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दूसरों की सेवा करने में मसीहियों को खुशी मिलती है

दूसरों की सेवा करने में मसीहियों को खुशी मिलती है

दूसरों की सेवा करने में मसीहियों को खुशी मिलती है

“लेने से देना धन्य [“अधिक सुख,” ईज़ी टू रीड वर्शन] है।”प्रेरितों 20:35.

1. आज चारों तरफ लोगों का रवैया कैसा है और इससे हमें सच्ची खुशी क्यों नहीं मिल सकती?

 पिछले कई सालों के दौरान, लोगों में खुदगर्ज़ी की भावना बहुत खुलकर दिखायी दी है। लोग स्वार्थी, लालची और मतलबी हो गए हैं। वे दूसरों की नहीं, सिर्फ अपने ही स्वार्थ की चिंता करते हैं। आज भी यही हालत है। लोग हर बात में पूछते हैं, “इससे मुझे क्या मिलेगा?” या “इससे मुझे क्या फायदा होगा?” लेकिन ऐसा रवैया हमें सच्ची खुशी नहीं दे सकता, क्योंकि यीशु ने सच्ची खुशी का राज़ बताते हुए कहा: “लेने से देना धन्य [“अधिक सुख,” ईज़ी टू रीड वर्शन] है।”—प्रेरितों 20:35.

2. क्यों कह सकते हैं कि देने से बहुत खुशी मिलती है?

2 क्या वाकई सच्ची खुशी लेने के बजाय देने से मिलती है? जी हाँ, बिलकुल। यहोवा परमेश्‍वर को ही लीजिए। वह “जीवन का सोता” है, यानी उसने हमें ज़िंदगी दी है। (भजन 36:9) वह हमें वह सब देता है जिससे हम खुश और कामयाब बन सके। सचमुच, “हर एक अच्छा वरदान और हर एक उत्तम दान” उसी की तरफ से आता है। (याकूब 1:17) वह अपने हाथ की रचना, यानी इंसानों से बहुत प्यार करता है और उनकी खुशी के लिए वह कुछ भी देने से पीछे नहीं हटता। (यूहन्‍ना 3:16) जी हाँ, यहोवा हमेशा दूसरों को देता रहता है, इसीलिए वह “परमधन्य [आनंदित] परमेश्‍वर” है। (1 तीमुथियुस 1:11) अब ज़रा एक परिवार की मिसाल लीजिए। अगर आप एक माता या पिता हैं, तो आप बखूबी जानते हैं कि बच्चे की परवरिश करने में कितने त्याग करने पड़ते हैं। कई सालों तक बच्चे को आपके किसी भी त्याग का एहसास नहीं होता। फिर भी आप उसे देते रहते हैं, उसके लिए त्याग करते रहते हैं। और जब आप उसे बढ़ते हुए, फलते-फूलते और तरक्की करते हुए देखते हैं, तो आपका सीना खुशी से फूल उठता है। क्यों? क्योंकि आप उससे बेहद प्यार करते हैं।

3. यहोवा की और अपने भाई-बहनों की सेवा करने से हमें खुशी क्यों मिलती है?

3 इसी तरह, सच्चे मसीहियों की भी यही खासियत है कि वे दूसरों से प्यार करते हैं और इसलिए उन्हें देते रहते हैं। हम यहोवा और बाकी भाई-बहनों से बेहद प्यार करते हैं, इसलिए हमें उनकी सेवा करने में और उनके लिए कोई भी त्याग करने में खुशी मिलती है। (मत्ती 22:37-39) लेकिन अगर कोई भाई या बहन स्वार्थी हो जाए और कुछ पाने के इरादे से परमेश्‍वर की भक्‍ति करे, तो उसे खुशी कभी मिल ही नहीं सकती। लेकिन, जो बिना किसी स्वार्थ के परमेश्‍वर की सेवा करता है, उसे बेहद खुशी मिलती है क्योंकि पाने से ज़्यादा उसे दूसरों को देने की चिंता रहती है। इस बात की सच्चाई हमें बाइबल के तीन खास शब्दों की चर्चा करने से पता चलेगी। आइए हम इस लेख में और अगले लेख में उन तीन शब्दों पर गौर करें।

यीशु की जन-सेवा

4. ईसाईजगत में “जन-सेवा” क्या है?

