इस जानकारी को छोड़ दें

विषय-सूची को छोड़ दें

अपने हृदय की रक्षा कीजिए

अपने हृदय की रक्षा कीजिए

अपने हृदय की रक्षा कीजिए

“सबसे अधिक अपने हृदय की रक्षा कर; क्योंकि जीवन के स्रोत उससे ही फूटते हैं।”नीतिवचन 4:23, नयी हिन्दी बाइबिल।

1, 2. हमें अपने हृदय की रक्षा क्यों करनी चाहिए?

 एक करेबियन द्वीप पर आए ज़ोरदार तूफान के बाद एक बूढ़ा घर से बाहर निकला। वह देखना चाहता था कि तूफान ने क्या-क्या तबाही मचायी है। उसने अपने घर के गेट पर नज़र डाली तो दंग रह गया। वहाँ एक विशालकाय पेड़ बरसों से खड़ा था लेकिन अब नहीं था। वह ताज्जुब करने लगा ‘यह कैसे हो सकता है, जबकि आस-पास के छोटे-छोटे पेड़ सही सलामत खड़े हैं?’ लेकिन जब उसने उस पेड़ के ठूँठ को देखा तो उसे समझ आया। बाहर से इतना मज़बूत दिखनेवाला यह पेड़, असल में अंदर से पूरी तरह सड़ चुका था। तूफान ने तो बस इसे सबके सामने ज़ाहिर कर दिया था।

2 इसी तरह अगर बरसों से परमेश्‍वर की सेवा करनेवाला एक प्रौढ़ मसीही, विश्‍वास की किसी परीक्षा में गिर जाए तो यह कितने दुःख की बात होगी। बाइबल बिलकुल सच कहती है कि “इंसान के दिल का ख़याल लड़कपन से बुरा है।” (उत्पत्ति 8:21, किताब-ए-मुकद्दस) इसका मतलब है कि सबसे नेकदिल इंसान भी अगर हमेशा चौकन्‍ने न रहें तो उनका हृदय उन्हें बुरे काम करने के लिए लुभा सकता है। हम असिद्ध इंसानों में ऐसा एक भी नहीं, जिसके हृदय को भ्रष्ट होने का खतरा न हो। इसलिए हमें इस सलाह को गंभीरता से लेना चाहिए: “सबसे अधिक अपने हृदय की रक्षा कर; क्योंकि जीवन के स्रोत उससे ही फूटते हैं।” (नीतिवचन 4:23, नयी हिन्दी बाइबिल) लेकिन हम अपने हृदय की रक्षा कैसे कर सकते हैं?

समय-समय पर जाँच—बेहद ज़रूरी

3, 4. (क) हमारे शरीर के हृदय के बारे में कौन-से सवाल पूछे जा सकते हैं? (ख) अपने आध्यात्मिक हृदय की जाँच करने में कौन-सी बात हमारी मदद करेगी?

3 अगर आप डॉक्टर के पास अपने शरीर की जाँच करवाने जाएँगे, तो वह ज़रूर आपके हृदय की भी जाँच करेगा। वह देखेगा कि क्या आपकी सेहत से, जिसमें आपका हृदय भी शामिल है, मालूम पड़ता है कि आपके शरीर को भरपूर पौष्टिक तत्व मिल रहे हैं? आपका रक्‍त-चाप कैसा है? क्या आपके हृदय की धड़कन सही तरह से और बराबर चल रही है? क्या आपके शरीर की अच्छी कसरत हो रही है? क्या आपके हृदय को बहुत तनाव झेलना पड़ रहा है?

