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“मुझ से सीखो”

“मुझ से सीखो”

“मुझ से सीखो”

“मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो; और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूं: और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे।”मत्ती 11:29.

1. यीशु से सीखने पर हमारी ज़िंदगी खुशियों और आशीषों से कैसे भर सकती है?

 यीशु मसीह के सोच-विचार, उसकी शिक्षाएँ और उसके काम करने का तरीका हमेशा सही था। वह धरती पर बहुत कम साल जीया मगर इस दौरान उसने ऐसा काम किया जिससे उसे संतुष्टि और बहुत-सी आशीषें मिलीं और वह हमेशा खुश रहता था। उसने कुछ चेले इकट्ठे किए और उनको परमेश्‍वर की उपासना करना, इंसानों से प्यार करना और संसार पर जीत हासिल करना सिखाया। (यूहन्‍ना 16:33) यीशु ने उनके दिलों में आशा जगायी और “सुसमाचार के द्वारा जीवन और अमरता पर प्रकाश डाला।” (2 तीमुथियुस 1:10, NHT) अगर आप भी खुद को उसका एक चेला मानते हैं, तो आपकी राय में चेला होने का मतलब क्या है? यीशु ने चेलों के बारे में क्या कहा था, इस पर ध्यान देने से हम सीख सकते हैं कि हम अपनी ज़िंदगी से कैसे खुशी और संतुष्टि पा सकते हैं। इसमें यीशु का नज़रिया अपनाना और कुछ बुनियादी उसूलों पर चलना शामिल है।—मत्ती 10:24,25; लूका 14:26,27; यूहन्‍ना 8:31,32; 13:35; 15:8.

2, 3. (क) यीशु का चेला होने का मतलब क्या है? (ख) हमें खुद से यह पूछना क्यों ज़रूरी है कि ‘मैं किसका चेला हूँ?’

2 मसीही यूनानी शास्त्र में जिस शब्द का अनुवाद “चेला” किया गया है उसका दरअसल मतलब है, किसी बात पर अपना दिमाग लगानेवाला या सीखनेवाला। इसी से जुड़े एक और शब्द को हम अपने मूल पाठ, मत्ती 11:29 में पाते हैं जहाँ लिखा है: “मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो; और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूं: और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे।” (तिरछे टाइप हमारे।) जी हाँ, चेला वह होता है जो किसी से सीखता है। सुसमाचार की किताबों में शब्द “चेला” अकसर यीशु के करीबी अनुयायियों के लिए इस्तेमाल किया गया है, जो उसके साथ प्रचार के दौरे में निकलते थे और जिनको वह सिखाता था। कुछ लोगों ने यीशु की शिक्षाओं पर सिर्फ विश्‍वास किया होगा, वह भी गुप्त रूप से। (लूका 6:17; यूहन्‍ना 19:38) सुसमाचार के लेखक बताते हैं कि कुछ लोग ‘यूहन्‍ना [बपतिस्मा देनेवाले] और फरीसियों के चेले’ थे। (मरकुस 2:18) और यीशु ने अपने चेलों को ‘फरीसियों की शिक्षा से चौकस’ रहने की चेतावनी दी थी, इसलिए हम खुद से पूछ सकते हैं कि ‘मैं किसका चेला हूँ?’—मत्ती 16:12.

3 अगर हमने यीशु की शिक्षा पायी है और हम उसके चेले हैं, तो हमारी संगति से दूसरों को आध्यात्मिक विश्राम मिलना चाहिए। उनको यह फर्क साफ मालूम होना चाहिए कि अब हम पहले से भी ज़्यादा नम्र और मन में दीन हैं। अगर हम नौकरी की जगह किसी ऊँची पदवी पर हैं, माता-पिता हैं या मसीही कलीसिया में हमें रखवाली करने की ज़िम्मेदारियाँ मिली हैं, तो क्या जिन लोगों पर हमें अधिकार सौंपा गया है, उन्हें महसूस होता है कि हम उनके साथ वैसे ही पेश आते हैं जैसा यीशु दूसरों के साथ पेश आता था?