4 पहला महत्त्वपूर्ण शब्द है “जन-सेवा” जिसे मूल यूनानी भाषा में लीतूरगीआ कहा जाता है। न्यू वर्ल्ड ट्रांस्लेशन में इसका अनुवाद “जन-सेवा” किया गया है। शब्द लीतूरगीआ से “लिटर्जी” यह शब्द आता है, जिसका ईसाईजगत में मतलब है रस्मो-रिवाज़। * मगर, आज चर्चों के संस्कार या उनकी उपासना-पद्धति असल में जन-सेवा नहीं है।

5, 6. (क) इस्राएल में कौन-सी जन-सेवा की जाती थी और उससे क्या फायदा होता था? (ख) यहोवा ने किस बेहतर जन-सेवा का इंतज़ाम किया और क्यों?

5 इस्राएल के याजकों के बारे में बात करते वक्‍त प्रेरित पौलुस ने लीतूरगीआ से संबंधित एक यूनानी शब्द का इस्तेमाल किया। उसने कहा: ‘हर एक याजक खड़े होकर प्रति दिन [जन] सेवा [एक तरह से लीतूरगीआ] करता है, और एक ही प्रकार के बलिदान को बार बार चढ़ाता है।’ (इब्रानियों 10:11) इस्राएल में, लेवी याजक बहुत ही ज़रूरी जन-सेवा करते थे। वे परमेश्‍वर की व्यवस्था सिखाते थे और लोगों के पापों की माफी के लिए बलिदान चढ़ाते थे। (2 इतिहास 15:3; मलाकी 2:7) जब याजक और बाकी लोग यहोवा की व्यवस्था के मुताबिक चलते थे, तब पूरी-की-पूरी जाति खुश रहती थी।—व्यवस्थाविवरण 16:15.

6 इस्राएली याजकों के लिए व्यवस्था के तहत जन-सेवा करना बहुत बड़े सम्मान की बात थी। लेकिन जब इस्राएलियों ने व्यवस्था के मुताबिक चलना छोड़ दिया, तब याजकों की सेवा का कोई मतलब ही नहीं रहा। (मत्ती 21:43) इसलिए यहोवा ने यीशु को भेजा, जो बड़ा महायाजक था और जिसकी जन-सेवा बाकी याजकों से बेहतर और शानदार थी। उसके बारे में यूँ लिखा है: “यह युगानुयुग रहता है; इस कारण उसका याजक पद अटल है। इसी लिये जो उसके द्वारा परमेश्‍वर के पास आते हैं, वह उन का पूरा पूरा उद्धार कर सकता है, क्योंकि वह उन के लिये बिनती करने को सर्वदा जीवित है।”—इब्रानियों 7:24, 25.

7. यीशु की जन-सेवा क्यों ज़्यादा बेहतर हैं?

7 यीशु हमेशा जन-सेवा करता रहेगा, क्योंकि वह कभी नहीं मरेगा। सो, सिर्फ वही हमें पापों से पूरी तरह छुड़ा सकता है। यह महान जन-सेवा वह इंसानों के हाथ से बने मंदिर में नहीं, बल्कि परमेश्‍वर के लाक्षणिक मंदिर में करता है। यह लाक्षणिक मंदिर उपासना के लिए यहोवा का महान प्रबंध है, जो सा.यु. 29 में शुरू हुआ था। यीशु अब उस मंदिर के परम-पवित्र स्थान, यानी स्वर्ग में सेवा करता है। वह “पवित्र स्थान और उस सच्चे तम्बू का [जन] सेवक [ लीतूरगोस] हुआ, जिसे किसी मनुष्य ने नहीं, बरन प्रभु [यहोवा] ने खड़ा किया था।” (इब्रानियों 8:2; 9:11, 12) हालाँकि स्वर्ग में यीशु का पद बहुत ही ऊँचा है, मगर वह फिर भी एक ‘जन-सेवक’ है। और वह अपने अधिकार का इस्तेमाल कुछ पाने के लिए नहीं, बल्कि दूसरों को देने के लिए करता है, जिसकी वजह से उसे बेहद खुशी मिलती है। यही वह “आनन्द” है “जो उसके आगे धरा” था, और जिसकी वजह से वह पृथ्वी पर मरते दम तक धीरज धर सका।—इब्रानियों 12:2.

