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आपको एक सिखाए गए विवेक की ज़रूरत है

आपको एक सिखाए गए विवेक की ज़रूरत है

आपको एक सिखाए गए विवेक की ज़रूरत है

हवाई जहाज़ एयर न्यू ज़ीलैंड फ्लाइट नंबर 901 में सफर कर रहे यात्रियों और कर्मचारियों को उम्मीद थी कि यह उनकी ज़िंदगी का एक यादगार दिन होगा। उनकी मंज़िल थी अंटार्टिका। जैसे ही उनकी मंज़िल करीब आने लगी विमान कम ऊँचाई पर उड़ने लगा ताकि सभी यात्री बरफ से ढके उस खूबसूरत महाद्वीप के नज़ारों का लुत्फ उठा सकें। हवाई जहाज़ में चारों तरफ रौनक छायी हुई थी और इन नज़ारों को तसवीरों में उतारने के लिए लोग अपने कैमरों के साथ तैयार थे।

कप्तान यानी पायलट को इस पेशे में 15 साल का तजुर्बा था और उस दौरान उसने हवाई उड़ान में 11,000 घंटे बिताए थे। उड़ान भरने से पहले उसने अपने विमान के कंप्यूटर में फ्लाइट प्लान को बड़ी सावधानी से एन्टर किया। मगर वह इस बात से बेखबर था कि उसे हवा में विमान की स्थिति बताने के लिए जो निर्देशांक या कोऑर्डिनेट्‌स दिए गए थे, वे दरअसल गलत थे। इसलिए जब यह विमान ज़मीन से 2,000 फुट से थोड़ी कम ऊँचाई पर एक बादल से होकर गुज़र रहा था तब वह माउंट एरिबस की निचली ढलान से जा टकराया और उसमें मौजूद सभी 257 लोग मारे गए।

जिस तरह हवाई जहाज़ को आसमान में उड़ने के लिए कंप्यूटर की मदद लेनी पड़ती है, ठीक उसी तरह ज़िंदगी की राह पर चलने में इंसानों की मदद करने या उन्हें मार्गदर्शन देने के लिए एक विवेक दिया गया है। विवेक के सिलसिले में, हम फ्लाइट 901 की दुर्घटना से कुछ ज़बरदस्त सबक सीख सकते हैं। मसलन, हवाई सफर किस हद तक सुरक्षित होता है, यह ठीक तरीके से काम करनेवाली उड़ान व्यवस्था और स्पष्ट मार्गदर्शकों पर निर्भर करता है। उसी तरह हमारी आध्यात्मिक, नैतिक और शारीरिक सुरक्षा भी इस बात पर निर्भर करती है कि हमारा विवेक नैतिक मार्गदर्शकों से मिलनेवाले सही मार्गदर्शन को मानने के लिए तैयार हो।

बड़े दुःख की बात है कि आज की दुनिया में इस तरह के मार्गदर्शक खत्म होते जा रहे हैं या फिर लोग उन्हें नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। अमरीका में एक टीचर का कहना है: “हम आज अकसर देखते हैं कि ज़्यादातर बच्चों को पढ़ना-लिखना नहीं आता, ना ही उन्हें भूगोल के बारे में ठीक से कुछ पता होता है। उन्हें सही-गलत के बीच का फर्क भी नहीं मालूम होता। शिक्षा के क्षेत्र में वे कमज़ोर हैं ही, नैतिक आदर्शों के मामले में तो वे और भी गए-गुज़रे हैं।” यह टीचर इस बात का भी ज़िक्र करती है कि “आजकल के नौजवान सही-गलत के आदर्शों को लेकर कश्‍मकश में हैं। अगर आप उनमें से किसी एक से पूछें कि ‘सही-गलत’ के क्या कोई स्तर हैं तो वह आपके इस सवाल का जवाब दे ही नहीं पाएगा। बल्कि उनके चेहरे से आपको साफ नज़र आएगा कि वह उलझन, घबराहट और असुरक्षा की भावनाओं से जूझ रहा है। . . . और कॉलेज में आते-आते तो उनकी यह उलझन कम होने के बजाय और भी बढ़ जाती है।”

इस उलझन की एक वजह यह है कि आदर्श बदलते रहते हैं, यानी ज़्यादातर लोगों का मानना है कि हर व्यक्‍ति और समाज को यह फैसला करना है कि अच्छा क्या है और बुरा क्या। मान लीजिए अगर पायलट हवाई जहाज़ को चलाने के लिए निश्‍चित मार्गदर्शक के बजाय ऐसे संकेत-दीप की मदद लें जो अकसर सही दिशा नहीं दिखाता या फिर कोई भी संकेत नहीं देता, तो फिर माउंट एरिबस जैसी दुर्घटनाओं की गुंजाइश और भी बढ़ जाएगी। और यही हश्र आज दुनिया का हो रहा है। इंसान के लिए ठहराए गए नैतिक आदर्शों को ठुकराने का अंजाम यह हुआ है कि दुनिया में चारों तरफ परिवार बेवफाई की वजह से टूटते जा रहे हैं और दुःखी हैं, करोड़ों लोग एड्‌स और दूसरी लैंगिक बीमारियों के कारण मर रहे हैं।

अपने लिए सही-गलत का फैसला खुद करना शायद दुनिया की नज़रों में अक्लमंदी की बात लगे, मगर सच तो यह है कि ऐसे विचार रखनेवाले लोग प्राचीन समय के नीनवे के निवासियों की तरह हैं जिन्हें ‘अपने दहिने बाएं हाथों का भेद नहीं पता था।’ इस नज़रिए को बढ़ावा देनेवाले उन इस्राएली धर्मत्यागियों की तरह हैं “जो बुरे को भला और भले को बुरा” कहते थे।—योना 4:11; यशायाह 5:20.

अगर हम चाहते हैं कि हमारा विवेक हमें सही मार्गदर्शन दे तो हमें अपने विवेक को सुस्पष्ट और निश्‍चित नियमों और सिद्धांतों के मुताबिक ढालना होगा। मगर ये हमें मिलेंगे कहाँ से? लाखों लोगों ने पाया है कि ऐसे नियम और सिद्धांत सिर्फ बाइबल में दिए गए हैं। चाहे अपने चालचलन की बात हो या नौकरी की जगह पर अनुशासन बनाए रखने की या फिर परमेश्‍वर की उपासना करने के लिए अपने बच्चों को सिखाने की बात हो, बाइबल ज़िंदगी के हर ज़रूरी पहलू पर चर्चा करती है। (2 तीमुथियुस 3:16) सदियों से यह बात साबित होती आयी है कि बाइबल पर पूरा भरोसा किया जा सकता है। यह किताब सभी के लिए बेहद ज़रूरी है क्योंकि इसमें दिए गए नैतिक आदर्श सारे जहान के मालिक, हमारे सिरजनहार की तरफ से हैं। इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि हमें सही-गलत के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गयी है।

मगर खासकर आज हमारे विवेक को भ्रष्ट करने की जी-तोड़ कोशिश की जा रही है। यह हम कैसे कह सकते हैं? और हम अपने विवेक की रक्षा कैसे कर सकते हैं? अच्छा होगा अगर आप पहले यह जानने की कोशिश करें कि कौन आपके विवेक को भ्रष्ट करने पर तुला हुआ है और इसके लिए वह कौन-से हथकंडे इस्तेमाल कर रहा है। इन सवालों के जवाब अगले लेख में दिए गए हैं।