यीशु, लोगों के साथ कैसे पेश आया

4, 5. (क) यह जानना मुश्‍किल क्यों नहीं है कि यीशु, समस्याओं से जूझ रहे लोगों के साथ कैसे पेश आता था? (ख) जब यीशु एक फरीसी के घर भोजन कर रहा था, तब उसके साथ क्या घटना घटी?

4 हमें यह जानने की ज़रूरत है कि यीशु, लोगों के साथ कैसे पेश आता था, खासकर उन लोगों के साथ जो गंभीर समस्याओं से जूझ रहे थे। यह जानना बहुत मुश्‍किल नहीं है क्योंकि बाइबल में इससे जुड़ी कई घटनाओं का ब्यौरा दिया गया है। यह कुछ ऐसे दुःखी लोगों के बारे में भी बताती है जिनकी यीशु से मुलाकात हुई थी। आइए देखें कि यीशु उनके साथ कैसे पेश आया और फिर यह भी गौर करें कि धर्म-गुरु और खासकर फरीसी उन्हें किस नज़र से देखते थे। यीशु और उन फरीसियों के बीच फर्क देखकर हम काफी कुछ सीख सकते हैं।

5 सामान्य युग 31 में जब यीशु, गलील में प्रचार के दौरे पर गया, तब “किसी फरीसी ने उस से बिनती की, कि मेरे साथ भोजन कर।” यीशु ने बिना किसी हिचकिचाहट के उसका न्यौता स्वीकार किया। “सो वह उस फरीसी के घर में जाकर भोजन करने बैठा। और देखो, उस नगर की एक पापिनी स्त्री यह जानकर कि वह फरीसी के घर में भोजन करने बैठा है, संगमरमर के पात्र में इत्र लाई। और उसके पांवों के पास, पीछे खड़ी होकर, रोती हुई, उसके पांवों को आंसुओं से भिगाने और अपने सिर के बालों से पोंछने लगी और उसके पांव बार बार चूमकर उन पर इत्र मला।”—लूका 7:36-38.

6. वह स्त्री जो “पापिनी” थी, फरीसी के घर कैसे आयी होगी?

6 क्या आप अपने मन में इस दृश्‍य की कल्पना कर सकते हैं? इस बारे में एक किताब दावा करती है: “उस स्त्री (आयत 37) ने समाज के उन दस्तूरों का फायदा उठाया जिनके तहत गरीबों को ऐसे दावतों में आकर बचा हुआ खाना ले जाने की इजाज़त थी।” इससे हमें पता चलता है कि लोग बिन बुलाए भी दावतों में कैसे आ सकते थे। फरीसी के घर शायद और भी ऐसे लोग थे जो दावत खत्म होने पर बचा-खुचा खाना इकट्ठा करने के इरादे से आए होंगे। मगर उस स्त्री का व्यवहार कुछ अलग था। वह बाकी लोगों की तरह भोज खत्म होने की ताक में नहीं थी। दरअसल वह एक “पापिनी” या बहुत बदनाम स्त्री थी, तभी तो यीशु ने कहा कि वह उसके ‘बहुत पापों’ के बारे में जानता था।—लूका 7:47.

7, 8. (क) अगर हम लूका 7:36-38 में बतायी गयी घटना के समय मौजूद होते, तो शायद कैसा रवैया दिखाते? (ख) शमौन ने कैसा रवैया दिखाया?

7 मान लीजिए, आप उस ज़माने में जी रहे थे और यीशु की जगह आप थे। जब वह स्त्री आपके पास आती, तब आपको कैसा लगता? क्या आप उलझन में पड़ जाते? ऐसे हालात का आप पर क्या असर होता? (लूका 7:45) क्या आप भौचक्के रह जाते या घबरा जाते?

8 या अगर आप उन मेहमानों में से एक होते, तो क्या आपकी सोच भी थोड़ी-बहुत उस फरीसी, शमौन की तरह होती? “यह देखकर, वह फरीसी जिस ने [यीशु को] बुलाया था, अपने मन में सोचने लगा, यदि यह भविष्यद्वक्‍ता होता तो जान जाता, कि यह जो उसे छू रही है, वह कौन और कैसी स्त्री है? क्योंकि वह तो पापिनी है।” (लूका 7:39) लेकिन, यीशु बड़ा ही रहमदिल इंसान था। वह जानता था कि उस स्त्री के दिल पर क्या बीत रही है, वह उसके मन की पीड़ा समझ सकता था। हमें यह नहीं बताया गया है कि वह स्त्री पाप के रास्ते पर कैसे निकल पड़ी थी। कुछ लोगों का मानना है कि वह एक वेश्‍या थी। इस बात से ज़ाहिर होता है कि उस नगर के यहूदी पुरुषों ने, जो भक्‍ति का दिखावा करते थे, पाप का रास्ता छोड़ने में उसकी ज़रा भी मदद नहीं की थी।

9. यीशु उस स्त्री के साथ कैसे पेश आया और शायद इसका क्या नतीजा निकला?

