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परमेश्‍वर के वचन के सिखानेवालों के तौर पर पूरी तरह योग्य

परमेश्‍वर के वचन के सिखानेवालों के तौर पर पूरी तरह योग्य

परमेश्‍वर के वचन के सिखानेवालों के तौर पर पूरी तरह योग्य

‘परमेश्‍वर ने हमें सेवक होने के लिए सचमुच पूरी तरह योग्य किया है।’2 कुरिन्थियों 3:5, 6, NW.

1, 2. प्रचार करने के लिए कभी-कभार कैसी योजनाएँ बनायी जाती हैं, मगर वे नाकाम क्यों हो जाती हैं?

 अगर आपको एक ऐसा काम सौंपा जाए जिसे करना आपके बस की बात नहीं तो आपको कैसा लगेगा? ज़रा सोचिए: इस काम के लिए जो चीज़ें ज़रूरी हैं, वे सब आपके सामने रखी हैं। सारे औज़ार आपके सामने मौजूद हैं। मगर यह काम कैसे करना है, इस बारे में आपको रत्ती भर भी जानकारी नहीं है। उस पर, आपको यह काम जल्द-से-जल्द पूरा करना है क्योंकि लोग आप ही पर निर्भर हैं। ऐसी हालत में आप कितने बेचैन हो जाएँगे, है ना?

2 यह एक कल्पना नहीं बल्कि आज कुछ लोग सचमुच ऐसी ही कश्‍मकश में पड़े हैं। इस मिसाल पर ध्यान दीजिए। कभी-कभार ईसाईजगत के चर्च घर-घर जाकर प्रचार करने की कोशिश में योजनाएँ बनाते हैं। मगर हर बार, चंद हफ्तों या महीनों में ही इनके सारे इरादे धरे-के-धरे रह जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि ईसाईजगत ने अपने लोगों को ऐसी तालीम नहीं दी है कि वे प्रचार करने के लायक बन सकें। यहाँ तक कि उनके बड़े-बड़े स्कूलों और धार्मिक सेमिनरियों में कई सालों तक शिक्षा हासिल करनेवाले पादरी भी इस काम के काबिल नहीं हैं। मगर हम उनके बारे में ऐसा कैसे कह सकते हैं?

3. दूसरा कुरिन्थियों 3:5,6 में किन शब्दों का तीन बार इस्तेमाल हुआ है और उनका मतलब क्या है?

3 परमेश्‍वर का वचन साफ-साफ बताता है कि किन बातों से एक व्यक्‍ति, मसीही सुसमाचार का सच्चा प्रचारक बनने के योग्य ठहरता है। प्रेरित पौलुस ने ईश्‍वर-प्रेरणा से लिखा: ‘यह नहीं कि हम अपने आप से पूरी तरह योग्य हैं, कि अपनी ओर से किसी बात का विचार कर सकें; लेकिन हम परमेश्‍वर की ओर से पूरी तरह योग्य हैं, जिसने हमें सेवक होने के लिए सचमुच पूरी तरह योग्य किया है।’ (2 कुरिन्थियों 3:5, 6, NW) इस आयत में तीन बार इस्तेमाल किए गए शब्द, “पूरी तरह योग्य” पर गौर कीजिए। इन शब्दों का मतलब क्या है? इनके लिए इस्तेमाल हुए यूनानी शब्द के बारे में वाइन्स्‌ एक्सपोज़िट्री डिक्शनरी ऑफ बिबलिकल वर्ड्‌स्‌ कहती है: “जब यह [मूल यूनानी शब्द] किसी वस्तु के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो यह ‘भरपूर मात्रा’ को सूचित करता है . . . ; मगर जब इसे लोगों के संबंध में इस्तेमाल किया जाता है तब इसका मतलब ‘काबिल’ या ‘समर्थ’ होता है।” यह दिखाता है कि जो व्यक्‍ति “पूरी तरह योग्य” होता है, वह दिए गए काम को करने के काबिल होता है। जी हाँ, सुसमाचार के सच्चे सेवक, प्रचार करने के योग्य हैं। वे इस काम को करने के लिए समर्थ, सक्षम या लायक हैं।

4. (क) पौलुस की मिसाल कैसे दिखाती है कि मसीही सेवा करने की योग्यता सिर्फ गिने-चुने विद्वानों को ही नहीं मिलती? (ख) किन तीन तरीकों से यहोवा हमें सेवक होने के लिए योग्य ठहराता है?

