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“मैं कैसर की दोहाई देता हूं”!

“मैं कैसर की दोहाई देता हूं”!

“मैं कैसर की दोहाई देता हूं”!

भीड़ ने एक निहत्थे आदमी को पकड़कर उसे बुरी तरह से मारा-पीटा। उनका मानना था कि उसे जान से मार डालना चाहिए। एक बार को तो ऐसा लग रहा था कि भीड़ उसकी जान ही ले लेगी मगर ऐन वक्‍त पर सैनिकों की एक टोली आ पहुँची और बड़ी मुश्‍किल से उस आदमी को खून की प्यासी भीड़ से छुड़ाया। वह आदमी था, प्रेरित पौलुस। उस पर हमला करनेवाले यहूदी थे, जो पौलुस के प्रचार काम के कट्टर विरोधी थे और जिन्होंने उस पर मंदिर को अपवित्र करने का इलज़ाम लगाया। उसे बचानेवाले रोमी सैनिक थे जिनका सरदार क्लौदियुस लूसियास था। इस सारे हंगामे में पौलुस को मुजरिम समझकर गिरफ्तार किया गया।

प्रेरितों की किताब के आखिरी सात अध्यायों में उसकी गिरफ्तारी से लेकर मुकद्दमा चलने तक का सिलसिलेवार ब्यौरा दिया गया है। और जब हमें यह जानकारी मिलती है कि पौलुस अपनी बीती ज़िंदगी में किस तरह कानून से जुड़ा हुआ था, उस पर कैसे इलज़ाम लगाए गए, उसने कैसे अपनी सफाई पेश की और रोमी दंड-व्यवस्था के तहत अदालती कार्यवाही में क्या-क्या होता था, तो इन अध्यायों को समझने में हमें काफी मदद मिलती है।

क्लौदियुस लूसियास की हिरासत में

क्लौदियुस लूसियास की ज़िम्मेदारी थी, यरूशलेम में शांति और व्यवस्था बनाए रखना। उससे बड़ा अधिकारी, यहूदिया का रोमी गवर्नर था जो कैसरिया में रहता था। देखा जाए तो लूसियास ने पौलुस को इसलिए गिरफ्तार किया था, क्योंकि एक व्यक्‍ति को हिंसा से बचाना और शांति भंग करनेवाले किसी व्यक्‍ति को कैद करना उसका फर्ज़ था। जब लूसियास ने देखा कि यहूदी किस तरह पौलुस को जान से मार डालने पर उतारू थे, तो वह अपने कैदी को टावर ऑफ ऐन्टोनिया के सैनिक गढ़ में ले गया।—प्रेरितों 21:27–22:24.

लूसियास जानना चाहता था कि पौलुस का कसूर क्या है। इतने कोलाहल में वह कुछ भी नहीं जान पाया था। इसलिए बिना वक्‍त गँवाए, उसने आदेश दिया कि पौलुस को “कोड़े मारकर जांचो, कि मैं जानूं कि लोग किस कारण उसके विरोध में ऐसा चिल्ला रहे हैं।” (प्रेरितों 22:24) मुजरिमों, गुलामों और छोटे तबके के दूसरे लोगों से सच्चाई उगलवाने का यह आम तरीका था। इसके लिए कोड़ा (फ्लाग्रम) एक असरदार, मगर बहुत भयानक हथियार था। ऐसे कोड़ों की ज़ंजीर के सिरे पर लोहे की गेंद होती थी। कुछ और कोड़े चमड़े के बने होते थे, जिन पर कुछ अंतर पर नुकीली हड्डियाँ या लोहे के टुकड़े लगाए जाते थे। इन कोड़ों की मार के ज़ख्म बहुत गहरे होते थे और शरीर की खाल तार-तार होकर झूलने लगती थी।

कोड़े लगाए जाने से ठीक पहले पौलुस ने बताया कि वह एक रोमी नागरिक है। जब तक एक रोमी नागरिक को गुनहगार साबित नहीं किया जाता तब तक उसे कोड़ों से नहीं मारा जा सकता था। इसलिए जब पौलुस ने अपने अधिकारों का सम्मान किए जाने का दावा किया तो इसका तुरंत असर हुआ। एक रोमी नागरिक के साथ बुरा सलूक करने या उसे सज़ा देने के जुर्म में, एक रोमी अफसर को अपने पद से हाथ धोना पड़ सकता था। इसलिए लाज़मी है कि इसके बाद से पौलुस को एक खास कैदी की तरह रखा गया, और उससे मिलने के लिए लोग भी आ सकते थे।—प्रेरितों 22:25-29; 23:16,17.

