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जीवन-साथी चुनने के लिए परमेश्‍वर का मार्गदर्शन

जीवन-साथी चुनने के लिए परमेश्‍वर का मार्गदर्शन

जीवन-साथी चुनने के लिए परमेश्‍वर का मार्गदर्शन

“मैं तुझे बुद्धि दूंगा, और जिस मार्ग में तुझे चलना होगा उस में तेरी अगुवाई करूंगा; मैं तुझ पर कृपादृष्टि रखूंगा और सम्मति दिया करूंगा।”—भजन 32:8.

1. एक सफल वैवाहिक-जीवन के लिए कौन-सी बातें ज़रूरी हैं?

 सरकस का एक करतब दिखानेवाला रस्सियों से बँधें डंडे पर लटकता हुआ आता है और बीच हवा में कलाबाज़ी खाता है। जैसे ही वह नीचे आता है, वह अपने हाथों को आगे बढ़ाकर दूसरी तरफ से आनेवाले एक और कलाबाज़ को पकड़ लेता है। एक लड़का-लड़की बड़ी कुशलता से बर्फ पर स्केटिंग करते हैं। अचानक लड़का, लड़की को उठाकर हवा में उछाल देता है। वह हवा में घूम जाती है और फिर बड़े ही शानदार अंदाज़ में वह अपने एक स्केट पर उतरकर अपने साथी के साथ फिर से गोलाई में स्केटिंग करने लगती है। दोनों खेल देखने में बड़े आसान लगते हैं। मगर ऐसा कौन होगा जो बिना अभ्यास के, एक काबिल साथी के और खासकर बिना सही किस्म की हिदायतों के ये सब करने की हिम्मत करेगा? इसी तरह, शायद एक सफल वैवाहिक-जीवन भी संयोग की बात लगे। लेकिन यह भी एक अच्छे जीवन-साथी, मिलकर मेहनत करने, और खासकर समझदार सलाह के मुताबिक चलने से संभव होता है। जी हाँ, सही मार्गदर्शन बेहद ज़रूरी है।

2. (क) विवाह-बंधन की शुरूआत किसने की और किस उद्देश्‍य से? (ख) कुछ शादियाँ कैसे तय की जाती हैं?

2 एक जवान लड़के या लड़की का शादी करने या एक जीवन-साथी चुनने के बारे में सोचना स्वाभाविक है। जब से यहोवा परमेश्‍वर ने विवाह-बंधन की शुरूआत की तब से शादी करना ज़िंदगी का हिस्सा बन गया है। लेकिन पहले पुरुष आदम ने, खुद अपनी पत्नी का चुनाव नहीं किया था, बल्कि यहोवा ने प्यार से उसको पत्नी दी। (उत्पत्ति 2:18-24) परमेश्‍वर का उद्देश्‍य था कि पहले जोड़े संतान पैदा करे ताकि यह ज़मीन इंसानों से भर जाए। उस पहली शादी के बाद से, ऐसा होता आया है कि अकसर माता-पिता अपने बच्चों के लिए रिश्‍ता तय करते हैं, और कभी-कभार लड़के-लड़की की रज़ामंदी से उनकी शादी करवाने का फैसला करते हैं। (उत्पत्ति 21:21; 24:2-4, 58; 38:6; यहोशू 15:16, 17) हाँलाकि, आज भी कुछ देशों में माता-पिता ही अपने बच्चों के लिए जीवन-साथी चुनते हैं, मगर बहुत-से लोग खुद अपने जीवन-साथी का चुनाव करते हैं।

3. एक जीवन-साथी को चुनने के लिए क्या करना ज़रूरी है?

