यहोवा की सेवा में कदम-कदम पर हुए अचंभे
जीवन कहानी
यहोवा की सेवा में कदम-कदम पर हुए अचंभे
एरिक और हेज़ल बेवरिज की ज़ुबानी
“तुम्हें छः महीने के लिए जेल की सज़ा सुनायी जाती है।” जब मुझे मैनचेस्टर, इंग्लैंड की स्ट्रेंजवेज़ जेल में ले जाया जा रहा था, उस वक्त ये शब्द बार-बार मेरे कानों में गूँज रहे थे। यह दिसंबर 1950 की बात है जब मैं 19 साल का था। अभी-अभी मैंने अपनी जवानी की एक बहुत कठिन परीक्षा का सामना किया था। मैंने सेना में भरती होने से इंकार कर दिया था।—2 कुरिन्थियों 10:3-5.
मैं यहोवा के एक साक्षी के तौर पर पूरे समय की पायनियर सेवा कर रहा था। धर्म का सेवक होने के नाते मुझे सेना में भरती न होने की छूट मिलनी चाहिए थी लेकिन ब्रिटेन के कानून ने हमें यह मान्यता देने से इंकार कर दिया। यही वजह थी कि मुझे जेल में डाल दिया गया। जेल में अकेला, मैं अपने पापा के बारे में सोच रहा था, देखा जाए तो मैं उन्हीं की वजह से जेल में था।
दरअसल मेरे पापा एक जेल अधिकारी थे और यॉर्कशायर के रहनेवाले थे। वे अपने विश्वासों और उसूलों के पक्के थे। सेना में काम करते वक्त और जेल अधिकारी के तौर पर उन्होंने जो देखा उसकी वजह से उन्हें कैथोलिक धर्म से सख्त नफरत हो गयी थी। फिर 1930 में पहली बार उनकी मुलाकात यहोवा के साक्षियों से हुई। जब साक्षी हमारे घर आए तो पापा उन्हें भगाने के लिए दरवाज़े पर गए मगर जब वापस लौटे तो उनके हाथ में कुछ किताबें थीं! बाद में उन्होंने कन्सोलेशन पत्रिका (जो अब अवेक! कहलाती है) का सबस्क्रिप्शन लिया। साक्षी हर साल पापा से मिलने आते और उन्हें अपना सबस्क्रिप्शन जारी रखने का बढ़ावा देते थे। जब मैं 15 साल का था, उस वक्त जब साक्षी पापा के साथ चर्चा करने आए तब मैंने भी उस चर्चा में हिस्सा लिया। मैंने बात-चीत में साक्षियों का पक्ष लिया और बस तभी से बाइबल अध्ययन करना शुरू कर दिया।
मार्च 1949 में, मैंने 17 साल की उम्र में बपतिस्मा लेकर यहोवा से किया गया अपना समर्पण ज़ाहिर किया। उसी साल
के आखिर में मेरी मुलाकात जॉन और माइकल चरुक से हुई जो हाल ही में गिलियड मिशनरी स्कूल से ग्रेजुएट हुए थे और नाइजेरिया जा रहे थे। मिशनरी सेवा के लिए उनका जोश देखकर मुझ पर गहरा असर पड़ा। उन्हें इस बात का एहसास था या नहीं, मगर उन्होंने इस काम की उमंग मेरे दिल में भर दी।बाइबल सीखने के दौरान मैंने यूनिवर्सिटी में ऊँची शिक्षा हासिल करने का इरादा छोड़ दिया। मैं घर छोड़कर लंदन चला गया और वहाँ कस्टम और एक्साइज़ ऑफिस में काम करने लगा। लेकिन साल-भर के अंदर मुझे यह एहसास हुआ कि अगर मैं यह नौकरी करता रहा तो परमेश्वर को किए गए अपने समर्पण के मुताबिक नहीं जी पाऊँगा। जब मैंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दिया तो एक अनुभवी सहकर्मी ने “ज़मीर मारकर की जानेवाली यह नौकरी” छोड़ने के लिए मुझे बधाई दी।