9 लेकिन यीशु उसकी मदद करना चाहता था। उसने उस स्त्री से कहा: “तेरे पाप क्षमा हुए।” फिर उसने कहा: “तेरे विश्‍वास ने तुझे बचा लिया है, कुशल से चली जा।” (लूका 7:48-50) इसके बाद क्या हुआ यह बाइबल नहीं बताती। शायद कुछ लोग एतराज़ करते हुए कहें कि यीशु ने उसकी कुछ खास मदद नहीं की, बस उसे आशीष देकर भेज दिया। लेकिन क्या आपको लगता है कि वह स्त्री दोबारा वही नीच ज़िंदगी जीने लगी होगी? हम इसके बारे में कुछ पक्का तो नहीं बता सकते लेकिन गौर कीजिए कि लूका आगे क्या कहता है। उसने कहा कि यीशु “नगर नगर और गांव गांव प्रचार करता हुआ, और परमेश्‍वर के राज्य का सुसमाचार सुनाता हुआ, फिरने लगा।” लूका आगे बताता है कि यीशु और उसके चेलों के साथ ‘कितनी स्त्रियां भी थीं जो अपनी सम्पत्ति से उनकी सेवा करती थीं।’ तो इस आधार पर कहा जा सकता है कि उन स्त्रियों में यह स्त्री भी रही होगी क्योंकि उसने पश्‍चाताप किया और उसका दिल एहसान से भरा था। उसने शुद्ध विवेक के साथ ऐसी ज़िंदगी जीनी शुरू की जिससे परमेश्‍वर खुश होता। अब उसकी ज़िंदगी को एक नयी मंज़िल मिल गयी और उसके दिल में परमेश्‍वर के लिए प्यार और भी गहरा हो गया।—लूका 8:1-3.

यीशु और फरीसियों में फर्क

10. शमौन के घर पर हुई घटना पर ध्यान देना क्यों फायदेमंद होगा?

10 इस जीते-जागते ब्यौरे से हम क्या सीख सकते हैं? इस घटना से हमारा भी दिल भर आता है, है ना? अगर आप उस दिन शमौन के घर पर होते, तो आप कैसा महसूस करते? क्या आप भी वही करते जो यीशु ने किया था या क्या आपका रवैया भी कुछ उस मेज़बान फरीसी के जैसा होता? माना कि हमारी भावनाएँ और व्यवहार ठीक यीशु के जैसे नहीं हो सकते क्योंकि वह परमेश्‍वर का पुत्र था। दूसरी तरफ, हम फरीसी शमौन की तरह रवैया भी नहीं दिखाना चाहेंगे। भला कौन फरीसियों जैसा होना पसंद करेगा?

11. हम फरीसियों के वर्ग में गिने जाना क्यों पसंद नहीं करेंगे?

11 बाइबल और दुनियावी किताबों का अध्ययन करने पर हम जान सकते हैं कि फरीसी खुद को आम-जनता और देश की भलाई के लिए काम करनेवाले समझकर घमंड करते थे। हालाँकि परमेश्‍वर की व्यवस्था में बुनियादी बातें साफ-साफ बतायी गयी थीं और उन्हें समझना आसान था, मगर फरीसियों को इससे तसल्ली नहीं थी। इसलिए अगर उन्हें लगता कि व्यवस्था में फलाना विषय पर खुलकर नहीं समझाया गया है, तो वे मानो उस कमी को पूरा करने के लिए कुछ कायदे-कानून बना देते कि उसे किन-किन तरीकों से अमल किया जाना चाहिए। इस तरह वे किसी को अपने ज़मीर के कहे मुताबिक फैसला करने की छूट नहीं देते थे। इन धर्म-गुरुओं ने ज़िंदगी के सभी मामलों में, यहाँ तक कि हर छोटी-छोटी बात के लिए भी कानूनों की लंबी सूची तैयार कर रखी थी। *

12. अपने बारे में फरीसियों का क्या खयाल था?

