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क्या आप संसार को बेहतर बना सकते हैं?

क्या आप संसार को बेहतर बना सकते हैं?

क्या आप संसार को बेहतर बना सकते हैं?

“समाज की ढीली पड़ी बुनियाद को मज़बूत करना राजनीति के बस की बात नहीं। यह उन नैतिक आदर्शों को दोबारा खड़ा नहीं कर सकती जो पहले लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी माना करते थे। एक वक्‍त था जब लोग शादी से पहले की मुलाकातों में और शादी-शुदा ज़िंदगी में कुछ स्तरों का पालन करते थे, पिता बच्चों की परवरिश करना अपनी ज़िम्मेदारी समझते थे और बुरे काम देखकर लोगों का क्रोध भड़क उठता था, गंदे काम करने पर वे शर्म महसूस करते थे। आज के लोगों में ऐसी भावनाएँ पैदा करने के लिए राजनीति चाहे बढ़िया-से-बढ़िया नीतियाँ भी क्यों न बना ले मगर वह कभी कामयाब नहीं हो सकती। . . . आज हम जिन ढेरों नैतिक समस्याओं से जूझ रहे हैं, उन्हें कानून कभी हल नहीं कर पाएगा।”

अमरीकी सरकार के एक भूतपूर्व सहायक अधिकारी के कहे इन शब्दों से क्या आप भी सहमत हैं? अगर हाँ, तो आपकी राय में इन समस्याओं का हल कैसे हो सकता है? आज की ज़्यादातर समस्याएँ लालच, परिवारों में प्यार की कमी, बदचलनी, सच्चाइयों से अनजान रहने और ऐसी कई वजहों से पैदा होती हैं और समाज की बुनियाद को अंदर-ही-अंदर खोखला करती जा रही हैं। कुछ लोगों को लगता है कि ये समस्याएँ कभी हल नहीं होंगी, इसलिए वे इनके बारे में ज़्यादा चिंता नहीं करते, बस अपने ही कामों में ही मसरूफ रहते हैं। मगर कुछ लोगों को उम्मीद है कि एक दिन ज़रूर कोई ऐसा करिश्‍माई और बुद्धिमान नेता प्रकट होगा, जो शायद एक धर्म-गुरू हो सकता है, और वह उन्हें जीने की सही राह दिखाएगा।

देखा जाए तो दो हज़ार साल पहले जब यीशु मसीह धरती पर था, तब लोगों ने उसे राजा बनाना चाहा क्योंकि वे समझ गए कि वह परमेश्‍वर का भेजा हुआ है और उसमें एक बढ़िया शासक के गुण हैं। लेकिन जब यीशु को उनके मंसूबे की भनक पड़ी, तो वह फौरन उनकी नज़रों से दूर चला गया। (यूहन्‍ना 6:14,15) बाद में उसने एक रोमी गवर्नर से कहा कि “मेरा राज्य इस जगत का नहीं।” (यूहन्‍ना 18:36) लेकिन आज की इस दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम मिलेंगे, जो यीशु की तरह नेता बनने से इंकार करें। यीशु के चेले होने का दावा करनेवाले पादरी भी ऐसे प्रस्ताव को बड़े शौक से स्वीकार करेंगे। कुछ पादरियों ने तो सरकारी अधिकारियों से अपने इशारे पर काम करवाने या फिर खुद राजनीति में किसी पद पर बैठने के ज़रिए संसार को बेहतर बनाने की कोशिश की है। सन्‌ 1960 और 70 के दशकों का इतिहास इस बात का गवाह है।