4 मगर उन्हें यह योग्यता कैसे मिलती है? अपनी काबिलीयतों की वजह से? बहुत ज्ञानी होने की वजह से? या किसी मशहूर शिक्षा संस्थान से खास किस्म की शिक्षा पाने की वजह से? प्रेरित पौलुस के बारे में देखा जाए तो उसे यह सब कुछ हासिल था। (प्रेरितों 22:3; फिलिप्पियों 3:4, 5) फिर भी, उसने नम्रता से यह कबूल किया कि उसने सेवक बनने की योग्यताएँ उच्च शिक्षा संस्थानों से हासिल नहीं की, बल्कि यहोवा परमेश्‍वर से पायी थीं। क्या परमेश्‍वर ऐसी योग्यताएँ सिर्फ कुछ गिने-चुने विद्वानों को ही देता है? पौलुस ने कुरिन्थ की कलीसिया को लिखा कि ‘हम पूरी तरह योग्य हैं।’ इसका मतलब है, यहोवा इस बात का पूरा ध्यान रखता है कि जो काम उसने सौंपा है, उसे करने के लिए उसके सभी सच्चे सेवक पूरी तरह योग्य हों। आज यहोवा सच्चे मसीहियों को किन तरीकों से योग्य बनाता है? आइए हम ऐसे तीन तरीकों पर चर्चा करें जिनके ज़रिए वह हमें योग्य बनाता है: (1) उसका वचन, (2) उसकी पवित्र आत्मा और (3) पृथ्वी पर उसका संगठन।

यहोवा का वचन हमें योग्य बनाता है

5, 6. सच्चे मसीहियों पर पवित्र शास्त्र कैसा असर करती है?

5 आइए सबसे पहले देखें कि परमेश्‍वर का वचन हमें सेवक बनने में कैसे मदद देता है? पौलुस ने लिखा: “सम्पूर्ण पवित्र शास्त्र परमेश्‍वर की प्रेरणा से रचा गया है। वह लोगों को सत्य की शिक्षा देने, उनको सुधारने, उन्हें उनकी बुराइयाँ दर्शाने और धार्मिक जीवन के प्रशिक्षण में उपयोगी है। जिससे परमेश्‍वर का प्रत्येक सेवक शास्त्रों का प्रयोग करते हुए हर प्रकार के उत्तम कार्यों को करने के लिये समर्थ और साधन सम्पन्‍न होगा।” (2 तीमुथियुस 3:16, 17, ईज़ी-टू-रीड वर्शन) तो पवित्र शास्त्र हमें दूसरों को परमेश्‍वर का वचन सिखाने का ‘उत्तम कार्य’ करने के लिए “समर्थ और साधन सम्पन्‍न” बनने में मदद देता है। लेकिन ईसाईजगत के चर्चों के सभी सदस्यों के बारे में क्या? उनके पास भी तो बाइबल है। यह कैसे हो सकता है कि एक ही किताब कुछ लोगों को समर्थ सेवक बनाए और दूसरों को नहीं? इस फर्क की वजह है, बाइबल के बारे में हमारा नज़रिया।

6 अफसोस की बात है कि चर्च जानेवाले बहुत-से लोग बाइबल के संदेश को “परमेश्‍वर का वचन समझकर (और सचमुच यह ऐसा ही है)” ग्रहण नहीं करते। (1 थिस्सलुनीकियों 2:13) इस मामले में ईसाईजगत का इतिहास तो बहुत ही शर्मनाक है। क्या धार्मिक संस्थानों से कई सालों तक शिक्षा हासिल करने के बावजूद उनके पादरी, परमेश्‍वर के वचन के शिक्षक होने के लिए योग्य हैं? बिलकुल नहीं। सेमिनरी के कुछ विद्यार्थी शुरू-शुरू में तो बाइबल पर काफी विश्‍वास दिखलाते हैं, मगर ताज्जुब की बात है कि ग्रेजुएट होते-होते वे बाइबल के बारे में शक्की बन जाते हैं! इसके बाद, उनमें से ज़्यादातर जन परमेश्‍वर के वचन का प्रचार नहीं करते क्योंकि उस पर से उनका भरोसा उठ चुका होता है। इसके बजाय वे लोगों को कुछ दूसरी ही बातें बताते हैं, जैसे राजनीतिक वाद-विवादों में किस का पक्ष लेना चाहिए। और वे समाज-सेवा को ही बाइबल का सुसमाचार करार देकर उसे बढ़ावा देते और चर्च में इंसानों के तत्त्वज्ञानों का उपदेश देते हैं। (2 तीमुथियुस 4:3) लेकिन सच्चे मसीही उनसे कितने अलग हैं, क्योंकि वे यीशु मसीह की मिसाल पर चलते हैं।

7, 8. परमेश्‍वर के वचन के बारे में यीशु का नज़रिया, अपने ज़माने के धर्मगुरुओं से कैसे अलग था?

