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परमेश्‍वर की भक्‍ति करने की आशीषें

परमेश्‍वर की भक्‍ति करने की आशीषें

जीवन कहानी

परमेश्‍वर की भक्‍ति करने की आशीषें

विलियम आइहिनोरीआ की ज़ुबानी

एक दिन आधी रात को अपने पिता के कराहने की आवाज़ सुनकर मेरी नींद टूट गयी। वे अपना पेट पकड़कर ज़मीन पर लोट रहे थे। ऐसा उन्हें अकसर होता था। मेरी माँ, बड़ी बहन और मैं उनके पास दौड़े। जब दर्द कुछ कम हुआ तो वे उठकर बैठे और गहरी साँस लेते हुए उन्होंने कहा: “इस दुनिया में सिर्फ यहोवा के साक्षियों को ही चैन है।” उनकी यह बात भले ही मेरे पल्ले नहीं पड़ी, मगर इसका मेरे दिल पर गहरा असर हुआ क्योंकि पहली बार मैंने यहोवा के साक्षियों के बारे सुना। मैं सोचने लगा कि पिताजी की बात का मतलब क्या हो सकता है।

यह वाकया सन्‌ 1953 में हुआ, जब मैं सिर्फ छः साल का था। मेरा परिवार मध्य-पश्‍चिमी नाइजीरिया के ईवोसा गाँव में रहता था, जहाँ के लोग खेती-बाड़ी करते हैं। पिताजी ने तीन शादियाँ कीं और उनके कुल मिलाकर 13 बच्चे हुए। मैं घर का दूसरा बच्चा था, मगर लड़कों में सबसे बड़ा मैं ही था। हम सब दादा की झोंपड़ी में रहते थे जिसकी छत, छप्पर की और दीवारें मिट्टी की बनी थीं और उसमें चार कमरे थे। हमारे घर-परिवार में मेरी दादी, तीन चाचा और उनके परिवार भी शामिल थे।

मेरा बचपन बड़ी तकलीफों में गुज़रा। इसकी खास वजह थी पिताजी का हमेशा बीमार रहना। बरसों से उनके पेट में बुरी तरह दर्द उठता था जिसने कई सालों बाद उनकी मौत तक उन्हें तड़पाया। अफ्रीका के किसान परिवार से होने के नाते, जितना हमसे बन पड़ता था हमने उतना उनके इलाज में खर्च किया। हमने उन्हें जड़ी-बूटियों से बनी दवाइयाँ खिलायीं और फिर उनका पारंपरिक तरीके से इलाज भी करवाया। इतना करने के बावजूद, न उनके पेट के दर्द की वजह का कुछ पता चला, ना ही उस पर किसी इलाज का कोई असर हुआ। हमारी कई रातें तो उनके पास बैठकर रोने में बीत जाती थी, क्योंकि पिताजी दर्द के मारे ज़मीन पर लोटते रहते थे और उनका दर्द सुबह तक रुकने का नाम नहीं लेता। अपनी बीमारी का इलाज ढूँढ़ने के लिए पिताजी अकसर माँ के साथ जगह-जगह जाते थे और मेरी और मेरे छोटे भाई-बहनों की देखभाल हमारी दादी करती थी।

हमारे परिवार का गुज़ारा, तरालू, कैसावा और कोला बीज की खेती और उनकी बिक्री से होता था। और इस कम आमदनी में कुछ इज़ाफा करने के लिए हम थोड़ा बहुत रबड़ के पेड़ छेवने का काम भी करते थे। हमारा मुख्य भोजन, तरालू था। हम सुबह नाश्‍ते में तरालू खाते, दोपहर को कूटा हुआ तरालू और रात को भी तरालू खाते थे। कभी-कभी जब हमें भुने हुए केले खाने को मिलते तो हमारा ज़ायका बदलता।

पूर्वजों की पूजा करना हमारी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा था। परिवार के लोग, पूर्वजों को भोग चढ़ाने के लिए, कुछ लकड़ियों के सामने भोजन रखते थे, जिन पर बहुत ही चमकीले रंग की सीपियाँ बंधी होती थीं। पिताजी दुष्टात्माओं और डायनों को दूर रखने के लिए एक मूरत की पूजा भी करते थे।

