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क्या आप सचमुच मसीह को अपना अगुवा मानते हैं?

क्या आप सचमुच मसीह को अपना अगुवा मानते हैं?

क्या आप सचमुच मसीह को अपना अगुवा मानते हैं?

“तुम अगुवे न कहलाना, क्योंकि तुम्हारा एक ही अगुवा है, अर्थात्‌ मसीह।”मत्ती 23:10, NHT.

1. सिर्फ कौन सच्चे मसीहियों का अगुवा है?

 वह निसान 11, मंगलवार का दिन था। तीन दिन बाद यीशु मसीह को मारा जानेवाला था। मंदिर में उसका यह आखिरी दौरा था। उस दिन वहाँ इकट्ठी भीड़ और चेलों को यीशु ने एक अहम शिक्षा दी। उसने कहा: “तुम ‘रब्बी’ न कहलाना, क्योंकि तुम्हारा एक ही गुरु है और तुम सब भाई हो। पृथ्वी पर किसी को अपना पिता न कहना, क्योंकि तुम्हारा एक ही पिता है, जो स्वर्ग में है। तुम अगुवे न कहलाना, क्योंकि तुम्हारा एक ही अगुवा है, अर्थात्‌ मसीह।” (मत्ती 23:8-10, NHT) इससे साफ पता चलता है कि यीशु मसीह ही, सच्चे मसीहियों का अगुवा है।

2, 3. यहोवा की सुनने और उसके ठहराए हुए प्रधान को स्वीकार करने से हमारे जीवन पर क्या असर पड़ता है?

2 जब हम यीशु को अपना अगुवा मानते हैं तो हमारे जीवन पर क्या ही बेहतरीन असर पड़ता है! यहोवा परमेश्‍वर ने भविष्यवक्‍ता यशायाह के ज़रिए भविष्य में आनेवाले अगुवे के बारे में कहा: “अहो सब प्यासे लोगों, पानी के पास आओ; और जिनके पास रुपया न हो, तुम भी आकर मोल लो और खाओ! दाखमधु और दूध बिन रुपए और बिना दाम ही आकर ले लो। . . . मेरी ओर मन लगाकर सुनो, तब उत्तम वस्तुएं खाने पाओगे और चिकनी चिकनी वस्तुएं खाकर सन्तुष्ट हो जाओगे। . . . सुनो, मैं ने उसको राज्य राज्य के लोगों के लिये साक्षी और प्रधान और आज्ञा देनेवाला ठहराया है।”—यशायाह 55:1-4.

3 यशायाह ने पानी, दूध और दाखमधु जैसे आम पदार्थों की उपमा देकर यह दिखाया कि जब हम यहोवा की सुनते हैं और उसके ठहराए प्रधान और आज्ञा देनेवाले की मानते हैं तो उसका हम पर कैसा असर होता है। जैसे चिलचिलाती धूप में एक गिलास ठंडा पानी पीने से ताज़गी मिलती है, उसी तरह सच्चाई और धार्मिकता के लिए हमारी प्यास बुझती है। दूध पीने से बच्चों को ताकत मिलती है, साथ ही यह उसे बढ़ने में मदद देता है। उसी तरह, “आत्मिक दूध” हमें शक्‍ति देता है साथ ही परमेश्‍वर के साथ हमारे रिश्‍ते को मज़बूत करता है। (1 पतरस 2:1-3) और इस बात को कौन नकार सकता है कि पर्वों पर दाखमधु पीने से आनंद मिलता है? उसी तरह सच्चे परमेश्‍वर की उपासना करने और उसके नियुक्‍त किए हुए प्रधान के पदचिन्हों पर चलने से ज़िंदगी में ‘आनंद ही’ मिलेगा। (व्यवस्थाविवरण 16:15) इसलिए यह कितना ज़रूरी कि हम सब, जवान और बूढ़े, स्त्री और पुरुष यह ज़ाहिर करें कि हम सचमुच मसीह को अपना अगुवा मानते हैं। लेकिन हम अपने रोज़ाना के कामों से इसे कैसे दिखा सकते हैं?