8. यीशु की जन-सेवा का एक और पहलू क्या था?

8 यीशु की जन-सेवा का एक और पहलू भी है। इस बारे में पौलुस ने लिखा: “[यीशु] को उन की सेवकाई [या जन-सेवा] से बढ़कर मिली, क्योंकि वह और भी उत्तम वाचा का मध्यस्थ ठहरा, जो और उत्तम प्रतिज्ञाओं के सहारे बान्धी गई है।” (इब्रानियों 8:6) मूसा उस वाचा का मध्यस्थ था जिसकी वजह से इस्राएली यहोवा के साथ अच्छा रिश्‍ता कायम कर सकते थे। (निर्गमन 19:4, 5) यीशु नयी वाचा का मध्यस्थ है और जिसकी वजह से नयी जाति, यानी “परमेश्‍वर के इस्राएल” का जन्म हुआ। इस नयी जाति में अलग-अलग जातियों से आत्मा से अभिषिक्‍त मसीही हैं। (गलतियों 6:16; इब्रानियों 8:8, 13; प्रकाशितवाक्य 5:9, 10) जी हाँ, यीशु की जन-सेवा कितनी बढ़िया थी! और हमारे लिए यीशु को जानना कितनी खुशी की बात है, क्योंकि वह ऐसा जन-सेवक है जिसके ज़रिए हम सही तरीके से यहोवा की उपासना कर सकते हैं!—यूहन्‍ना 14:6.

मसीही भी जन-सेवा करते हैं

9, 10. मसीही कौन-कौन-सी जन-सेवा करते हैं?

9 हममें से कोई भी यीशु से बेहतर जन-सेवा नहीं कर सकता। लेकिन, अभिषिक्‍त मसीही स्वर्ग में जाकर राजा और याजक बनते हैं और जन-सेवा करने में यीशु की मदद करते हैं। (प्रकाशितवाक्य 20:6; 22:1-5) और बाकी के मसीही पृथ्वी पर ही जन-सेवा करते हैं, जिससे उन्हें बेहद खुशी मिलती है। पहली सदी की मिसाल लीजिए, जब फिलिस्तीन में खाने की कमी हो गयी थी, तब यूरोप के भाइयों ने वहाँ रहनेवाले अपने यहूदी भाई-बहनों की मदद करने के लिए प्रेरित पौलुस को चंदा इकट्ठा करके दिया। यह एक किस्म की जन-सेवा थी। (रोमियों 15:27; 2 कुरिन्थियों 9:12) आज भी अगर भाइयों पर कहीं दुःख-तकलीफ, विपत्ति या कोई समस्या आती है, तो सच्चे मसीही फौरन उनकी मदद करने के लिए खुशी-खुशी आगे आते हैं। यह उनकी जन-सेवा है।—नीतिवचन 14:21.

10 पौलुस ने एक और किस्म की जन-सेवा के बारे में बताया। उसने लिखा: “यदि मुझे तुम्हारे विश्‍वास के बलिदान और [जन] सेवा के साथ अपना लोहू भी बहाना पड़े तौभी मैं आनन्दित हूं, और तुम सब के साथ आनन्द करता हूं।” (फिलिप्पियों 2:17) पौलुस ने प्यार और कड़ी मेहनत से फिलिप्पियों की सेवा की थी। यह उसकी तरफ से जन-सेवा थी। आज अभिषिक्‍त मसीही ऐसी ही जन-सेवा कर रहे हैं। वे “विश्‍वासयोग्य और बुद्धिमान दास” के रूप में लोगों को सही समय पर आध्यात्मिक भोजन दे रहे हैं। (मत्ती 24:45-47) इतना ही नहीं, एक समूह के तौर पर वे “याजकों का पवित्र समाज” हैं, ‘जो यीशु मसीह के द्वारा परमेश्‍वर को ग्रहणयोग्य आत्मिक बलिदान चढ़ाते हैं,’ ‘उसके गुण प्रगट करते हैं जिस ने उन्हें अन्धकार में से अपनी अद्‌भुत ज्योति में बुलाया है।’ (1 पतरस 2:5, 9) पौलुस की तरह, वे जन-सेवा के इस काम में बहुत खुश होते हैं, और अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के लिए वे कोई भी त्याग करने, यहाँ तक कि खुद को भी ‘बहाने’ के लिए तैयार रहते हैं। इतना ही नहीं, उनके साथी यानी ‘अन्य भेड़,’ दूसरों को यहोवा और उसके मकसद के बारे में बताने के काम में इन अभिषिक्‍त मसीहियों का साथ देते हैं। * (यूहन्‍ना 10:16; मत्ती 24:14) ऐसी महान जन-सेवा से उन्हें वाकई कितनी खुशी मिलती है!—भजन 107:21, 22.