4 अगर शरीर के हृदय की समय-समय पर जाँच ज़रूरी है, तो आपके आध्यात्मिक हृदय के बारे में क्या? यहोवा इसे जाँचता है। (1 इतिहास 29:17) खुद हमें भी हृदय की जाँच करते रहनी चाहिए। यह हम कैसे कर सकते हैं? खुद से ऐसे सवाल पूछकर: क्या मैं नियमित तौर पर अध्ययन करने और सभाओं में हाज़िर होने के ज़रिए अपने हृदय को भरपूर आध्यात्मिक खुराक दे रहा हूँ? (भजन 1:1,2; इब्रानियों 10:24,25) क्या यहोवा का संदेश मेरे अंदर “हड्डियों में धधकती हुई आग” की तरह है जो मुझे राज्य का प्रचार करने और चेला बनाने के लिए उकसाता है? (यिर्मयाह 20:9; मत्ती 28:19,20; रोमियों 1:15,16) क्या मैं सेवकाई में कड़ी मेहनत करने को तैयार रहता हूँ और जब मुमकिन हो तब किसी तरह की पूरे-समय की सेवा में हिस्सा लेता हूँ? (लूका 13:24) मैं अपने हृदय पर कैसी बातों का असर पड़ने देता हूँ? क्या मेरी दोस्ती ऐसे लोगों से है, जो पूरे हृदय से सच्ची उपासना करते हैं? (नीतिवचन 13:20; 1 कुरिन्थियों 15:33) आइए हम ऐसी जाँच करके अपने हृदय में जो भी कमज़ोरी हो, उसका पता लगाने और उसे सुधारने के लिए फौरन कदम उठाएँ।

5. विश्‍वास की परीक्षाओं से क्या फायदा होता है?

5 हमें अकसर अपने विश्‍वास की खातिर परीक्षाओं से गुज़रना पड़ता है। और इन परीक्षाओं से हमें जानने का मौका मिलता है कि हमारे हृदय की हालत कैसी है। जब इस्राएली, वादा किए गए देश के बिलकुल नज़दीक पहुँच गए थे, तब मूसा ने उनसे कहा: ‘यहोवा तुम्हारे परमेश्‍वर ने मरुभूमि में चालीस वर्ष तक तुम्हें यात्रा कराई है। यहोवा तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। वह तुम्हें विनम्र बनाना चाहता था। वह चाहता था कि वह तुम्हारे हृदय की बात जानें कि तुम उसके आदेशों का पालन करोगे या नहीं।’ (व्यवस्थाविवरण 8:2, ईज़ी-टू-रीड वर्शन) जब हमारी ज़िंदगी में अचानक कुछ हालात पैदा होते हैं या प्रलोभन आते हैं, तब हम अकसर जो रवैया दिखाते हैं और हमारे अंदर जो भावनाएँ या इच्छाएँ पैदा होती हैं, क्या उन्हें देखकर हमें ताज्जुब नहीं होता? यहोवा हम पर जो परीक्षाएँ आने देता है, उनसे वाकई हमें अपनी कमज़ोरियों का एहसास होता है। और इससे हमें सुधार करने का मौका मिलता है। (याकूब 1:2-4) इसलिए परीक्षाएँ आने पर हम जैसा रवैया दिखाते हैं, उसके बारे में गहराई से सोचना और अपनी कमज़ोरी पर जीत पाने के लिए प्रार्थना करना हम कभी न भूलें!

हमारी बातचीत से क्या ज़ाहिर होता है?

6. हम जैसी बातें करना पसंद करते हैं, उनसे हमारे हृदय के बारे में क्या ज़ाहिर हो सकता है?