जवानो—‘बुद्धि में बढ़ते’ जाओ

4. (क) बारह साल की उम्र में जब यीशु, फसह के समय यरूशलेम गया तो क्या घटना घटी? (ख) यीशु जब सिर्फ 12 साल का था तब उसके पास कितना ज्ञान था?

4 ध्यान दीजिए कि हमारे अगुवे ने जवानों के लिए कैसी मिसाल रखी। हालाँकि यीशु के बचपन के बारे में ज़्यादा कुछ बताया नहीं गया है, मगर एक घटना से हम काफी कुछ जान सकते हैं। जब यीशु 12 साल का था तो उसके माता-पिता हर साल की तरह, फसह के लिए उसे अपने साथ यरूशलेम ले गए थे। इस अवसर पर वह आध्यात्मिक चर्चा में बहुत मशगूल था और अनजाने में उसका परिवार उसे छोड़कर आगे निकल गया। तीन दिन से परेशान उसके माता-पिता, यूसुफ और मरियम ने आखिर में “उसे मन्दिर में उपदेशकों के बीच में बैठे, उन की सुनते और उन से प्रश्‍न करते हुए पाया।” यही नहीं, “जितने उस की सुन रहे थे, वे सब उस की समझ और उसके उत्तरों से चकित थे।” ज़रा सोचिए, सिर्फ 12 साल की उम्र में यीशु के पास न सिर्फ आध्यात्मिक मामलों में सोचने पर मजबूर कर देनेवाले सवाल पूछने की काबिलीयत थी बल्कि उसने उनका सोच-समझकर जवाब भी दिया! बेशक इस तरह की शिक्षा देने में यीशु के माता-पिता का बहुत बड़ा हाथ था।—लूका 2:41-50.

5. जवान कैसे जाँच सकते हैं कि पारिवारिक बाइबल अध्ययन के प्रति उनका नज़रिया कैसा है?

5 शायद आप एक जवान हों। अगर आपके माता-पिता परमेश्‍वर के समर्पित सेवक हैं तो ज़रूर आपके घर में नियमित रूप से पारिवारिक अध्ययन होता होगा। पारिवारिक अध्ययन के प्रति आपका नज़रिया कैसा है? क्यों न आप खुद से ये सवाल पूछें: ‘क्या मैं दिल से परिवार में होनेवाले बाइबल अध्ययन के इंतज़ाम का समर्थन करता हूँ? क्या मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करता हूँ कि अध्ययन के लिए तय किए गए समय में किसी तरह की बाधा न आए?’ (फिलिप्पियों 3:16) ‘क्या मैं अध्ययन में जोश के साथ हिस्सा लेता हूँ? ज़रूरत पड़ने पर क्या अध्ययन किए जा रहे विषय के बारे में कोई सवाल पूछता हूँ और फिर उसे कैसे लागू किया जा सकता है, क्या उसके बारे में टिप्पणी करता हूँ? जैसे-जैसे मैं आध्यात्मिक रूप से उन्‍नति करता हूँ तो क्या मैं, जो “अन्‍न सयानों के लिये है,” उसकी भूख पैदा करता हूँ?’—इब्रानियों 5:13, 14.

6, 7. रोज़ाना बाइबल पढ़ने से जवानों को कैसे लाभ हो सकता है?