लूसियास ठीक से नहीं जानता था कि पौलुस का कसूर क्या है, इसलिए यह पता लगाने के लिए कि भीड़ गुस्से से क्यों भड़क उठी थी, वह पौलुस को महासभा के सामने लाया। मगर जब पौलुस ने पुनरुत्थान के बारे में न्याय किए जाने की बात कही तो महासभा में वाद-विवाद छिड़ गया। वे आपस में इतनी बुरी तरह झगड़ने लगे कि लूसियास डर गया कि कहीं वे पौलुस के टुकड़े-टुकड़े न कर डालें, और एक बार फिर अपना फर्ज़ निभाते हुए उसने पौलुस को गुस्से से पागल यहूदियों से बचाया।—प्रेरितों 22:30–23:10.

लूसियास नहीं चाहता था कि उसे किसी रोमी नागरिक की हत्या का ज़िम्मेदार ठहराया जाए। इसलिए जब उसे इस बात की भनक पड़ी कि पौलुस को कत्ल करने की साज़िश रची जा रही है तो उसने फौरन कैदी को कैसरिया ले जाए जाने का आदेश दिया। कानून की माँग के मुताबिक जब भी किसी कैदी को उच्च न्यायालय भेजा जाता था तो उसके साथ मुकद्दमे की रिपोर्ट भी भेजी जाती थी। उस रिपोर्ट में यह बताया जाता था कि शुरू-शुरू में की गयी तहकीकात का क्या नतीजा निकला, और जो कार्यवाही की गयी उसकी वजह क्या थी और इस मामले में जाँच करनेवाले की क्या राय है। लूसियास ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि पौलुस पर ‘यहूदियों की व्यवस्था के विवादों के विषय में दोष लगाया गया है, परन्तु मार डाले जाने या बान्धे जाने के योग्य उस में कोई दोष नहीं।’ और उसने पौलुस पर दोष लगानेवालों को गवर्नर फेलिक्स के सामने अपनी शिकायत पेश करने का हुक्म दिया।—प्रेरितों 23:29,30.

गवर्नर फेलिक्स फैसला नहीं सुनाता

फेलिक्स को अपने प्रांत में न्याय करने की ताकत और अधिकार दिया गया था। वह मुकद्दमे का फैसला करने में चाहे तो प्रांत का दस्तूर मान सकता था या फिर अपराध संबंधी सरकारी कानून का पालन कर सकता था। अपराध संबंधी कानून, ओरडो कहलाते थे, जो कानूनों की एक सरकारी सूची थी। यह समाज की मशहूर हस्तियों और सरकारी अफसरों का न्याय करते वक्‍त लागू की जाती थी। इसके अलावा, वह किसी भी किस्म के जुर्म का फैसला सुनाने के लिए एकस्ट्रा ऑर्डीनेम का अधिकार अपना सकता था। प्रांत के गवर्नर से यह उम्मीद की जाती थी कि वह ‘रोम में क्या किया जाता था उस पर नहीं, बल्कि आम तौर पर क्या किया जाना चाहिए, उस पर ध्यान दे।’ इस तरह फैसला सुनाने का अधिकार पूरी तरह उसकी मुट्ठी में था।