6 हम यह कैसे जान सकते हैं कि हमने अपने हृदय में कैसी बातें भर रखी हैं? यीशु ने कहा था: “भला मनुष्य अपने हृदय के भले ख़जाने से भली बातों को ही निकालता है, पर बुरा मनुष्य अपने हृदय के बुरे ख़जाने से बुरी बातें निकालता है, क्योंकि जिन बातों से उसका हृदय भरा होता है उन्हीं बातों को वह मुंह पर लाता है।” (लूका 6:45, NHT) अकसर हम जिन विषयों पर दूसरों से बात करते हैं, उनसे यह साफ पता लगाया जा सकता है कि हमारे इरादे क्या हैं। क्या हम अकसर धन-दौलत और दुनिया में कुछ हासिल करने के बारे में बात करते हैं? या क्या हम हमेशा आध्यात्मिक विषयों और लक्ष्यों के बारे में बात करते हैं? दूसरों की गलतियों का ढिंढोरा पीटने के बजाय क्या हम प्यार से उन्हें ढाँपने के लिए तैयार रहते हैं? (नीतिवचन 10:11,12) दूसरों की ज़िंदगी में क्या चल रहा है, वे क्या कर रहे हैं, क्या हम अकसर बस यही बातें करते हैं और आध्यात्मिक या नैतिक सिद्धांतो के बारे में नहीं? अगर हाँ तो क्या यह एक चेतावनी नहीं होगी कि हम दूसरों के निजी मामलों में कुछ ज़्यादा ही दिलचस्पी ले रहे हैं?—1 पतरस 4:15.

7. यूसुफ के दस भाइयों की कहानी से हम अपने हृदय की रक्षा करने के बारे में क्या सीखते हैं?

7 गौर कीजिए कि एक बड़े परिवार में क्या हुआ था। याकूब के दस बेटे अपने छोटे भाई यूसुफ से ‘ठीक तौर से बात नहीं करते थे।’ क्यों? वे यूसुफ से जलते थे क्योंकि वह अपने पिता का सबसे दुलारा था। बाद में जब यहोवा ने यूसुफ को स्वप्न दिखाए जिससे ज़ाहिर हुआ कि यहोवा की आशीष उस पर है, तो वे “उस से और भी द्वेष करने लगे।” (उत्पत्ति 37:4,5,11) इसलिए उन्होंने बड़ी बेरहमी से अपने भाई को गुलामी के लिए बेच दिया। फिर अपना अपराध छिपाने के लिए उन्होंने अपने पिता से झूठ कहा कि यूसुफ को किसी जंगली जानवर ने मार डाला है। इस मौके पर यूसुफ के दसों भाई अपने हृदय की रक्षा नहीं कर सके। अगर हम मौका मिलते ही किसी की नुक्‍ताचीनी करने लगते हैं, तो क्या इसकी वजह यह तो नहीं कि हमारा हृदय जलन या ईर्ष्या से भरा है? हमें सचेत रहना चाहिए कि हमारे मुँह से कैसी बातें निकलती हैं और फिर गलत भावनाओं को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए फौरन कदम उठाने चाहिए।

8. अगर हम कभी झूठ बोल देते हैं, तो अपने हृदय की जाँच करने में क्या बात हमारी मदद करेगी?

8 “परमेश्‍वर का झूठ बोलना असम्भव है” मगर असिद्ध इंसान झूठ बोलने के फँदे में पड़ सकता है। (इब्रानियों 6:18NHT) भजनहार ने दुःख के साथ कहा: “सब मनुष्य झूठे हैं।” (भजन 116:11) यहाँ तक कि प्रेरित पतरस ने भी तीन बार झूठ बोला था कि वह यीशु को नहीं जानता। (मत्ती 26:69-75) बेशक, हमें सावधान रहना चाहिए कि हम कभी झूठ न बोलें क्योंकि यहोवा “झूठ बोलनेवाली जीभ” से नफरत करता है। (नीतिवचन 6:16-19) अगर हम कभी झूठ बोलते हैं, तो खुद की जाँच करके देखना अक्लमंदी होगी कि हमने झूठ क्यों बोला था। क्या किसी इंसान से डरकर हमने ऐसा किया? या सज़ा के डर से? क्या अपनी नाक रखने के लिए या अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए हमने ऐसा किया? वजह चाहे जो भी हो, लेकिन अच्छा होगा अगर हम मामले पर गहराई से सोचें, नम्रता से अपनी गलती कबूल करें, यहोवा से माफी माँगें और बिनती करें कि वह इस कमज़ोरी पर काबू पाने में हमारी मदद करे! और यह मदद हमें ‘कलीसिया के प्राचीन’ सबसे बेहतर तरीके से दे सकते हैं।—याकूब 5:14.