जब मैं पाँच साल का था, तब हम कुछ समय के लिए अपने गाँव से 11 किलोमीटर दूर खेती-बाड़ी के लिए लगाए एक शिविर में बस गए। पिताजी पहले ही पेट की बीमारी की वजह से तकलीफ झेल रहे थे, ऊपर से वहाँ जाकर उन्हें नहरुआ की बीमारी लग गयी जिससे उनकी हालत और भी बिगड़ गयी। अब वे ना तो दिन में काम कर सकते थे, ना ही रात को सो सकते, क्योंकि पेट-दर्द से वे तड़पते रहते थे। मुझे भी जिग्गर या बालू पिस्सू की बीमारी लग गयी जो एक किस्म का टाइफस बुखार है। इसका नतीजा यह हुआ कि हमें खाने, कपड़े और पैसों की तंगी हो गयी और हमें अपने गुज़ारे के लिए अपने करीबी रिश्‍तेदारों पर निर्भर होना पड़ा। हमने सोचा कि इस तरह के बदतर हालत और गरीबी में मरने से तो अच्छा है कि हम अपने गाँव ईवोसा लौट जाएँ और हमने वही किया। घर का बड़ा बेटा होने के नाते मेरे पिता चाहते थे कि मैं गरीबी में मर-मर के गुज़ारा करनेवाला एक किसान न बनकर कुछ और बनूँ। उन्होंने सोचा कि अगर मैं अच्छी शिक्षा हासिल कर लूँ, तो मैं अपने घर की हालत सुधारने के काबिल हो जाऊँगा और अपने छोटे भाई-बहनों की परवरिश भी अच्छी तरह कर पाऊँगा।

अलग-अलग धर्मों के बारे में जानना

मैंने गाँव के स्कूल में अपनी पढ़ाई शुरू कर दी। और इस तरह मैं ईसाईजगत के धर्मों से भी वाकिफ होने लगा। सन्‌ 1950 के दशक में, पश्‍चिमी शिक्षा और उस दौरान राज करनेवाली विदेशी सरकार के धर्म में कोई ज़्यादा फर्क नहीं था। मैं जिस प्राथमिक स्कूल में पढ़ता था, उसे कैथोलिक धर्म माननेवाले चलाते थे, इसलिए मुझे भी रोमन कैथोलिक धर्म अपनाना पड़ा।

सन्‌ 1966 में, जब मैं 19 साल का हुआ, तो मैंने पिलग्रिम बैप्टिस्ट सेकेंडरी स्कूल में दाखिला लिया, जो ईवोसा से करीब 8 किलोमीटर दूर ईवोहिन्मी शहर में था। वहाँ मुझे अलग धर्म के बारे में सिखाया जाने लगा। मैं अब प्रोटेस्टेंट स्कूल में पढ़ रहा था, इसलिए कैथोलिक पादरी ने मुझे रविवार के मिस्सा में भाग लेने की इजाज़त नहीं दी।

बैप्टिस्ट स्कूल में ही पहली बार मुझे बाइबल पढ़ने का मौका मिला। हालाँकि मैंने कैथोलिक चर्च जाना बंद नहीं किया, मगर हर रविवार चर्च से आने के बाद मैं बाइबल पढ़ता था। यीशु मसीह की शिक्षाएँ मेरे दिल को छू गयीं और मेरे अंदर परमेश्‍वर की भक्‍ति के साथ ज़िंदगी जीने की तमन्‍ना जागी जिसका कोई मतलब हो। मैं जितना ज़्यादा बाइबल पढ़ता, उतना ही मुझे कुछ धार्मिक अगुवों के ढोंग और गिरजों के ज़्यादातर सदस्यों की अनैतिकता से घिन आने लगती। मैंने देखा कि यीशु और उसके चेलों ने जो सिखाया और किया, उसमें और मसीही कहलानेवाले लोगों के कामों और शिक्षा में ज़मीन-आसमान का फर्क था।