7 यीशु ने अपने सोच-विचार पर उस समय के धर्मगुरुओं का कोई असर नहीं पड़ने दिया। उसने सिखाते समय हमेशा पवित्र शास्त्र का अच्छा इस्तेमाल किया, चाहे वह अपने प्रेरितों के जैसे चंद लोगों को सिखा रहा था या किसी भीड़ को। (मत्ती 13:10-17; 15:1-11) यीशु और उस ज़माने के धर्मगुरुओं में यही बड़ा फर्क था। धर्मगुरू आम जनता को परमेश्‍वर की गूढ़ बातों की खोज करने से सख्त मना करते थे। दरअसल, उन दिनों धर्मगुरुओं की यह धारणा आम थी कि शास्त्र में दी गयी कुछ बातें इतनी गूढ़ हैं कि वे उनके बारे में सिर्फ अपने सबसे करीबी शिष्य के साथ ही चर्चा कर सकते हैं, और वह भी सिर ढककर, बहुत धीमी आवाज़ में। बाइबल के कुछ भागों पर चर्चा करने के बारे में वे उतने ही अंधविश्‍वासी थे जितने कि परमेश्‍वर का नाम लेने के बारे में!

8 लेकिन मसीह उनके जैसा नहीं था। उसका मानना था कि सिर्फ गिने-चुने लोगों को ही नहीं बल्कि सभी को ‘यहोवा के मुख से निकलनेवाले हर एक वचन’ पर ध्यान देने की ज़रूरत है। (तिरछे टाइप हमारे।) यीशु नहीं चाहता था कि दूसरों को शास्त्र की बातें सिखाने का सुअवसर बस चंद विद्वानों को ही मिले। उसने अपने शिष्यों को बताया: “जो मैं तुम से अन्धियारे में कहता हूं, उसे उजियाले में कहो; और जो कानों कान सुनते हो, उसे कोठों पर से प्रचार करो।” (मत्ती 4:4; 10:27) यीशु की यह दिली तमन्‍ना थी कि वह ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों तक परमेश्‍वर का ज्ञान पहुँचाए।

9. सच्चे मसीही बाइबल का किस तरह इस्तेमाल करते हैं?

9 हमें दूसरों को सिखाते समय सबसे ज़्यादा परमेश्‍वर के वचन को महत्त्व देना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब हम यहोवा के साक्षियों के राज्यगृह में कोई भाषण देते हैं, तो बाइबल की चुनिंदा आयतों को पढ़ लेना काफी नहीं। शायद ज़रूरी हो कि हम उन आयतों का मतलब बताएँ, उन्हें उदाहरण देकर समझाएँ और यह भी बताएँ कि हम उन आयतों को कैसे लागू कर सकते हैं। हमारा मकसद है, बाइबल के पन्‍नों पर दिए संदेश को अच्छी तरह समझाकर उन्हें लोगों के दिलो-दिमाग में बिठाना। (नहेमायाह 8:8, 12) जब किसी को सलाह या ताड़ना देने की ज़रूरत होती है, तब भी बाइबल का इस्तेमाल करना चाहिए। यहोवा के लोग अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं और उनकी परवरिश भी अलग-अलग माहौल में हुई है, इसके बावजूद वे सभी, बाइबल का गहरा आदर करते हैं, जो सब किताबों में श्रेष्ठ किताब है।

10. बाइबल में ईश्‍वर-प्रेरणा से दिया गया संदेश हम पर कैसा असर कर सकता है?