मगर नौकरी छोड़ने से पहले मुझे एक और परीक्षा का सामना करना पड़ा कि मैं अपने पापा से कहूँ तो कैसे कहूँ कि मैं अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर पूरे समय का सेवक बनना चाहता हूँ। जब मैं छुट्टियों में घर आया हुआ था, तब एक दिन शाम के वक्त मैंने पापा को आखिर बता दिया। मैं बस इस इंतज़ार में था कि उनके गुस्से की ज्वालामुखी कब फूट पड़ेगी। लेकिन जब मैंने उनका जवाब सुना तो हक्का-बक्का रह गया क्योंकि उन्होंने बस इतना कहा: “तुम्हारा फैसला है, तुम्ही जानो। लेकिन अगर तुम कामयाब नहीं हुए तो मदद के लिए मेरे पास मत आना।” जनवरी 1,1950 को अपनी डायरी में मैंने लिखा: “मैंने अपने पापा से पायनियरिंग करने के बारे में कहा। जब मैंने देखा कि वे मेरे फैसले के खिलाफ नहीं हैं तो मैं बिलकुल दंग रह गया। उनकी इस मेहरबानी पर मैं रो पड़ा।” मैंने अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और पूरे समय का पायनियर बन गया।
‘छोटे-से घर’ के साथ एक असाइन्मेंट
अब परमेश्वर के लिए अपनी भक्ति साबित कर दिखाने की अगली परीक्षा आयी। मुझे पायनियरिंग करने के लिए वेल्ज़ से आए भाई लॉइड ग्रिफिथ्स के साथ लैंकशायर में एक ‘छोटे-से घर’ में रहना था। वहाँ जाने से पहले मैंने उस घर के बारे में न जाने क्या-क्या सपने संजोए थे। लेकिन जब मैं पानी से तर-बतर बैक्कप नाम के कस्बे में पहुँचा तो मैं हकीकत से दो-चार हुआ! मैंने देखा कि वह छोटा-सा घर दरअसल एक तहखाना था! और हर रात चूहे और कॉकरोच हमारा हाल-चाल जानने आते थे। मैं इतना परेशान हो गया कि दिल चाहा उस जगह को छोड़कर वापस अपने घर लौट जाऊँ। लेकिन फिर मैंने अपने आपको सँभाला और मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे इस परीक्षा को पार करने की सामर्थ दे। अचानक, मैंने बहुत सुकून महसूस किया और अपने हालात को दूसरे रुख से देखना शुरू किया। मैंने खुद को याद दिलाया कि यहाँ मुझे यहोवा के संगठन ने भेजा है। इसलिए मदद के लिए मैं यहोवा पर पूरा भरोसा रखूँगा। आज मैं यह सोचकर बेहद खुश हूँ कि मैंने हार नहीं मानी वरना मेरी ज़िंदगी की कहानी ही कुछ और होती!—यशायाह 26:3,4.