3 एक जीवन-साथी का चुनाव कैसे किया जाना चाहिए? कुछ लोग जीवन-साथी का चुनाव करते वक्‍त, व्यक्‍ति के रंग-रूप को देखते हैं, यानी जो लड़का या लड़की देखने में खूबसूरत या आकर्षक है वे उसी से शादी करने का फैसला करते हैं। दूसरे लोग भौतिक फायदों के लिए ऐसे व्यक्‍ति से शादी करना चाहते हैं जो उनको सुख और ऐशो-आराम दे सके और उनकी हर ज़रूरत और ख्वाहिश को पूरा कर सके। लेकिन क्या जीवन साथी की खूबसूरती या धन-दौलत, दोनों में से कोई भी चीज़ शादी-शुदा ज़िंदगी को खुशहाल और सुखी बना सकती है? नीतिवचन 31:30 कहता है: “शोभा तो झूठी और सुन्दरता व्यर्थ है, परन्तु जो स्त्री यहोवा का भय मानती है, उसकी प्रशंसा की जाएगी।” इसी कहावत में एक महत्त्वपूर्ण बात बताई गई है: जीवन-साथी का चुनाव करते वक्‍त यहोवा को ध्यान में रखना बेहद ज़रूरी है।

परमेश्‍वर की तरफ से प्यार भरा मार्गदर्शन

4. अपने जीवन-साथी को चुनने के लिए परमेश्‍वर ने किस तरह की मदद का इंतज़ाम किया है?

4 स्वर्ग में रहनेवाले हमारे प्यारे पिता, यहोवा ने हर मामले में हमें हिदायतें देने के लिए अपना लिखित वचन दिया है। वह कहता है: “मैं ही तेरा परमेश्‍वर यहोवा हूं जो तुझे तेरे लाभ के लिये शिक्षा देता हूं, और जिस मार्ग से तुझे जाना है उसी मार्ग पर तुझे ले चलता हूं।” (यशायाह 48:17) तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं कि एक जीवन-साथी चुनने के लिए बाइबल में बरसों से आज़मायी गयी कारगर सलाहें दी गई हैं। यहोवा चाहता है कि लोगों का वैवाहिक-जीवन खुशहाल हो और सदा बना रहे। इसलिए उसने हमें मदद देने का इंतज़ाम किया है ताकि हम उसके मार्गदर्शनों को ठीक तरह से समझकर अपनी ज़िंदगी में लागू कर सकें। क्या एक प्रेममय सृष्टिकर्ता से हमें ऐसी ही उम्मीद नहीं करनी चाहिए?—भजन 19:8.

5. ज़िंदगी में हमेशा की खुशी पाने के लिए क्या करना ज़रूरी है?

5 जब परमेश्‍वर ने विवाह-बंधन की शुरूआत की तो उसका मकसद था कि दो इंसान हमेशा-हमेशा के लिए एक हो जाएँ। (मरकुस 10:6-12; 1 कुरिन्थियों 7:10, 11) इसी वजह से वह “तलाक से घृणा करता” है, और सिर्फ “व्यभिचार” के आधार पर ही तलाक की इज़ाज़त देता है। (मलाकी 2:13-16, NHT; मत्ती 19:9) इसलिए, एक जीवन-साथी चुनना, ज़िंदगी के सबसे अहम फैसलों में से एक है और यह फैसला करते वक्‍त किसी भी तरह की लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए। यह ज़िंदगी के उन चंद अहम फैसलों की तरह है जिनका अंजाम या तो हमेशा का सुख हो सकता है या फिर ज़िंदगी भर का दुःख। इस वजह से सोच-समझकर चुनाव करने से हमारी ज़िंदगी में खुशियों की बहार आ सकती है, मगर गलत चुनाव करने से ज़िंदगी गम का सागर बन सकती है। (नीतिवचन 21:19; 26:21) अगर हम हमेशा की खुशियाँ चाहते हैं तो जीवन-साथी का चुनाव करते वक्‍त समझदारी से काम लेना बेहद ज़रूरी है और उम्र-भर साथ निभाने की इच्छा रखना भी। परमेश्‍वर ने विवाह-बंधन को ऐसी साझेदारी होने के लिए बनाया था जिसमें तालमेल और एक-दूसरे की मदद करने से यह रिश्‍ता हमेशा फलता-फूलता रहता।—मत्ती 19:6.

6. जवान लड़के और लड़कियों को अपने जीवन-साथी चुनते वक्‍त खासकर क्या ध्यान में रखना चाहिए, और वे कैसे सही फैसले कर सकते हैं?