फिर कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं जिन्होंने मुझे पूरी तरह झकझोरकर रख दिया। एक बार मैं रोज़री या जप माला खरीदने एक दुकान पर गया, जहाँ गिरजा में इस्तेमाल होनेवाली चीज़ें बिकती हैं, तो वहाँ मैंने देखा कि दरवाज़े की चौखट पर जू-जू का तावीज़ लटका हुआ है। दूसरी घटना में तो बैप्टिस्ट स्कूल के प्रिंसिपल ने मेरे साथ लैंगिक दुर्व्यवहार करने की कोशिश की। बाद में मुझे पता चला कि वह समलिंगी था और उसने दूसरों के साथ भी लैंगिक दुर्व्यवहार किया था। मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘क्या परमेश्‍वर उन धर्मों को पसंद करता है जिनके सदस्य, यहाँ तक कि उनके अगुवे भी घोर पाप करते हैं, फिर भी उनसे कोई भी हिसाब नहीं लिया जाता?’

एक अलग धर्म चुनना

इन सारी घटनाओं के बावजूद, बाइबल में लिखी बातों के लिए मुझे गहरा लगाव था और मैंने ठान लिया कि मैं इसे पढ़ना जारी रखूँगा। इसी दौरान 15 साल पहले मेरे पिताजी की कही हुई बात पर मैं सोचने लगा: “इस दुनिया में सिर्फ यहोवा के साक्षियों को ही चैन है।” लेकिन मैं उनसे मिलने से डरता था, क्योंकि मेरे स्कूल में ही मैंने देखा कि साक्षियों के बच्चों का मज़ाक उड़ाया जाता था और कभी-कभी उनको सज़ा भी दी जाती थी, क्योंकि वे स्कूल में सुबह के वक्‍त की जानेवाली धार्मिक प्रार्थनाओं में हिस्सा नहीं लेते थे। और उनके कुछ विश्‍वास मुझे बड़े अजीब लगते थे। जैसे कि यह बात मेरे गले नहीं उतरती कि सिर्फ 1,44,000 जन ही स्वर्ग जाएँगे। (प्रकाशितवाक्य 14:3) ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं स्वर्ग जाना चाहता था और मैं यह भी सोचता था कि कहीं स्वर्ग जानेवालों का चुनाव मेरे पैदा होने से पहले ही न खत्म हो गया हो।

यह बात साफ थी कि साक्षियों का चालचलन और रवैया दूसरों से बिलकुल अलग था। वे स्कूल के बाकी बच्चों की तरह अनैतिकता और मार-पीट में बिलकुल हिस्सा नहीं लेते थे। मुझे मानना पढ़ेगा कि जैसे मैंने बाइबल में पढ़ा था कि सच्चे धर्म पर चलनेवालों को संसार से अलग होना चाहिए, यहोवा के साक्षी सचमुच वैसे ही थे।—यूहन्‍ना 17:14-16; याकूब 1:27.

आखिर में, मैंने तय कर लिया कि मैं उनके बारे में और जाँच करूँगा। सितंबर 1969 में मुझे, “सत्य जो अनन्त जीवन की ओर ले जाता है” किताब मिली। उसके अगले महीने एक पायनियर भाई ने मेरे साथ बाइबल अध्ययन शुरू किया। यहोवा के साक्षियों के पूरे समय के सेवकों को पायनियर कहा जाता है। पहले ही अध्ययन से मुझे इतनी प्रेरणा मिली कि मैंने शनिवार की एक रात से सत्य किताब पढ़नी शुरू कर दी और दूसरे दिन दोपहर तक उसे पूरा पढ़ डाला। इसके फौरन बाद, मैंने अपने स्कूल के साथियों को वह बढ़िया बातें बतानी शुरू कर दी जो मैंने उस किताब से पढ़ी थीं। स्कूल के विद्यार्थियों और टीचरों ने सोचा कि अपने नए धर्म की वजह से मेरा दिमाग खराब हो गया है। मगर मुझे पता था कि मैं पागल नहीं हो रहा था।—प्रेरितों 26:24.

मेरे माता-पिता को भी इस बात की खबर मिल गयी कि मैं एक नए धर्म का प्रचार कर रहा हूँ। यह सुनकर उन्होंने फौरन मुझे घर लौटने के लिए कहा ताकि वे पता लगा सकें कि आखिर मेरी परेशानी क्या है। उस वक्‍त, मैं किसी साक्षी के साथ सलाह-मशविरा नहीं कर पाया, क्योंकि सारे साक्षी इलेशा नगर में ज़िला अधिवेशन में गए हुए थे। जब मैं घर लौटा तो मेरी माँ और दूसरे रिश्‍तेदार मुझसे सवाल-पर-सवाल करने लगे और मुझे भला-बुरा कहने लगे। मैं बाइबल से जो सीख रहा था, उसके बारे में मैंने सही तरीके से सफाई पेश करने की पूरी कोशिश की।—1 पतरस 3:15.