दुनिया की हालत सुधारने के लिए धर्म की कोशिशें

सन्‌ 1965 से 70 के बीच के सालों में लतीनी अमरीकी देशों में कुछ धर्म-विद्वानों ने गरीबों और दलितों को इंसाफ दिलाने के लिए आंदोलन चलाया। अपना यह लक्ष्य हासिल करने के लिए उन्होंने एक सिद्धांत बनाया जिसे स्वतंत्रता का धर्म-सिद्धांत नाम दिया। इसके मुताबिक मसीह सिर्फ ऐसा उद्धारकर्ता नहीं जैसा बाइबल बताती है बल्कि वह राजनैतिक और आर्थिक मामले में भी एक उद्धारकर्ता है। और अमरीका में चर्च के कई अधिकारियों ने, जो समाज में नैतिक आदर्शों के गिरने की वजह से बहुत चिंतित थे, एक संगठन खड़ा किया जिसका नाम मोरल मॆजॉरिटी रखा। इसका मकसद था, राजनीति के पद पर ऐसे लोगों को बिठाना जो परिवारों के लिए अच्छे स्तर निर्धारित करते। उसी तरह कई मुस्लिम देशों में भी ऐसे समूह उभरकर आए, जिन्होंने भ्रष्टाचार और बुरे चाल-चलन पर रोक लगाने के लिए कुरान का सही-सही पालन करने पर ज़ोर दिया।

क्या आपको लगता है कि धर्म की इन कोशिशों से आज संसार की हालत काफी बेहतर हो चुकी है? सबूत बताते हैं कि एक मोटे तौर पर आज भी नैतिक आदर्श गिरते ही जा रहे हैं और अमीर-गरीब के बीच का फासला दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। यह हाल उन देशों का भी है जहाँ एक वक्‍त पर स्वतंत्रता का धर्म-सिद्धांत काफी मशहूर था।

अमरीका में जब मोरल मॆजॉरिटी नाम का संगठन अपने खास मकसद पूरे करने में नाकाम रहा तो इसके संस्थापक, जॆरी फॉलवल ने 1989 में इसे मिटा दिया। फिर ऐसे दूसरे संगठन खड़े हुए। मगर फिर भी, “मोरल मॆजॉरिटी” शब्द का सबसे पहले इस्तेमाल करनेवाले, पॉल वेरिच ने क्रिस्ट्यॆनिटी टुडे पत्रिका में यह लिखा: “चुनाव में हमारे उम्मीदवार चाहे जीत भी जाएँ, मगर हम जिन नीतियों को ज़रूरी समझते हैं, उन्हें अमल करवाने में हम कामयाब नहीं हो पाते।” उन्होंने यह भी लिखा: “हमारा समाज दिन-ब-दिन बुराई के दलदल में धँसता जा रहा है। इसका ढाँचा इतनी बुरी तरह हिल गया है जितना पहले कभी नहीं था और यह नुकसान इतना भारी है कि इसकी भरपाई राजनीति कभी नहीं कर पाएगी।”

पत्रकार और लेखक, कैल थॉमस के मुताबिक राजनीति के ज़रिए समाज की हालत सुधारने की कोशिश करना सबसे बड़ी भूल है। उन्होंने कहा: “दरअसल हमारी असली समस्याएँ राजनैतिक या आर्थिक नहीं बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक किस्म की हैं। इसलिए असली बदलाव, चुनावों में हमारे उम्मीदवार के जीत जाने से नहीं बल्कि एक-एक इंसान के बदलने से हो सकेगा।”

लेकिन इस दुनिया की नैतिक और आध्यात्मिक समस्याओं का हल कैसे किया जा सकता है जब लोगों के पास सही-गलत में फर्क करने की कोई कसौटी नहीं है और वे अपने मन-मुताबिक काम करते हैं? जब बड़ी-बड़ी हस्तियाँ और नेकदिल इंसान, चाहे उनका धर्म से कोई नाता हो या न हो, एक बेहतर संसार लाने में असफल हो गए हैं, तो क्या कोई है जो इसका हल कर सके? बेशक, जैसा कि हम अगले लेख में देखेंगे। दरअसल, इसका हल जानने के लिए हमें पहले यह जानना होगा कि यीशु ने ऐसा क्यों कहा था कि उसका राज्य इस जगत का नहीं है।

[पेज 2 पर चित्रों का श्रेय]

पहला पेज: गंदा पानी: WHO/UNICEF photo; पृथ्वी: Mountain High Maps® Copyright © 1997 Digital Wisdom, Inc.

[पेज 3 पर चित्रों का श्रेय]

बच्चे: UN photo; पृथ्वी: Mountain High Maps® Copyright © 1997 Digital Wisdom, Inc.