लोग बने रहें।” जी हाँ, हालाँकि ग्रू और स्टॉर्ज़ जैसे लोगों की वजह से हालाँकि सच्चाई की तलाश कर रहे उन बाइबल विद्यार्थियों को काफी मदद मिली थी, मगर फिर भी उन्हें खुद परमेश्वर के वचन, बाइबल का गहरा अध्ययन करना ज़रूरी था क्योंकि यही सच्चाई जानने का असली ज़रिया है।—यूहन्ना 17:17.
[पेज 26 पर बक्स/तसवीर]
हॆनरी ग्रू का विश्वास
यहोवा के नाम की निंदा की गयी है इसलिए इस नाम को पवित्र ठहराना है।
त्रिएक, अमर आत्मा और नरकाग्नि जैसी शिक्षाएँ झूठी हैं।
मसीही कलीसिया को संसार से अलग रहना चाहिए।
मसीहियों को युद्धों में बिलकुल भाग नहीं लेना चाहिए।
मसीही, शनिवार या रविवार के सब्त के नियम के अधीन नहीं है।
मसीहियों को फ्रीमेसन्स जैसे गुप्त संगठनों का सदस्य नहीं बनना चाहिए।
मसीहियों में पादरी और आम जनता जैसा भेद-भाव नहीं होना चाहिए।
धार्मिक उपाधियों का इस्तेमाल करनेवाले झूठे मसीही हैं।
हर कलीसिया में प्राचीनों का होना ज़रूरी है।
प्राचीन का आचरण सही और निष्कलंक होना चाहिए।
हर मसीही को सुसमाचार का प्रचार करना चाहिए।
पृथ्वी एक खूबसूरत बाग बन जाएगी और उसमें लोगों को हमेशा-हमेशा की ज़िंदगी मिलेगी।
मसीही भजन ऐसे होने चाहिए जिनसे यहोवा और यीशु दोनों की स्तुति हो।
[चित्र का श्रेय]
Photo: Collection of The New-York Historical Society/69288
[पेज 28 पर बक्स/तसवीर]
जॉर्ज स्टॉर्ज़ का विश्वास
यीशु ने इंसानों की खातिर छुड़ौती का दाम चुकाया।
सुसमाचार का प्रचार अब तक (यानी 1871 तक) पूरा नहीं हुआ है।
इस वजह से उस वक्त यानी 1871 में अंत करीब नहीं हो सकता था। आगे चलकर एक ऐसा समय आएगा जब प्रचार का काम पूरे ज़ोर-शोर से किया जाएगा।
पृथ्वी पर ऐसे लोग होंगे जो अनंत जीवन पाएँगे।
जिन लोगों को अपने जीवनकाल में परमेश्वर को जानने का मौका नहीं मिला उन्हें भविष्य में जी उठाया जाएगा। उनमें जो यीशु के बलिदान को कबूल करेंगे उन्हें पृथ्वी पर अनंत जीवन मिलेगा लेकिन जो लोग इसे ठुकरा देंगे उन्हें नाश कर दिया जाएगा।
अमर आत्मा और नरकाग्नि की शिक्षाएँ झूठी हैं और इनसे परमेश्वर का अपमान होता है।
प्रभु का संध्या भोज हर साल निसान 14 को मनाया जाना चाहिए।
[चित्र का श्रेय]
Photo: SIX SERMONS, by George Storrs (1855)
[पेज 29 पर तसवीर]
सन् 1909 में “ज़ायन्स वॉच टावर” के संपादक सी.टी रस्सल अमरीका में न्यू यॉर्क के ब्रुकलिन शहर में आकर बस गए