10 जब बाइबल का इस तरह आदर के साथ इस्तेमाल किया जाता है तो इसमें दी गयी बातों का ज़बरदस्त असर होता है। (इब्रानियों 4:12) बाइबल, लोगों को अपनी ज़िंदगी में बड़े-बड़े बदलाव करने और ऐसी बुराइयाँ छोड़ने के लिए प्रेरित करती है जो बाइबल के खिलाफ हैं, जैसे व्यभिचार, परस्त्रीगमन, मूर्तिपूजा, पियक्कड़पन, चोरी, वगैरह। बाइबल ने बहुत सारे लोगों को अपना पुराना मनुष्यत्व उतार फेंकने और नया मनुष्यत्व धारण करने में मदद दी है। (इफिसियों 4:20-24) जी हाँ, अगर हम इंसानों की किसी भी धारणा या परंपरा से बढ़कर बाइबल का आदर करेंगे और हमेशा इसका इस्तेमाल करेंगे, तो यह हमें परमेश्‍वर के वचन के सिखानेवाले बनने के लिए समर्थ और पूरी तरह योग्य बना सकती है।

यहोवा की आत्मा हमें योग्य बनाती है

11. यहोवा की पवित्र आत्मा को “सहायक” कहना क्यों सही है?

11 आइए अब हम दूसरे तरीके पर चर्चा करें कि हमें पूरी तरह योग्य बनाने में यहोवा की पवित्र आत्मा या उसकी सक्रिय शक्‍ति की क्या भूमिका है। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि यहोवा की आत्मा से ताकतवर और कोई शक्‍ति नहीं है। यहोवा ने अपने प्यारे बेटे को यह अधिकार दिया है कि वह सभी सच्चे मसीहियों की खातिर इस अद्‌भुत शक्‍ति का इस्तेमाल करे। इसलिए यीशु ने बिलकुल सही कहा था कि पवित्र आत्मा एक “सहायक” है। (यूहन्‍ना 16:7) उसने अपने अनुयायियों से आग्रह किया कि वे यहोवा से उस आत्मा के लिए बिनती करें और उन्हें यकीन दिलाया कि यहोवा उन्हें बहुतायत में पवित्र आत्मा देगा।—लूका 11:10-13; याकूब 1:17.

12, 13. (क) यह क्यों ज़रूरी है कि हम सेवकाई में मदद के लिए यहोवा से पवित्र आत्मा देने की बिनती करें? (ख) फरीसियों ने यह कैसे दिखाया कि पवित्र आत्मा उन पर काम नहीं कर रही थी?

12 हमें हर दिन, पवित्र आत्मा के लिए प्रार्थना करने की ज़रूरत है, खासकर सेवकाई में हमारी मदद करने के लिए। यह सक्रिय शक्‍ति हम पर कैसा असर कर सकती है? यह हमारे दिलो-दिमाग पर असर करके, हमें अपने अंदर बदलाव लाने, आध्यात्मिक तरक्की करने और पुराना मनुष्यत्व उतारकर नया मनुष्यत्व पहनने में मदद दे सकती है। (कुलुस्सियों 3:9, 10) यह अपने अंदर ऐसे अनमोल गुण पैदा करने में हमारी मदद कर सकती है, जो मसीह में थे। हममें से कई लोगों को गलतियों 5:22, 23 ज़बानी याद है। उन आयतों में परमेश्‍वर की आत्मा के फलों की सूची दी गयी है जिनमें सबसे पहला है, प्रेम। यह गुण हमारी सेवकाई के लिए बेहद ज़रूरी है। लेकिन क्यों?

13 प्रेम ही वह गुण है जो सबसे ज़्यादा प्रेरणा देता है। यहोवा और लोगों के लिए प्रेम ही सच्चे मसीहियों को सुसमाचार सुनाने के लिए उकसाता है। (मरकुस 12:28-31) अगर हमारे अंदर ऐसा प्रेम न हो, तो हम सही मायनों में परमेश्‍वर के वचन के शिक्षक होने के योग्य नहीं बन सकते। गौर कीजिए कि यीशु और फरीसियों में कितना फर्क था। मत्ती 9:36 यीशु के बारे में कहता है: “जब उस ने भीड़ को देखा तो उस को लोगों पर तरस आया, क्योंकि वे उन भेड़ों की नाईं जिनका कोई रखवाला न हो, ब्याकुल और भटके हुए से थे।” लेकिन आम लोगों के बारे में फरीसियों का रवैया कैसा था? वे उनके बारे में कहते थे: “ये लोग जो व्यवस्था नहीं जानते, स्रापित हैं।” (तिरछे टाइप हमारे।) (यूहन्‍ना 7:49) फरीसियों के दिल में लोगों के लिए रत्ती भर भी प्यार नहीं था बल्कि वे उन्हें नीच समझते थे। इससे साफ ज़ाहिर है कि उन पर यहोवा की आत्मा काम नहीं कर रही थी।

14. यीशु ने अपनी सेवकाई में प्रेम दिखाने की जो मिसाल रखी, उसका हम पर कैसा असर होना चाहिए?