12 पहली सदी के यहूदी इतिहासकार, जोसीफस के लेखनों से यह साफ पता चलता है कि फरीसी खुद को बड़े ही रहमदिल, विनम्र, निष्पक्ष और अपनी पदवी के लिए पूरी तरह योग्य समझते थे। बेशक, कुछ फरीसियों में काफी हद तक ऐसे गुण थे। इससे शायद आपको “नीकुदेमुस” की याद आए। (यूहन्‍ना 3:1,2; 7:50,51) और कुछ फरीसियों ने तो बाद में मसीही मार्ग भी अपनाया था। (प्रेरितों 15:5) मसीही प्रेरित पौलुस ने फरीसियों और उनके जैसे कुछ यहूदियों के बारे में यह लिखा: “उन को परमेश्‍वर के लिये धुन रहती है, परन्तु बुद्धिमानी के साथ नहीं।” (रोमियों 10:2) मगर वे आम-जनता की नज़रों में कैसे थे, इसके बारे में सुसमाचार की किताबें बताती हैं कि वे घमंडी, अहंकारी, खुद को धर्मी समझनेवाले, नुक्स निकालनेवाले और दूसरों को नीचा दिखानेवाले थे।

यीशु का नज़रिया

13. यीशु ने फरीसियों के बारे में क्या कहा?

13 यीशु ने शास्त्रियों और फरीसियों की निंदा करते हुए कहा कि वे कपटी हैं। “वे एक ऐसे भारी बोझ को जिन को उठाना कठिन है, बान्धकर उन्हें मनुष्यों के कन्धों पर रखते हैं; परन्तु आप उन्हें अपनी उंगली से भी सरकाना नहीं चाहते।” जी हाँ, लोगों पर डाला गया बोझ बहुत भारी और जूआ बहुत कष्टदायक था। बाद में यीशु ने शास्त्रियों और फरीसियों को ‘मूर्ख’ कहा। एक मूर्ख, समाज के लिए खतरा होता है। यीशु ने शास्त्रियों और फरीसियों को ‘अन्धे अगुवे’ भी कहा और ज़ोर देकर बताया कि उन्होंने “व्यवस्था की गम्भीर बातों को अर्थात्‌ न्याय, और दया, और विश्‍वास को छोड़ दिया है।” तो कौन चाहेगा कि यीशु की नज़र में वह फरीसियों जैसा साबित हो?—मत्ती 23:1-4,16,17,23.

14, 15. (क) यीशु, लेवी मत्ती के साथ जिस तरह से पेश आया, उससे फरीसियों के तौर-तरीकों के बारे में क्या मालूम पड़ता है? (ख) इस घटना से हम कौन-से ज़रूरी सबक सीखते हैं?

14 सुसमाचार की किताबें पढ़नेवाला तकरीबन हर कोई समझ सकता है कि ज़्यादातर फरीसियों में नुक्‍ताचीनी करने की आदत थी। मिसाल के लिए इस घटना पर गौर कीजिए। जब यीशु ने चुंगी लेनेवाले लेवी, मत्ती को अपना चेला बनने का बुलावा दिया, तो उसने यीशु के लिए एक बड़ी जेवनार का इंतज़ाम किया। इसका ब्यौरा देते हुए बाइबल कहती है: “फरीसी और उन के शास्त्री उस के चेलों से यह कहकर कुड़कुड़ाने लगे, कि तुम चुग्ङी लेनेवालों और पापियों के साथ क्यों खाते-पीते हो? यीशु ने उन को उत्तर दिया; . . . मैं धर्मियों को नहीं, परन्तु पापियों को मन फिराने के लिये बुलाने आया हूं।”—लूका 5:27-32.