9. हमारी प्रार्थनाओं से हमारे हृदय के बारे में क्या मालूम पड़ सकता है?

9 जब जवान राजा सुलैमान ने यहोवा से बुद्धि और ज्ञान पाने की बिनती की तब यहोवा ने उससे कहा: “तेरे हृदय में यह सुन्दर विचार था। इसलिए तूने मुझसे धन-सम्पत्ति, वैभव, मान-सम्मान नहीं मांगा। . . . , मैं तुझको बुद्धि और समझ प्रदान करता हूं। इसके अतिरिक्‍त मैं तुझको धन-सम्पत्ति, वैभव और मान-सम्मान भी प्रदान करता हूं।” (2 इतिहास 1:11,12, नयी हिन्दी बाइबिल) सुलैमान ने जो चीज़ माँगी उससे यहोवा ने जाना कि सुलैमान का हृदय कैसी बातों पर लगा है। तो हमें खुद से पूछना चाहिए कि हम परमेश्‍वर से प्रार्थना में जो कहते हैं, उससे हमारे हृदय के बारे में क्या मालूम पड़ता है? क्या हमारी प्रार्थनाएँ दिखाती हैं कि हम ज्ञान, बुद्धि और समझ पाने के लिए तरस रहे हैं? (नीतिवचन 2:1-6; मत्ती 5:3) क्या राज्य से जुड़े काम हमारे दिल को अज़ीज़ हैं? (मत्ती 6:9,10) अगर हमारी प्रार्थनाएँ रटी-रटायी सी हो गयी हैं, तो यह दिखा सकता है कि हमें समय निकालकर यहोवा के उपकारों पर मनन करने की ज़रूरत है। (भजन 103:2) हर मसीही को यह देखने के लिए चौकन्‍ना रहना चाहिए कि उसकी प्रार्थनाएँ क्या ज़ाहिर करती हैं।

हमारे काम क्या दिखाते हैं?

10, 11. (क) परगमन और व्यभिचार की शुरूआत कहाँ से होती है? (ख) ‘अपने हृदय में व्यभिचार करने’ से दूर रहने में कौन-सी बात हमारी मदद करेगी?

10 कहा जाता है कि हमारी बातों से ज़्यादा हमारे काम दूसरों को हमारे बारे में बहुत कुछ बताते हैं। इसमें दो राय नहीं कि काफी हद तक हमारे काम बताते हैं कि हम अंदर से कैसे इंसान हैं। उदाहरण के लिए, नैतिकता के मामले में अपने हृदय की रक्षा करने का मतलब सिर्फ परगमन या व्यभिचार से परे रहना नहीं है। यीशु ने अपने पहाड़ी उपदेश में कहा: “जो कोई किसी स्त्री पर कुदृष्टि डाले वह अपने मन [“हृदय,” NW] में उस से व्यभिचार कर चुका।” (मत्ती 5:28) हम ऐसे कौन-से कदम उठा सकते हैं ताकि हम अपने हृदय में भी व्यभिचार करने से दूर रहें?

11 वफादार कुलपति, अय्यूब ने शादी-शुदा मसीही स्त्री-पुरुषों के लिए एक अच्छी मिसाल रखी। अपने रोज़मर्रा के काम-काज में अय्यूब का बेशक जवान औरतों से संपर्क होता होगा और ज़रूरत की घड़ी में अय्यूब ने उनकी मदद भी की होगी। मगर इस खरे इंसान के मन में कभी उनके लिए चाहत पैदा करने का खयाल तक नहीं आया। क्यों? क्योंकि उसने अटल फैसला कर लिया था कि वह परायी औरतों को कभी बुरी नज़र से नहीं देखेगा। उसने कहा: “मैं ने अपनी आंखों के विषय वाचा बान्धी है, फिर मैं किसी कुंवारी पर क्योंकर आंखें लगाऊं?” (अय्यूब 31:1) आइए हम भी अपनी आँखों से ऐसी वाचा बाँध लें और अपने हृदय की रक्षा करें।

12. अपने हृदय की रक्षा करने के लिए आप लूका 16:10 को कैसे लागू करेंगे?