6 रोज़ाना बाइबल पढ़ने से भी लाभ मिलते हैं। भजनहार ने गाया: “क्या ही धन्य है वह पुरुष जो दुष्टों की युक्‍ति पर नहीं चलता, . . . परन्तु वह तो यहोवा की व्यवस्था से प्रसन्‍न रहता; और उसकी व्यवस्था पर रात दिन ध्यान करता रहता है।” (भजन 1:1, 2) मूसा का उत्तराधिकारी यहोशू, ‘व्यवस्था की पुस्तक पर रात दिन ध्यान देता था।’ इसी वजह से वह बुद्धिमानी से काम कर पाया और परमेश्‍वर की तरफ से सौंपे गए काम को अच्छी तरह पूरा कर पाया। (यहोशू 1:8) हमारे अगुवे, यीशु मसीह ने कहा: “लिखा है कि मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्‍वर के मुख से निकलता है जीवित रहेगा।” (मत्ती 4:4) अगर हमें रोज़ाना भोजन की ज़रूरत पड़ती है तो नियमित तौर पर आध्यात्मिक भोजन की हमें और भी ज़रूरत है!

7 तेरह साल की निकॊल को जब अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत का एहसास हुआ तो उसने रोज़ाना बाइबल पढ़ना शुरू कर दिया। * अब वह 16 साल की है और उसने पूरी बाइबल पढ़ डाली और दूसरी बार भी आधी बाइबल पढ़ चुकी है। उसका पढ़ने का तरीका एकदम आसान है। वह कहती है: “मैंने ठान लिया है कि हर दिन मैं कम-से-कम एक अध्याय ज़रूर पढ़ूँगी।” रोज़ाना बाइबल पढ़ने से उसे कैसी मदद मिली है? वह जवाब देती है: “आजकल चारों तरफ दुनिया का माहौल बहुत बुरा है। मुझे स्कूल और दूसरी जगहों में हर दिन कई दबावों का सामना करना पड़ता था जो मेरे विश्‍वास को तोड़ने की कोशिश करते। रोज़ाना बाइबल पढ़ने से मैं उसमें दी गयी आज्ञाओं और सिद्धांतों को तुरंत याद कर पाती हूँ जिनसे मुझे इन दबावों का डटकर सामना करने की हिम्मत मिलती है। इस तरह मैं खुद को यहोवा और यीशु के और भी करीब महसूस करती हूँ।”

8. आराधनालय के मामले में यीशु की क्या रीति थी, और जवान उसकी मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?

8 आराधनालय में शास्त्रवचन को पढ़ना और सुनना यीशु की रीति थी। (लूका 4:16; प्रेरितों 15:21) अगर नौजवान उसकी मिसाल पर चलते हुए नियमित तौर पर सभाओं में हाज़िर होंगे जहाँ बाइबल को पढ़ने के साथ-साथ उसका अध्ययन किया जाता है, तो उन्हें क्या ही लाभ मिलेंगे! ऐसी सभाओं के लिए कदर ज़ाहिर करते हुए 14 साल के रिचर्ड ने कहा: “ये सभाएँ मेरे लिए अनमोल हैं। इन सभाओं में मुझे बार-बार याद दिलाया जाता है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा, क्या नैतिक है और क्या अनैतिक, क्या मसीह के योग्य है और क्या नहीं। ये सारी बातें मुझे ठोकर खाकर सीखने की ज़रूरत नहीं।” जी हाँ, “यहोवा के नियम [“चितौनियाँ,” NW] विश्‍वासयोग्य हैं, साधारण लोगों को बुद्धिमान बना देते हैं।” (भजन 19:7) निकॊल भी हर हफ्ते कलीसिया की पाँचों सभाओं में हाज़िर होने की पूरी कोशिश करती है। इतना ही नहीं, वह इन सभाओं की तैयारी में 2 से 3 घंटे बिताती है।—इफिसियों 5:15,16.

9. जवान लोग कैसे ‘बुद्धि में बढ़ते’ जा सकते हैं?