आखिर जब वे साबित नहीं कर पाए कि यहोवा के साक्षी गलत सिखाते हैं, तब मेरे चाचा ने दूसरा रास्ता इख्तियार किया। उसने मुझसे तहेदिल से गुज़ारिश की: “याद रखो कि तुम पढ़ाई करने के लिए स्कूल गए हो। अगर तुम पढ़ना छोड़कर प्रचार करने लगे, तो तुम अपनी पढ़ाई कभी पूरी नहीं कर पाओगे। इसलिए पहले तुम अपनी पढ़ाई पूरी कर लो, फिर चाहे तो यह नया धर्म अपना लेना।” उस वक्‍त मुझे उसकी बात सही लगी और मैंने साक्षियों के साथ अध्ययन करना छोड़ दिया।

दिसंबर 1970 में, अपने ग्रैजुएशन के तुरंत बाद मैं सीधे किंगडम हॉल गया, और तब से मैंने यहोवा के साक्षियों की सभाओं में जाना बंद नहीं किया। मैंने अपना जीवन परमेश्‍वर को समर्पित कर दिया और उसे ज़ाहिर करने के लिए अगस्त 30,1971 को बपतिस्मा लिया। इससे न सिर्फ मेरे माता-पिता को, मगर हमारी पूरी बिरादरी को धक्का लगा। उन्होंने कहा कि मैंने उनकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है क्योंकि पूरे ईवोसा गाँव में, मैं वह पहला व्यक्‍ति था जिसे सरकार की तरफ से छात्रवृत्ति मिली थी। कई लोगों ने मेरे लिए क्या-क्या सपने देखे थे। वे आस लगाए हुए थे कि मैं अपनी पढ़ाई की मदद से अपनी बिरादरी में सुधार लाऊँगा।

मेरे धर्म बदलने का अंजाम

मेरे परिवार और बिरादरी के बुज़ुर्गों ने मेरे पास कुछ लोगों को भेजा ताकि मेरा विश्‍वास छोड़ने के लिए मुझे कायल कर सकें। मुझे कायल करने की कोशिश में वे मुझे कोस भी रहे थे। उन्होंने कहा: “अगर तुम इस धर्म को नहीं छोड़ोगे तो तुम्हारा कोई भविष्य नहीं होगा। तुम्हें नौकरी नहीं मिलेगी। तुम्हारा अपना कोई घर नहीं होगा। तुम शादी करके अपना परिवार नहीं बसा पाओगे।”

इन सारी बद-दुआओं का दरअसल उलटा ही असर हुआ। स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के दस महीने बाद, मुझे टीचर की नौकरी मिल गयी। अक्टूबर 1972 में मेरी शादी वॆरोनिका से हो गयी। बाद में, सरकार ने मुझे किसानों को सहकारी समूहों में संगठित करने और उनकी मदद करने की तालीम दी। मैंने अपनी पहली कार खरीदी और खुद का एक घर बनाना शुरू किया। नवंबर 5,1973 को हमारी पहली बेटी, विक्ट्री का जन्म हुआ और उसके बाद लिडीया, विलफ्रड और जोन पैदा हुए। सन्‌ 1986 में, हमारा सबसे छोटा बेटा माइका पैदा हुआ। मेरे बच्चे मुझे बहुत अज़ीज़ हैं, वे वाकई यहोवा से मिले अनमोल वरदान हैं।—भजन 127:3.