12 परमेश्‍वर के पुत्र ने कहा कि “जो थोड़े से थोड़े में सच्चा है, वह बहुत में भी सच्चा है: और जो थोड़े से थोड़े में अधर्मी है, वह बहुत में भी अधर्मी है।” (लूका 16:10) जी हाँ, हमें सावधान रहना चाहिए कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी के जो मामले दिखने में मामूली लगते हैं, उनमें भी हमारा चालचलन कैसा है। और यह भी देखना चाहिए कि जब हम दूसरों की नज़रों से दूर, घर पर अकेले होते हैं, तब हमारा चालचलन कैसा होता है। (भजन 101:2) जब हम घर पर बैठकर टी.वी. देखते या इंटरनॆट का इस्तेमाल करते हैं, तो उस वक्‍त भी क्या हम बाइबल की इस सलाह पर चलते हैं: “जैसा पवित्र लोगों के योग्य है, वैसा तुम में व्यभिचार, और किसी प्रकार अशुद्ध काम, या लोभ की चर्चा तक न हो। और न निर्लज्जता, न मूढ़ता की बातचीत की, न ठट्ठे की, क्योंकि ये बातें सोहती नहीं”? (इफिसियों 5:3,4) और टी.वी. या वीडियो गेम्स में दिखाई जानेवाली हिंसा के बारे में क्या? भजनहार ने कहा: “यहोवा धर्मी को परखता है, परन्तु वह उन से जो दुष्ट हैं और उपद्रव से प्रीति रखते हैं अपनी आत्मा में घृणा करता है।”—भजन 11:5.

13. हमारे हृदय से जो निकलता है, उसकी जाँच करते वक्‍त हमें किस चेतावनी पर ध्यान देना चाहिए?

13 यिर्मयाह ने चेतावनी दी: “मनुष्य का हृदय छल-कपट से भरा होता है, निस्सन्देह वह सब से अधिक भ्रष्ट होता है।” (यिर्मयाह 17:9, नयी हिन्दी बाइबिल) हमारे हृदय की कपटता तब ज़ाहिर हो सकती है जब हम अपनी गलतियाँ कबूल नहीं करते बल्कि उनको ढाँपने के लिए बहाने बनाते हैं, अपनी खामियों को कम करके बताते हैं, अपने बुरे गुणों को सही करार देने की कोशिश करते या अपनी कामयाबियों के बारे में दूसरों को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। एक भ्रष्ट हृदय, कपटी स्वभाव भी पैदा कर सकता है—होठों से चिकनी-चुपड़ी बातें कहना मगर असल में कुछ और करना। (भजन 12:2; नीतिवचन 23:7) इसलिए हमारे हृदय से जो निकलता है, उसकी ईमानदारी से जाँच करना क्या ही ज़रूरी है!

क्या हमारी आँख निर्मल है?

14, 15. (क) “निर्मल” आँख कैसी होती है? (ख) अपनी आँख निर्मल रखने से हमें हृदय की रक्षा करने में कैसे मदद मिलेगी?

14 यीशु ने कहा था, “शरीर का दिया आंख है।” उसने आगे कहा: “इसलिये यदि तेरी आंख निर्मल हो, तो तेरा सारा शरीर भी उजियाला होगा।” (मत्ती 6:22) निर्मल आँख वह होती है जो किसी एक लक्ष्य या मकसद को हासिल करने पर टिकी रहती है, दूसरी बातों की ओर नहीं भटकती। बेशक, हमें अपनी आँख “राज्य और [परमेश्‍वर के] धर्म की खोज” करने पर लगानी चाहिए। (मत्ती 6:33) अगर हमारी आँख निर्मल न हो तो हमारे हृदय का क्या हो सकता है?