पवित्र-सेवा अर्पित कीजिए

11. नबिया हन्‍नाह सभी मसीहियों के लिए कैसे एक बढ़िया मिसाल है?

11 हमारी उपासना से संबंधित दूसरा यूनानी शब्द है लात्रीआ, जिसे न्यू वर्ल्ड ट्रांस्लेशन में “पवित्र-सेवा” अनुवाद किया गया है। परमेश्‍वर की सेवा में हम जो भी काम करते हैं, उसे पवित्र-सेवा कहा जा सकता है। मिसाल के तौर पर, 84 साल की विधवा और नबिया हन्‍नाह के बारे में कहा गया है कि वह “मन्दिर को कभी नहीं छोड़ती थी वरन्‌ रात-दिन उपवास और प्रार्थना करके [पवित्र] सेवा [ लात्रीआ से संबंधित यूनानी शब्द] में लगी रहती थी।” (लूका 2:36, 37, NHT ) हन्‍नाह ने यहोवा की उपासना करना कभी नहीं छोड़ा। वह हम सभी मसीहियों के लिए बहुत बढ़िया मिसाल है। जिस तरह हन्‍नाह मंदिर में हमेशा यहोवा की उपासना करने और प्रार्थना करने में लगी रहती थी, उसी तरह हमें भी लगातार मीटिंगों में जाने और प्रार्थना करने के द्वारा पवित्र-सेवा करनी चाहिए।—रोमियों 12:12; इब्रानियों 10:24, 25.

12. हमारी पवित्र-सेवा का सबसे अहम भाग क्या है, और यह कैसे एक जन-सेवा भी है?

12 प्रेरित पौलुस ने हमारी पवित्र-सेवा के सबसे अहम भाग के बारे में लिखा: “परमेश्‍वर जिस की सेवा मैं अपनी आत्मा से उसके पुत्र के सुसमाचार के विषय में करता हूं, वही मेरा गवाह है; कि मैं तुम्हें किस प्रकार लगातार स्मरण करता रहता हूं।” (रोमियों 1:9) जी हाँ, सुसमाचार प्रचार करना हमारी पवित्र-सेवा का एक अहम भाग है। यह न सिर्फ एक जन-सेवा है, क्योंकि इससे सुननेवालों को फायदा होता है, बल्कि यह यहोवा की उपासना भी है। सो, चाहे लोग हमारी बातें सुने या न सुनें, प्रचार करने के द्वारा हम यहोवा परमेश्‍वर की पवित्र-सेवा कर रहे हैं। और जब हम दूसरों को अपने प्यारे पिता यहोवा के अच्छे गुणों और मकसद के बारे में बताते हैं, तो इससे हमें खुशी मिलती है।—भजन 71:23.

हम पवित्र-सेवा कहाँ करते हैं?

13. यहोवा के लाक्षणिक मंदिर के भीतरी आंगन में पवित्र-सेवा करनेवाले लोगों की क्या आशा है और उनके साथ कौन खुश होते हैं?