मैंने रॉसंडेल घाटी के इलाके में नौ महीने प्रचार किया। उन दिनों वहाँ की आर्थिक हालत बहुत खराब थी। फिर सेना में भरती होने से इंकार करने के जुर्म में मुझे जेल हो गई। मैं स्ट्रेंजवेज़ जेल में दो हफ्ते रहा और इसके बाद मुझे लूयिस जेल भेज दिया गया जो इंग्लैंड के दक्षिणी तट पर है। जेल में हम साक्षियों की गिनती बढ़कर पाँच हो गयी। वहाँ हमने यीशु की मौत का स्मारक भी मनाया।
जेल में एक बार पापा मुझसे मिलने आए। यह उनके अभिमान के लिए वाकई एक बड़ी परीक्षा रही होगी। आखिर वे एक जाने-माने जेल अधिकारी जो थे! उनकी उस मुलाकात का मैं हमेशा आभारी रहूँगा। आखिरकार, अप्रैल 1951 को मैं जेल से रिहा हो गया।
लूयिस जेल से रिहा होने के बाद, मैं ट्रेन से कारडिफ वेल्ज़ की ओर निकल पड़ा, जहाँ मेरे पापा प्रमुख जेल अधिकारी की हैसियत से नौकरी कर रहे थे। हम तीन भाई और एक बहन थे जिनमें मैं सबसे बड़ा था। अब मुझे एक पार्ट-टाइम नौकरी ढूँढ़नी थी जिससे मैं अपना खर्चा निकाल सकूँ, साथ ही पायनियरिंग भी कर सकूँ। मैं कपड़े की एक दुकान में काम करने लगा मगर मेरी ज़िंदगी का खास मकसद था, मसीही सेवकाई करना। इसी दौरान मम्मी हमें छोड़कर चली गयी। इससे पापा और हम बच्चों को बहुत ठेस पहुँची। उस वक्त हम बच्चों की उम्र 8 से 19 साल के बीच थी। दुःख की बात है कि बाद में मम्मी-पापा का तलाक हो गया।
जिसने अच्छी पत्नी पायी . . .
हमारी कलीसिया में बहुत-से पायनियर थे। उन्हीं में एक बहन थी, हेज़ल ग्रीन जो पायनियरिंग करने में एक उम्दा मिसाल थी। वह हर रोज़ अपनी नौकरी और प्रचार काम के लिए रॉन्डा घाटी से आया करती थी, जहाँ कोयले की खान थी। हेज़ल को मुझसे कई साल पहले से सच्चाई मालूम थी।
उसके मम्मी-पापा 1920 से बाइबल विद्यार्थियों (जो अब यहोवा के साक्षी कहलाते हैं) की सभाओं में हाज़िर होते थे। आइए उसकी कहानी उसी की ज़ुबानी सुनें।“सन् 1944 में जब मैंने बुकलेट रिलिजियन रीप्स द वर्लविंड पढ़ी तब जाकर मैंने बाइबल की अहमियत समझी। मम्मी ने किसी तरह मुझे कारडिफ में हो रही एक सर्किट असेंबली में जाने के लिए मना लिया। उस वक्त मुझे बाइबल के बारे में रत्ती-भर भी जानकारी नहीं थी, फिर भी मैं बीच बाज़ार में, गले में इश्तहार लटकाए हुए खड़ी थी जिस पर जन-भाषण का विषय लिखा हुआ था। हालाँकि पादरियों और दूसरे लोगों ने मुझे डराया-धमकाया, मगर मैंने हिम्मत नहीं हारी। मैंने 1946 में बपतिस्मा ले लिया और उसी साल दिसंबर से पायनियरिंग शुरू कर दी। फिर 1951 में एक युवा पायनियर, कारडिफ पहुँचा जो अभी-अभी जेल से रिहा हुआ था। और वह था, एरिक।
“हम दोनों साथ-साथ प्रचार जाते थे। हमें एक-दूसरे का साथ बहुत अच्छा लगता था। और हमारे जीवन का लक्ष्य भी एक था कि हम, परमेश्वर के राज्य को ही पहला स्थान दें। इसलिए हमने दिसंबर 1952 में शादी कर ली। हालाँकि हम दोनों पूरे समय की सेवा करते थे और हमारे पास ज़्यादा पैसे नहीं थे, मगर फिर भी हमें कभी-भी रोज़मर्रा की ज़रूरतों की कमी महसूस नहीं हुई। एक बहन हमें कभी-कभी तोहफे में जैम या साबुन देती थी, जब अपने घर के लिए खरीददारी करते वक्त वह ये चीज़ें ज़्यादा खरीद लेती थी। और ताज्जुब की बात है कि ये चीज़ें हमें उसी वक्त मिलतीं जब हमें उनकी सख्त ज़रूरत पड़ती थी! भाई-बहनों ने इस तरह हमारी जो मदद की, उसके लिए हम बहुत शुक्रगुज़ार हैं। लेकिन अब तो इससे भी बड़े-बड़े अचंभे होनेवाले थे।”
ऐसा अचंभा जिसने हमारी ज़िंदगी बदल डाली
नवंबर 1954 में मेरे साथ कुछ ऐसा हुआ जिसकी मुझे उम्मीद भी नहीं थी। लंदन में यहोवा के साक्षियों के शाखा दफ्तर से मुझे सफरी ओवरसियर के तौर पर सेवा करने के लिए एक आवेदन-पत्र मिला यानी मुझे हर हफ्ते एक-एक कलीसिया का दौरा करना था। हमने सोचा कि शायद यह खत गलती से हमें भेज दिया गया है इसलिए हमने इसके बारे में कलीसिया में किसी को भी नहीं बताया। फिर भी मैंने वह फॉर्म भरकर भेज दिया और हम जवाब के लिए इंतज़ार की घड़ियाँ गिनने लगे। कुछ दिनों बाद जवाब आया: “ट्रेनिंग के लिए लंदन आ जाइए!”