15 मिसाल के लिए, रोज़ी-रोटी कमाने की बात लीजिए। यह सच है कि अपने परिवार की ज़रूरतों को पूरा करना हर मसीही का फर्ज़ है। (1 तीमुथियुस 5:8) लेकिन अगर हमारे अंदर नए-नए फैशन की और सबसे बेहतरीन चीज़ें पाने की, साथ ही खाने-पीने, कपड़े, मकान और दूसरे मामलों में अव्वल किस्म की चीज़ें हासिल करने का जुनून पैदा हो जाए, तब क्या? क्या इससे हमारा हृदय और मन उन चीज़ों का दास नहीं बन जाएगा और क्या हम सिर्फ आधे-अधूरे मन से ही यहोवा की उपासना नहीं कर रहे होंगे? (भजन 119:113; रोमियों 16:18) क्या हमें खाने-पहनने की चीज़ों का इंतज़ाम करने में ही इतना डूब जाना चाहिए कि हमें ज़िंदगी में अपना परिवार, बिज़नॆस और भौतिक चीज़ों को छोड़ और कुछ नज़र न आए? परमेश्‍वर की प्रेरणा से लिखी यह सलाह कभी मत भूलिए: “सावधान रहो, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे हृदय दुराचार, पियक्कड़पन और जीवन की चिन्ताओं के भार से दब जाएं और वह दिन एकाएक तुम पर फन्दे की भांति आ जाए। क्योंकि सम्पूर्ण पृथ्वी पर रहने वाले सब लोगों पर वह इसी प्रकार आ पड़ेगा।”—लूका 21:34,35, NHT.

16. यीशु ने आँख के बारे में क्या सलाह दी और क्यों?

16 हमारी आँखें, मन और हृदय को जानकारी पहुँचाने का एक खास ज़रिया हैं। आँखें जिन चीज़ों पर लगी रहती हैं, इसका हमारे विचारों, भावनाओं और कामों पर ज़बरदस्त असर पड़ता है। यीशु ने आध्यात्मिक अर्थ में बताया कि हमारी आँखें किस तरह हमें प्रलोभन में फँसा सकती हैं। फिर उसने कहा: “यदि तेरी दहिनी आंख तुझे ठोकर खिलाए, तो उसे निकालकर अपने पास से फेंक दे; क्योंकि तेरे लिये यही भला है कि तेरे अंङ्‌गों में से एक नाश हो जाए और तेरा सारा शरीर नरक में न डाला जाए।” (मत्ती 5:29) हमें अपनी आँखों को बुरी चीज़ें देखते रहने से रोकना बेहद ज़रूरी है। मिसाल के लिए, हमें ऐसी किताबें पढ़ने या ऐसी तसवीरों वगैरह पर नज़र गढ़ाए रखने से दूर रहना चाहिए जो कामवासना या बुरी इच्छाएँ पैदा कर सकती हैं।

17. कुलुस्सियों 3:5 को लागू करने से हम कैसे अपने हृदय की रक्षा कर पाएँगे?

17 बेशक, सिर्फ हमारी आँखें ही हमें बाहर की दुनिया से वाकिफ नहीं करातीं। इसमें दूसरी ज्ञानेंद्रियों का भी हाथ है, जैसे स्पर्श करना और सुनना। इसलिए हमें उनसे जुड़े शरीर के अंगों के इस्तेमाल में भी सावधानी बरतनी चाहिए। प्रेरित पौलुस ने सलाह दी: “इसलिये अपने उन अंगों को मार डालो, जो पृथ्वी पर हैं, अर्थात्‌ व्यभिचार, अशुद्धता, दुष्कामना, बुरी लालसा और लोभ को जो मूर्त्ति पूजा के बराबर है।”—कुलुस्सियों 3:5.

18. हमें बुरे विचारों को मन से निकालने के लिए कौन-से कदम उठाने चाहिए?