प्राचीन रोमी कानून के सभी पहलुओं की जानकारी आज हमारे पास मौजूद नहीं है, मगर पौलुस का मुकद्दमा “प्रांतीय स्तर पर सज़ा सुनाने के कानून एकस्ट्रा ऑर्डीनेम की एक बेहतरीन मिसाल” है। गवर्नर अपने सलाहकारों के साथ एक-एक इलज़ाम लगानेवालों के बयान सुनता था। मुलज़िम को अपने आरोप लगानेवालों के सामने पेश किया जाता था, और वह अपनी तरफ से सफाई पेश कर सकता था, मगर इलज़ामों को सच साबित करने के लिए सबूत पेश करने का ज़िम्मा, मुकद्दमा दायर करनेवालों पर था। फिर मजिस्ट्रेट को जो सज़ा सही लगती थी, वह सुनाता था। वह चाहता तो तुरंत अपना फैसला सुना सकता था या बिना कोई तारीख दिए मुकद्दमे की सुनवाई मुलतवी कर सकता था। मगर तब तक मुलज़िम को हिरासत में ही रखा जाता था। विद्वान, हॆन्री कैडबरी कहते हैं: “इतनी ज़्यादा ताकत होने पर, इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं कि गवर्नर किसी के ‘बहकावे’ में आकर, मुलज़िम को बरी करने या सज़ा देने या मुकद्दमे को स्थगित करने के लिए रिश्‍वत ले सकता था।”

महायाजक हनन्याह, यहूदी पुरनियों और तिरतुल्लुस ने फेलिक्स के सामने पौलुस पर यह इलज़ाम लगाया कि वह “उपद्रवी और जगत के सारे यहूदियों में बलवा करानेवाला” है। उन्होंने दावा किया कि वह “नासरियों के कुपन्थ” का सरदार है और उसने मंदिर को अशुद्ध करने की कोशिश की है।—प्रेरितों 24:1-6.

पौलुस पर हमला करनेवाली भीड़ ने सोचा कि वह अन्यजाति के त्रुफिमुस नामक व्यक्‍ति को मंदिर के उस आँगन में लाया जिसमें यहूदियों के सिवा और किसी को कदम रखने की इजाज़त नहीं थी। * (प्रेरितों 21:28,29) देखा जाए तो यहूदियों का असली अपराधी त्रुफिमुस था। लेकिन उन्होंने यह कहकर पौलुस को भी मृत्युदंड के लायक ठहरा दिया कि उसी ने त्रुफिमुस को मंदिर में लाकर एक अपराधी की मदद करने या साथ देने का जुर्म किया। और ऐसा जान पड़ता है कि यहूदियों को रोमी सरकार से इजाज़त थी कि वे ऐसे जुर्म के लिए सज़ा-ए-मौत दे। इसलिए अगर पौलुस को लूसियास के बजाय यहूदियों के मंदिर की पुलिस गिरफ्तार कर लेती तो महासभा बड़ी आसानी से उसके मुकद्दमे की सुनवाई करके उसे मौत की सज़ा सुना सकती थी।

यहूदियों ने दलील दी कि पौलुस जो सिखा रहा था वह न तो यहूदी-धर्म है और ना ही रोमी कानून के मुताबिक मान्यता-प्राप्त धर्म (रेलिजिओ लिकिटा) है। इसलिए वे इस नतीजे पर पहुँचे कि वह जो भी शिक्षा दे रहा है, उसे गैरकानूनी ही नहीं बल्कि क्रांतिकारी करार दिया जाना चाहिए।

उन्होंने यह भी दावा किया कि पौलुस, “उपद्रवी और जगत के सारे यहूदियों में बलवा करानेवाला” है। (प्रेरितों 24:5) सम्राट क्लौदियुस ने हाल ही में सिकन्दरिया के यहूदियों को खुलेआम “दुनिया भर में विद्रोह भड़काने” के लिए दोषी ठहराया था। और गौर करने लायक बात यह है कि पौलुस पर भी कुछ ऐसा ही इलज़ाम लगाया गया था। इतिहासकार ए. एन. शरवन-वाइट कहते हैं: “क्लौदियुस के शासन के दौरान या नीरो के शुरूआती सालों में, एक यहूदी को सज़ा दिलवाने के लिए उस पर विद्रोह करने का आरोप लगाना ही काफी था। यहूदी, गवर्नर को इस नतीजे पर लाने की कोशिश कर रहे थे कि पौलुस का प्रचार करना, साम्राज्य की पूरी यहूदी आबादी में खलबली मचाने के बराबर है। वे अच्छी तरह जानते थे कि गवर्नर सिर्फ धर्म से जुड़े इलज़ामों के आधार पर किसी को सज़ा नहीं देना चाहते, इसलिए उन्होंने धर्म की वजह से लगाए गए इलज़ामों को राजनीतिक समस्या के रूप में पेश करने की कोशिश की।”