लंदन के शाखा दफ्तर पहुँचकर मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि 23 साल की उम्र में मैं ऐसे भाइयों के बीच था जो आध्यात्मिक मायने में मेरे लिए दिग्गज थे। उनमें प्राइस हृयूज़, एमलिन वाइन्स, अर्नी बीवर, अर्नी गाइवर, बॉब गॉफ, ग्लिन पार, स्टैन और मार्टिन वुडबर्न और दूसरे कई भाई थे। इनमें से बहुत जन अब नहीं रहे। उन्होंने 1940 और 1950 के दशक के दौरान ब्रिटेन में जोश और वफादारी से सेवा करके एक मज़बूत नींव डाली।
इंग्लैंड में सर्किट काम—जिससे हम कभी नहीं उकताए
हमने अपना सफरी काम 1954/55 के दौरान हिमपात के मौसम में शुरू किया। हमें ईस्ट ऐन्गलिया भेजा गया। यह इंग्लैंड का एक सपाट इलाका है, जहाँ उत्तरी सागर से ठंडी हवाएँ चलती हैं। उन दिनों ब्रिटेन में केवल 31,000 साक्षी थे। उस पहले सर्किट का दौरा करना मेरे लिए आसान नहीं था, साथ ही भाई-बहनों को भी मुझसे परेशानी होती थी, क्योंकि एक तो मुझे कम तजुर्बा था दूसरा यॉर्कशायर का रहनेवाला होने की वजह से मैं मुँहफट था। कभी-कभी मेरी बातों से भाइयों को चोट भी पहुँचती थी। लेकिन बीते सालों के दौरान मैंने सीखा कि काम-काज में निपुणता से बढ़कर ज़रूरी है कि हम दूसरों के साथ प्यार से पेश आएँ और याद रखें कि कायदे-कानून से ज़्यादा इंसान मायने रखते हैं। यीशु ने दूसरों को ताज़गी देने की जो मिसाल रखी, उस पर चलने की मैं अब भी कोशिश करता हूँ, हालाँकि इसमें कई बार मैं चूक जाता हूँ।—मत्ती 11:28-30.