6 जवान लड़के और लड़कियों को खासकर ध्यान रखने की ज़रूरत है कि कहीं वे रंग-रूप पर फिदा होकर या फिर जज़्बातों में बहकर गलत व्यक्‍ति को जीवन-साथी न चुन लें। जी हाँ, एक रिश्‍ता जो सिर्फ इन वजहों से बनाया जाता है, उसमें बहुत जल्द कड़वाहट यहाँ तक कि नफरत भी पैदा हो सकती है। (2 शमूएल 13:15) दूसरी तरफ, जैसे-जैसे हम अपने साथी को करीब से जानने लगते हैं और खुद को अच्छी तरह समझने लगते हैं, वैसे-वैसे हमारे बीच प्यार बढ़ता जाता है और हमेशा कायम रहता है। हमें इस बात का एहसास होना भी बेहद ज़रूरी है कि कई बार जो बात हमारी भलाई के लिए होती है वो शुरू-शुरू में हमें अच्छी नहीं लगती। (यिर्मयाह 17:9) ऐसे में बाइबल में पाए जानेवाला परमेश्‍वर का मार्गदर्शन बहुत मायने रखता है। क्योंकि यह मार्गदर्शन इस बात को समझने में मदद करता है कि हम अपनी ज़िंदगी के सही फैसले कैसे कर सकते हैं। भजनहार के ज़रिए यहोवा ने कहा: “मैं तुझे बुद्धि दूंगा, और जिस मार्ग में तुझे चलना होगा उस में तेरी अगुवाई करूंगा; मैं तुझ पर कृपादृष्टि रखूंगा और सम्मति दिया करूंगा।” (भजन 32:8; इब्रानियों 4:12) हालाँकि ये बात सही है कि शादी प्यार-मुहब्बत और किसी का साथ पाने की पैदाइशी ज़रूरतों को पूरा कर सकती है मगर इसके साथ-साथ कई चुनौतियाँ भी आती हैं, जिनका सामना करने के लिए प्रौढ़ता और समझदारी की ज़रूरत पड़ती है।

7. कुछ लोग अपने जीवन-साथी चुनने के लिए बाइबल आधारित सलाहों को क्यों नहीं मानते हैं, लेकिन ऐसा करने का अंजाम क्या हो सकता है?

7 विवाह-बंधन की शुरूआत जिसने की है, उसकी सलाह पर ध्यान देना अक्लमंदी है। फिर भी ऐसा हो सकता है कि जब हमारे माता-पिता या मसीही प्राचीन, हमें बाइबल से कोई सलाह देते हैं तब हम उनकी सलाह को मानने से साफ इंकार कर दें। हमें शायद लगे कि वे हमें अच्छी तरह से नहीं समझते हैं, और जज़्बात में बहकर हम अपने दिल की ख्वाहिश पूरी करना चाहें। मगर वक्‍त के गुज़रने के साथ-साथ जब ज़िंदगी की हकीकत हमारे सामने आती है तो शायद हमें पछतावा हो कि हमने उस सलाह को ठुकरा दिया जो हमारी भलाई के लिए थी। (नीतिवचन 23:19; 28:26) इस वजह से वैवाहिक-जीवन की खुशियों में ग्रहण लग सकता है, साथ ही बच्चों की परवरिश करने में मुश्‍किल पैदा हो सकती है, और यह भी हो सकता है कि हमें एक ऐसे साथी के साथ जीवन बिताना पड़े जो विश्‍वासी ना हो। यह कितने दुःख की बात होगी कि जो विवाह-बंधन हमें ढेरों खुशियाँ दे सकता है, वही हमारे जीवन में दुःखों का अंबार लगा दे!

इश्‍वरीय भक्‍ति—एक मुख्य आधार

8. ईश्‍वरीय भक्‍ति एक विवाह-बंधन को कायम रखने और खुशियों से भरे रहने में कैसे मदद देती है?