14 यीशु के दिल में लोगों के लिए जगह थी। वह उनका दर्द समझता था। वह जानता था कि उनके साथ बुरा सलूक किया गया है और वे ऐसी भेड़ों की तरह हैं जिनका कोई चरवाहा नहीं और वे भटके हुए और व्याकुल हैं। यूहन्‍ना 2:25 हमें बताता है कि यीशु “जानता था, कि मनुष्य के मन में क्या है।” सृष्टि के समय यीशु, यहोवा का एक कुशल कारीगर था, इसलिए उसे इंसान के स्वभाव के बारे में गहरी समझ थी। (नीतिवचन 8:30, 31) ऐसी समझ होने की वजह से इंसानों के लिए उसका प्यार और भी गहरा हो गया। ऐसा ही प्रेम हमें भी प्रचार करने के लिए हमेशा उकसाता रहे! अगर हमें लगता है कि इस मामले में हमें कुछ सुधार लाने की ज़रूरत है, तो आइए हम यहोवा से पवित्र आत्मा के लिए प्रार्थना करें और फिर अपनी प्रार्थनाओं के मुताबिक कदम भी उठाएँ। यहोवा ज़रूर हमारी प्रार्थनाओं का जवाब देगा। वह हमें अपनी पवित्र आत्मा देगा जिसे दुनिया की कोई भी ताकत नहीं रोक सकती और तब हम मसीह के नक्शे-कदम पर और अच्छी तरह चल पाएँगे, जो सुसमाचार का प्रचार करने के लिए सबसे बढ़कर योग्य था।

15. यशायाह 61:1-3 के शब्द यीशु पर कैसे पूरे हुए, साथ ही उनसे शास्त्रियों और फरीसियों का कैसे खुलासा हुआ?

15 यीशु को प्रचार करने की योग्यताएँ कैसे मिलीं? उसने कहा: “प्रभु [यहोवा की] आत्मा मुझ पर है।” (लूका 4:17-21) जी हाँ, यहोवा ने खुद पवित्र आत्मा के ज़रिए यीशु को नियुक्‍त किया था। यीशु को अब किसी और योग्यता की ज़रूरत नहीं थी। लेकिन क्या उसके दिनों के धर्मगुरुओं को भी पवित्र आत्मा के ज़रिए नियुक्‍त किया गया था? बिलकुल नहीं। ना ही वे यशायाह 61:1-3 की भविष्यवाणी को पूरा करने के लायक थे, जिसे यीशु ने पढ़कर सुनाया और खुद पर लागू किया था। कृपया उन आयतों को पढ़िए और खुद देखिए कि ये आयतें कपटी शास्त्रियों और फरीसियों पर नहीं लागू होतीं। कंगालों को सुनाने के लिए उनके पास कोई सुसमाचार नहीं था। आखिर वे बंधुओं को छुटकारे का और अंधों को दृष्टि पाने का समाचार कैसे दे सकते थे? वे तो खुद आध्यात्मिक रूप से अंधे और इंसान की बनायी परंपराओं के गुलाम थे! क्या हम उनकी तरह न होते हुए, लोगों को सिखाने के योग्य हैं?

16. यहोवा के लोग उसके सेवक होने की अपनी योग्यता के बारे में क्या यकीन रख सकते हैं?

16 यह सच है कि हमने ईसाईजगत के बड़े-बड़े संस्थानों में जाकर शिक्षा हासिल नहीं की है। न ही हमें किसी धार्मिक सेमिनरी ने शिक्षक के पद पर नियुक्‍त किया है। तो क्या हम सिखाने के योग्य नहीं हैं? ऐसी बात नहीं! हमें अपना साक्षी ठहरानेवाला खुद यहोवा है। (यशायाह 43:10-12) अगर हम उसकी आत्मा के लिए प्रार्थना करें और फिर अपनी प्रार्थना के अनुसार काम करें, तो हमारे पास शिक्षक बनने की सबसे ऊँचे दर्जे की काबिलीयत होगी। माना कि हम असिद्ध हैं और महान शिक्षक, यीशु की मिसाल पर चलने से कभी-कभी चूक जाते हैं। लेकिन फिर भी, क्या हम इस बात के लिए शुक्रगुज़ार नहीं कि यहोवा, अपनी आत्मा के ज़रिए हमें अपने वचन के शिक्षक बनने के योग्य ठहराता और समर्थ करता है?