15 उस अवसर पर यीशु ने एक और बात कही जिसे उस लेवी ने भी समझा: “सो तुम जाकर इस का अर्थ सीख लो, कि मैं बलिदान नहीं परन्तु दया चाहता हूं।” (मत्ती 9:13) फरीसी, इब्रानी भविष्यवक्‍ताओं के लेखनों पर विश्‍वास करने का दावा तो करते थे, मगर वे होशे 6:6 में लिखी इस बात पर नहीं चलते थे। उनकी नज़र में दूसरों पर दया दिखाने से ज़्यादा कानून के एक-एक अक्षर का सख्ती से पालन करना ज़रूरी था। इसलिए हममें से हरेक खुद से यह पूछ सकता है, ‘क्या मैं कुछेक मामलों में लकीर का फकीर हूँ, खासकर छोटे-मोटे मामलों में या जिनमें हर किसी को अपने विचार रखने का हक है? या क्या लोग मुझे दयालु और एक भले इंसान के तौर पर जानते हैं?’

16. फरीसियों की क्या आदत थी और हम उनके जैसा बनने से कैसे दूर रह सकते हैं?

16 दूसरों में गलतियाँ चुन-चुनकर निकालना। फरीसियों का बस यही काम था। वे हर बात में दूसरों के अंदर खामियाँ ढूँढ़ते थे, फिर चाहे उन्होंने सचमुच कोई गलती की हो या सिर्फ देखने पर ऐसा लगता हो। वे हमेशा लोगों पर बरस पड़ने के लिए तैयार रहते थे और उन्हें उनकी कमज़ोरियों का एहसास दिलाते थे। फरीसियों को इस बात का गुमान था कि वे पोदीने, सौंफ और जीरे जैसी जड़ी-बूटियों का भी दसवां अंश देते थे। वे अपने पहनावे से पवित्रता का ढोंग करते और पूरी यहूदी जाति को अपनी मुट्ठी में रखने की कोशिश करते थे। लेकिन अगर हम यीशु के नक्शेकदम पर चलना चाहते हैं, तो हमें दूसरों में गलतियाँ ढूँढ़ने और उनका ढिंढोरा पीटने की आदत से बचना चाहिए।

यीशु, समस्याओं से कैसे निपटता था?

17-19. (क) समझाइए कि यीशु एक ऐसे मामले से कैसे निपटा जो बहुत संगीन हो सकता था? (ख) किस बात ने उस स्त्री की हालत को और तनावपूर्ण और मुश्‍किल बना दिया था? (ग) जब वह स्त्री, यीशु के पास आयी, उस वक्‍त अगर आप भी वहाँ होते, तो आपने कैसा नज़रिया दिखाया होता?

17 समस्याओं से निपटने का यीशु का तरीका, फरीसियों से एकदम अलग था। ध्यान दीजिए कि वह एक ऐसे मामले से कैसे निपटा जो बहुत संगीन हो सकता था। यह मामला एक स्त्री के बारे में है जिसे 12 साल से लहू बहने का रोग था। इस बारे में आप लूका 8:42-48 में पढ़ सकते हैं।

18 मरकुस की किताब कहती है कि वह स्त्री ‘डरी हुई थी और कांप रही थी।’ (मरकुस 5:33) क्यों? बेशक इसलिए क्योंकि वह जानती थी कि उसने परमेश्‍वर का नियम तोड़ दिया है। लैव्यव्यवस्था 15:25-28 के मुताबिक, अगर किसी स्त्री का लहू ज़्यादा दिनों तक बहता, तो वह तब तक अशुद्ध मानी जाती जब तक कि उसका खून बहना बंद न होता, साथ ही वह एक और हफ्ते तक अशुद्ध होती। इस दौरान वह जिस चीज़ को छूती या जिस किसी के भी संपर्क में आती, वह भी अशुद्ध हो जाता। इसलिए भीड़ में से होते हुए यीशु तक पहुँचने के लिए उस स्त्री को बहुत मुश्‍किल हुई होगी। इस घटना को हुए 2,000 साल बीत गए हैं, मगर आज भी जब हम इसका ब्यौरा पढ़ते हैं, तो हमें उस स्त्री की हालत पर तरस आता है।

19 अगर आप उस दिन वहाँ मौजूद होते, तो आप कैसा नज़रिया दिखाते? उस स्त्री को देखकर आपने क्या कहा होता? ध्यान दीजिए कि यीशु, उस स्त्री के साथ दया और प्यार से पेश आया और उसने उसका लिहाज़ किया। अगर उस स्त्री की वजह से कुछ समस्याएँ खड़ी हुई थीं, तो भी उसने स्त्री को उसका एहसास तक नहीं होने दिया।—मरकुस 5:34.