8 यह बात सच है कि एक-दूसरे के प्रति आकर्षण, विवाह-बंधन को मज़बूत रखता है। लेकिन यह इससे भी ज़्यादा मज़बूत तब रहता है जब दोनों साथी एक जैसे सिद्धांतों की कदर करते हों। इससे यह बंधन मुसीबतों में भी कायम रहेगा और इसमें खुशियाँ बढ़ती चली जाएँगी। जब पति-पत्नी मिलकर यहोवा परमेश्‍वर की भक्‍ति करते हैं तो वे हमेशा के लिए एक अटूट बंधन में बंध जाते हैं, इसके अलावा कोई और चीज़ उन्हें इस कदर एक नहीं कर सकती। (सभोपदेशक 4:12) जब एक मसीही पति-पत्नी अपनी ज़िंदगी में यहोवा की उपासना को पहला स्थान देते हैं, तब वे आध्यात्मिक, मानसिक और नैतिक तौर से एक हो जाते हैं। वे साथ-साथ परमेश्‍वर के वचन का अध्ययन करते हैं। वे साथ मिलकर प्रार्थना करते हैं जो उनके दिलों को एक करती है। वे एक-साथ मसीही सभाओं में जाते हैं और क्षेत्र-सेवकाई में भी एक-दूसरे के साथ काम करते हैं। यह सारी बातें, दोनों के बीच एक आध्यात्मिक बंधन बनाने में मदद करती हैं जो दोनों को एक-दूसरे के और करीब लाती हैं। मगर इन फायदों से भी बढ़कर उन्हें यहोवा की आशीष मिलती है।

9. इब्राहीम ने इसहाक के लिए पत्नी ढूँढ़ने के बारे में क्या किया, और उसका नतीजा क्या हुआ?

9 अपनी इश्‍वरीय भक्‍ति की वजह से, वफादार कुलपिता, इब्राहीम को जब अपने बेटे इसहाक के लिए पत्नी चुनने का वक्‍त आया तो उसने परमेश्‍वर को खुश करने की कोशिश की। इब्राहीम ने अपने परिवार के एक वफादार सेवक से कहा: “मुझ से आकाश और पृथ्वी के परमेश्‍वर यहोवा की इस विषय में शपथ खा, कि तू मेरे पुत्र के लिये कनानियों की लड़कियों में से, जिनके बीच मैं रहता हूं, किसी को न ले आएगा। परन्तु तू मेरे देश में मेरे ही कुटुम्बियों के पास जाकर मेरे पुत्र इसहाक के लिये एक पत्नी ले आएगा। . . . [यहोवा] अपना दूत तेरे आगे आगे भेजेगा, कि तू मेरे पुत्र के लिये वहां से एक स्त्री ले आए।” इस तरह चुनी गई स्त्री रिबका एक बेमिसाल पत्नी साबित हुई जिससे इसहाक दिलो-जान से प्यार करता था।—उत्पत्ति 24:3, 4, 7, 14-21, 67.

10. बाइबल के मुताबिक, पति-पत्नियों की क्या-क्या ज़िम्मेदारियाँ बनती हैं?

10 अगर हम अविवाहित मसीही हैं, तो इश्‍वरीय भक्‍ति ऐसे गुण बढ़ाने में हमारी मदद करेगी जिनसे हम बाइबल में दी गई विवाह-बंधन की माँगों को पूरा कर सकेंगे। पति-पत्नी की कई ज़िम्मेदारियाँ हैं, जिनमें से कुछ के बारे में प्रेरित पौलुस ने लिखा: “हे पत्नियो, अपने अपने पति के ऐसे आधीन रहो, जैसे प्रभु के . . . पतियो, अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखो, जैसा मसीह ने भी कलीसिया से प्रेम करके अपने आप को उसके लिये दे दिया . . . पति अपनी अपनी पत्नी से अपनी देह के समान प्रेम रखे . . . तुम में से हर एक अपनी पत्नी से अपने समान प्रेम रखे, और पत्नी भी अपने पति का भय माने।” (इफिसियों 5:22-33) जैसा कि हम देख सकते हैं, पौलुस के लिखे प्रेरित वचन, प्रेम और आदर पर ज़ोर देते हैं। इस सलाह के मुताबिक चलने के लिए ज़रूरी है दोनों में, परमेश्‍वर के लिए गहरी श्रद्धा के साथ भय हो। इसमें यह माँग की जाती है कि हर हालत में चाहे वह अच्छी हो या बुरी, पति-पत्नी एक-दूसरे का साथ कभी नहीं छोड़ेंगे। अविवाहित मसीही जो शादी करने की सोच रहें हैं उन्हें इस माँग को पूरा करने के काबिल होना चाहिए।

शादी कब करनी चाहिए

11. (क) शादी कब करनी चाहिए, इस बारे में बाइबल क्या सलाह देती है? (ख) कौन-सा उदाहरण दिखाता है कि 1 कुरिन्थियों 7:36 में दी गई बाइबल की सलाह को मानना अक्लमंदी है?