ईस्ट ऐन्गलिया में 18 महीने रहने के बाद, हमें इंग्लैंड के उत्तर-पूर्व में न्यूकासल अपॉन टाइन इलाके और नॉर्थमबरलैंड
की सर्किट में भेजा गया। यह जगह बहुत खूबसूरत है और लोग भी दिल के बड़े अच्छे हैं। जब अमरीका के सीऎटल, वाशिंगटन से डिस्ट्रिक्ट ओवरसियर, भाई डॉन वार्ड यहाँ का दौरा करने आए तो मैंने उनसे काफी कुछ सीखा। वे गिलियड की 20वीं क्लास के ग्रेजुएट थे। मैं भाषण देते वक्त एक ही साँस में सबकुछ कह देता था। उन्होंने सिखाया कि भाषण देते वक्त कैसे आराम से सही जगह रूकते हुए बोलना है, और कैसे सिखाना है।दूसरा अचंभा जिसने हमारी ज़िंदगी बदलकर रख दी
सन् 1958 में हमें एक और खत मिला जिसने हमारी ज़िंदगी को एक नया मोड़ दिया। हमें साउथ लैंसिंग, न्यू यॉर्क, अमरीका में गिलियड स्कूल में हाज़िर होने का न्यौता दिया गया। हमने अपनी 1935 वाली छोटी-सी ऑस्टीन सॆवन गाड़ी बेचकर न्यू यॉर्क जाने के लिए टिकटें खरीदी। न्यू यॉर्क शहर में हम पहले अंतर्राष्ट्रीय ज़िला अधिवेशन में हाज़िर हुए। वहाँ से गिलियड स्कूल जाने से पहले हमने ऑन्टॆरीयो के पीटरबोरो में छः महीने पायनियरिंग की।
गिलियड स्कूल के शिक्षकों में एलबर्ट श्रोडर भी थे जो अब शासी निकाय के सदस्य हैं। और मैक्सवैल फ्रेंड और जैक रॆडफर्ड भी थे जो अब नहीं रहे। चौदह देशों से आए 82 विद्यार्थियों के साथ रहकर सचमुच हमारा बहुत हौसला बढ़ा। हम एक-दूसरे की संस्कृति के बारे में थोड़ा-बहुत समझ पाए। दूसरे देशों के कुछ विद्यार्थियों को जब हमने देखा कि किस तरह उन्हें अँग्रेज़ी सीखने के लिए हाथ-पैर मारने पड़ रहे हैं, तो हमें एक झलक मिली कि दूसरी भाषा सीखने के लिए हमें भी कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। पाँच महीनों के अंदर हमने अपनी ट्रेनिंग पूरी कर ली और हम सबको 27 देशों में जाने की नियुक्ति मिली। फिर ग्रेजुएशन के कुछ ही दिनों बाद हम न्यू यॉर्क शहर में क्वीन एलिज़बेथ जहाज़ का इंतज़ार कर रहे थे जो हमें वापस यूरोप ले जाता।
पहला देश जहाँ हमें भेजा गया
क्या आप जानते हैं, हमें कहाँ भेजा गया? पुर्तगाल! हम 1959 में पुर्तगाल के लिस्बन शहर में पहुँचे। अब नयी भाषा सीखने और नयी संस्कृति के मुताबिक खुद को ढालने की हमारी आज़माइश शुरू हो गयी। सन् 1959 में पुर्तगाल की आबादी करीब 90 लाख थी और तब यहाँ 643 साक्षी सेवा कर रहे थे। लेकिन हमारे काम को कानूनी मान्यता नहीं मिली थी। हालाँकि हमारी सभाएँ राज्यगृह में होती थीं मगर पहचान के लिए बाहर कोई बोर्ड नहीं लगा होता था।
ऐल्ज़ा पीकोनी नाम की मिशनरी बहन से पुर्तगाली भाषा सीखने के बाद मैंने और हेज़ल ने लिस्बन, फारू, इवूरा और बेशा शहरों और उनके आस-पास की कलीसियाओं और समूहों का दौरा किया। लेकिन 1961 में हालात बदलने शुरू हो गए। मैं श्वाउन गॉन्सालवेज़ माटेयुस नाम के एक युवक को बाइबल अध्ययन कराता था। जब सेना में काम करने का मसला उठा तो उसने एक मसीही के तौर पर निष्पक्ष रहने का फैसला किया। इसके कुछ ही समय बाद पूछताछ के लिए मुझे पुलिस स्टेशन बुलाया गया। अब एक और अचंभा! कुछ ही दिनों बाद हमें सूचना दी गयी कि 30 दिन के अंदर-अंदर हमें वह देश छोड़ना होगा! हमारे साथ काम करनेवाले दूसरे मिशनरियों को भी देश छोड़ने का आदेश दिया गया। वे थे, एरिक और क्रिस्टीना ब्रीटान और डोमनिक और एल्ज़ा पीकोनी।
जब मैंने इस मामले की सुनवाई के लिए अपील की तो हमें खुफिया पुलिस के प्रमुख से मिलने की इजाज़त दी गयी। उसने खरे-खरे शब्दों में बता दिया कि क्यों हमें पुर्तगाल छोड़ना है और उसने श्वाउन गॉन्सालवेज़ माटेयुस का नाम लिया, वही जिसे मैं बाइबल पढ़ाता था! उस प्रमुख ने कहा कि यह पुर्तगाल है, ब्रिटेन नहीं। यहाँ अपने-अपने ज़मीर के कहे अनुसार चलने की खुली छूट नहीं है। इसलिए हमें पुर्तगाल छोड़ना ही 1 कुरिन्थियों 3:6-9.