20. अगर लैव्यव्यवस्था 15:25-28 आज भी लागू होती, तो हमारे सामने कौन-सी चुनौती खड़ी होती?

20 क्या इस घटना से हम कुछ सीख सकते हैं? मान लीजिए, आप मसीही कलीसिया में एक प्राचीन हैं। और यह भी कल्पना कीजिए कि लैव्यव्यवस्था 15:25-28 आज मसीहियों पर लागू होती है और एक मसीही बहन खुद को इतनी बेबस और लाचार पाती है कि वह इस नियम को तोड़ देती है। ऐसे में आप क्या करेंगे? क्या आप सबके सामने उसे तीखी फटकार सुनाकर उसकी बेइज़्ज़ती करेंगे? आप शायद कहें, “नहीं, मैं तो ऐसा करने की कभी सोच भी नहीं सकता! मैं यीशु की तरह उसके साथ दया, प्यार और समझदारी से पेश आने और उसका लिहाज़ करने की भरसक कोशिश करूँगा।” सचमुच ऐसा संकल्प करना बहुत अच्छी बात है! लेकिन यीशु के नक्शे-कदम पर चलकर, ऐसा कर दिखाना एक चुनौती हो सकती है।

21. यीशु ने लोगों को व्यवस्था के बारे में क्या सिखाया?

21 यीशु से मिलने पर लोगों को बेहद सुकून मिलता था, उनकी जान-में-जान आ जाती और उनका उत्साह बढ़ जाता था। उसने लोगों को सिखाया कि जिन मामलों में परमेश्‍वर की व्यवस्था साफ-साफ नियम देती है, उन्हें हर हाल में मानना चाहिए। लेकिन जिन विषयों के बारे में मोटे तौर पर बताया गया है, उनमें वे अपने ज़मीर के मुताबिक फैसला कर सकते हैं और अपने फैसलों से परमेश्‍वर के लिए प्रेम ज़ाहिर कर सकते हैं। व्यवस्था ने लोगों को कुछ हद तक आज़ादी दी थी। (मरकुस 2:27,28) परमेश्‍वर अपने लोगों से प्यार करता था, हमेशा उनकी भलाई के लिए काम करता और जब लोग उसके नियम मानने से चूक जाते तो वह दिल खोलकर उन्हें माफ करता था। यीशु ने भी ऐसा ही नज़रिया दिखाया।—यूहन्‍ना 14:9.

यीशु की शिक्षाओं का असर

22. यीशु के शिष्यों ने उससे कैसा नज़रिया रखना सीखा?

22 जो लोग यीशु का उपदेश सुनकर उसके चेले बने, उन्होंने देखा कि यीशु की इस बात में वाकई सच्चाई है: “मेरा जूआ सहज और मेरा बोझ हलका है।” (मत्ती 11:30) उन्हें कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि यीशु उन पर कानूनों का बोझ लाद रहा है, उन्हें हमेशा परेशान कर रहा है या उन पर भाषण झाड़ रहा है। वे बेखौफ और खुश रहते और उन्हें इस बात का पूरा यकीन रहता कि परमेश्‍वर के साथ और एक-दूसरे के साथ उनका रिश्‍ता अच्छा है। (मत्ती 7:1-5; लूका 9:49,50) यीशु से उन्होंने सीखा कि आध्यात्मिक अगुवा वह होता है जो दूसरों को विश्राम पहुँचाता है, साथ ही दीन और नम्र होता है।—1 कुरिन्थियों 16:17,18; फिलिप्पियों 2:3.

23. यीशु के साथ रहकर, उसके चेलों ने कौन-सी अहम बात सीखी और वे किन नतीजों पर पहुँच सके?