यहोवा का संगठन हमें योग्य बनाता है

17-19. यहोवा का संगठन, हफ्ते में जो पाँच सभाएँ चलाता है, वे हमें सेवक बनने के लिए कैसे योग्य बनाती हैं?

17 अब आइए हम उस तीसरे तरीके पर चर्चा करें, जिससे यहोवा हमें अपने वचन के सिखानेवाले बनने के योग्य ठहराता है। वह है, पृथ्वी पर उसकी कलीसिया या संगठन जो हमें सेवक बनने की तालीम देता है। यह कैसे तालीम देता है? ज़रा सोचिए कि हम शिक्षा के कितने बढ़िया कार्यक्रम का आनंद उठाते हैं! हर हफ्ते, हम पाँच मसीही सभाओं में हाज़िर होते हैं। (इब्रानियों 10:24, 25) हम कलीसिया पुस्तक अध्ययन के लिए छोटे-छोटे समूहों में इकट्ठा होते हैं जिनमें हम यहोवा के संगठन से मिली किसी एक किताब के ज़रिए बाइबल का गहराई से अध्ययन करते हैं। दूसरों के जवाब सुनकर और खुद जवाब देकर, हम एक-दूसरे से सीखते और एक-दूसरे का हौसला बढ़ाते हैं। पुस्तक अध्ययन अध्यक्ष भी हममें से हर किसी पर खास ध्यान देता और हमें सलाह देता है। जन-सभा और प्रहरीदुर्ग अध्ययन में हमें बढ़िया आध्यात्मिक खुराक मिलती है।

18 हमारा ईश्‍वरशासित सेवकाई स्कूल, इस मकसद से तैयार किया गया है कि यह हमें दूसरों को सिखाने के काबिल बनाए। जब हम विद्यार्थी भाषणों की तैयारी करते हैं, तो हम सीखते हैं कि किस तरह हमें लोगों को अलग-अलग विषयों के बारे में सिखाने के लिए परमेश्‍वर के वचन का इस्तेमाल करना चाहिए। (1 पतरस 3:15) क्या आपको कभी ऐसे विषय पर भाषण देने की नियुक्‍ति मिली थी, जो शुरू में तो काफी जाना-पहचाना लग रहा था, लेकिन जब आप उसकी तैयारी करने बैठे, तो आपने देखा कि उसके बारे में आपको कुछ नयी-नयी जानकारी मिल रही है? ऐसा अकसर हर किसी के साथ होता है। किसी विषय के बारे में दूसरों को सिखाने से हमारा ज्ञान जितना बढ़ता है उतना और किसी तरीके से नहीं बढ़ता। यहाँ तक कि जब स्कूल में हमारा कोई भाग नहीं होता, तब भी हम अच्छे शिक्षक बनना सीख सकते हैं। जब हम हर विद्यार्थी में सिखाने की कोई खूबी देखते हैं तो हम सोच सकते हैं कि हम भी वह काबीलियत कैसे हासिल कर सकते हैं।

19 सेवा-सभा का कार्यक्रम भी हमें परमेश्‍वर के वचन के अच्छे शिक्षक बनने में मदद देने के लिए तैयार किया जाता है। हम हर हफ्ते इस सभा में सेवकाई से संबंधित जोशीले भाषणों, चर्चाओं और प्रदर्शनों का आनंद उठाते हैं। हम प्रचार में अपना संदेश किस तरह पेश कर सकते हैं? प्रचार में पैदा होनेवाली खास चुनौतियों का हम कैसे सामना कर सकते हैं? प्रचार करने के और कौन-से मौके हमारे सामने खुले हैं, जिनका हमें इस्तेमाल करने की ज़रूरत है? पुनःभेंट और बाइबल अध्ययन करते वक्‍त और असरदार तरीके से सिखाने में कौन-सी बात हमारी मदद करेगी? (1 कुरिन्थियों 9:19-22) ऐसे सवालों पर सेवा-सभा में विस्तार से चर्चा की जाती है। सेवा-सभा के ज़्यादातर भाग, हमारी राज्य सेवकाई के लेखों पर आधारित होते हैं, जो हमें अपने महत्त्वपूर्ण काम को पूरा करने में मदद देनेवाला एक और ज़रिया है।

20. हम सभाओं और सम्मेलनों से कैसे पूरा लाभ पा सकते हैं?