पड़ा। इसके बाद मुझे श्वाउन की कोई खबर नहीं रही। लेकिन 26 साल बाद जब हम पुर्तगाल में नए बेथेल के समर्पण के अवसर पर गए तो वहाँ श्वाउन को अपनी पत्नी और तीन बेटियों के साथ देखकर हमारी खुशी का ठिकाना न रहा! बेशक, पुर्तगाल में हमारी सेवकाई व्यर्थ नहीं गई!—अब हमें कहाँ जाना था? एक और अचंभा! पुर्तगाल का पड़ोसी देश, स्पेन। आँखों में आँसू लिए फरवरी 1962 में हमने लिस्बन से ट्रेन पकड़ी और मेड्रिड की ओर निकल पड़े।
एक और संस्कृति के मुताबिक खुद को ढालना
स्पेन में हमें छिप-छिपकर प्रचार करना और सभाएँ चलाना सीखना था। सेवकाई के दौरान हम कभी-भी एक घर में प्रचार करने के बाद अगले घर में नहीं जाते थे बल्कि दूसरी गली में जाकर किसी और बिल्डिंग में प्रचार करते थे। इस तरह पुलिस और पादरी हमें पकड़ने में नाकामयाब होते थे। हम आपको बता दें कि हम फासिस्टवादी कैथोलिकों की तानाशाही हुकूमत में जी रहे थे और हमारे प्रचार काम पर रोक लगी हुई थी। हम परदेशी अपनी पहचान छिपाने के लिए स्पेनिश नाम बताते थे। इस तरह मैं पेब्लो बन गया और हेज़ल, क्वाना।
कुछ महीने मेड्रिड में रहने के बाद, हमें सर्किट काम के लिए बार्सेलोना भेजा गया। उस शहर में हमने कई कलीसियाओं का दौरा किया। हम अकसर एक कलीसिया में दो या तीन हफ्ते बिताते थे। हमें इतना वक्त इसलिए लगता था क्योंकि हमें हर बुक स्टडी ग्रूप का दौरा करना होता था मानो वह एक कलीसिया हो। इसका मतलब था कि अकसर हम एक हफ्ते में दो ग्रूप का दौरा करते थे।
अचानक आ पड़ी चुनौती
सन् 1963 में हमें स्पेन में डिस्ट्रिक्ट काम सौंपा गया। इस काम के तहत हमें पूरे देश में फैले नौ सर्किटों का दौरा करना था, जहाँ 3,000 प्रचारक थे। हमने सॆविल के पास एक जंगल में, हीहोन शहर के पास फार्म में और मेड्रिड, बार्सेलोना और लाग्रोन्यो के पास नदियों के किनारे छिप-छिपकर सर्किट असेंबलियाँ आयोजित कीं। ये मौके हम कभी नहीं भूल सकते।
घर-घर के प्रचार में मैं एहतियात के तौर पर, आस-पास की सड़कों का नक्शा पहले से ही देखकर रखता था ताकि अगर कुछ गड़बड़ हो जाए, तो हमें वहाँ से भाग निकलने में कोई परेशानी न हो। एक बार मेड्रिड में मैं और एक दूसरा भाई, एक बिल्डिंग की ऊपरी मंज़िल पर गवाही दे रहे थे। तभी अचानक नीचे से चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें आने लगीं। जब हम नीचे आए तो देखा कि किशोर लड़कियों की एक टोली वहाँ थी। ये लड़कियाँ इखास डे मारिया (मरियम की बेटियाँ) नाम की एक कैथोलिक दल की सदस्या थीं। वे वहाँ के रहनेवालों को हमारे खिलाफ भड़का रही थीं। हम उन्हें समझा नहीं सके इसलिए मुझे लगा कि इससे पहले कि पुलिस आकर हमें धर-दबोचे, हमें यहाँ से तुरंत निकल जाना चाहिए। इसलिए हम वहाँ से फौरन भाग खड़े हुए!