23 इसके अलावा, बहुतों के दिल में यह बात भी अच्छी तरह बैठ गयी कि मसीह के साथ एकता में रहना और उसका नज़रिया अपनाना कितना ज़रूरी है। उसने अपने चेलों से कहा: “जैसा पिता ने मुझ से प्रेम रखा, वैसा ही मैं ने तुम से प्रेम रखा, मेरे प्रेम में बने रहो। यदि तुम मेरी आज्ञाओं को मानोगे, तो मेरे प्रेम में बने रहोगे: जैसा कि मैं ने अपने पिता की आज्ञाओं को माना है, और उसके प्रेम में बना रहता हूं।” (यूहन्‍ना 15:9,10) परमेश्‍वर की सेवा में अच्छा प्रतिफल पाने के लिए, उन्हें परमेश्‍वर का सुसमाचार सरेआम लोगों को प्रचार करते और सिखाते समय, साथ ही अपने परिवार और दोस्तों के साथ पेश आते समय, यीशु की शिक्षाओं पर चलने की पूरी कोशिश करनी थी। जब उन चेलों की गिनती बढ़कर कलीसियाएँ बनतीं तो उन्हें बार-बार खुद को याद दिलाने की ज़रूरत पड़ती कि यीशु ने जो मार्ग दिखाया वही सही है। वे इस नतीजे पर पहुँचते कि यीशु ने जो सिखाया, वही सच्चाई है और उन्होंने यीशु को जिस तरह का जीवन बिताते देखा था, वही जीने का बिलकुल सही तरीका है।—यूहन्‍ना 14:6; इफिसियों 4:20,21.

24. यीशु की मिसाल से सीखकर हमें मन में क्या ठान लेना चाहिए?

24 अब तक हमने जिन बातों पर चर्चा की, उन पर गहराई से सोचने से क्या आपको लगता है कि आपको कुछ मामलों में सुधार करने की ज़रूरत है? क्या आप इस बात से सहमत हैं कि यीशु के सोच-विचार, उसकी शिक्षाएँ और उसके काम हमेशा सही थे? अगर हाँ, तो अपने मन में ठान लीजिए। वह हमारा उत्साह बढ़ाते हुए कहता है: “तुम तो ये बातें जानते हो, और यदि उन पर चलो, तो धन्य हो।”—यूहन्‍ना 13:17.

[फुटनोट]

^ “[यीशु और फरीसियों] के बीच सबसे बड़ा फर्क, सिर्फ इस बात से साफ नज़र आता है कि परमेश्‍वर के बारे में उनकी समझ एक-दूसरे से बिलकुल अलग थी। फरीसियों की नज़र में, परमेश्‍वर बस इंसान से माँग करनेवाला है जबकि यीशु के मुताबिक परमेश्‍वर, अनुग्रहकारी और करुणामय है। फरीसी इस बात से तो इंकार नहीं करते कि परमेश्‍वर हमारी भलाई चाहता है और हमसे प्रेम करता है। मगर उनकी राय में परमेश्‍वर ने हमें तोरह [व्यवस्था] का वरदान देकर अपनी भलाई और प्रेम ज़ाहिर किया है और उसने यह संभव किया है कि हम इसमें दी गयी माँगों को पूरा कर सकें। . . . फरीसियों की राय में व्यवस्था को समझाने के लिए बाप-दादों के ठहराए कायदे-कानूनों को मानना ही तोरह का पालन करना है। . . . लेकिन यीशु ने प्रेम के बारे में दो आज्ञाएँ (मत्ती 22:34-40) देकर इस गुण को बहुत अहमियत दी और सभी नियमों से ऊँचा दर्जा दिया। उसने पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही रस्मों को ठुकरा दिया जिनको मानना एक भारी बोझ था . . . इसी वजह से फरीसी उसके दुश्‍मन बन गए, जो लोगों के लिए अपने ज़मीर के मुताबिक फैसला करने की गुंजाइश नहीं छोड़ते थे।”—द न्यू इंटरनैशनल डिक्शनरी ऑफ न्यू टॆस्टामॆंट थिऑलोजी।

आप क्या जवाब देंगे?

• आपकी राय में यीशु का एक चेला होने का मतलब क्या है?

• यीशु, लोगों के साथ कैसे पेश आता था?

• यीशु के सिखाने के तरीके से हम क्या सीखते हैं?

• फरीसियों और यीशु में क्या फर्क था?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 18, 19 पर तसवीर]

लोगों के बारे में यीशु का नज़रिया, फरीसियों से कितना अलग था!