पौलुस ने अपने खिलाफ लगे एक-एक इलज़ाम की सफाई पेश की। उसने कहा: ‘मैंने कोई खलबली नहीं मचायी है। मैं मानता हूँ कि जिस पन्थ को वे “कुपन्थ” कहते हैं, मैं उसका एक सदस्य हूँ, मगर ऐसा करके मैं यहूदियों को दी गयी आज्ञाओं का पालन कर रहा हूँ। आसिया के कई यहूदियों ने हंगामा मचाया था। इसलिए अगर उन्हें मेरे खिलाफ कोई शिकायत है तो उन्हें खुद यहाँ आकर मुझ पर दोष लगाना चाहिए।’ पौलुस की इस सफाई से उनके सारे इलज़ाम धरे-के-धरे रह गए। यह तो बस यहूदियों के बीच धर्म को लेकर उठे झगड़े का मसला था, जिसके बारे में रोमियों को ज़्यादा मालूमात नहीं थी। यहूदी पहले से ही काफी भड़के और चिढ़े हुए थे और फेलिक्स उनके गुस्से को और हवा नहीं देना चाहता था। इसलिए उसने मुकद्दमे की सुनवाई को कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया और आगे की कार्यवाही लगभग रुक गयी। पौलुस को न तो उन यहूदियों के हवाले किया गया जो दावा कर रहे थे कि वे उसका न्याय कर सकते हैं, ना ही रोम के कानून के मुताबिक उसे फैसला सुनाया गया और ना ही उसे रिहा किया गया। फेलिक्स पर फैसला सुनाने के लिए ज़ोर नहीं डाला जा सकता था। देर करने के पीछे उसकी चाल थी। वह न सिर्फ यहूदियों को अपनी तरफ करना चाहता था बल्कि उसे उम्मीद थी कि शायद पौलुस उसे रिश्‍वत देगा।—प्रेरितों 24:10-19,26. *

पुरकियुस फेस्तुस के शासन में एक नया मोड़

दो साल बाद, एक नया गवर्नर, पुरकियुस फेस्तुस आया। यरूशलेम में यहूदियों ने पौलुस पर फिर एक बार वही इलज़ाम लगाए और गवर्नर से कहा कि वह पौलुस को उनके अधिकार में दे दे। मगर फेस्तुस ने उनकी एक न सुनी और सख्ती से कहा: “रोमियों की यह रीति नहीं, कि किसी मनुष्य को दण्ड के लिये सौंप दें, जब तक मुद्दाअलैह को अपने मुद्दइयों के आमने-सामने खड़े होकर दोष के उत्तर देने का अवसर न मिले।” इतिहासकार हैरी डब्ल्यू. टाशरा कहते हैं: “फेस्तुस फौरन यह समझ गया कि बिना कानूनी कार्यवाही के एक रोमी नागरिक को मौत की सज़ा देने का जाल बुना जा रहा है।” इसलिए उसने यहूदियों से अपना मुकद्दमा कैसरिया में पेश करने को कहा।—प्रेरितों 25:1-6,16.

कैसरिया की अदालत में यहूदियों ने ज़ोर देकर कहा कि पौलुस का “जीवित रहना उचित नहीं।” मगर जब वे पौलुस के खिलाफ एक भी सबूत पेश नहीं कर सके तब फेस्तुस समझ गया कि पौलुस ने ऐसा कुछ नहीं किया कि उसे सज़ा-ए-मौत दी जाए। फेस्तुस ने एक और अधिकारी को समझाते हुए कहा: “उनका मतभेद उसके साथ केवल अपने धर्म की कुछ बातों और यीशु नामक एक मनुष्य के विषय में था, जो मर गया था पर पौलुस उसके जीवित होने का दावा करता था।” (NHT)—प्रेरितों 25:7,18,19,24,25.