13 अभिषिक्‍त मसीहियों को पौलुस ने लिखा: “हम इस राज्य को पाकर जो हिलने का नहीं, उस अनुग्रह को हाथ से न जाने दें, जिस के द्वारा हम भक्‍ति, और भय सहित, परमेश्‍वर की ऐसी आराधना कर सकते हैं जिस से वह प्रसन्‍न होता है।” (इब्रानियों 12:28) अभिषिक्‍त मसीहियों को पूरा भरोसा है कि उन्हें राज्य का वारिस बनने की आशीष मिलेगी, और वे सबसे महान परमेश्‍वर पर पूरा-पूरा विश्‍वास करते हैं और उसकी उपासना करते हैं। सिर्फ वे ही यहोवा के लाक्षणिक मंदिर के ‘पवित्र स्थान’ और ‘भीतरी आंगन’ में यहोवा की पवित्र-सेवा कर सकते हैं। और वे ‘परमपवित्र स्थान’ यानी स्वर्ग में यीशु के साथ सेवा करने के लिए बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। उनके साथी यानी अन्य भेड़ उनकी इस शानदार आशा में उनके साथ खुश होते हैं।—इब्रानियों 6:19, 20; 10:19-22.

14. यीशु की जन-सेवा से बड़ी भीड़ को क्या फायदा होता है?

14 लेकिन अन्य भेड़ के लोग कहाँ पवित्र-सेवा करते हैं? जैसे प्रेरित यूहन्‍ना ने भविष्यवाणी की, आज अंतिम दिनों में एक बड़ी भीड़ इकट्ठी हुई है और “इन्हों ने अपने अपने वस्त्र मेम्ने के लोहू में धोकर श्‍वेत किए हैं।” (प्रकाशितवाक्य 7:14) इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि वे अभिषिक्‍त मसीहियों की तरह यीशु की जन-सेवा, यानी उसकी कुर्बानी पर विश्‍वास करते हैं। और अन्य भेड़ को भी यीशु की जन-सेवा से फायदा होता है क्योंकि वे ‘यहोवा की वाचा का पालन’ कर पाते हैं। (यशायाह 56:6) लेकिन यह नयी वाचा उनके साथ नहीं बांधी गयी है, बल्कि वे इस वाचा के नियमों का पालन करते हैं, और उस वाचा के ज़रिए किए जानेवाले सभी प्रबंधों का साथ देते हैं। इतना ही नहीं, वे परमेश्‍वर के इस्राएल के साथ मेलजोल रखते हैं, उसके सदस्यों के साथ काम करते हैं, और उनके आध्यात्मिक मेज़ से भोजन करते हैं, सब लोगों को प्रचार करने के द्वारा परमेश्‍वर की स्तुति करते हैं और परमेश्‍वर की सेवा में ऐसे बलिदान चढ़ाते हैं जिनसे वह खुश होता है।—इब्रानियों 13:15.

15. बड़ी भीड़ कहाँ पवित्र-सेवा करती है, और इस आशीष का उन पर कैसे असर होता है?

15 इसलिए, बड़ी भीड़ को “श्‍वेत वस्त्र पहिने, . . . सिंहासन के साम्हने और मेम्ने के साम्हने खड़ी” देखा गया। और, “वे परमेश्‍वर के सिंहासन के साम्हने हैं, और उसके मन्दिर में दिन रात उस की [पवित्र] सेवा करते हैं; और जो सिंहासन पर बैठा है, वह उन के ऊपर अपना तम्बू तानेगा।” (प्रकाशितवाक्य 7:9, 15) इस्राएल में, यहूदी धर्म अपनानेवाले अन्यजाति के लोग, सुलैमान के मंदिर के बाहरी आँगन में उपासना करते थे। उसी तरह आज भी, बड़ी भीड़ यहोवा के लाक्षणिक मंदिर के बाहरी आँगन में यहोवा की उपासना करती है। और यहाँ सेवा करने से उन्हें बहुत खुशी मिलती है। (भजन 122:1) अभिषिक्‍त मसीहियों में से आखरी व्यक्‍ति के स्वर्ग जाने के बाद भी, बड़ी भीड़ यहोवा की पवित्र-सेवा करती रहेगी।—प्रकाशितवाक्य 21:3.

पवित्र-सेवा जिसे परमेश्‍वर स्वीकार नहीं करता

16. पवित्र-सेवा के संबंध में क्या माँगें दी गयी हैं और उन्हें पूरा करना क्यों ज़रूरी है?