11 यह जानना बेहद ज़रूरी है कि हमें शादी कब करनी चाहिए। क्योंकि हर व्यक्‍ति के हालात अलग होते हैं, इसलिए बाइबल शादी करने की कोई उम्र निर्धारित नहीं करती। मगर इसमें यह ज़रूर बताया गया है कि ‘जवानी ढलने’ तक इंतज़ार करना हमारे लिए बेहतर है क्योंकि जवानी में लैंगिक इच्छाएँ ज़बरदस्त होती हैं और इस वजह से हम गलत चुनाव कर सकते हैं। (1 कुरिन्थियों 7:36) मिशैल कहती है: “जब मैं अपने दोस्तों को डेटिंग और शादी करते देखती, जिनमें से कइयों की उम्र 20 से भी कम थी, तो ऐसे समय में कभी-कभी इस सलाह को मानना मेरे लिए बहुत मुश्‍किल हो जाता था। मगर मुझे एहसास हुआ कि यह सलाह यहोवा की ओर से है, और वह सिर्फ हमारी भलाई के लिए ही हमें सलाह देता है। शादी के लिए रुकने से मैं यहोवा के साथ अपने रिश्‍ते को मज़बूत कर पायी हूँ और ज़िंदगी में तजुर्बा हासिल कर पायी हूँ जो किशोरावस्था में पाना नामुमकिन है। कुछ सालों बाद, मैं वैवाहिक-जीवन की ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ समस्याओं को भी सँभालने के काबिल बन गई।”

12. जवानी में जल्दबाज़ी में शादी ना करना क्यों अक्लमंदी की बात है?

12 ऐसे लड़के-लड़कियाँ जो कच्ची उम्र में शादी करने की जल्दबाज़ी करते हैं, अकसर देखते हैं कि उम्र के बढ़ने के साथ-साथ उनकी ज़रूरतें और इच्छाएँ भी बदल जाती हैं। फिर उन्हें एहसास होता है कि जो बातें शुरू में उन्हें बेहद पसंद थी वही बातें अब उनकी ज़िंदगी में कोई मायने नहीं रखती हैं। एक जवान मसीही बहन ने 16 साल की उम्र में ही विवाह करने की ठान ली थी। उसकी नानी और माँ ने भी इसी उम्र में शादी की थी। जब एक जवान लड़के ने उस समय में उससे शादी करने से इंकार कर दिया, जिसे वह पसंद करती थी तो उसने किसी और को चुन लिया जो उससे शादी करने के लिए राज़ी था। मगर ज़िंदगी में आगे चलकर, उसे जल्दबाज़ी में किए अपने फैसले पर बहुत पछतावा हुआ।

13. जो कच्ची उम्र में शादी करते हैं, उनमें किन बातों की कमी होती है?

13 शादी करने से पहले इसमें शामिल सभी बातों को अच्छी तरह से समझने की ज़रूरत है। कच्ची उम्र में शादी करने से कई समस्याएँ पैदा हो सकती हैं जिनका सामना करने के लिए शायद जवान पति-पत्नी पूरी तरह से तैयार ही न हों। दोनों में शायद तजुर्बे और समझदारी की कमी हो जो वैवाहिक-जीवन और बच्चों की परवरिश में आनेवाली समस्याओं का सामना करने के लिए ज़रूरी होती है। शादी तभी करनी चाहिए जब हम शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक तौर से, उम्र भर एक-दूसरे का साथ निभाने के लिए पूरी तरह तैयार हों।

14. वैवाहिक-जीवन की मुश्‍किलों को हल करने के लिए क्या ज़रूरी है?