स्पेन में वे साल हमारे लिए बड़े रोमांचक थे। वहाँ के भाई-बहन सच्चाई में अच्छी मिसाल थे। हम उनका और स्पेशल पायनियरों का भी उत्साह बढ़ाते थे। उन्होंने परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाने, नयी कलीसियाएँ बनाने और उन्हें मज़बूत करने की खातिर जेल में जाने का जोखिम उठाया और अकसर गरीबी में दिन काटे।
इस दौरान हमें एक बुरी खबर मिली। हेज़ल बताती है: “सन् 1964 में मेरी मम्मी चल बसीं। वह यहोवा की एक वफादार सेवक थीं। यह मेरे लिए बहुत बड़ा सदमा था कि मैं अपनी मम्मी से उनके आखिरी वक्त में मिल भी ना सकी। यह ऐसा दर्द है जो हमारी तरह बहुत-से दूसरे मिशनरियों को सहना पड़ा है।”
आखिरकार धार्मिक आज़ादी मिली
सालों तक ज़ुल्म सहने के बाद जुलाई 1970 में कहीं जाकर हमारे काम को फ्रैंको सरकार से कानूनी मान्यता मिली। फिर जब मेड्रिड में पहला और बार्सेलोना के लेसेप्स में दूसरा राज्यगृह खुला तो मैं और हेज़ेल खुशी से फूले नहीं समाए। इन राज्यगृहों की पहचान में हमने बड़े-बड़े बोर्ड
लगाए और उन्हें रोशन किया। हम लोगों को जताना चाहते थे कि यहोवा के साक्षियों को कानूनी मान्यता मिल चुकी है और अब हम यहीं रहेंगे! उस समय यानी 1972 में स्पेन में करीब 17,000 साक्षी थे।इसी दौरान मुझे इग्लैंड से एक खुशखबरी मिली। मेरे पापा 1969 में हमसे मिलने स्पेन आए थे। स्पेन के भाई-बहनों ने उनके साथ इतना अच्छा बर्ताव किया कि वे प्रभावित हो गए और इंग्लैंड वापस जाने के बाद उन्होंने बाइबल अध्ययन करना शुरू किया। और फिर 1971 में मुझे खबर मिली कि उन्होंने बपतिस्मा ले लिया! वह दिन मैं कभी नहीं भूल सकता जब हम पापा से मिलने घर गए तो खाने के वक्त उन्होंने ही प्रार्थना की। यही दिन देखने के लिए 20 से भी ज़्यादा सालों से मेरी आँखें तरस रही थीं। मेरा भाई बॉब और उसकी पत्नी आइरिस 1958 में साक्षी बन गए थे। उनका बेटा फिलिप अब अपनी पत्नी जीन के साथ बतौर सफरी ओवरसियर, स्पेन में सेवा कर रहा है। इस बढ़िया देश में उन्हें सेवा करते देख हमें बड़ी खुशी होती है।
हाल ही में हुआ एक अचंभा
फरवरी 1980 में शासी निकाय के एक सदस्य ने ज़ोन ओवरसियर के तौर पर स्पेन का दौरा किया। मुझे बड़ी हैरत हुई जब उन्होंने कहा कि वे मेरे साथ प्रचार करना चाहते हैं। मुझे क्या मालूम था कि वे मुझे परख रहे थे! उसके बाद सितंबर में हमें ब्रुकलिन, न्यू यॉर्क के विश्व-मुख्यालय में आने का बुलावा दिया गया! हम बिलकुल चौंक गए। हालाँकि अपने स्पेनिश भाइयों को छोड़कर जाना हमारे लिए आसान नहीं था, मगर फिर भी हमने उस बुलावे को स्वीकार कर लिया। उस वक्त स्पेन में 48,000 साक्षी थे!