16 पुराने ज़माने के इस्राएल में, यहोवा के नियमों के मुताबिक ही पवित्र-सेवा की जाती थी। (निर्गमन 30:9; लैव्यव्यवस्था 10:1, 2) उसी तरह आज भी, अगर हम चाहते हैं कि यहोवा हमारी पवित्र-सेवा को कबूल करे, तो हमें भी कुछ माँगें पूरी करनी होगी। इसलिए पौलुस ने कुलुस्से के मसीहियों को लिखा: “हम . . . तुम्हारे लिये यह प्रार्थना करने और बिनती करने से नहीं चूकते कि तुम सारे आत्मिक ज्ञान और समझ सहित परमेश्‍वर की इच्छा की पहिचान में परिपूर्ण हो जाओ। ताकि तुम्हारा चाल-चलन प्रभु के योग्य हो, और वह सब प्रकार से प्रसन्‍न हो, और तुम में हर प्रकार के भले कामों का फल लगे, और परमेश्‍वर की पहिचान में बढ़ते जाओ।” (कुलुस्सियों 1:9, 10) जी हाँ, परमेश्‍वर की उपासना करने का कौन-सा तरीका सही होगा, यह हम नहीं तय कर सकते हैं। बल्कि हमें यहोवा के तौर-तरीकों को समझना होगा और जानना होगा कि वह क्या चाहता है और यह जानने के लिए सही-सही आध्यात्मिक ज्ञान लेना, इनकी गहरी समझ पाना और परमेश्‍वर की बुद्धि पाना बहुत ज़रूरी है। नहीं तो, हम परमेश्‍वर को खुश नहीं कर पाएँगे।

17. (क) मूसा के दिनों में पवित्र-सेवा किस तरह से दूषित हो गयी थी? (ख) आज किस तरह से हमारी पवित्र-सेवा भी दूषित हो सकती है?

17 मूसा के दिनों के इस्राएलियों को याद कीजिए। उनके बारे में लिखा है: “परमेश्‍वर ने उनसे मुंह मोड़ लिया तथा उन्हें आकाशगणों को पूजने [पवित्र-सेवा करने] के लिए छोड़ दिया।” (प्रेरितों 7:42, NHT ) उन इस्राएलियों ने अपनी आँखों से यहोवा के बड़े-बड़े चमत्कार देखे थे। मगर फिर भी वे यह सोचकर दूसरे देवी-देवताओं की सेवा करने लगे कि उसमें उनका ज़्यादा फायदा है। वे वफादार नहीं थे। लेकिन, अगर हम चाहते हैं कि यहोवा हमारी पवित्र-सेवा से खुश हो, तो इसके लिए वफादारी दिखाना बहुत ज़रूरी है। (भजन 18:25) यह सच है कि आज बहुत ही कम सच्चे मसीही यहोवा को छोड़कर चाँद-तारों को या सोने के बछड़े जैसी मूर्तियों की पूजा करने लगेंगे, मगर मूर्तिपूजा के और भी कई रूप हैं। यीशु ने “धन” को और पौलुस ने लोभ को मूर्तिपूजा के बराबर बताया। (मत्ती 6:24; कुलुस्सियों 3:5) शैतान भी खुद को एक ईश्‍वर के रूप में पेश करता है। (2 कुरिन्थियों 4:4) इस तरह की मूर्तिपूजा चारों तरफ फैली हुई है और ये सब हमारे लिए फंदे हैं। मिसाल के लिए किसी ऐसे व्यक्‍ति के बारे में ज़रा सोचिए जो यीशु का चेला होने का दावा तो करता है, मगर जिसका खास लक्ष्य सिर्फ पैसा कमाने का होता है, या जो खुद पर और अपनी बुद्धि पर ही ज़्यादा भरोसा करता है। वह दरअसल किसकी भक्‍ति कर रहा है? इस तरह के व्यक्‍ति में और यशायाह के दिनों के यहूदियों में कोई फरक नहीं है, जिन्होंने यहोवा के नाम की शपथ तो खायी, मगर यहोवा के बड़े-बड़े चमत्कार का श्रेय अशुद्ध मूर्तियों को दिया।—यशायाह 48:1, 5.

18. पुराने समय में और आज भी पवित्र-सेवा कैसे गलत रीति से की गयी?