14 पौलुस ने लिखा कि जो विवाह करते हैं उन्हें “शारीरिक दुख होगा।” (1 कुरिन्थियों 7:28) वैवाहिक-जीवन में समस्याएँ तो आएँगी ही क्योंकि पति-पत्नी का व्यक्‍तित्व बिलकुल अलग-अलग होता है और उनके नज़रिए भी अलग होते हैं। असिद्धता की वजह से, शायद विवाह-बंधन के बारे में बाइबल में दी गई माँगों को पूरा करना आसान ना हो। (1 कुरिन्थियों 11:3; कुलुस्सियों 3:18, 19; तीतुस 2:4, 5; 1 पतरस 3:1, 2, 7) मुश्‍किलों को समझदारी से हल करने में परमेश्‍वर के मार्गदर्शन की मदद लेनी चाहिए। और उस मार्गदर्शन को पाने और उसके मुताबिक चलने के लिए अनुभव और आध्यात्मिक संतुलन की सख्त ज़रूरत होती है।

15. अपने बच्चों को विवाह के लिए तैयार करने में माता-पिता कौन-सी भूमिका निभा सकते हैं? उदाहरण दीजिए।

15 माता-पिता अपने बच्चों को परमेश्‍वर के मार्गदर्शन के मुताबिक चलने की अहमियत को समझाने के ज़रिए उन्हें विवाह के लिए तैयार कर सकते हैं। शास्त्रवचनों और मसीही प्रकाशनों को बढ़िया तरीके से इस्तेमाल करके माता-पिता अपने बच्चों को यह तय करने में मदद कर सकते हैं कि वे या उनके होनेवाले जीवन-साथी, विवाह के वादों को निभाने के लिए तैयार हैं या नहीं। * अठारह साल की ब्लौसम को ही ले लीजिए। उसे लगा कि उसे अपनी कलीसिया के एक जवान लड़के से प्यार हो गया है। वह एक पायनियर था, और दोनों एक-दूसरे से शादी करना चाहते थे। लेकिन ब्लौसम के माता-पिता को लगा कि वह अभी काफी छोटी है, इसलिए उन्होंने उसे एक साल और रुकने के लिए कहा। ब्लौसम ने बाद में लिखा: “मैं कितनी शुक्रगुज़ार हूँ कि मैंने अपने माता-पिता की उस सलाह को माना। एक साल के अंदर, मैंने काफी तजुर्बा हासिल कर लिया और यह देखा कि उस जवान लड़के में वे गुण नहीं थे जो एक अच्छे जीवन-साथी में होने चाहिए। और एक दिन ऐसा आया कि उसने संगठन ही छोड़ दिया, और मेरी ज़िंदगी तबाह होने से बच गयी। ऐसे बुद्धिमान माता-पिता का होना कितनी बड़ी आशीष है जिनकी सलाह पर निर्भर किया जा सकता है!”

‘विवाह केवल प्रभु में कीजिए’

16. (क) ‘प्रभु में विवाह करने’ के मामले में मसीहियों की किस तरह परीक्षा हो सकती है? (ख) जब एक अविश्‍वासी के साथ विवाह करने का प्रलोभन आता है तब मसीहियों को किस बात पर विचार करना चाहिए?

16 मसीहियों के लिए यहोवा का निर्देशन एकदम साफ है: ‘विवाह केवल प्रभु में कीजिए।’ (1 कुरिन्थियों 7:39) मसीही माता-पिता और उनके बच्चों के लिए यह एक परीक्षा की बात हो सकती है। वह कैसे? जवान लोग शायद विवाह करना चाहते हों, लेकिन कलीसिया में विवाह के लायक कोई साथी न हो। कई बार ऐसा देखने में ज़रूर लगता है। हो सकता है कि कुछ इलाकों में कुँवारे लड़कों से ज़्यादा कुँवारी लड़कियाँ हों, या उन इलाकों में ऐसा कोई ना हो जो उनकी पसंद के मुताबिक हो। ऐसे में अगर एक अविश्‍वासी जवान एक मसीही स्त्री में दिलचस्पी दिखाए (या इसके विपरीत हालात भी हो सकता है), तो उन पर यहोवा के स्तर को नज़रअंदाज़ करने का दबाव आ सकता है। इन हालातों में, इब्राहीम के उदाहरण पर विचार करना अच्छा होगा। परमेश्‍वर के साथ अपना अच्छा रिश्‍ता बनाए रखने के लिए उसने ठान लिया था कि उसके बेटे इसहाक की शादी यहोवा की एक सच्ची उपासक से ही हो। इसहाक ने भी अपने बेटे, याकूब के मामले में वैसा ही किया। हालाँकि ऐसा करने में जो कोई भी शामिल था उन सभी को बहुत मेहनत करनी पड़ी मगर इससे परमेश्‍वर का दिल खुश हुआ और साथ ही उन्हें ढेरों आशीषें भी मिलीं।—उत्पत्ति 28:1-4.