9 जवानों के पास ‘अद्वैत सच्चे परमेश्‍वर और उसके भेजे हुए, यीशु मसीह के बारे में ज्ञान लेने’ का यही बढ़िया मौका है। (यूहन्‍ना 17:3) आप शायद ऐसे नौजवानों को जानते होंगे जो अपना काफी समय कॉमिक्स पढ़ने, टी.वी. देखने, वीडियो गेम्स खेलने और इंटरनॆट का इस्तेमाल करने पर बिताते हैं। हम अपने अगुवे के सिद्ध आदर्श पर चलने के बजाय ऐसे लोगों की नकल क्यों करें? जब यीशु बालक ही था तब उसने यहोवा के बारे में सीखने में खुशी पायी। और इसका नतीजा क्या हुआ? आध्यात्मिक बातों से लगाव होने की वजह से ‘यीशु बुद्धि में बढ़ता गया।’ (लूका 2:52) आप भी ऐसा कर सकते हैं।

“एक दूसरे के आधीन रहो”

10. किस बात से परिवार में शांति और खुशी बढ़ती है?

10 घर, सुख-शांति और खुशी का आशियाना हो सकता है या फिर लड़ाई का मैदान। (नीतिवचन 21:19; 26:21) यीशु मसीह को अपना अगुवा मानने से परिवार में शांति और खुशी बढ़ती है। परिवार में रिश्‍ते कैसे होने चाहिए इस मामले में भी यीशु ने एक मिसाल रखी। शास्त्र बताता है: “मसीह के भय से एक दूसरे के आधीन रहो। हे पत्नियो, अपने अपने पति के ऐसे आधीन रहो, जैसे प्रभु के। क्योंकि पति पत्नी का सिर है जैसे कि मसीह कलीसिया का सिर है; और आप ही देह का उद्धारकर्त्ता है। . . . हे पतियो, अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखो, जैसा मसीह ने भी कलीसिया से प्रेम करके अपने आप को उसके लिये दे दिया।” (इफिसियों 5:21-25) कुलुस्से की कलीसिया को प्रेरित पौलुस ने लिखा: “हे बालको, सब बातों में अपने अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करो, क्योंकि प्रभु इस से प्रसन्‍न होता है।”—कुलुस्सियों 3:18-20.

11. किस तरह एक पति दिखा सकता है कि वह सचमुच मसीह को अपना अगुवा मानता है?

11 इस सलाह को मानने का मतलब है कि पति, परिवार की बागडोर सँभालता है और पत्नी उसके अधीन रहकर वफादारी से उसका साथ देती है। और बच्चे अपने माता-पिता का कहना मानते हैं। पति का मुखियापन, परिवार में तभी खुशी ला सकता है जब उसे सही तरीके से निभाया जाता है। और एक बुद्धिमान पति वही है जो मुखियापन के मामले में अपने सिर और अगुवे, यीशु मसीह के आदर्श पर चले। (1 कुरिन्थियों 11:3) हालाँकि बाद में यीशु को “सब चीज़ों का सरदार बना कर कलीसिया को दे दिया” गया मगर वह धरती पर “इसलिये नहीं आया कि उस की सेवा टहल किई जाए, परन्तु इसलिये आया कि आप सेवा टहल करे।” (इफिसियों 1:22, हिन्दुस्तानी बाइबल; मत्ती 20:28) ठीक उसी तरह एक मसीही पति, अपने स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि अपनी पत्नी और अपने बच्चों के लिए, जी हाँ, पूरे परिवार की भलाई के लिए अपना मुखियापन दिखाता है। (1 कुरिन्थियों 13:4, 5) वह अपने सिर, यीशु मसीह के ईश्‍वरीय गुणों को अपनाने की कोशिश करता है। यीशु की तरह वह भी नम्र और मन में दीन होता है। (मत्ती 11:28-30) इसलिए जब उससे कोई गलती होती है तो उसके लिए यह कहना मुश्‍किल नहीं होता है कि “मुझे माफ कर दो” या “आप सही हो।” उसकी अच्छी मिसाल की वजह से पत्नी, खुशी-खुशी अपने पति का “मेल” खानेवाली “सहायक” और “संगिनी” बनकर उससे सीखेगी और उसके साथ-साथ काम करेगी।—उत्पत्ति 2:20; मलाकी 2:14.