पौलुस पर लगाए गए सारे राजनीतिक इलज़ाम सरासर झूठे थे। मगर जहाँ तक धार्मिक विवाद की बात है, यहूदियों ने ज़रूर बहस की होगी कि इस मामले में सिर्फ उन्हीं की अदालत, न्याय करने के काबिल है। इन मसलों का फैसला करवाने के लिए क्या पौलुस यरूशलेम जाता? फेस्तुस ने पौलुस से यही सवाल पूछा, मगर सच तो यह है कि ऐसा पूछना ही गलत था। उसे वापस यरूशलेम भेजने का, जहाँ उस पर आरोप लगानेवाले उसका न्याय करेंगे, यह मतलब होता कि पौलुस को यहूदियों के हवाले करना। पौलुस ने कहा: “मैं कैसर के न्याय आसन के साम्हने खड़ा हूं: मेरे मुकद्दमे का यहीं फैसला होना चाहिए . . . यहूदियों का मैं ने कुछ अपराध नहीं किया। . . . कोई मुझे उन के हाथ नहीं सौंप सकता: मैं कैसर की दोहाई देता हूं”!—प्रेरितों 25:10,11,20.

रोमी नागरिक की ज़बान से निकले इन शब्दों से, प्रांतीय स्तर के अधिकारियों की सारी कार्यवाही रद्द हो जाती थी। उसके अपील करने का हक (प्रोवोकात्यो) “असल मायने रखता था। इस एक अपील में बहुत-सी माँगें एक-साथ शामिल थीं और इस हक की फरियाद करनेवालों को टाला नहीं जा सकता था।” इसलिए अपने सलाहकारों से कानूनी बारीकियों को लेकर सलाह-मशविरा करने के बाद, फेस्तुस ने ऐलान किया: “तू ने कैसर की दोहाई दी है, तू कैसर के पास जाएगा।”—प्रेरितों 25:12.

फेस्तुस खुश था कि पौलुस से उसकी जान छूटी। कुछ दिन बाद उसने हेरोदेस अग्रिप्पा II के सामने कबूल किया कि मुकद्दमे की वजह से उसका सिर चकरा गया था। फिर फेस्तुस को मुकद्दमे का बयान तैयार करके सम्राट को भेजना था, मगर पौलुस पर लगाए गए इलज़ामों में यहूदियों की व्यवस्था की इतनी पेचीदा बातें शामिल थीं कि उन्हें समझना उसके बस के बाहर था। मगर अग्रिप्पा, ऐसे मामलों में बहुत ज्ञानी था, इसलिए जब उसने इस मामले में दिलचस्पी दिखायी तो फेस्तुस ने बयान तैयार करने के लिए फौरन उसकी मदद माँगी। उसके बाद, पौलुस ने अग्रिप्पा के सामने भाषण दिया, मगर फेस्तुस को उसकी एक भी बात समझ नहीं आयी और वह बोल पड़ा: “हे पौलुस, तू पागल है: बहुत विद्या ने तुझे पागल कर दिया है।” मगर अग्रिप्पा अच्छी तरह समझ गया कि पौलुस क्या कह रहा है। उसने कहा: “तू मुझे थोड़े ही समय में मसीही बनने को फुसला लेगा!” (NHT) फेस्तुस और अग्रिप्पा ने पौलुस की दलीलों के बारे में चाहे जैसा भी महसूस किया हो, मगर दोनों इस बात से सहमत थे कि पौलुस बेकसूर है। और अगर उसने कैसर की दुहाई न दी होती तो उसे रिहा किया जा सकता था।—प्रेरितों 25:13-27; 26:24-32.