वहाँ से विदा लेते वक्त एक भाई ने तोहफे में मुझे जेब में रखनेवाली एक छोटी-सी घड़ी दी। उस घड़ी पर “लूकस 16:10; लूकस 17:10” की आयतें लिखीं हुई थीं। उन्होंने कहा कि ये आपकी मनपसंद आयतें हैं। लूका 16:10 में बताया है कि हमें छोटी-छोटी बातों में भी सच्चा रहना चाहिए। और लूका 17:10 बताता है कि हम “निकम्मे दास” हैं इसलिए हमारे लिए घमंड से फूलने की कोई वजह नहीं है। मैं हमेशा यही मानता हूँ कि हम यहोवा की सेवा चाहे जितनी भी करें, हम समर्पित मसीहियों के तौर पर सिर्फ अपना फर्ज़ निभा रहे हैं।
सेहत से जुड़ा एक अचंभा
सन् 1990 में मुझे हृदय रोग लग गया। मेरे हृदय की एक धमनी संकरी हो चुकी थी इसलिए उसे खोलने के लिए अंदर एक नली डालनी पड़ी। इस दौरान जब मैं बहुत कमज़ोर हो गया था, तब हेज़ल ने मेरी बहुत मदद की। वही अकसर हमारा बैग और सूटकेस उठाती थी क्योंकि मुझसे उठाया नहीं जाता था। फिर मई 2000 को मेरे अंदर एक पेसमेकर लगाया गया। इससे कितना भारी बदलाव आया है!
पिछले 50 सालों से मैंने और हेज़ल ने देखा है कि यहोवा का हाथ छोटा नहीं है और उसके मकसद हमारे हिसाब से नहीं बल्कि उसके ठहराए हुए वक्त पर पूरे होते हैं। (यशायाह 59:1; हबक्कूक 2:3) हमने ज़िंदगी में बहुत-से उतार-चढ़ाव देखे जिनमें बहुत-से मौके खुशी के थे तो कुछ गम के भी। लेकिन यहोवा ने हमें हर कदम पर सँभाला। यहाँ यहोवा के लोगों के विश्व-मुख्यालय में रहना कितनी बड़ी आशीष है कि हम गवर्निंग बॉडी के सदस्यों से रोज़ाना मिल सकते हैं। कभी-कभी मैं खुद से पूछता हूँ, ‘क्या हम वाकई यहाँ हैं?’ यह बस परमेश्वर के अनुग्रह से ही मुमकिन हो पाया है। (2 कुरिन्थियों 12:9) हमें यहोवा पर पूरा भरोसा है कि वह आगे भी शैतान की चालों से हमारी हिफाज़त करता रहेगा जिससे हम वह दिन देख सकें जब धरती पर उसका धर्मी शासन होगा।—इफिसियों 6:11-18; प्रकाशितवाक्य 21:1-4.
[पेज 26 पर तसवीर]
मैनचेस्टर की स्ट्रेंजवेज़ जेल, जहाँ मैंने पहली सज़ा काटी
[पेज 27 पर तसवीर]
ऑस्टिन सॆवन गाड़ी के साथ इंग्लैंड में सर्किट काम करते हुए
[पेज 28 पर तसवीर]
सन् 1962 में स्पेन, मेड्रिड के थेरसेडील्या में एक गुप्त सम्मेलन
[पेज 29 पर तसवीर]
ब्रुकलिन की वह मेज़ जिस पर हमारे बाइबल साहित्य प्रदर्शित किए गए हैं