12. अपने पति के खुशी-खुशी अधीन रहने में कौन-सी बात पत्नी की मदद करेगी?

12 पत्नी अपने पति के अधीन रहकर अपना फर्ज़ निभाती है। लेकिन अगर वह संसार की तरह सोचने लग जाए तो मुखियापन के उसूल का उसके लिए कोई मतलब नहीं रह जाएगा और अपने पति के अधीन रहना उसे नहीं भाएगा। शास्त्र यह नहीं कहता कि पतियों को अपनी पत्नी पर रौब जमाना चाहिए, मगर पत्नियों से अपने पति के अधीन रहने की माँग ज़रूर करता है। (इफिसियों 5:24) बाइबल, पति या पिता से माँग करती है कि वे परिवार में अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करें और जब वे इस सलाह को मानकर चलते हैं तो परिवार की सुख-शांति बनी रहती है।—फिलिप्पियों 2:5.

13. अधीन रहने के मामले में यीशु ने बच्चों के लिए कौन-सी मिसाल कायम की?

13 बच्चों को भी अपने माता-पिता का कहना मानना चाहिए। इस बारे में यीशु ने बेहतरीन मिसाल कायम की। बारह साल की उम्र में जब वह तीन दिन के लिए मंदिर में छूट गया था, उसके बाद “वह [अपने माता-पिता] के साथ गया, और नासरत में आया, और उन के वश में [“अधीन,” NHT] रहा।” (लूका 2:51) बच्चे अगर माता-पिता के अधीन रहते हैं तो इससे परिवार की शांति और एकता बनी रहती है। और जब परिवार में हर कोई मसीह के अधीन रहता है तो वह परिवार, एक सुखी परिवार बनता है।

14, 15. घर में मुश्‍किल हालात का सामना करने में कौन-सी बात मदद कर सकती है? एक उदाहरण दीजिए।

14 जब कभी परिवार में मुश्‍किल हालात पैदा हो जाते हैं तो उसे हल करने का सही-सही उपाय है, यीशु की मिसाल पर चलना और उसके मार्गदर्शन को स्वीकार करना। उदाहरण के लिए, 35 साल के जॆरी ने लाना से शादी की जो एक किशोर लड़की की माँ थी। उनकी शादी से ऐसी समस्या खड़ी हो गयी जिसके बारे में उन्होंने सोचा भी नहीं था। जॆरी समझाता है: “मैं जानता था कि एक अच्छा मुखिया बनने के लिए मुझे बाइबल के उन्हीं सिद्धांतों को लागू करना है, जिनसे बाकी के परिवार खुशहाल बनते हैं। मगर मैं जल्द ही समझ गया कि उन सिद्धांतों को लागू करने में मुझे और भी बुद्धि और परख-शक्‍ति की ज़रूरत है।” उसकी सौतेली बेटी को लगा कि यह इंसान उसके और उसकी माँ के बीच में आ गया है और वह उससे बहुत नफरत करने लगी। यह समझने के लिए जॆरी को परख-शक्‍ति की ज़रूरत थी कि उसकी सौतेली बेटी इसी नफरत की वजह से ठीक से बात नहीं करती और बुरा बर्ताव करती थी। उसने इस समस्या को कैसे सुलझाया? जॆरी कहता है: “लाना और मैंने फैसला किया कि जब तक मैं अपनी सौतेली बेटी के साथ एक अच्छा रिश्‍ता बनाने की कोशिश करता हूँ तब तक उसे अनुशासन देने की ज़िम्मेदारी लाना की होगी। समय बीतने पर इस तरीके से अच्छे नतीजे निकले।”