20 सभाओं की तैयारी करने, उनमें हाज़िर होने और सीखी बातों पर सेवकाई में अमल करने के ज़रिए हम बेहतरीन तालीम पाते हैं। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती। हमारे लिए सम्मेलनों और अधिवेशनों जैसी बड़ी-बड़ी सभाओं का भी इंतज़ाम किया जाता है ताकि हम परमेश्‍वर का वचन सिखाने के योग्य बनें। हम उन कार्यक्रमों को ध्यान से सुनने और वहाँ दी जानेवाली सलाहों को अमल में लाने के लिए कितने बेताब रहते हैं!—लूका 8:18.

21. क्या सबूत दिखाता है कि हमें दी जानेवाली तालीम का फायदा हुआ है, और इसका श्रेय किसे जाता है?

21 यहोवा ने जो तालीम दी है, क्या उससे कुछ फायदा हुआ है? यह जानने के लिए क्यों न हम सबूतों पर एक नज़र डालें? बाइबल की बुनियादी शिक्षाएँ सीखने और परमेश्‍वर की इच्छा के मुताबिक जीने के लिए हर साल, सैकड़ों-हज़ारों लोगों की मदद की जा रही है। हमारी संख्या रोज़-ब-रोज़ बढ़ती जा रही है, लेकिन इसका श्रेय हममें से कोई भी नहीं ले सकता। हमें यीशु की तरह इस बारे में सही नज़रिया रखना चाहिए। उसने कहा था: “कोई मेरे पास नहीं आ सकता, जब तक पिता, जिस ने मुझे भेजा है, उसे खींच न ले।” प्राचीन समय के प्रेरितों की तरह हममें से ज़्यादातर लोग साधारण हैं और हमने धर्म की कोई उच्च शिक्षा हासिल नहीं की है। (यूहन्‍ना 6:44; प्रेरितों 4:13) हमारी कामयाबी यहोवा पर निर्भर है, जो खुद नेकदिल इंसानों को सच्चाई की ओर खींचता है। यह बात पौलुस ने बड़े सुंदर शब्दों में कही: “मैं ने लगाया, अपुल्लोस ने सींचा, परन्तु परमेश्‍वर ने बढ़ाया।”—1 कुरिन्थियों 3:6.

22. मसीही सेवकाई में पूरी तरह हिस्सा लेने से हमें कभी-भी हद-से-ज़्यादा निराश क्यों नहीं होना चाहिए?

22 जी हाँ, परमेश्‍वर के वचन के सिखानेवालों के तौर पर हम जो काम करते हैं, उसमें यहोवा पूरी तरह शामिल है। हमें शायद कभी-कभी ऐसा महसूस हो कि हम सिखाने के काबिल नहीं हैं। लेकिन यह कभी मत भूलिए कि यहोवा ही लोगों को अपने और अपने बेटे की ओर खींचता है। वही अपने वचन, अपनी पवित्र आत्मा और पृथ्वी पर अपने संगठन के ज़रिए हमें योग्य बनाता है ताकि हम उन नए लोगों की मदद कर पाएँ। यहोवा हमें अपने वचन के सिखानेवालों के तौर पर पूरी तरह योग्य बनाने के लिए जो अच्छी बातें सिखा रहा है, उन्हें अमल में लाते हुए आइए हम उसकी तालीम पर चलें!

आप क्या जवाब देंगे?

• बाइबल हमें प्रचार काम के लिए कैसे समर्थ करती है?

• हमें सेवक होने के योग्य बनाने में पवित्र आत्मा की क्या भूमिका है?

• पृथ्वी पर रहनेवाले यहोवा के संगठन ने, सुसमाचार का प्रचारक बनने में किन तरीकों से आपकी मदद की है?

• हम प्रचार में पूरे यकीन के साथ क्यों हिस्सा ले सकते हैं?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 25 पर तसवीर]

यीशु, परमेश्‍वर के वचन का सिखानेवाला था और उसने लोगों के लिए प्यार दिखाया