सालों की अदालती जंग का अंत

रोम पहुँचने पर पौलुस ने सिर्फ गवाही देने के लिए ही नहीं, बल्कि यह पता लगाने के लिए यहूदी नेताओं को बुलाया कि वे उसके बारे में क्या जानते हैं। उनके ज़रिए वह यह जान सकता था कि उस पर आरोप लगानेवालों के इरादे क्या हैं। कोई भी मुकद्दमा लड़ने के लिए यरूशलेम के अधिकारियों का, रोम के यहूदियों से मदद लेना आम बात थी। मगर इन नेताओं से पौलुस को पता चला कि उन्हें उसके बारे में कोई हिदायतें नहीं दी गयी हैं। सुनवाई होने तक, पौलुस को किराए के घर में रहने और खुलेआम प्रचार करने की इजाज़त दी गयी। इस तरह की छूट देने का मतलब हो सकता था कि रोमियों की नज़र में पौलुस बेकसूर था।—प्रेरितों 28:17-31.

पौलुस को और दो साल तक नज़रबंद रहना पड़ा। क्यों? बाइबल इस बारे में कोई जानकारी नहीं देती है। आम तौर पर मुलज़िमों को हिरासत में उस वक्‍त तक रखा जाता था जब तक कि उस पर आरोप लगानेवाले अदालत के सामने हाज़िर नहीं होते। मगर शायद यरूशलेम के यहूदी अच्छी तरह जानते थे कि उनके इलज़ामों में दम नहीं है, इसलिए वे आए ही नहीं। उनको लगा कि पौलुस का मुँह बंद करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि अदालत जाने में जितनी देर की जाए उतना ही अच्छा होगा। तो फिर, पौलुस के दो साल तक नज़रबंद रहने की वजह चाहे जो भी हो, उसके बाद उसे नीरो के सामने पेश किया गया। उसे बेकसूर करार दिया गया और उसे बाइज़्ज़त बरी किया गया। अपनी गिरफ्तारी से लेकर करीब पाँच साल तक हिरासत में रहने के बाद आखिर में वह अपना मिशनरी काम दोबारा शुरू कर सका।—प्रेरितों 27:24.

बरसों से सच्चाई के दुश्‍मन हमारे मसीही प्रचार काम को रोकने के लिए “कानून की आड़ में उत्पात मचाते” आए हैं। यह हमारे लिए कोई ताज्जुब की बात नहीं है क्योंकि यीशु ने कहा था: “यदि उन्हों ने मुझे सताया, तो तुम्हें भी सताएंगे।” (भजन 94:20; यूहन्‍ना 15:20) मगर साथ ही यीशु हमें इस बात का भी यकीन दिलाता है कि हमें दुनिया भर में सुसमाचार सुनाने की आज़ादी मिलेगी। (मत्ती 24:14) इसलिए जिस तरह पौलुस ने सताए जाने और विरोध के खिलाफ आवाज़ उठायी, उसी तरह आज यहोवा के साक्षी भी कानून की मदद लेकर ‘सुसमाचार की रक्षा और उसका पुष्टिकरण’ करते हैं।—फिलिप्पियों 1:7, NHT.

[फुटनोट]

^ अन्यजाति के लोगों के आँगन और भीतरी आँगन के बीच तीन हाथ ऊँची और चारों तरफ फैली, पत्थर की बनी परदा दीवार थी जिसके बीच-बीच में आने-जाने का रास्ता था। इस दीवार पर थोड़े-थोड़े फासले में यूनानी और लातीनी भाषा में यह चेतावनी लिखी गयी थी: “किसी भी परदेशी के लिए यह सीमा पार करके अंदर घुसना और पवित्र स्थान के चारों तरफ बनी दीवार के आगे जाना मना है। जो भी इस कानून को तोड़ता हुआ पकड़ा जाएगा, उसे मौत की सज़ा दी जाएगी और इसका ज़िम्मेदार वह खुद होगा।”

^ बेशक, रिश्‍वत लेना गैरकानूनी था। एक किताब कहती है: “पैसे ऐंठने के कानून, लेक्स रेपेटुन्डारम के तहत, कोई भी जो ऊँचे पद या प्रशासन में है, उसे किसी को भी कैद करने या छोड़ने, फैसला सुनाने या न सुनाने, रिहा करने या न करने के लिए, रिश्‍वत माँगने या लेने की मनाही थी।”