15 जब घर में कठिन परिस्थितियाँ खड़ी हो जाती हैं तो यह जानने के लिए हमें परख-शक्‍ति का इस्तेमाल करना होगा कि परिवार के लोगों के इस तरह से बोलने और व्यवहार करने के पीछे आखिर वजह क्या है। और परमेश्‍वर के उसूलों को सही तरीके से अपने जीवन में लागू करने में भी हमें बुद्धि की ज़रूरत है। मिसाल के तौर पर, यीशु अच्छी तरह समझ गया था कि आखिर एक स्त्री जिसे लहू बहने का रोग था, उसने उसे क्यों छुआ, और बुद्धिमानी दिखाते हुए यीशु उस स्त्री के साथ प्यार और दया से पेश आया। (लैव्यव्यवस्था 15:25-27; मरकुस 5:30-34) बुद्धि और परख-शक्‍ति हमारे अगुवे की खासियतें हैं। (नीतिवचन 8:12) अगर हम उसके जैसा बनेंगे तो हम खुश रहेंगे।

‘पहिले राज्य की खोज करो’

16. हमें अपनी ज़िंदगी में किसे पहला स्थान देना चाहिए, और यीशु ने अपने उदाहरण से यह कैसे दिखाया?

16 यीशु ने साफ-साफ बताया कि अगर हम उसको अपना अगुवा मानते हैं तो हमें अपनी ज़िंदगी में किसे पहला स्थान देना चाहिए। उसने कहा: “परन्तु तुम पहले परमेश्‍वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज में लगे रहो।” (मत्ती 6:33, NHT) और अपनी मिसाल से उसने दिखाया कि हम यह कैसे कर सकते हैं। अपने बपतिस्मे के बाद यीशु ने 40 दिन तक उपवास, मनन और प्रार्थना की। उसके बाद यीशु के सामने प्रलोभन आया। शैतान या इब्‌लीस ने उसे “सारे जगत के राज्य” देने की पेशकश की। ज़रा सोचिए अगर यीशु ने शैतान का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होता तो वह इन सब चीज़ों का मालिक होता! लेकिन मसीह परमेश्‍वर की इच्छा पूरी करने का अपना मकसद नहीं भूला। उसे इस बात का भी एहसास था कि शैतान के संसार में इस तरह का जीवन बस पल भर का है। उसने तुरंत शैतान का प्रस्ताव यह कहते हुए ठुकरा दिया: “लिखा है, कि तू प्रभु अपने परमेश्‍वर को प्रणाम कर, और केवल उसी की उपासना कर।” उसके थोड़े ही समय बाद यीशु ने “प्रचार करना और यह कहना आरम्भ किया, कि मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है।” (मत्ती 4:2, 8-10, 17) पृथ्वी पर अपने बाकी के जीवन का एक-एक लम्हा, यीशु ने परमेश्‍वर के राज्य का प्रचार करने में बिताया।

17. हम कैसे दिखा सकते हैं कि राज्य के कामों का हमारी ज़िंदगी में पहला स्थान है?

17 हमें भी अपने अगुवे के नक्शेकदम पर चलना चाहिए और मोटी तनख्वाहवाली नौकरी और करियर को अपनी ज़िंदगी में पहला स्थान देकर शैतान के संसार के प्रलोभन में नहीं फँसना चाहिए। (मरकुस 1:17-21) यह कितनी मूर्खता की बात होगी कि हम सांसारिक काम-धंधों में फँसकर राज्य के कामों को दूसरा स्थान देने लगें! यीशु ने हमें राज्य का प्रचार करने और चेला बनाने की ज़िम्मेदारी सौंपी है। (मत्ती 24:14; 28:19, 20) जी हाँ, हमारे सामने परिवार की देखभाल करना या दूसरी ज़िम्मेदारियाँ भी हो सकती हैं मगर क्या हम शाम के वक्‍त और शनिवार-रविवार के दिन, प्रचार करने और सिखाने की मसीही ज़िम्मेदारी निभाने से खुश नहीं हैं? और यह देखकर हमें कितना हौसला मिलता है कि 2001 के सेवा साल के दौरान करीब 7,80,000 लोग, पूरे समय के सेवक या पायनियर के तौर पर सेवा कर सके!