जब मैं अपनी बीती ज़िंदगी को याद करता हूँ, तो मैं कह सकता हूँ कि मेरी बिरादरी के लोगों ने मेरा बुरा चाहा मगर मेरे साथ अच्छाई के सिवाय और कुछ नहीं हुआ। इसलिए मैंने अपनी बड़ी बेटी का नाम विक्ट्री रखा जिसका मतलब है, जीत। हाल ही में, मेरी बिरादरी के लोगों ने मुझे खत लिखा जिसमें उन्होंने कहा: “अब जब आपके ऊपर परमेश्‍वर की आशीष है, तो दया करके आप वापस आ जाओ और हमारी बिरादरी की तरक्की में हाथ बँटाओ।”

बच्चों को परमेश्‍वर की राह पर चलना सिखाना

मैं और मेरी पत्नी इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि अगर हम धन-दौलत कमाने में लग जाएँगे, तो इसके साथ-साथ परमेश्‍वर से मिली ज़िम्मेदारी यानी बच्चों की परवरिश करना मुमकिन नहीं। इसलिए हमने सादी ज़िंदगी जीते हुए खुश रहना सीख लिया। हमें लगा कि यह ज़िंदगी, उस ज़िंदगी से बेहतर है जिसके कई बुरे अंजाम भुगतने पड़ते हैं।

हमारे यहाँ कई परिवार एक ही छत के नीचे रहते हैं। आम तौर पर उनका एक ही गुसलखाना, रसोईघर वगैरह, होता है। मगर हमें खुशी है कि एक सरकारी कर्मचारी के तौर पर जिस किसी शहर में मेरा तबादला हुआ, वहाँ हम अलग मकान किराए पर ले पाए। यह सच है कि इसमें खर्च ज़्यादा था, मगर कम-से-कम हमारे बच्चे बुरी सोहबत में तो नहीं पड़े। मैं यहोवा का बहुत शुक्रगुज़ार हूँ कि उसकी बदौलत इतने सालों में हम अपने बच्चों को एक अच्छे आध्यात्मिक माहौल में बड़ा कर पाए हैं।

इसके अलावा, मेरी पत्नी ने फैसला किया कि वह घर पर रहेगी और बच्चों की देखभाल करेगी। जब मैं काम से लौटता हूँ तो हम सब मिलकर काम करने की कोशिश करते हैं। हम जो भी करते हैं मिल-जुलकर, एक टीम की तरह करते हैं। जैसा कि पारिवारिक बाइबल अध्ययन, सभाओं की तैयारी और उनमें हाज़िर होना, मसीही सेवकाई में भाग लेना, साथ ही दूसरों के साथ मिलना-जुलना।

हमने व्यवस्थाविवरण 6:6, 7 की सलाह को मानने की पूरी कोशिश की, जिसमें माता-पिताओं को बढ़ावा दिया गया है कि उन्हें सिर्फ घर पर ही नहीं मगर हर मौके पर अपने बच्चों को सिखाना चाहिए। इसका नतीजा यह हुआ है कि हमारे बच्चों ने बाहर के लोगों के बजाय साक्षियों के साथ अपनी दोस्ती बढ़ाने की कोशिश की है। दोस्तों का चुनाव सोच-समझकर करना उन्होंने हमसे सीखा है, क्योंकि मैं और वॆरोनिका गैर-साक्षियों के साथ ज़्यादा मेल-जोल नहीं रखते हैं।—नीतिवचन 13:20; 1 कुरिन्थियों 15:33.

हमारे बच्चों की ज़िंदगी पर सिर्फ हमारे मार्गदर्शन और शिक्षा का अच्छा असर नहीं हुआ। हमारा घर जोशीले मसीहियों, उनमें से कई यहोवा के साक्षियों के सफरी ओवरसियरों के लिए खुला रहा है और हमेशा खुला रहेगा। इन प्रौढ़ मसीहियों ने हमारे परिवार के साथ जितना वक्‍त बिताया, उसकी वजह से हमारे बच्चे उनको देखकर, त्याग की ज़िंदगी जीने के बारे में सीख पाए हैं। इससे हमारी शिक्षा उनके दिलो-दिमाग में और भी अच्छी तरह बैठ गयी। और बच्चों ने भी बाइबल की सच्चाई को अपना बना लिया।