18 हो सकता है कभी हमारे मन के किसी एकांत कोने में कहीं बुरी अभिलाषा पनपने लगे। अगर हम उस पर लगातार सोचते रहें, तो यह अभिलाषा बढ़ सकती है और हमारे हृदय पर असर कर सकती है। “फिर अभिलाषा गर्भवती होकर पाप को जनता है।” (याकूब 1:14,15) कई लोगों ने कबूल किया है कि उन्हें हस्तमैथुन की आदत इसी तरह लगी थी। इसलिए कितना ज़रूरी है कि हम अपने मन को हमेशा आध्यात्मिक बातों से भरते रहें। (फिलिप्पियों 4:8) और अगर कभी मन में कोई बुरा विचार पैदा हो भी जाए, तो उसे फौरन निकाल फेंकना चाहिए।

‘सम्पूर्ण हृदय से यहोवा की सेवा कीजिए’

19, 20. हम सम्पूर्ण हृदय से यहोवा की सेवा करने में कैसे कामयाब हो सकते हैं?

19 जब राजा दाऊद बूढ़ा हो गया, तब उसने अपने बेटे को सलाह दी: “हे मेरे पुत्र सुलैमान! तू अपने पिता के परमेश्‍वर को जान और सम्पूर्ण हृदय एवं इच्छुक मन से उसकी सेवा कर, क्योंकि यहोवा प्रत्येक हृदय को जांचता एवं विचारों के प्रत्येक उद्देश्‍य को समझता है।” (1 इतिहास 28:9, NHT) खुद सुलैमान ने भी परमेश्‍वर से एक “आज्ञाकारी हृदय” पाने की बिनती की थी। (1 राजा 3:9, NW) मगर फिर भी उसने पाया कि ऐसा हृदय ज़िंदगी-भर कायम रखना बहुत मुश्‍किल है।

20 अगर हम इस मामले में कामयाब होना चाहते हैं, तो परमेश्‍वर को स्वीकार होनेवाला हृदय हासिल कर लेना काफी नहीं है, बल्कि उसकी रक्षा करते रहना भी ज़रूरी है। इसके लिए हमें अपने हृदय में परमेश्‍वर के वचन की चितौनियों को संजोए रखना होगा, उन्हें “हृदय में धारण” करना होगा। (नीतिवचन 4:20-22, नयी हिन्दी बाइबिल) हमें अपने हृदय की लगातार जाँच भी करनी होगी यानी हमारी बातों और कामों से हमारे बारे में जो ज़ाहिर होता है, उस पर मनन करना और उसके बारे में प्रार्थना करनी होगी। अगर हमें कोई कमज़ोरी नज़र आती है, तो उसे सुधारने के लिए यहोवा से लगातार मदद भी माँगनी चाहिए, वरना हमारे मनन करने का कोई फायदा नहीं होगा। और इस बात पर कड़ी नज़र रखना तो बेहद ज़रूरी है कि हम अपनी ज्ञानेंद्रियों के ज़रिए अपने दिमाग में कैसे विचार भरते हैं। अगर हम ये सारे कदम उठाएँगे, तो हम यकीन रख सकते हैं कि “परमेश्‍वर की शान्ति, जो समझ से बिलकुल परे है, [हमारे] हृदय और [हमारे] विचारों को मसीह यीशु में सुरक्षित रखेगी।” (फिलिप्पियों 4:6,7) जी हाँ, हम ठान लें कि हम सब से बढ़कर अपने हृदय की रक्षा करेंगे और सम्पूर्ण हृदय से यहोवा की सेवा करते रहेंगे।

क्या आपको याद है?

• अपने हृदय की रक्षा करना क्यों ज़रूरी है?

• हम जो बातें करते हैं, उस पर गहराई से सोचने से हम कैसे अपने हृदय की रक्षा कर सकेंगे?

• हमें क्यों अपनी आँख को “निर्मल” रखना चाहिए?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 23 पर तसवीरें]

हम प्रचार में, सभाओं में और घर पर ज़्यादातर कैसे विषयों पर बात करते हैं?

[पेज 25 पर तसवीरें]

जो आँख निर्मल होती है, वह यहाँ-वहाँ नहीं भटकती