18 यीशु ने यह चेतावनी भी दी थी: “वह समय आता है, कि जो कोई तुम्हें मार डालेगा वह समझेगा कि मैं परमेश्‍वर की [पवित्र] सेवा करता हूं।” (यूहन्‍ना 16:2) शाऊल ने, जो बाद में प्रेरित पौलुस बना, जब ‘स्तिफनुस के बध में सहमति दिखायी,’ और ‘प्रभु के चेलों को धमकाने और घात करने की धुन में रहता था,’ तब उसने यह ज़रूर सोचा होगा कि वह परमेश्‍वर की सेवा कर रहा है। (प्रेरितों 7:60; 8:1; 9:1) आज, पूरी-की-पूरी जाति का जनसंहार करनेवाले कुछ लोग भी परमेश्‍वर की भक्‍ति करने का दावा करते हैं। जी हाँ, दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जो परमेश्‍वर की पूजा करने का दावा तो करते हैं, मगर असल में वे अपने देश की, अपनी जाति की, धन-दौलत की, अपनी या किसी और मूरत की पूजा करते हैं।

19. (क) हम अपनी पवित्र-सेवा को किस नज़र से देखते हैं? (ख) किस तरह की पवित्र-सेवा से हमें खुशी मिलेगी?

19 यीशु ने शैतान से कहा: “तू [यहोवा] अपने परमेश्‍वर को प्रणाम कर, और केवल उसी की उपासना [पवित्र-सेवा] कर।” (मत्ती 4:10) इस बात को मानना हम सब के लिए कितना ज़रूरी है! पूरे विश्‍व के महाराजा और मालिक की पवित्र-सेवा करना बहुत बड़े सम्मान और श्रद्धा की बात है। और हमारी उपासना से जुड़ी जन-सेवा के बारे में क्या? अपने भाई-बहनों की सेवा करना बड़े आनंद की बात है और इससे हमें बहुत खुशी मिलती है। (भजन 41:1, 2; 59:16) फिर भी, ऐसी सेवा से तभी सच्ची खुशी मिलेगी जब हम इसे दिल से और सही तरीके से करेंगे। तो अब सवाल उठता है कि कौन सचमुच परमेश्‍वर की उपासना सही तरीके से करते हैं? किसकी पवित्र-सेवा को यहोवा कबूल करता है? ऐसे सवालों का जवाब हमें तब मिलेगा जब हम अपनी उपासना से संबंधित बाइबल के तीसरे शब्द पर विचार करेंगे। इसे हम अगले लेख में देखेंगे।

[फुटनोट]

^ ईसाईजगत के लिटर्जी आम तौर पर उपासना की रस्म या खास संस्कार होते हैं। इनमें रोमन कैथोलिक चर्च के युकैरिस्ट यानी प्रभु भोज जैसे संस्कार शामिल हैं।

^ प्रेरितों 13:2 में यह बताया गया है कि अन्ताकिया में भविष्यवक्‍ता और शिक्षक यहोवा की खुलेआम “उपासना” (यह लीतूरगीआ से संबंधित एक यूनानी शब्द का अनुवाद है) कर रहे थे। मुमकिन है कि ऐसी उपासना या जन-सेवा में जनता को प्रचार करना भी शामिल था।

आप कैसे जवाब देंगे?

• यीशु ने कौन-सी महान जन-सेवा की?

• मसीही कौन-सी जन-सेवा करते हैं?

• मसीहियों की पवित्र-सेवा क्या है, और वे इसे कहाँ करते हैं?

• अगर हम चाहते हैं कि हमारी पवित्र-सेवा से परमेश्‍वर खुश हो, तो हमें क्या लेना होगा?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 10 पर तसवीर]

माता-पिता अपने बच्चों के लिए त्याग करने में बहुत खुशी पाते हैं

[पेज 13 पर तसवीरें]

मसीही दूसरों की मदद करने और सुसमाचार सुनाने के द्वारा जन-सेवा करते हैं

[पेज 14 पर तसवीर]

अगर हम चाहते हैं कि हमारी पवित्र-सेवा परमेश्‍वर को कबूल हो, तो हमें सही-सही ज्ञान लेने और समझ पाने की ज़रूरत है