परमेश्‍वर की भक्‍ति करने से मिली आशीषें

आज मैं, मेरी पत्नी, और हमारे चार बच्चे पूरे समय की सेवा कर रहे हैं। मैंने पहली बार अपनी पायनियर सेवा सन्‌ 1973 से शुरू की थी। पिछले सालों में, आर्थिक समस्याओं की वजह से मुझे बीच-बीच में पूरे समय की सेवा छोड़नी पड़ी है। समय-समय पर मुझे राज्य सेवा स्कूल में सिखाने का भी मौका मिला जो यहोवा के साक्षियों में मसीही ओवरसियर की ज़िम्मेदारी सँभालनेवालों को ट्रेनिंग देने के लिए अयोजित किया जाता है। फिलहाल मैं अस्पताल संपर्क समिति (HLC) का सदस्य हूँ और ऊहोनमोरा शहर का सिटी ओवरसियर भी हूँ।

मेरी पहली दो बेटियों, विक्ट्री और लिडीया की शादी अच्छी मिसाल रखनेवाले प्राचीनों के साथ हुई है और वे खुश हैं। वे दोनों अपने-अपने पति के साथ ईगेडूमा, नाइजीरिया के शाखा दफ्तर में सदस्यों के तौर पर सेवा कर रहे हैं। मेरा बड़ा बेटा, विलफ्रड सहायक सेवक है और छोटा बेटा, माइका समय-समय पर ऑक्ज़लरी पायनियरिंग करता है। सन्‌ 1997 में जोन ने सेकेंडरी स्कूल की पढ़ाई पूरी की और फिर रेग्युलर पायनियरिंग शुरू कर दी।

मुझे ज़िंदगी में कई बढ़िया आशीषें मिली हैं और इनमें से एक है, दूसरे लोगों को यहोवा परमेश्‍वर की सेवा करने में मदद देना। इन लोगों में मेरे कुछ रिश्‍तेदार भी हैं। मेरे पिता ने यहोवा की सेवा करने की कोशिश की, मगर एक-से-ज़्यादा शादी करने का रिवाज़ उनके लिए एक रुकावट बन गया। बचपन से ही मुझे लोगों से खास लगाव है। जब मैं दूसरों को तकलीफें झेलते देखता हूँ तो मुझे लगता है जैसे कि उनके सामने मेरी समस्याएँ कुछ भी नहीं है। और शायद दूसरे लोग भी यह देख सकते हैं कि मैं वाकई उनकी मदद करना चाहता हूँ, इसलिए वे बेझिझक मुझसे बात कर पाते हैं।

मैंने जिन लोगों को परमेश्‍वर के मकसद के बारे में ज्ञान लेने में मदद दी, उनमें से एक जवान लड़का है, जो बिस्तर से उठ नहीं सकता था। वह एक बिजली कंपनी में मज़दूर था, मगर काम के दौरान उसे बिजली का इतना ज़बरदस्त झटका लगा कि छाती से नीचे उसके शरीर को लकवा मार गया। उसने बाइबल अध्ययन करना स्वीकार किया और धीरे-धीरे सिखायी जानेवाली बातें मानने लगा। अक्टूबर 14, 1995 को हमारे घर के पास की एक नदी में उसका बपतिस्मा हुआ। पंद्रह साल में पहली बार उसे अपने बिस्तर से उठाया गया। उसने कहा कि यह उसकी ज़िंदगी का सबसे खुशी का दिन था। वह अब कलीसिया में सहायक सेवक है।

मैं पूरे दावा के साथ कह सकता हूँ कि करीब 30 साल पहले मैंने यहोवा के समर्पित लोगों के साथ एक-जुट होकर उसकी सेवा करने का जो फैसला किया, वह सही था और उससे मुझे कोई पछतावा नहीं। मैंने साक्षियों को अपने कामों के ज़रिए सच्चा प्यार ज़ाहिर करते हुए देखा। अगर यहोवा के वफादार लोगों को हमेशा की ज़िंदगी की आशा न भी होती, तब भी अपनी सारी ज़िंदगी मैं परमेश्‍वर की भक्‍ति में बिताना चाहता। (1 तीमुथियुस 6:6; इब्रानियों 11:6) परमेश्‍वर की भक्‍ति करने से ही मेरी ज़िंदगी को एक दिशा और पक्की बुनियाद मिली। और इससे मुझे, और मेरे परिवार को खुशियाँ और संतोष मिला है।

[पेज 25 पर तसवीर]

सन्‌ 1990 में, अपनी पत्नी और बच्चों के साथ

[पेज 26 पर तसवीर]

अपनी पत्नी, बच्चों और दोनों दामादों के संग