17. एक अविश्‍वासी के साथ विवाह करने का अंजाम क्यों बुरा हो सकता है, और ‘केवल प्रभु में विवाह करने’ की सबसे अहम वजह क्या है?

17 बहुत ही कम मामलों में अविश्‍वासी साथी आखिर में जाकर एक मसीही बने हैं। मगर अविश्‍वासियों के साथ शादी करने का अंजाम अकसर बुरा ही हुआ है। क्योंकि जो असमान जूए में जुतते हैं उनके विश्‍वास, स्तर और लक्ष्य अलग-अलग होते हैं। (2 कुरिन्थियों 6:14) इससे उनकी बातचीत पर और वैवाहिक-जीवन की खुशियों पर बहुत बुरा असर पड़ सकता है। उदाहरण के लिए, एक मसीही स्त्री को इस बात का बहुत दुःख होता है कि एक जोश दिलानेवाली सभा के बाद मैं घर लौटकर अपने अविश्‍वासी पति के साथ आध्यात्मिक बातों पर चर्चा नहीं कर सकती। मगर इन सबसे बढ़कर अहम बात तो यह है की ‘विवाह केवल प्रभु में करना’ यहोवा के प्रति वफादार रहना है। जब हम परमेश्‍वर के वचन के अनुसार काम करते हैं तब हमारा विवेक हमें दोषी नहीं ठहराता, क्योंकि हम वही कर रहे हैं, “जो उसे भाता है।”—1 यूहन्‍ना 3:21, 22.

18. जब हम विवाह करने की सोचते हैं, तो किन ज़रूरी मामलों पर ध्यान देना चाहिए, और क्यों?

18 जब हम शादी करने की बात सोचते हैं तब हमें सबसे पहले यह देखना ज़रूरी है कि हमारे होनेवाले जीवन-साथी में सद्‌गुण हैं या नहीं, और वह आध्यात्मिक तौर पर कितना मज़बूत है। शारीरिक आकर्षण से एक मसीही व्यक्‍तित्व, साथ ही परमेश्‍वर के लिए प्रेम और पूरे तन-मन से उसके लिए भक्‍ति, ज़्यादा मोल रखते हैं। परमेश्‍वर की मंज़ूरी उन्हें ही मिलती है जो आध्यात्मिक रूप से एक मज़बूत जीवन-साथी होने की अहमियत को समझते हुए अपनी ज़िम्मेदारी को निभाते हैं। और एक विवाह-बंधन तभी मज़बूत बन सकता है जब पति-पत्नी दोनों मिलकर अपने सृष्टिकर्ता की भक्‍ति करते हैं और पूरी तरह उसके मार्गदर्शन पर चलते हैं। इस तरह यहोवा का आदर होता है और वैवाहिक-जीवन की शुरूआत एक पक्की आध्यात्मिक नींव पर होती है और ऐसी नींव पर बना रिश्‍ता हमेशा कायम रहता है।

[फुटनोट]

^ फरवरी 15, 1999 की प्रहरीदुर्ग के पेज 4-8 देखिए।

आप कैसे जवाब देंगे?

• एक अच्छा जीवन-साथी को चुनने के लिए परमेश्‍वर का मार्गदर्शन क्यों ज़रूरी है?

• विवाह-बंधन को मज़बूत बनाने के लिए इश्‍वरीय भक्‍ति कैसे मदद करती है?

• माता-पिता अपने बच्चों को विवाह के लिए कैसे तैयार कर सकते हैं?

• ‘विवाह केवल प्रभु में करना’ क्यों ज़रूरी है?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 17 पर तसवीरें]

अपने जीवन-साथी को चुनने के लिए परमेश्‍वर की सलाह को अपनाने से बहुत-सी खुशियाँ मिलती हैं

[पेज 18 पर तसवीरें]

‘विवाह केवल प्रभु में करने’ से ढेरों आशीषें मिलती हैं