18. सेवकाई में खुशी पाने में क्या बात हमारी मदद करेगी?

18 सुसमाचार की किताब में लिखे वृत्तांत से पता चलता है कि यीशु एक जोशीला इंसान था, साथ ही उसके दिल में दूसरों के लिए प्यार और दया थी। जब उसने देखा कि लोगों को आध्यात्मिक मदद की ज़रूरत है तो उसे उन पर तरस आया और बड़ी उत्सुकता से उनकी मदद करने के लिए आगे बढ़ा। (मरकुस 6:31-34) अगर हमारे अंदर भी दूसरों के लिए प्यार हो और सच्चे दिल से उनकी मदद करने की इच्छा हो तो सेवकाई में हमारी खुशी बढ़ जाती है। लेकिन हम ऐसी इच्छा कैसे पैदा कर सकते हैं? जॆसन नाम का एक जवान कहता है: “जब मैं किशोर था, तब मुझे प्रचार में जाना कुछ खास पसंद नहीं था।” तो फिर किस बात ने उसे इस काम के लिए प्यार पैदा करने में मदद की? जॆसन जवाब देता है: “मेरे परिवार के सभी लोग हर शनिवार की सुबह सेवकाई में जाते थे। यह मेरे लिए बहुत मददगार साबित हुआ क्योंकि जितना ज़्यादा मैं सेवकाई में हिस्सा लेता हूँ, उतना ही मैं देख पाता हूँ कि मेरी सेवकाई से क्या फल मिल रहा है और इस वजह से सेवकाई में मेरी खुशी बढ़ती जाती है।” आइए हम भी नियमित रूप से सेवकाई में मेहनत करें।

19. मसीह को अपना अगुवा मानने के सिलसिले में हमें क्या ठान लेना चाहिए?

19 सचमुच, मसीह को अपना अगुवा मानने से हम तरो-ताज़ा होते हैं और हमें आशीष मिलती है। जब हम अपनी जवानी के समय ऐसा करते हैं तो हम ज्ञान और बुद्धि में बढ़ते जाते हैं। परिवार, खुशी और शांति का आशियाना बन जाता है और अपनी सेवकाई से हमें आनंद और संतुष्टि मिलती है। तो आइए हम यह ठान लें कि हम अपने जीने के तरीके और फैसलों से यह साबित कर दें कि हमने सचमुच मसीह को अपना अगुवा माना है। (कुलुस्सियों 3:23, 24) यीशु मसीह ने हमारी अगुवाई करने के लिए एक और तरीके का इंतज़ाम किया है और वह है, मसीही कलीसिया। अगला लेख आपको बताएगा कि हम इस इंतज़ाम से कैसे फायदा उठा सकते हैं।

[फुटनोट]

^ कुछ नाम बदल दिए गए हैं।

क्या आपको याद है?

• परमेश्‍वर के ठहराए हुए अगुवे की बातों को मानने से हमें क्या लाभ होते हैं?

• जवान कैसे दिखा सकते हैं कि वे यीशु को अपना अगुवा मानकर चलना चाहते हैं?

• जो मसीह की अगुवाई के अधीन रहते हैं, इसका उनके परिवार पर कैसा असर होता है?

• हम अपनी सेवकाई से कैसे दिखाते हैं कि हमने सचमुच मसीह को अपना अगुवा माना है?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 9 पर तसवीरें]

परमेश्‍वर और हमारे ठहराए हुए अगुवे के बारे में ज्ञान लेने की सबसे बढ़िया उम्र जवानी होती है

[पेज 10 पर तसवीर]

मसीह को अपना अगुवा मानने और उसके अधीन रहने से परिवार में खुशियाँ बढ़ती हैं

[पेज 12 पर तसवीरें]

यीशु ने राज्य को पहला स्थान दिया। क्या आप भी ऐसा करते हैं?